Menus in CSS Css3Menu.com


॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

अन्धकगण जीवितप्राप्तिवर्णनम् -
शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति-प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना -


सनत्कुमार उवाच
ॐ नमस्ते देवेशाय सुरासुरनमस्कृताय भूतभव्यमहादेवाय
हरितपिंगललोचनाय बलाय बुद्धिरूपिणे वैयाघ्रवसनच्छदायारणेयाय
त्रैलोक्यप्रभवे ईश्वराय हराय हरितनेत्राय युगान्तकरणायानलाय
गणेशाय लोकपालाय
महाभुजाय महाहस्ताय शूलिने महादंष्ट्रिणे कालाय महेश्वरायअव्ययाय
कालरूपिणे नीलग्रीवाय महोदराय गणाध्यक्षाय सर्वात्मने सर्वभावनाय
सर्वगाय मृत्युहन्त्रे पारियात्रसुव्रताय ब्रह्मचारिणे वेदान्तगाय तपोन्तगाय
पशुपतये व्यङ्‌गाय शूलपाणये वृषकेतवे हरये जटिने शिखण्डिने लकुटिने
महायशसे भूतेश्वराय गुहावासिने वीणापणवतालवते अमराय दर्शनीयाय
बालसूर्यनिभाय श्मशानवासिने भगवते उमापतये अरिन्दमाय
भगस्याक्षिपातिने पूष्णोर्दशननाशनाय कूरकर्तकाय पाशहस्ताय
प्रलयकालाय उल्कामुखायाग्निकेतवे मुनये दीप्ताय विशाम्पतये उन्नयते
जनकाय चतुर्थकाय लोक सत्तमाय वामदेवाय वाग्दाक्षिण्याय वामतो
भिक्षवे भिक्षुरूपिणे जटिने स्वयञ्जटिलाय शक्रहस्तप्रतिस्तम्भकाय
वसूनां स्तम्भाय क्रतवे क्रतुकराय कालाय मेधाविने मधुकराय चलाय
वानस्पत्याय वाजसनेति समाश्रमपूजिताय जगद्धात्रे जगत्कर्त्रे
पुरुषाय शाश्वताय ध्रुवाय धर्माध्यक्षाय त्रिवर्त्मने भूतभावनाय
त्रिनेत्राय बहुरूपाय सूर्यायुतसमप्रभाय देवाय सर्वतूर्यनिनादिने
सर्वबाधाविमोचनाय बन्धनाय सर्वधारिणे धर्म्मोत्तमाय पुष्पदन्तायाविभागाय
मुखाय सर्वहराय हिरण्यश्रवसे द्वारिणे भीमाय भीमपराक्रमाय ॐनमो नमः ॥
सनत्कुमार उवाच
इमं मन्त्रवरं जप्त्वा शुक्रो जठरपञ्जरात् ।
निष्क्रान्तो लिङ्‌गमार्गेण शम्भोः शुक्रमिवोत्कटम् ॥ १ ॥
[शुक्राचार्यने भगवान् शिवके उदरमें जिस मन्त्रका जप किया था, उस मन्त्रका भावार्थ इस प्रकार है-]
सनत्कुमार बोले-[हे महर्षे] 'ॐ जो देवताओंके स्वामी, सुर-असुद्धारा वन्दित, भूत और भविष्यके महान् देवता, हरे और पीले नेत्रोंसे युक्त, महाबली, बुद्धिस्वरूप, बाघम्बर धारण करनेवाले, अग्निस्वरूप, त्रिलोकीके उत्पत्तिस्थान, ईश्वर, हर, हरिनेत्र, प्रलयकारी, अग्निस्वरूप, गणेश, लोकपाल, महाभुज, महाहस्त, त्रिशूल धारण करनेवाले, बड़ीबड़ी दाढ़ोंवाले, कालस्वरूप, महेश्वर, अविनाशी, कालरूपी, नीलकण्ठ, महोदर, गणाध्यक्ष, सर्वात्मा, सबको उत्पन्न करनेवाले, सर्वव्यापी, मृत्युको हटानेवाले, पारियात्र पर्वतपर उत्तम व्रत धारण करनेवाले, ब्रह्मचारी, वेदान्तप्रतिपाद्य, तपकी अन्तिम सीमातक पहुँचनेवाले, पशुपति, विशिष्ट अंगोंवाले, शूलपाणि, वृषध्वज, पापापहारी, जटाधारी, शिखण्ड धारण करनेवाले, दण्डधारी, महायशस्वी, भूतेश्वर, गुहा में निवास करनेवाले, वीणा और पणवपर ताल लगानेवाले, अमर, दर्शनीय, बालसूर्य-सरीखे रूपवाले, श्मशानवासी, ऐश्वर्यशाली, उमापति, शत्रुदमन, भगके नेत्रोंको नष्ट कर देनेवाले, पूषाके दाँतोंके विनाशक, क्रूरतापूर्वक संहार करनेवाले, पाशधारी, प्रलयकालरूप, उल्कामुख, अग्निकेतु, मननशील, प्रकाशमान, प्रजापति, ऊपर उठानेवाले, जीवोंको उत्पन्न करनेवाले, तुरीयतत्त्वरूप, लोकोंमें सर्वश्रेष्ठ, वामदेव, वाणीकी चतुरतारूप, वाममार्गमें भिक्षुरूप, भिक्षुक, जटाधारी, जटिल-दुराराध्य, इन्द्रके हाथको स्तम्भित करनेवाले, वसऑको विजडित कर देनेवाले, यज्ञस्वरूप, यज्ञकर्ता, काल, मेधावी, मधुकर, चलने फिरनेवाले, वनस्पतिका आश्रय लेनेवाले, वाजसन नामसे सम्पूर्ण आश्रमोद्वारा पूजित, जगद्धाता, जगत्कर्ता, सर्वान्तर्यामी, सनातन, ध्रुव, धर्माध्यक्ष, भू:-भुवः स्वःइन तीनों लोकोंमें विचरनेवाले, भूतभावन, त्रिनेत्र, बहुरूप, दस हजार सूर्योंके समान प्रभाशाली, महादेव, सब तरहके बाजे बजानेवाले, सम्पूर्ण बाधाओंसे विमुक्त करनेवाले, बन्धनस्वरूप, सबको धारण करनेवाले, उत्तम धर्मरूप, पुष्पदन्त, विभागरहित, मुख्यरूप, सबका हरण करनेवाले, सुवर्णके समान दीप्त कीर्तिवाले, मुक्तिके द्वारस्वरूप, भीम तथा भीमपराक्रमी हैं, उन्हें नमस्कार है, नमस्कार है । '-इस श्रेष्ठ मन्त्रका जप करके शिवजीके जठरपंजरसे उनके लिंगमार्गसे उत्कट वीर्यकी भाँति शुक्राचार्य बाहर आये ॥ १ ॥

गौर्या गृहीतः पुत्रार्थं विश्वेशेन ततः कृतः ।
अजरश्चामरः श्रीमान्द्वितीय इव शंकरः ॥ २ ॥
पार्वतीने उन्हें पुत्ररूपमें ग्रहण किया और विश्वेश्वरने उन्हें अजर-अमर एवं ऐश्वर्यमय बनाकर दूसरे शिवके समान कर दिया ॥ २ ॥

त्रिभिर्वर्षसहस्रैस्तु समतीतैर्महीतले ।
महेश्वरात्पुनर्जातः शुक्रो वेदनिधिर्मुनिः ॥ ३ ॥
इस प्रकार तीन हजार वर्ष बीत जानेपर वेदनिधि मुनि शुक्र महेश्वरसे पुनः पृथ्वीपर उत्पन्न हुए ॥ ३ ॥

ददर्श शूले संशुष्कं ध्यायन्तं परमेश्वरम् ।
अन्धकं धैर्यसपंपन्नं दानवेशं तपस्विनम् ॥ ४ ॥
तब उन्होंने शिवके त्रिशूलपर अत्यन्त शुष्क शरीरवाले, महाधैर्यवान् और तपस्वी दानवराज अन्धकको शिवजीका ध्यान करते हुए देखा ॥ ४ ॥

महादेवं विरूपाक्षं चन्द्रार्द्धकृतशेखरम् ।
अमृतं शाश्वतं स्थाणुं नीलकण्ठं पिनाकिनम् ॥ ५ ॥
वृषभाक्षं महाज्ञेयं पुरुषं सर्वकामदम् ।
कामारिं कामदहनं कामरूपं कपर्दिनम् ॥ ६ ॥
विरूपं गिरिशं भीमं स्रग्विणं रक्तवाससम् ।
योगिनं कालदहनं त्रिपुरघ्नं कपालिनम् ॥ ७ ॥
गूढव्रतं गुप्तमन्त्रं गम्भीरं भावगोचरम् ।
अणिमादिगुणाधारं त्रिलोक्यैश्वर्यदायकम् ॥ ८ ॥
वीरं वीरहणं घोरं विरूपं मांसलं पटुम् ।
महामांसादमुन्मत्तं भैरवं वै महेश्वरम् ॥ ९ ॥
त्रैलोक्यद्रावणं लुब्धं लुब्धकं यज्ञसूदनम् ।
कृत्तिकानां सुतैर्युक्तमुन्मत्तं कृत्तिवाससम् ॥ १० ॥
गजकृत्तिपरीधानं क्षुब्धं भुजगभूषणम् ।
दद्यालम्बं च वेतालं घोरं शाकिनिपूजितम् ॥ ११ ॥
अघोरं घोरदैत्यघ्नं घोरघोषं वनस्पतिम् ।
भस्माङ्‌गं जटिलं शुद्धं भेरुण्डशतसेवितम् ॥ १२ ॥
भूतेश्वरं भूतनाथं पञ्चभूताश्रितं खगम् ।
क्रोधितं निष्ठुरं चण्डं चण्डीशं चण्डिकाप्रियम् ॥ १३ ॥
चण्डं तुङ्‌गं गरुत्मन्तं नित्यमासवभोजनम् ।
लेलिहानं महारौद्रं मृत्युं मृत्योरगोचरम् ॥ १४ ॥
मृत्योर्मृत्युं महासेनं श्मशानारण्यवासिनम् ।
रागं विरागं रागान्धं वीतरागशतार्चितम् ॥ १५ ॥
सत्त्वं रजस्तमोधर्ममधर्मं वासवानुजम् ।
सत्यं त्वसत्यं सद्‌रूपमसद्‌रूपमहेतुकम् ॥ १६ ॥
अर्द्धनारीश्वरं भानुं भानुकोटिशतप्रभम् ।
यज्ञं यज्ञपतिं रुद्रमीशानं वरदं शिवम् ॥ १७ ॥
अष्टोत्तरशतं ह्येतन्मूर्तीनां परमात्मनः ।
शिवस्य दानवो ध्यायन् मुक्तस्तस्मान्महाभयात् ॥ १८ ॥
[वह शिवजीके १०८ नामोंका इस प्रकार स्मरण कर रहा था], महादेव, विरूपाक्ष, चन्द्रार्धकृतशेखर अमृत, शाश्वत, स्थाणु, नीलकण्ठ, पिनाकी, वृषभाक्ष, महाजेय, पुरुष, सर्वकामद, कामारि, कामदहन, कामरूप, कपर्दी, विरूप, गिरिश, भीम, स्रग्बी, रक्तवासा, योगी, कालदहन, त्रिपुरन, कपाली, गूढव्रत, गुप्तमन्त्र, गम्भीर, भावगोचर, अणिमादि गुणाधार, त्रिलोकैश्वर्यदायक, वीर, वीरहण, घोर, विरूप, मांसल, पटु, महामांसाद, उन्मत्त, भैरव, महेश्वर, त्रैलोक्यद्रावण, लुब्ध, लुब्धक, यज्ञसूदन, कृत्तिकासुतयुक्त, उन्मत्त, कृत्तिवासा, गजकृत्तिपरीधान, शुब्ध, भुजगभूषण, दत्तालम्ब, वेताल, घोर, शाकिनीपूजित, अघोर, घोर दैत्यम, घोरघोष, वनस्पति, भस्मांग, जटिल, शुद्ध, भेरुण्डशतसेवित, भूतेश्वर, भूतनाथ, पंचभूतावित, खग, क्रोधित, निष्ठुर, चण्ड, चण्डीश, चण्डिकाप्रिय, चण्ड, तुंग, गरुत्मान्, नित्य आसवभोजन, लेलिहान, महारौद्र, मृत्यु, मृत्योरगोचर, मृत्योर्मृत्यु, महासेन, श्मशानारण्यवासी, राग, विराग, रागान्ध, वीतरागशतार्चित, सत्त्व, रज, तम, धर्म, अधर्म, वासवानुज, सत्य, असत्य, सद्रूप, असद्रूप, अहेतुक, अर्धनारीश्वर, भानु, भानुकोटिशतप्रभ, यज्ञ, यज्ञपति, रुद्र, ईशान, वरद और शिवइस प्रकार परमात्मा शिवजीकी इन एक सौ आठ मूर्तियोंका ध्यान करता हुआ वह दैत्य उस महाभयसे मुक्त हो गया ॥ ५-१८ ॥

दिव्येनामृतवर्षेण सोऽभिषिक्तः कपर्दिना ।
तुष्टेन मोचितं तस्माच्छूलाग्रादवरोपितः ॥ १९ ॥
उक्तश्चाथ महादैत्यो महेशानेन सोऽन्धकः ।
असुरःसान्त्वपूर्वं यत्कृतं सर्वं महात्मना ॥ २० ॥
प्रसन्न हुए शिवजीने दिव्य अमृतकी वर्षांसे उसका अभिषेक किया और उस त्रिशूलके अग्रभागसे उसे उतारा और महात्मा शिवजीने वह सब कृत्य उस महादैत्य अन्धकसे शान्तिपूर्वक कहा, जिसे उन्होंने पहले किया था ॥ १९-२० ॥

ईश्वर उवाच
भो भो दैत्येन्द्र तुष्टोऽस्मि दमेन नियमेन च ।
शौर्येण तव धैर्येण वरं वरय सुव्रत ॥ २१ ॥
आराधितस्त्वया नित्यं सर्वनिर्धूतकल्मषः ।
वरदोऽहं वरार्हस्त्वं महादैत्येन्द्रसत्तम ॥ २२ ॥
प्राणसन्धारणादस्ति यच्च पुण्यफलं तव ।
त्रिभिर्वर्षसहस्रैस्तु तेनास्तु तव निर्वृतिः ॥ २३ ॥
ईश्वर बोले-हे दैत्येन्द्र ! हे सुव्रत ! मैं तुम्हारे यम, नियम, शौर्य एवं धैर्यसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ, तुम वर माँगो । हे श्रेष्ठ महादैत्येन्द्र ! तुमने निष्पाप होकर नित्य मेरी आराधना की है, तुम वरके योग्य हो, इसलिये मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ । इस प्रकार तीन सहस वर्षपर्यन्त प्राणधारण करनेका तुम्हारा जो पुण्यफल है, उससे तुम्हारी मुक्ति हो जाय ॥ २१-२३ ॥

सनत्कुमार उवाच
एतच्छ्रुत्वान्धकः प्राह वेपमानः कृताञ्जलिः ।
भूमौ जानुद्वयं कृत्वा भगवन्तमुमापतिम् ॥ २४ ॥
सनत्कुमार बोले-यह सुनकर अन्धकने पृथ्वीपर दोनों घुटनोंको टेककर काँपते हुए हाथ जोड़कर उमापति शिवजीसे कहा- ॥ २४ ॥

अन्धक उवाच
भगवन्यन्मयोक्तोऽसि दीनोदीनः परात्परः ।
हर्षगद्‌गदया वाचा मया पूर्वं रणाजिरे ॥ २५ ॥
यद्यत्कृतं विमूढत्वात्कर्म लोकेषु गर्हितम् ।
अजानता त्वां तत्सर्वं प्रभो मनसि मा कृथाः ॥ २६ ॥
अन्धक बोला-हे भगवन् ! मैंने इससे पूर्वमें आप परात्पर परमात्माको युद्धक्षेत्रमें प्रसन्न गद्‌गद वाणीसे दीन, हीन इत्यादि जो कहा है एवं हे शम्भो ! मूर्ख होनेके कारण अज्ञानवश इस लोकमें जो-जो निन्दित कर्म किया है, उसे आप अपने मनमें न रखें ॥ २५-२६ ॥

पार्वत्यामपि दुष्टं यत्कामदोषात्कृतं मया ।
क्षम्यतां मे महादेव कृपणो दुःखितो भृशम् ॥ २७ ॥
हे महादेव ! मैंने कामविकारसे पार्वतीके प्रति अपराध किया है, उसे क्षमा करें; क्योंकि मैं अत्यन्त कृपण एवं दुखी हूँ ॥ २७ ॥

दुःखितस्य दया कार्या कृपणस्य विशेषतः ।
दीनस्य भक्तियुक्तस्य भवता नित्यमेव हि ॥ २८ ॥
हे प्रभो ! अत्यन्त दुखित, कृपण, दीन एवं भक्तिसे युक्त जनपर आपको विशेष रूपसे दया करनी चाहिये ॥ २८ ॥

सोहं दीनो भक्तियुक्त आगतः शरणं तव ।
रक्षा मयि विधातव्या रचितोऽयं मयाञ्जलिः ॥ २९ ॥
मैं दीन आपकी शरणमें आया हूँ, अतः मेरी रक्षा कीजिये । मैंने हाथ जोड़ रखे हैं ॥ २९ ॥

इयं देवी जगन्माता परितुष्टा ममोपरि ।
क्रोधं विहाय सकलं प्रसन्ना मां निरीक्षताम् ॥ ३० ॥
मुझपर सन्तुष्ट होनेवाली जगजननी ये देवी समस्त क्रोध त्यागकर मेरे ऊपर प्रसन्न होकर मुझे देखें ॥ ३० ॥

क्वास्याः क्रोधः क्व कृपणो दैत्योऽहं चन्द्रशेखर ।
तत्सोढा नाहमर्द्धेन्दुचूड शम्भो महेश्वर ॥ ३१ ॥
हे चन्द्रशेखर ! हे अर्धेन्दुचूड ! हे शम्भो ! हे महेश्वर ! कहाँ तो इन महादेवीका क्रोध और कहाँ मैं दयाका पात्र दैत्य, फिर भी आप मेरा अपराध क्षमा करते रहें ॥ ३१ ॥

क्व भवान्परमोदारः क्व चाहं विवशीकृतः ।
कामक्रोधादिभिर्दोषैर्जरसा मृत्युना तथा ॥ ३२ ॥
अयं ते वीरकः पुत्रो युद्धशौण्डो महाबलः ।
कृपणं मां समालक्ष्य मा मन्युवशमन्वगाः ॥ ३३ ॥
कहाँ आप जैसे परमोदार और कहाँ काम, क्रोधादि दोर्षों एवं मृत्यु तथा वृद्धावस्थाके वशीभूत रहनेवाला मैं । [हे प्रभो !] आपका यह युद्धकुशल तथा महाबली पुत्र वीरक मुझ दयापात्रको देखकर अब क्रोध न करे ॥ ३२-३३ ॥

तुषारहारशीतांशुशङ्‌खकुन्देन्दुवर्ण भाक् ।
पश्येयं पार्वतीं नित्यं मातरं गुरुगौरवात् ॥ ३४ ॥
नित्यं भवद्‌भ्यां भक्तस्तु निर्वैरो दैवतैः सह ।
निवसेयं गणैःसार्द्धं शान्तात्मा योगचिन्तकः ॥ ३५ ॥
तुषार, हार, चन्द्र, शंख तथा कुन्दके समान स्वच्छ वर्णवाले हे प्रभो ! मैं इन माता पार्वतीको अत्यन्त आदरसे नित्य देखा करूँ । अब मैं आप दोनोंका सदा भक्त होकर तथा देवताओंके साथ वैररहित होकर शान्तचित्त और योगपरायण हो इन गणोंके साथ निवास करूँ ॥ ३४-३५ ॥

मा स्मरेयं पुनर्जातं विरुद्धं दानवोद्‌भवम् ।
त्वत्कृपातो महेशान देह्येतद्वरमुत्तमम् ॥ ३६ ॥
हे महेशान ! आपकी कृपासे मैं दानवकुलमें उत्पन्न होनेके कारण किये गये विपरीत काँका स्मरण कभी न करूं, आप मुझे यह उत्तम वर दीजिये ॥ ३६ ॥

सनत्कुमार उवाच
एतावदुक्त्वा वचनं दैत्येन्द्रो मौनमास्थितः ।
ध्यायंस्त्रिलोचनं देवं पार्वतीं प्रेक्ष्य मातरम् ॥ ३७ ॥
ततो दृष्टस्तु रुद्रेण प्रसन्नेनैव चक्षुषा ।
स्मृतवान्पूर्ववृत्तान्तमात्मनो जन्म चाद्‌भुतम् ॥ ३८ ॥
सनत्कुमार बोले-इतना कहकर उस दैत्येन्द्रने माता पार्वतीकी ओर देखकर भगवान् शिवका ध्यान करते हुए मौन धारण कर लिया । तदनन्तर शिवजीने प्रसन्नतापूर्ण दृष्टिसे उसे देखा, तब उसे अपने पूर्ववृत्तान्त तथा अद्‌भुत जन्मका स्मरण हो आया ॥ ३७-३८ ॥

तस्मिन्स्मृते च वृत्तान्ते ततः पूर्णमनोरथः ।
प्रणम्य मातापितरौ कृतकृत्योऽभवत्ततः ॥ ३९ ॥
पार्वत्या मूर्ध्न्युपाघ्रातः शंकरेण च धीमता ।
तथाऽभिलषितं लेभे तुष्टाद्‌ बालेन्दुशेखरात् ॥ ४ ० ॥
एतद्वः सर्वमाख्यातमन्धकस्य पुरातनम् ।
गाणपत्यं महादेवप्रसादात्परसौख्यदम् ॥ ४१ ॥
मृत्युञ्जयश्च कथितो मन्त्रो मृत्युविनाशनः ।
पठितव्यः प्रयत्नेन सर्वकामफलप्रदः ॥ ४२ ॥
इस प्रकार उस पूर्ववृत्तान्तका स्मरण होनेपर वह पूर्णमनोरथवाला हो गया और माता-पिताको प्रणामकर कृतकृत्य हो गया । इसके बाद बुद्धिमान् शिवजी तथा पार्वतीने उसका मस्तक सूंघा और उसने प्रसन्न हुए सदाशिवसे अभिलषित वर प्राप्त किया । [हे वेदव्यासजी !] इस प्रकार मैंने अन्धकका सारा पुरातन वृत्तान्त और शंकरजीकी कृपासे उसे सुख देनेवाले गाणपत्य पदकी प्राप्तिका वर्णन किया और सभी कामनाओंका फल देनेवाले तथा मृत्युका विनाश करनेवाले मृत्युंजय मन्त्रको भी मैंने कहा, इसको यत्नपूर्वक पढ़ना (जपना) चाहिये ॥ ३९-४२ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे
अन्धकगण जीवितप्राप्तिवर्णनं नामैकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ४९ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुजसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें अन्धकगणजीवप्राप्तिवर्णन नामक उनचासवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४९ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


GO TOP