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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे
एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ऊषा चरित्रवर्णनं शिवशिवाविहारवर्णनम् -
प्रल्हादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र बाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका विहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान - व्यास उवाच सनत्कुमार सर्वज्ञ श्राविता सुकथाद्भुता । भवतानुग्रहात्प्रीत्या शभ्वनुग्रहनिर्भरा ॥ १ ॥ इदानीं श्रोतुमिच्छामि चरितं शशिमौलिनः । गाणपत्यं ददौ प्रीत्या यथा बाणासुराय वै ॥ २ ॥ व्यासजी बोले-हे सर्वज्ञ ! हे सनत्कुमार ! आपने मुझपर अनुग्रहकर परम प्रीतिसे शिवके अनुग्रहसे पूर्ण यह अत्यन्त अद्भुत कथा सुनायी । अब शिवजीके उस चरित्रको सुनना चाहता हूँ, जिस प्रकार उन्होंने प्रीतिपूर्वक बाणासुरको गाणपत्यपद प्रदान किया ॥ १-२ ॥ सनत्कुमार उवाच शृणु व्यासादरात्तां वै कथां शम्भोः परात्मनः । गाणपत्यं यथा प्रीत्या ददौ बाणा सुराय हि ॥ ३ ॥ अत्रैव सुचरित्रं च शंकरस्य महाप्रभोः । कृष्णेन समरोप्यत्र शम्भोर्बाणानुगृह्णतः ॥ ४ ॥ सनत्कुमार बोले-हे व्यास ! जिस प्रकार शिवजीने प्रसन्नतापूर्वक बाणासुरको गाणपत्यपद प्रदान किया, परमात्मा शिवजीके उस चरित्रको अब आप आदरपूर्वक सुनिये । इसी चरित्रके अन्तर्गत बाणासुरपर अनुग्रह करनेवाले महाप्रभु सदाशिवका श्रीकृष्णके साथ युद्ध भी हुआ ॥ ३-४ ॥ अत्रानुरूपं शृणु मे शिवलीलान्वितं परम् । इतिहासं महापुण्यं मनः श्रोत्रसुखावहम् ॥ ५ ॥ अब शिवकी लीलासे युक्त, मन तथा कानको सुख देनेवाले तथा महापुण्यदायक इतिहासको सुनिये ॥ ५ ॥ ब्रह्मपुत्रो मरीचिर्यो मुनिरासीन्महामतिः । मानसः सर्वपुत्रेषु ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः ॥ ६ ॥ तस्य पुत्रो महात्मासीत्कश्यपो मुनिसत्तमः । सृष्टिप्रवृद्धकोऽत्यन्तं पितुर्भक्तो विधेरपि ॥ ७ ॥ पूर्वकालमें ब्रह्माजीके मानसपुत्र मरीचि नामक प्रजापति हुए, जो उनके सभी पुत्रोंमें ज्येष्ठ, श्रेष्ठ एवं महाबुद्धिमान् मुनि थे । उनके पुत्र मुनिश्रेष्ठ महात्मा कश्यप हुए, जो इस सृष्टिके प्रवर्तक हैं । वे अपने पिता मरीचि तथा ब्रह्माजीके अत्यन्त भक्त थे ॥ ६-७ ॥ स्वस्य त्रयोदशमिता दक्षकन्याः सुशीलिकाः । कश्यपस्य मुनेर्व्यास पत्न्यश्चासन्पतिव्रताः ॥ ८ ॥ हे व्यासजी । दक्षकी सुशील तेरह कन्याएँ थीं, जो उन कश्यपमुनिकी पतिव्रता स्त्रियाँ थीं ॥ ८ ॥ तत्र ज्येष्ठा दितिश्चासीद्दैत्यास्तत्तनयाः स्मृताः । अन्यासां च सुता जाता देवाद्याः सचराचराः ॥ ९ ॥ उनमें ज्येष्ठ कन्याका नाम दिति था, सभी दैत्य उसीके पुत्र कहे गये हैं और अन्य स्त्रियोंसे चराचरसहित सभी देवता आदि सन्तानें उत्पन्न हुई ॥ ९ ॥ ज्येष्ठायाः प्रथमौ पुत्रौ दितेश्चास्तां महाबलौ । हिरण्यकशिपुर्ज्येष्ठो हिरण्याक्षोऽनुजस्ततः ॥ १० ॥ हिरण्यकशिपोः पुत्राश्चत्वारो दैत्यसत्तमाः । ह्रादानुह्रादसंह्रादप्रह्रादश्चेत्यनुक्रमात् ॥ ११ ॥ ज्येष्ठ पत्नी दितिसे महाबलवान् दो पुत्र उत्पन्न हुए, जिनमें हिरण्यकशिपु ज्येष्ठ तथा हिरण्याक्ष कनिष्ठ था । उस हिरण्यकशिपुके क्रमसे हाद, अनुहाद, संहाद तथा प्रहाद नामक चार दैत्यश्रेष्ठ पुत्र हुए ॥ १०-११ ॥ प्रह्रादस्तत्र हि महान्विष्णुभक्तो जितेन्द्रियः । यं नाशितुं न शक्तास्तेऽभवन्दैत्याश्च केऽपि ह ॥ १२ ॥ विरोचनः सुतस्तस्य महा दातृवरोऽभवत् । शक्राय स्वशिरो योऽदाद्याचमानाय विप्रतः ॥ १३ ॥ उन सभीमें प्रहाद अत्यन्त जितेन्द्रिय तथा भगवान् विष्णुका परम भक्त था, जिसका नाश करने में कोई भी दैत्य समर्थ नहीं हुआ । उस प्रहादका पुत्र विरोचन हुआ, जो दानियोंमें श्रेष्ठ था और जिसने ब्राह्मणरूपी इन्द्रके माँगनेपर अपना सिर ही दे दिया ॥ १२-१३ ॥ तस्य पुत्रो बलिश्चासीन्महादानी शिवप्रियः । येन वामनरूपाय हरयेऽदायि मेदिनी ॥ १४ ॥ उस विरोचनका पुत्र महादानी एवं शिवप्रिय बलि हुआ, जिसने वामनावतार धारणकर याचना करनेवाले विष्णुको सम्पूर्ण पृथ्वी दान कर दी ॥ १४ ॥ तस्यौरसः सुतो बाणः शिवभक्तो बभूव ह । मान्यो वदान्यो धीमांश्च सत्यसन्धः सहस्रदः ॥ १५ ॥ शोणिताख्ये पुरे स्थित्वा स राज्यमकरोत्पुरा । त्रैलोक्यं च बलाञ्ज्जित्वा तन्नाथानसुरेश्वरः ॥ १६ ॥ उसी बलिका औरस पुत्र बाण हुआ, जो शिवभक्त, मान्य, दानी, बुद्धिमान, सत्यप्रतिज्ञ एवं हजारोंका दान करनेवाला था । वह दैत्यराज बाणासुर अपने बलसे तीनों लोकोंको तथा उसके स्वामियोंको जीतकर शोणित नामक पुरमें रहकर राज्य करता था । १५-१६ ॥ तस्य बाणासुरस्यैव शिवभक्तस्य चामराः । शंकरस्य प्रसादेन किङ्करा इव तेऽभवन् ॥ १७ ॥ सभी देवगण शंकरजीकी कृपासे शिवभक्त उस बाणासुरके दासकी भाँति हो गये ॥ १७ ॥ तस्य राज्येऽमरान्हित्वा नाभवन्दुःखिताः प्रजाः । सापत्न्यादुःखितास्ते हि परधर्मप्रवर्तिनः ॥ १८ ॥ सहस्रबाहुवाद्येन स कदाचिन्महासुरः । ताण्डवेन हि नृत्येनातोषयत्तं महेश्वरम् ॥ १९ ॥ तेन नृत्येन सन्तुष्टः सुप्रसन्नो बभूव ह । ददर्श कृपया दृष्ट्या शंकरो भक्तवत्सलः ॥ २० ॥ उस बाणासुरके राज्यमें देवताओंको छोड़कर अन्य प्रजाएँ दुखी नहीं थीं । देवगणोंके दुःखका कारण यह था कि बाणासुर उनका शत्रु था एवं वह असुरकुलमें उत्पन्न हुआ था । एक समय उस महादैत्यने अपनी हजार भुजाओंको बजाकर ताण्डव नृत्यद्वारा उन महेश्वरको प्रसन्न कर लिया । भक्तवत्सल भगवान् शंकर उस नृत्यसे सन्तुष्ट तथा अत्यन्त प्रसन्न हो गये और उन्होंने कृपादृष्टिसे उसकी ओर देखा ॥ १८-२० ॥ भगवान्सर्वलोकेशः शरण्यो भक्तकामदः । वरेण च्छन्दयामास बालेयं तं महासुरम् ॥ २१ ॥ सर्वलोकेश, शरणागतवत्सल एवं भक्तोंकी कामना पूर्ण करनेवाले भगवान् शंकरने उस बलिपुत्र बाणासुरको वर प्रदान करनेकी इच्छा की ॥ २१ ॥ शंकर उवाच बालेयः स महादैत्यो बाणो भक्तवरः सुधीः । प्रणम्य शंकरं भक्त्या नुनाव परमेश्वरम् ॥ २२ ॥ सनत्कुमार बोले-[हे मुने !] अत्यन्त बुद्धिमान् एवं शिवभक्त वह बलि-पुत्र बाणासुर परमेश्वर शिवको भक्तिसे प्रणामकर स्तुति करने लगा- ॥ २२ ॥ बाणासुर उवाच देवदेव महादेव शरणागतवत्सल । सन्तुष्टोऽसि महेशान ममोपरि विभो यदि ॥ २३ ॥ मद्रक्षको भव सदा मदुपस्थः पुराधिपः । सर्वथा प्रीतिकृन्मे हि ससुतः सगणः प्रभो ॥ २४ ॥ बाणासुर बोला-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे शरणागतवत्सल ! हे महेशान ! हे विभो ! हे प्रभो ! यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं, तो मेरे नगरके अधिपति बनकर अपने पुत्रों एवं गणोंके सहित इसीके समीप निवासकर मेरा हित करते हुए मेरी रक्षा कीजिये । २३-२४ ॥ सनत्कुमार उवाच बलिपुत्रः स वै बाणो मोहितः शिवमायया । मुक्तिप्रदं महेशानं दुराराध्यमपि ध्रुवम् ॥ २५ ॥ स भक्तवत्सलः शम्भुर्दत्त्वा तस्मै वरांश्च तान् । तत्रोवास तथा प्रीत्या सगणः ससुतः प्रभुः ॥ २६ ॥ स कदाचिद् बाणपुरे चक्रे देवासुरैः सह । नदीतीरे हरः क्रीडां रम्ये शोणितकाह्वये ॥ २७ ॥ सनत्कुमार बोले-शिवजीकी मायासे मोहित हुए बलिपुत्र बाणासुरने मुक्ति देनेवाले दुराराध्य शिवसे केवल इतना ही वर माँगा । भक्तवत्सल प्रभु शंकर उस बाणासुरको उन वरोंको देकर गणों तथा पुत्रोंसहित उसके पुरमें निवास करने लगे । किसी समय बाणासुरके शोणितपुर नामक मनोहर नगरमें नदीके तटपर शिवजीने देवगणों एवं दैत्योंके साथ क्रीड़ा की ॥ २५-२७ ॥ ननृतुर्जहसुश्चापि गन्धर्वासरसस्तथा । जेयुः प्रणेमुर्मुनय आनर्चुस्तुष्टुवुश्च तम् ॥ २८ ॥ ववल्गुः प्रथमाःसर्वे ऋषयो जुहुवुस्तथा । आययुः सिद्धसङ्घाश्च दृदृशुः शाङ्करीं रतिम् ॥ २९ ॥ उस समय गन्धर्व एवं अप्सराएँ नाचने-हँसने लगीं । मुनियोंने शिवको प्रणाम किया, उनका जप, पूजन तथा स्तवन किया । प्रमथगण अट्टहास करने लगे, ऋषिलोग हवन करने लगे एवं सिद्धगण यहाँ आये और शिवकी क्रीड़ा देखने लगे ॥ २८-२९ ॥ कुतर्किका विनेशुश्च म्लेच्छाश्च परिपंथिनः । मातरोभिमुखास्तस्थुर्विनेशुश्च बिभीषिका ॥ ३० ॥ म्लेच्छ, कुमार्गी तथा कुतर्की विनष्ट हो गये । समस्त देवमाताएँ शिवजीके सम्मुख उपस्थित हो गयीं तथा सभी प्रकारके भय नष्ट हो गये ॥ ३० ॥ रुद्रसद्भावभक्तानां भवदोषाश्च निःस्तृताः । तस्मिन्दृष्टे प्रजाः सर्वाः सुप्रीतिं परमां ययुः ॥ ३१ ॥ उस क्रीड़ासे रुद्रमें सद्भावना रखनेवाले भक्तोंके सांसारिक दोष दूर हो गये । उस समय शिवजीका दर्शन करते ही सभी प्रजाएँ अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं ॥ ३१ ॥ ववल्गुर्मुनयःसिद्धाः स्त्रीणां दृष्ट्वा विचेष्टितम् । पुपुषुश्चापि ऋतवः स्वप्रभावं तु तत्र च ॥ ३२ ॥ मुनि तथा सिद्धगण स्त्रियोंकी अद्भुत चेष्टाको देखकर अट्टहास करने लगे । समस्त ऋतुएँ वहाँ अपना-अपना प्रभाव प्रकट करने लगीं ॥ ३२ ॥ ववुर्वाताश्च मृदवः पुष्पके सरधूसराः । चुकूजुः पक्षिसङ्घाश्च शाखिनां मधुलम्पटाः ॥ ३३ ॥ पुष्पभारावनद्धानां रारट्येरंश्च कोकिलाः । मधुरं कामजननं वनेषूपवनेषु च ॥ ३४ ॥ पुष्पोंके परागसे मिश्रित सुगन्धित वायु बहने लगी, पक्षिसमूह कूजन करने लगे एवं पुष्पोंके भारसे अवनत वृक्षशाखाओंपर मधुलम्पट कोयलें वनों तथा उपवनोंमें कामोत्पादक मधुर शब्द करने लगीं ॥ ३३-३४ ॥ ततः क्रीडाविहारे तु मत्तो बालेन्दुशेखरः । अनिर्जितेन कामेन दृष्टः प्रोवाच नन्दिनम् ॥ ३५ ॥ उस समय क्रीडाविहारमें उन्मत्त तथा कामपर विजय न प्राप्तकर उससे देखे जानेमात्रसे ही कामके वशीभूत सदाशिवने नन्दीसे कहा- ॥ ३५ ॥ चन्द्रशेखर उवाच वामामानय गौरीं त्वं कैलासात्कृतमण्डनाम् । शीघ्रमस्माद्वनाद्गत्वा ह्युक्त्वाऽकृष्णामिहानय ॥ ३६ ॥ चन्द्रशेखर बोले-हे नन्दिन् ! तुम शीघ्र ही इस वनसे कैलास जाकर मेरा सन्देश कहकर भंगारसे युक्त गौरीको यहाँ ले आओ ॥ ३६ ॥ सनत्कुमार उवाच स तथेति प्रतिज्ञाय गत्वा तत्राह पार्वतीम् । सुप्रणम्य रहो दूतः शंकरस्य कृताञ्जलिः ॥ ३७ ॥ सनत्कुमार बोले-'ऐसा ही करूँगा', इस प्रकारको प्रतिज्ञाकर वहाँ जाकर शंकरके दूत नन्दीने हाथ जोड़कर एकान्तमें पार्वतीसे कहा- ॥ ३७ ॥ नन्दीश्वर उवाच द्रष्टुमिच्छति देवि त्वां देवदेवो महेश्वरः । स्ववल्लभां रूपकृतां मयोक्तं तन्निदेशतः ॥ ३८ ॥ नन्दीश्वर बोले-हे देवि ! देवदेव महादेव महेश्वर शृंगारसे युक्त अपनी भार्याको देखना चाहते हैं, मैंने उनके आदेशसे ऐसा कहा है ॥ ३८ ॥ सनत्कुमार उवाच ततस्तद्वचनाद्गौरी मण्डनं कर्तुमादरात् । उद्यताभून्मुनिश्रेष्ठ पतिव्रतपरायणा ॥ ३९ ॥ आगच्छामि प्रभुं गच्छ वद तं त्वं ममाज्ञया । आजगाम ततो नन्दी रुद्रासन्नं मनोगतिः ॥ ४० ॥ सनत्कुमार बोले-हे मुनिश्रेष्ठ । उनके इस वचनको सुनकर पतिव्रतधर्मपरायणा भगवती पार्वती बड़ी प्रसन्नतासे अपना श्रृंगार करने लगीं और नन्दीसे बोलीं-तुम मेरी आज्ञासे शीघ्र शिवजीके पास जाओ और उनसे कहो कि मैं अभी आ रही हूँ । यह सुनकर मनकी गतिके समान चलनेवाले नन्दीश्वर महादेवके पास चले आये ॥ ३९-४० ॥ पुनराह ततो रुद्रो नन्दिनं परविभ्रमः । पुनर्गच्छ ततस्तात क्षिप्रमानय पार्वतीम् ॥ ४१ ॥ बाढमुक्त्वा स तां गत्वा गौरीमाह सुलोचनाम् । द्रष्टुमिच्छति ते भर्ता कृतवेषां मनोरमाम् ॥ ४२ ॥ शंकरो बहुधा देवि विहर्तुं सम्प्रतीक्षते । एवं पतौ सुकामार्ते गम्यतां गिरिनन्दिनि ॥ ४३ ॥ नन्दीको अकेले आया देख शिवजीने नन्दीसे पुनः कहा-हे तात ! तुम पुनः जाओ और पार्वतीको शीघ्र लिवा लाओ । तब नन्दीने 'बहुत अच्छा' कहकर वहाँ जाकर मनोहर नेत्रवाली गौरीसे कहा-आपके पति श्रृंगार की हुई आप मनोरमाको देखना चाहते हैं । हे देवि ! विहार करनेकी उत्कण्ठासे वे उत्सुकतापूर्वक आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, अत: हे गिरिनन्दिनि ! आप अपने पतिके पास शीघ्र चलिये ॥ ४१-४३ ॥ अप्सरोभिःसमग्राभिरन्योन्यमभिमन्त्रितम् । लब्धभावो यथा सद्यः पार्वत्या दर्शनोत्सुकः ॥ ४४ ॥ अयं पिनाकी कामारिः वृणुयाद्यां नितम्बिनीम् । सर्वासां दिव्यनारीणां राज्ञी भवति वै ध्रुवम् ॥ ४५ ॥ पार्वतीके आनेमें देर देखकर समग्र अप्सराओंने परस्पर मिलकर विचार किया कि शिवजी पार्वतीको शीघ्र देखना चाहते हैं । इस अवस्थामें वे जिस स्त्रीका वरण करेंगे, वह स्त्री निश्चय ही समस्त दिव्य स्त्रियोंकी रानी होगी ॥ ४४-४५ ॥ वीक्षणं गौरिरूपेण क्रीडयेन्मन्मथैर्गणैः । कामोऽयं हन्ति कामारिमूचुरन्योन्यमादताः ॥ ४६ ॥ इस समय कामशत्रु शिवको यह काम दुःख दे रहा है, इसलिये हम पार्वतीका रूप धारण करें, कदाचित् हमें पार्वतीके रूपमें देखकर वे मन्मथगणोंसहित हमारे साथ क्रीडा करें । ये आदरपूर्वक आपसमें ऐसा विचार करने लगीं ॥ ४६ ॥ स्प्रष्टुं शक्नोति या काचिदृते दाक्षायणी स्त्रियम् । सा गच्छेत्तत्र निः शङ्कं मोहयेत्पार्वतीपतिम् ॥ ४७ ॥ अतः जो स्त्री दाक्षायणीसे रहित इन शंकरका स्पर्श कर सके, वही निःशंक भावसे पार्वतीपति शिवजीके पास जाय और उन्हें मोहित करे ॥ ४७ ॥ कूष्माण्डतनया तत्र शंकरं स्प्रष्टुमुत्सहे । अहं गौरीसुरूपेण चित्रलेखा वचोऽब्रवीत् ॥ ४८ ॥ तब कूष्माण्ड (कुम्भाण्ड)-की कन्या चित्रलेखाने यह वचन कहा-'मैं गौरीका सुन्दर रूप धारणकर शिवजीका स्पर्श कर सकती हूँ ॥ ४८ ॥ चित्रलेखोवाच यदधान्मोहिनीरूपं केशवो मोहनेच्छया । पुरा तद्वैष्णवं योगमाश्रित्य परमार्थतः ॥ ४९ ॥ उर्वश्याश्च ततो दृष्ट्वा रूपस्य परिवर्तनम् । कालीरूपं घृताची तु विश्वाची चाण्डिकं वपुः ॥ ५० ॥ सावित्रिरूपं रम्भा च गायत्रं मेनका तथा । सहजन्या जयारूपं वैजयं पुञ्जिकस्थली ॥ ५१ ॥ मातॄणामप्यनुक्तानामनुक्ताश्चाप्सरोवराः । रत्नाद्रूपाणि ताश्चक्रुः स्वविद्यासंयुता अनु ॥ ५२ ॥ ततस्तासां तु रूपाणि दृष्ट्वा कुम्भांडनन्दिनी । वैष्णवादात्मयोगाच्च विज्ञातार्था व्यडम्बयत् ॥ ५३ ॥ चित्रलेखा बोली-केशवने शिवजीको मोहित करनेकी इच्छासे परमार्थके लिये वैष्णवयोगका आश्रय लेकर जिस मोहिनीरूपको धारण किया, उसीको मैं धारण करती हूँ । तदनन्तर उसने उर्वशीके परिवर्तित रूपको देखा, इसी प्रकार-उसने देखा कि घृताचीने कालीरूप, विश्वाचीने चण्डिकारूप, रम्भाने सावित्रीरूप, मेनकाने गायत्रीरूप, सहजन्याने जयारूप, पुंजिकस्थलीने विजयाका रूप तथा समस्त अप्सराओंने मातृगणोंका रूप यलपूर्वक बना लिया है । उनके रूपोंको देखकर कुम्भाण्डपुत्री चित्रलेखाने भी वैष्णवयोगसे सारे रहस्योंको जानकर अपने रूपको छिपा लिया ॥ ४९-५३ ॥ ऊषा बाणासुरसुता दिव्ययोगविशारदा । चकार रूपं पार्वत्या दिव्यमत्यद्भुतं शुभम् ॥ ५४ ॥ दिव्य योगविशारद बाणासुरकी कन्या ऊषाने वैष्णवयोगके प्रभावसे अत्यन्त मनोहर, सुन्दर और अद्भुत पार्वतीका रूप धारण किया ॥ ५४ ॥ महारक्ताब्जसङ्काशं चरणं चोक्तमप्रभम् । दिव्यलक्षणसंयुक्तं मनोऽभीष्टार्थदायकम् ॥ ५५ ॥ ऊषाके चरण लाल कमलके समान दिव्य कान्तिवाले, उत्तम प्रभासे सम्पन्न, दिव्य लक्षणोंसे संयुक्त एवं मनके अभिलषित पदार्थोको देनेवाले थे ॥ ५५ ॥ तस्या रमणसङ्कल्पं विज्ञाय गिरिजा ततः । उवाच सर्वविज्ञाना सर्वान्तर्यामिनी शिवा ॥ ५६ ॥ उसके बाद सर्वान्तर्यामिनी तथा सब कुछ जाननेवाली शिवा गिरिजा शिवजीके साथ उसकी रमणकी इच्छा जानकर कहने लगीं- ॥ ५६ ॥ गिरिजोवाच यतो मम स्वरूपं वै धृतमूषे सखि त्वया । सकामत्वेन समये सम्प्राप्ते सति मानिनि ॥ ५७ ॥ अस्मिंस्तु कार्तिके मासि ऋतुधर्मास्तु माधवे । द्वादश्यां शुक्लपक्षे तु यस्तु घोरे निशागमे ॥ ५८ ॥ कृतोपवासां त्वां भोक्ता सुप्तामन्तःपुरे नरः । स ते भर्त्ता कृतो देवैस्तेन सार्द्धं रमिष्यसि ॥ ५९ ॥ आबाल्याद्विष्णुभक्तासि यतोऽनिशमतन्द्रिता । एवमस्त्विति सा प्राह मनसा लज्जितानना ॥ ६० ॥ गिरिजा बोलीं-हे सखि ऊधे ! हे मानिनि ! तुमने समय प्राप्त होनेपर सकामभावसे मेरा रूप धारण किया, अत: तुम इसी कार्तिक मासमें ऋतुधर्मिणी होओगी । वैशाख मासके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथिको घोर अर्धरात्रिमें उपवासपूर्वक अन्तःपुरमें सोयी हुई अवस्थामें तुमसे जो कोई पुरुष आकर रमण करेगा, देवगणोंने उसीको तुम्हारा पति नियुक्त किया है । उसीके साथ तुम रमण करोगी; क्योंकि तुम बाल्यावस्थासे ही आलस्यरहित होकर सर्वदा विष्णुमें भक्ति रखनेवाली हो । तब 'ऐसा ही हो'-इस प्रकार ऊषाने मनमें कहा - और वह लजित हो गयी ॥ ५७-६० ॥ अथ सा पार्वती देवी कृतकौतुकमण्डना । रुद्रसंनिधिमागत्य चिक्रीडे तेन शम्भुना ॥ ६१ ॥ इसके बाद शृंगारसे युक्त होकर रुद्रके समीप आकर वे देवी पार्वती उन शम्भुके साथ क्रीड़ा करने लगीं ॥ ६१ ॥ ततो रतान्ते भगवान् रुद्रश्चादर्शनं ययौ । सदारः सगणश्चापि सहितो दैवतैर्मुने ॥ ६२ ॥ हे मुने ! तदनन्तर रमणके अन्तमें भगवान् सदाशिव स्त्रियों, गणों एवं देवताओंके साथ अन्तर्धान हो गये ॥ ६२ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे ऊषा चरित्रवर्णनं शिवशिवाविहारवर्णनं नामैकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५१ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें ऊषाचरित्रवर्णनके क्रममें शिवाशिवविहारवर्णन नामक इक्यावनयाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५१ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |