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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

पञ्चाशत्तमोऽध्यायः

मृतसञ्जीविनीविद्याप्राप्तिवर्णनम् -
शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मृत्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी-विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना -


सनत्कुमार उवाच
शृणु व्यास यथा प्राप्ता मृत्युप्रशमनी परा ।
विद्या काव्येन मुनिना शिवान्मृत्युञ्जयाभिधात् ॥ १ ॥
पुरासौ भृगुदायादो गत्वा वाराणसीं पुरीम् ।
बहुकालं तपस्तेपे ध्यायन्विश्वेश्वरं प्रभुम् ॥ २ ॥
सनत्कुमार बोले-[हे व्यास !] मृत्युंजय नामक शिवजीसे जिस प्रकार शुक्राचार्य मुनिने मृत्युनाशिनी विद्या प्राप्त की, उसे आप सुनें । पूर्वकालमें भृगुपुत्र शुक्राचार्य वाराणसीपुरीमें जाकर विश्वेश्वर प्रभुका ध्यान करते हुए दीर्घकालतक तप करते रहे ॥ १-२ ॥

स्थापयामास तत्रैव लिङ्‌गं शम्भोः परात्मनः ।
कूपं चकार सद्‌रम्यं वेदव्यास तदग्रतः ॥ ३ ॥
पञ्चामृतैर्द्रोणमितैर्लक्षकृत्वः प्रयत्नतः ।
स्नापयामास देवेशं सुगन्धस्नपनैर्बहु ॥ ४ ॥
सहस्रकृत्वो देवेशं चन्दनैर्यक्ष कर्दमैः ।
समालिलिम्प सुप्रीत्या सुगन्धोद्वर्त्तनान्यनु ॥ ५ ॥
हे वेदव्यास ! उन्होंने वहाँ परमात्मा शिवका लिंग स्थापित किया और उसके सामने एक मनोहर कूपका निर्माण करवाया । उन्होंने द्रोण-परिमाणके पंचामृतसे उन देवेशको एक लाख बार स्नान करवाया और इसी प्रकार नाना प्रकारके सुगन्धित द्रव्योंसे भी एक लाख बार स्नान करवाया । उन्होंने देवेशका चन्दन, यक्षकर्दम और सुगन्धित उबटनसे हजारों बार प्रीतिपूर्वक अनुलेपन किया ॥ ३-५ ॥

राजचम्पकधत्तूरैः करवीरकुशेशयैः ।
मालतीकर्णिकारैश्च कदम्बैर्बकुलोत्पलैः ॥ ६ ॥
मल्लिकाशतपत्रीभिःसिन्धुवारैः सकिंशुकः ।
बन्धूकपुष्पैः पुन्नागैर्नागकेशरकेशरैः ॥ ७ ॥
नवमल्लीचिबिलिकैः कुन्दैः समुचुकुन्दकैः ।
मन्दारैर्बिल्वपत्रैश्च द्रोणैर्मरुबकैर्वृकैः ।
ग्रन्थिपर्णैर्दमनकैः सुरम्यैश्चूतपल्लवैः ॥ ८ ॥
तुलसीदेवगन्धारीबृहत्पत्रीकुशाङ्‌कुरैः ।
नद्यावर्तैरगस्त्यैश्च सशालैर्देवदारुभिः ॥ ९ ॥
काञ्चनारैः कुरबकैर्दूर्वाङ्‌कुरकुरुंटकैः ।
प्रत्येकमेभिः कुसुमैः पल्लवैरपरैरपि ॥ १० ॥
पत्रैः सहस्रपत्रैश्च रम्यैर्नानाविधैः शुभैः ।
सावधानेन सुप्रीत्या स समानर्च शंकरम् ॥ ११ ॥
उन्होंने राजचम्पक, धतूरा, कनेर, कमल, मालती, कर्णिकार, कदम्ब, बकुल, उत्पल, मल्लिका, शतपत्री, सिन्धुवार, किंशुक, बन्धूकपुष्प, पुन्नाग, केशर, नागकेशर, नवमल्ली, चिबिलिक, कुन्द, मुचुकुन्द, मन्दार, बेलपत्र, द्रोण, मरुवक, वृक, ग्रन्धिपर्ण, दमनक, सुरम्य आम्रपत्र, तुलसी, देवगन्धारी, बृहत्पत्री, कुशांकुर, नन्द्यावर्त, अगस्त्य, साल, देवदारु, कचनार, कुरबक, दूर्वांकुर, कुरुण्टक-इन प्रत्येक पुष्पोंसे तथा अनेक प्रकारके दूसरे मनोहर पल्लवों, पत्तों तथा कमलोंसे सावधानचित्त हो प्रीतिपूर्वक शिवजीका पूजन किया ॥ ६-११ ॥

गीतनृत्योपहारैश्च संस्तुतः स्तुतिभिर्बहु ।
नाम्नां सहस्रैरन्यैश्च स्तोत्रैस्तुष्टाव शंकरम् ॥ १२ ॥
सहस्रं पञ्चशरदामित्थं शुक्रो महेश्वरम् ।
नानाप्रकारविधिना महेशं स समर्चयत् ॥ १३ ॥
तदनन्तर उन्होंने गीत, नृत्य, उपहार, बहुत-सी स्तुतियों, शिवसहस्रनामस्तोत्र तथा अन्य स्तुतियोंसे शिवजीको प्रसन्न किया । इस प्रकार शुक्राचार्य पाँच हजार वर्षपर्यन्त नाना प्रकारकी अर्चनविधिसे महेश्वर शिवकी पूजा करते रहे ॥ १२-१३ ॥

यदा देवं नानुलोके मनागपि वरोन्मुखम् ।
तदान्यं नियमं घोरं जग्राहातीव दुःसहम् ॥ १४ ॥
प्रक्षाल्य चेतसोऽत्यन्तं चाञ्चल्याख्यं महामलम् ।
भावनावार्भिरसकृदिन्द्रियैःसहितस्य च ॥ १५ ॥
निर्मलीकृत्य तच्चेतो रत्नं दत्त्वा पिनाकिने ।
प्रययौ कणधूमौघं सहस्रं शरदां कविः ॥ १६ ॥
जब उन्होंने शिवजीको वरदानके लिये थोड़ा भी उन्मुख न देखा, तब अत्यन्त कठिन दूसरा नियम धारण किया । भावनारूपी जलसे इन्द्रियोसहित चित्तके चांचल्यरूपी महान् दोषको धोकर उस चित्तरूप महारत्नको निर्मल करके शिवजीके लिये अर्पण करके शुक्राचार्य हजारों वर्षपर्यन्त तुषाग्निजन्य धूमराशिका पान करने लगे ॥ १४-१६ ॥

काव्यमित्थं तपो घोरं कुर्वन्तं दृढमानसम् ।
प्रससाद स तं वीक्ष्य भार्गवाय महेश्वरः ॥ १७ ॥
तस्माल्लिङ्‌गाद्विनिर्गत्य सहस्रार्काधिकद्युतिः ।
उवाच तं विरूपाक्षः साक्षाद्दाक्षायणीपतिः ॥ १८ ॥
इस प्रकार दृढ़ मनवाला होकर घोर तप करते हुए उनको देखकर शिवजी शुक्राचार्यपर अत्यन्त प्रसन हो गये और हजारों सूर्योसे भी अधिक तेजवाले दाक्षायणीपति विरूपाक्ष शिवजी उस लिंगसे प्रकट होकर कहने लगे- ॥ १७-१८ ॥

महेश्वर उवाच
तपोनिधे महाभाग भृगुपुत्र महामुने ।
तपसानेन ते नित्यं प्रसन्नोऽहं विशेषतः ॥ १९ ॥
मनोऽभिलषितं सर्वं वरं वरय भार्गव ।
प्रीत्या दास्येऽखिलान्कामान्नादेयं विद्यते तव ॥ २० ॥
महेश्वर बोले-हे तपोनिधे ! हे महाभाग ! हे महामुने ! हे भृगुपुत्र ! मैं आपके इस तपसे विशेषरूपसे प्रसन्न हूँ । हे भार्गव ! आप अपना मनोभिलषित समस्त वर माँगिये, मैं प्रसन्न होकर आपको सभी कामनाएँ पूर्ण करूँगा । आपके लिये कुछ भी अदेय नहीं है । १९-२० ॥

सनत्कुमार उवाच
निशम्येति वचः शम्भोर्महासुखकरं वरम् ।
स बभूव कविस्तुष्टो निमग्नः सुखवारिधौ ॥ २१ ॥
सनत्कुमार बोले-शिवजीके इस अत्यन्त सुख देनेवाले श्रेष्ठ वचनको सुनकर शुक्राचार्य हर्षित हो गये और आनन्दसमुद्रमें निमग्न हो गये ॥ २१ ॥

उद्यदानन्दसन्दोहरोमाञ्चाचितविग्रहः ।
प्रणनाम मुदा शम्भुमम्भोजनयनो द्विजः ॥ २२ ॥
तुष्टावाष्टतनुं तुष्टः प्रफुल्लनयनांचलः ।
मौलावञ्जलिमाधाय वदन् जय जयेति च ॥ २३ ॥
कमलके समान नेत्रवाले तथा हर्षातिरेकसे रोमांचित विग्रहवाले शुक्राचार्यने प्रसन्नतापूर्वक शिवजीको प्रणाम किया और प्रफुल्लित नेत्रोंवाला होकर सिरपर अंजलि लगाकर जय-जयकार करते हुए बड़ी प्रसन्नतासे वे अष्टमूर्ति* शिवजीकी स्तुति करने लगे- ॥ २२-२३ ॥

भार्गव उवाच
त्वं भाभिराभिरभिभूय तमःसमस्त-
    मस्तं नयस्यभिमतानि निशाचराणाम् ।
देदीप्यसे दिवमणे गगने हिताय
    लोकत्रयस्य जगदीश्वर तन्नमस्ते ॥ २४ ॥
भार्गव बोले-हे जगदीश्वर ! आप अपने तेजसे समस्त अन्धकारको दूरकर रातमें विचरण करनेवाले राक्षसोंके मनोरथोंको नष्ट कर देते हैं । हे दिनमणे ! आप त्रिलोकीका हित करनेके लिये आकाशमें सूर्यरूपसे प्रकाशित हो रहे हैं । ऐसे आपको नमस्कार है ॥ २४ ॥

लोकेऽतिवेलमतिवेलमहामहोभि-
    र्निर्भासि कौ च गगनेऽखिललोकनेत्रः ।
विद्राविताखिलतमाःसुतमो हिमांशो
    पीयूष पूरपरिपूरित तन्नमस्ते ॥ २५ ॥
हे हिमांशो ! आप पृथ्वी तथा आकाशमें समस्त प्राणियोंके नेत्र बनकर चन्द्ररूपसे विराजमान हैं और लोकमें व्याप्त अन्धकारका नाश करनेवाले एवं अमृतकी किरणोंसे युक्त हैं । हे अमृतमय ! आपको नमस्कार है ॥ २५ ॥

त्वं पावने पथि सदागतिरप्युपास्यः
    कस्त्वां विना भुवनजीवन जीवतीह ।
स्तब्धप्रभञ्जनविवर्द्धि तसर्वजन्तोः
    सन्तोषिता हि कुलसर्वग वै नमस्ते ॥ २६ ॥
हे भुवनजीवन ! आप पावनपथ-योगमार्गका आश्रय लेनेवालोंकी सदा गति तथा उपास्यदेव हैं । इस जगत्में आपके बिना कौन जीवित रह सकता है । आप वायुरूपसे समस्त प्राणियोंका वर्धन करनेवाले और सर्पकुलोको सन्तुष्ट करनेवाले हैं । हे सर्वव्यापिन् । आपको नमस्कार है ॥ २६ ॥

विश्वेकपावक न तावकपावकैक-
    शक्ते ऋते मृतवतामृतदिव्यकार्यम् ।
प्राणिष्यदो जगदहो जगदन्तरात्मं-
    स्त्वं पावकः प्रतिपदं शमदो नमस्ते ॥ २७ ॥
हे..... विश्वके एकमात्र पावनकर्ता ! हे शरणागतरक्षक ! यदि आपकी एकमात्र पावक (पवित्र करनेवाली एवं दाहिका) शक्ति न रहे, तो मरनेवालोंको मोक्ष प्रदान कौन करे ? हे जगदन्तरात्मन् ! आप ही समस्त प्राणियोंके भीतर वैश्वानर नामक पावक (अग्निरूप) हैं और उन्हें पग-पगपर शान्ति प्रदान करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है ॥ २७ ॥

पानीयरूप परमेश जगत्पवित्र
    चित्रं विचित्रसुचरित्रकरोऽसि नूनम् ।
विश्वं पवित्रममलं किल विश्वनाथ
    पानीयगाहनत एतदतो नतोऽस्मि ॥ २८ ॥
। हे जलरूप ! हे परमेश ! हे जगत्पवित्र ! आप निश्चय ही विचित्र उत्तम चरित्र करनेवाले हैं । हे विश्वनाथ ! आपका यह अमल पानीय रूप अवगाहनमात्रसे विश्वको पवित्र करनेवाला है, अत: आपको नमस्कार करता हूँ ॥ २८ ॥

आकाशरूपबहिरन्तरुतावकाश-
    दानाद्विकस्वरमिहेश्वर विश्वमेतत् ।
त्वत्तः सदा सदय संश्वसिति स्वभावात्
    सङ्‌कोचमेति भवतोऽस्मि नतस्ततस्त्वाम् ॥ २९ ॥
हे आकाशरूप ! हे ईश्वर ! यह संसार बाहर एवं भीतरसे अवकाश देनेके ही कारण विकसित है, हे दयामय ! आपसे ही यह संसार स्वभावतः सदा श्वास लेता है और आपसे ही यह संकोचको प्राप्त होता है, अतः आपको प्रणाम करता हूँ ॥ २९ ॥

विश्वम्भरात्मक बिभर्षि विभोऽत्र विश्वं
    को विश्वनाथ भवतोऽन्यतमस्तमोरिः ।
स त्वं विनाशय तमो तम चाहिभूष-
    स्तव्यात्परः परपरं प्रणतस्ततस्त्वाम् ॥ ३० ॥
हे विश्वम्भरात्मक [पृथ्वीरूप] ! हे विभो ! आप ही इस जगत्का भरण-पोषण करते हैं । हे विश्वनाथ ! आपके अतिरिक्त दूसरा कौन अन्धकारका विनाशक है । हे अहिभूषण ! मेरे अज्ञानरूपी अन्धकारको आप दूर करें, आप स्तवनीय पुरुषों में सबसे श्रेष्ठ हैं, अतः आप परात्परको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ३० ॥

आत्मस्वरूप तव रूपपरम्पराभि-
    राभिस्ततं हर चराचररूपमेतत् ।
सर्वान्तरात्मनिलय प्रतिरूपरूप
    नित्यं नतोऽस्मि परमात्मजनोऽष्टमूर्ते ॥ ३१ ॥
हे आत्मस्वरूप ! हे हर ! आपकी इन रूपपरम्पराओंसे यह सारा चराचर जगत् विस्तारको प्राप्त हुआ है । सबकी अन्तरात्मामें निवास करनेवाले हे प्रतिरूप ! हे अष्टमूर्ते ! मैं भी आपका जन हूँ, मैं आपको नित्य नमस्कार करता हूँ ॥ ३१ ॥

इत्यष्टमूर्तिभिरिमाभिरबन्धबन्धो
    युक्तः करोषि खलु विश्वजनीनमूर्त्ते ।
एतत्ततं सुविततं प्रणतप्रणीत
    सर्वार्थसार्थपरमार्थ ततो नतोऽस्मि ॥ ३२ ॥
हे दीनबन्धो ! हे विश्वजनीनमूर्ते । हे प्रणतप्रणीत (शरणागतोंके रक्षक) ! हे सर्वार्थसार्थपरमार्थ ! आप इन अष्टमूर्तियोंसे युक्त हैं और यह विस्तृत जगत् आपसे व्याप्त है, अतः मैं आपको प्रणाम करता है ॥ ३२ ॥

सनत्कुमार उवाच
अष्टमूर्त्यष्टकेनेत्थं परिष्टुत्येति भार्गवः ।
भर्गं भूमिमिलन्मौलिः प्रणनाम पुनः पुनः ॥ ३३ ॥
सनत्कुमार बोले-भार्गवने इस प्रकार अष्टमूर्ति स्तुतिके आठ श्लोकोंसे शिवजीकी स्तुतिकर भूमिमें सिर झुकाकर उनको बार-बार प्रणाम किया ॥ ३३ ॥

इति स्तुतो महादेवो भार्गवेणातितेजसा ।
उत्थाय भूमेर्बाहुभ्यां धृत्वा तं प्रणतं द्विजम् ॥ ३४ ॥
उवाच श्लक्ष्णया वाचा मेघनादगभीरया ।
सुप्रीत्या दशनज्योत्स्ना प्रद्योतितदिङ्‌गतरः ॥ ३५ ॥
अत्यन्त तेजस्वी भार्गवसे इस प्रकार स्तुत महादेवजी प्रणाम करते हुए उन ब्राह्मणको अपनी भुजाओंसे पकड़कर तथा पृथ्वीसे उठाकर अपने दाँतोंकी कान्तिसे दिगन्तरको प्रकाशित करते हुए मेषके समान गम्भीर वाणीमें अत्यन्त प्रेमपूर्वक कहने - लगे- ॥ ३४-३५ ॥

महादेव उवाच
विप्रवर्य कवे तात मम भक्तोऽसि पावनः ।
अनेनात्युग्रतपसा स्वजन्याचरितेन च ॥ ३६ ॥
लिङ्‌गस्थापनपुण्येन लिङ्‌गस्याराधनेन च ।
दत्तचित्तोपहारेण शुचिना निश्चलेन च ॥ ३७ ॥
अविमुक्तमहाक्षेत्रपवित्राचरणेन च ।
त्वां दयया प्रपश्यामि तवादेयं न किञ्चन ॥ ३८ ॥
महादेवजी बोले-हे विप्रवर्य ! हे कवे ! हे तात ! आप मेरे पवित्र भक्त हैं, आपके द्वारा की गयी उग्र तपस्या, लिंगप्रतिष्ठाजन्य पुण्य, लिंगाराधन, अपने पवित्र एवं निश्चल चित्तके समर्पण तथा अविमुक्त जैसे महाक्षेत्रमें किये गये पवित्राचरणसे मैं आपको दयापूर्वक देखता हूँ, आपके लिये कुछ भी अदेय नहीं है ॥ ३६-३८ ॥

अनेनैव शरीरेण ममोदरदरीगतः ।
मद्वरेन्द्रियमार्गेण पुत्रजन्मत्वमेष्यसि ॥ ३९ ॥
आप इसी शरीरसे मेरी उदररूपी गुफामें प्रविष्ट हो पुनः लिंगेन्द्रिय मार्गसे निकलकर पुत्रभावको प्राप्त होंगे ॥ ३९ ॥

यच्छाम्यहं वरं तेऽद्य दुष्प्राप्यं पार्षदैरपि ।
हरेर्हिरण्यगर्भाच्च प्रायशोहं जुगोप यम् ॥ ।४० ॥
अब मैं अपने पार्षदोंके लिये भी दुर्लभ वर आपको प्रदान करता हूँ, जिसे मैंने ब्रह्मा तथा विष्णुसे भी गुप्त रखा है ॥ ४० ॥

मृतसञ्जीवनी नाम विद्या या मम निर्मला ।
तपोबलेन महता मयैव परिनिर्मिता ॥ ४१ ॥
मृतसंजीवनी नामक जो मेरी निर्मल विद्या है, उसका निर्माण मैंने स्वयं अपने महान् तपोबलसे किया है ॥ ४१ ॥

त्वां तां तु प्रापयाम्यद्य मन्त्ररूपां महाशुचे ।
योग्यता तेऽस्ति विद्यायास्तस्याः शुचितपोनिधे ॥ ४२ ॥
यं यमुद्दिश्य नियतमेतामावर्तयिष्यसि ।
विद्यां विद्येश्वरश्रेष्ठं सत्यं प्राणिष्यति धुवम् ॥ ४३ ॥
हे महाशुचे ! उस मन्त्ररूपा विद्याको मैं आपको प्रदान करता हूँ । हे शुचितपोनिधे ! आपमें उस विद्याकी प्राप्तिकी योग्यता है । आप जिस किसीको उद्देश्य करके विद्येश्वर भगवान् शिवकी इस श्रेष्ठ विद्याका आवर्तन करेंगे, वह अवश्य ही जीवित हो जायगा, यह सत्य है । ४२-४३ ॥

अत्यर्कमत्यग्नि च ते तेजो व्योम्नि च तारकम् ।
देदीप्यमानं भविता ग्रहाणां प्रवरो भव ॥ ४४ ॥
अपि च त्वां करिष्यन्ति यात्रां नार्यो नरोऽपि वा ।
तेषां त्वद् दृष्टिपातेन सर्वकार्यं प्रणश्यति ॥ ४५ ॥
तवोदये भविष्यन्ति विवाहादीनि सुव्रत ।
सर्वाणि धर्मकार्याणि फलवन्ति नृणामिह ॥ ४६ ॥
आपका देदीप्यमान तेज आकाशमण्डलमें सूर्य तथा अग्निसे बढ़कर होगा, आप प्रकाशमान होंगे और श्रेष्ठ ग्रह होंगे । जो स्त्री या पुरुष आपके सम्मुख यात्रा करेगा, आपकी दृष्टि पड़नेमात्रसे उनका सारा कार्य नष्ट हो जायगा और हे सुव्रत ! मनुष्योंके समस्त विवाह आदि धर्मकार्य आपके उदयकालमें ही फलप्रद होंगे ॥ ४४-४६ ॥

सर्वाश्च तिथयो नन्दास्तव संयोगतः शुभाः ।
तव भक्ता भविष्यन्ति बहुशुक्रा बहु प्रजाः ॥ ४७ ॥
सम्पूर्ण नन्दा तिथियाँ (प्रतिपदा, षष्ठी तथा एकादशी) आपके संयोगसे शुभ होंगी । आपके भक्त अत्यन्त पराक्रमी तथा अधिक सन्तानोंसे युक्त होंगे ॥ ४७ ॥

त्वयेदं स्थापितं लिङ्‌गं शुक्रेशमिति सञ्ज्ञितम् ।
येऽर्चयिष्यन्ति मनुजास्तेषां सिद्धिर्भविष्यति ॥ ४८ ॥
आपके द्वारा स्थापित किये गये इस लिंगका नाम शुक्रेश्वर होगा । जो मनुष्य इसकी अर्चना करेंगे, उनकी कार्यसिद्धि होगी ॥ ४८ ॥

आवर्षं प्रतिघस्त्रं ये नक्तव्रतपरायणाः ।
त्वद्दिने शुक्रकूपे ये कृतसर्वोदकक्रियाः ॥ ४९ ॥
शुक्रेशमर्चयिष्यन्ति शृणु तेषां तु यत्फलम् ।
अवन्ध्यशुक्रास्ते मर्त्याः पुत्रवन्तोऽतिरेतसः ॥ ५० ॥
पुंस्त्वसौभाग्यसम्पन्ना भविष्यन्ति न संशयः ।
उपेतविद्यास्ते सर्वे जनाः स्युः सुखभागिनः ॥ ५१ ॥
वर्षभर प्रतिदिन नक्तव्रतपरायण जो लोग प्रति शुक्रवारको शुक्रकूपमें स्नान एवं तर्पणकर इन शुक्रेश शिवकी पूजा करेंगे, उसका फल सुनियेउनका वीर्य कभी निष्फल नहीं जायगा, वे पुत्रवान् एवं अति वीर्यवान् होंगे । वे सभी लोग पुरुषत्व एवं सौभाग्यसे सम्पन्न, विद्यायुक्त तथा सुखी होंगे, इसमें संशय नहीं है ॥ ४९-५१ ॥

इति दत्त्वा वरान्देवस्तत्र लिङ्‌गे लयं ययौ ।
भार्गवोऽपि निजं धाम प्राप सन्तुष्टमानसः ॥ ५२ ॥
इति ते कथितं व्यास यथा प्राप्ता तपोबलात् ।
मृत्युञ्जयाभिधा विद्या किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ॥ ५३ ॥
इस प्रकार वर देकर शिवजी उसी लिंगमें लीन हो गये और शुक्राचार्य भी प्रसन्नचित्त होकर अपने स्थानको चले गये । हे व्यासजी ! शुक्रने जिस प्रकार अपने तपोबलसे मृत्युंजय नामकी विद्या प्राप्त की, उसे मैंने कह दिया, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ५२-५३ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे
मृतसञ्जीविनीविद्याप्राप्तिवर्णनं नाम पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५० ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें मृतसंजीवनीविद्याप्राप्तिवर्णन नामक पचासवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५० ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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