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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

ऊषा चरित्रवर्णनम् -
अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्धके साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना -


सनत्कुमार उवाच
शृणुष्वान्यच्चरित्रं च शिवस्य परमात्मनः ।
भक्तवात्सल्यसङ्‌गर्भि परमानन्ददायकम् ॥ १ ॥
सनत्कुमार बोले-[हे व्यास !] अब आप परमात्मा शिवका दूसरा चरित्र सुनिये, जो भक्तवत्सलतासे पूर्ण तथा परमानन्ददायक है ॥ १ ॥

पुरा बाणासुरो नाम दैवदोषाच्च गर्वितः ।
कृत्वा ताण्डवनृत्यं च तोषयामास शंकरम् ॥ २ ॥
पूर्वकालमें भाग्यदोषसे गर्वित होकर बाणासुरने ताण्डव नृत्यकर शिवजीको सन्तुष्ट किया था ॥ २ ॥

ज्ञात्वा सन्तुष्टमनसं पार्वतीवल्लभं शिवम् ।
उवाच चासुरो बाणो नतस्कन्धः कृताञ्जलिः ॥ ३ ॥
उसके बाद पार्वतीपति शिवजीको सन्तुष्ट मनवाला जानकर बाणासुर सिर झुकाकर विनम्र हो हाथ जोड़कर कहने लगा- ॥ ३ ॥

बाण उवाच
देवदेव महादेव सर्वदेवशिरोमणे ।
त्वत्प्रसादाद्‌ बली चाहं शृणु मे परमं वचः ॥ ४ ॥
बाणासुर बोला-हे देवाधिदेव ! हे महादेव ! हे सर्वदेवशिरोमणे ! यद्यपि मैं आपकी कृपासे अत्यन्त बलवान् हूँ, तथापि मेरी प्रार्थना सुनिये ॥ ४ ॥

दोःसहस्रं त्वया दत्तं परं भाराय मेऽभवेत् ।
त्रिलोक्यां प्रतियोद्धारं न लभे त्वदृते समम् ॥ ५ ॥
आपने मुझे हजार भुजाएँ प्रदान की हैं, किंतु ये मेरे लिये भारस्वरूप हो गयी हैं, इस त्रिलोकीमें आपके अतिरिक्त और कोई दूसरा योद्धा मेरे समान नहीं है ॥ ५ ॥

हे देव किमनेनापि सहस्रेण करोम्यहम् ।
बाहूनां गिरितुल्यानां विना युद्धं वृषध्वज ॥ ६ ॥
हे देव ! अब मैं इन हजार भुजाओंको लेकर क्या करूँ ? हे वृषभध्वज ! बिना युद्धके पर्वतके सदृश इन भुजाओंका क्या प्रयोजन ? ॥ ६ ॥

कडून्त्या निभृतैदोंर्भिर्युयुत्सुर्दिग्गजानहम् ।
पुराण्याचूर्णयन्नद्रीन्भीतास्तेपि प्रदुद्रुवुः ॥ ७ ॥
मैं अपनी इन मजबूत भुजाओंकी खुजली मिटानेके लिये युद्धकी इच्छासे दिग्गजोंके पास गया, वहाँ जाकर मैंने उनके पुरोंको तहस-नहस कर दिया, पर्वतोंको उखाड़ दिया, किंतु वे भी भयभीत होकर भाग गये ॥ ७ ॥

मया यमः कृतो योद्धा वह्निश्च कृतको महान् ।
वरुणश्चापि गोपालो गवां पालयिता तथा ॥ ८ ॥
गजाध्यक्षः कुबेरस्तु सैरन्ध्री चापि निर्ऋतिः ।
जितश्चाखण्डलो लोके करदायी सदा कृतः ॥ ९ ॥
युद्धस्यागमनं ब्रूहि यत्रैते बाहवो मम ।
शत्रुहस्तप्रयुक्तैश्च शस्त्रास्त्रैर्जर्जरीकृताः ॥ १० ॥
मैंने अपने यहाँ यमराजको योद्धाके रूपमें, अग्निको महान् कर्मकारके रूपमें, वरुणको गायोंके पालन करनेवाले गोपालके रूपमें, कुबेरको गजाध्यक्षके रूपमें, नितिको अन्तःपुरकी परिचारिकाके रूपमें नियुक्त किया है । मैंने इन्द्रको जीत लिया और उसे लोकमें सदा करदाता बना दिया है । अब आप मुझे युद्धका कोई ऐसा उपाय बताइये, जहाँपर मेरी ये भुजाएँ शत्रुओंके हाथसे प्रयुक्त शस्त्रास्त्रके द्वारा जर्जर कर दी जायें ॥ ८-१० ॥

पतन्तु शत्रुहस्ताद्वा पातयन्तु सहस्रधा ।
एतन्मनोरथं मे हि पूर्णं कुरु महेश्वर ॥ ११ ॥
हे महेश्वर ! ये [मेरी भुजाएँ] शत्रुओंके हाथोंसे गिर जायें अथवा वे स्वयं उसके हाथोंको हजार टुकड़ोंमें विभक्त कर दें, आप मेरे इस मनोरथको पूर्ण कीजिये ॥ ११ ॥

सनत्कुमार उवाच
तच्छ्रुत्वा कुपितो रुद्रस्त्वट्टहासं महाद्‌भुतम् ।
कृत्वाऽब्रवीन्महामन्युर्भक्तबाधाऽपहारकः ॥ १२ ॥
सनत्कुमार बोले-भक्तजनोंके संकटको दूर करनेवाले महामन्यु रुद्रने यह सुनकर क्रुद्ध हो अत्यन्त अद्‌भुत अट्टहास करके कहा- ॥ १२ ॥

रुद्र उवाच
धिग्धिक् त्वां सर्वतो गर्विन्सर्वदैत्यकुलाधम ।
बलिपुत्रस्य भक्तस्य नोचितं वच ईदृशम् ॥ १३ ॥
दर्पस्यास्य प्रशमनं लप्स्यसे चाशु दारुणम् ।
महायुद्धमकस्माद्वै बलिना मत्समेन हि ॥ १४ ॥
रुद्र बोले-हे समस्त दैत्यकुलमें अधम ! हे अहंकारी ! तुझे सब प्रकारसे धिक्कार है, तुझ बलिपुत्र तथा मेरे भक्तके लिये इस प्रकारका वचन कहना उचित नहीं है । तुम अपने इस अहंकारको शान्ति शीघ्र प्राप्त करोगे । मेरे-जैसे बलवान्से तुम्हें अकस्मात् प्रचण्ड युद्धका सामना करना पड़ेगा ॥ १३-१४ ॥

तत्र ते गिरिसङ्‌काशा बाहवोऽनलकाष्ठवत् ।
छिन्ना भूमौ पतिष्यन्ति शस्त्रास्त्रैः कदलीकृताः ॥ १५ ॥
पर्वतके समान तुम्हारी ये भुजाएँ उस युद्ध में शस्त्रास्त्रोंसे छिन्न-भिन्न होकर इस प्रकार भूमिपर गिरेंगी, जैसे अग्निसे जलाया गया काष्ठ पृथ्वीपर गिर जाता है ॥ १५ ॥

यदेष मानुषशिरो मयूरसहितो ध्वजः ।
विद्यते तव दुष्टात्मंस्तस्य स्यात्पतनं यदा ॥ १६ ॥
स्थापितस्यायुधागारे विना वातकृतं भयम् ।
तदा युद्धं महाघोरं सम्प्राप्तमिति चेतसि ॥ १७ ॥
निधाय घोरं सङ्‌ग्रामं गच्छेथाः सर्वसैन्यवान् ।
साम्प्रतं गच्छ तद्वेश्म यतस्तद्विद्यते शिवः ॥ १८ ॥
तथा तान्स्वमहोत्पातांस्तत्र द्रष्टासि दुर्मते ।
इत्युक्त्वा विररामाथ गर्वहृद्‌भक्तवत्सलः ॥ १९ ॥
हे दुष्टात्मन् ! मोरसे युक्त मनुष्यके सिरवाली यह तुम्हारी ध्वजा जो शस्त्रागारपर स्थापित है, वह जब बिना वायुके गिर जाय, तब चित्तमें समझना कि तुम्हारे सामने महाघोर भय उपस्थित हो गया है । उस समय तुम अपनी सेनासहित घोर संग्राममें जाना । अब तुम अपने घर जाओ, अभी वहाँ तुम्हारा सब प्रकारसे कल्याण है । हे दुर्मते ! तुम बड़े घोर उत्पातोंको देखोगे । इस प्रकार कहकर अहंकारका नाश करनेवाले भक्तवत्सल शिव मौन हो गये ॥ १६-१९ ॥

सनत्कुमार उवाच
तच्छ्रुत्वा रुद्रमभ्यर्च्य दिव्यैरंजलिकुड्मलैः ।
प्रणम्य च महादेवं बाणश्च स्वगृहं गतः ॥ २० ॥
कुम्भाण्डाय यथावृत्तं पृष्टः प्रोवाच हर्षितः ।
पर्यैक्षिष्टासुरो बाणस्तं योगं ह्युत्सुकः सदा ॥ २१ ॥
अथ दैवात्कदाचित्स स्वयं भग्नं ध्वजं च तम् ।
दृष्ट्‍वा तत्रासुरो बाणो हृष्टो युद्धाय निर्ययौ ॥ २२ ॥
सनत्कुमार बोले-यह सुनकर बाणासुर अपने अंजलिस्थ दिव्य पुष्पोंसे महादेव रुद्रका पूजन करके उन्हें प्रणामकर अपने घर चला गया । उसने कुम्भाण्डके पूछनेपर हर्षित हो सारा वृत्तान्त कह सुनाया और उत्सुक होकर उस योगकी प्रतीक्षा करने लगा । इसके अनन्तर अकस्मात् अपना ध्वज भग्न हुआ देखकर वह बाणासुर हर्षित होकर युद्धके लिये चल पड़ा ॥ २०-२२ ॥

स स्वसैन्यं समाहूय संयुक्तः साष्टभिर्गणैः ।
इष्टिं साङ्‌ग्रामिकां कृत्वा दृष्ट्‍वा साङ्‌ग्रामिकं मधु ॥ २३ ॥
ककुभां मंगलं सर्वं सम्प्रेक्ष्य प्रस्थितोऽभवत् ।
महोत्साहो महावीरो बलिपुत्रो महारथः ॥ २४ ॥
अपनी सेनाको बुलाकर उस महावीर, महारथी एवं महोत्साही बलिपुत्र बाणासुर ने अपने आठ गणोंको साथ लेकर संग्रामसम्बन्धी यज्ञकर विजयप्रद मधुका एवं सभी दिशाओंमें मांगलिक द्रव्योंका दर्शनकर युद्धके लिये प्रस्थान किया ॥ २३-२४ ॥

इति हृत्कमले कृत्वा कः कस्मादागमिष्यति ।
योद्धा रणप्रियो यस्तु नानाशस्त्रास्त्रपारगः ॥ २५ ॥
यस्तु बाहुसहस्रं मे छिनत्त्वनलकाष्ठवत् ।
तथा शस्त्रैर्महातीक्ष्णैश्च्छिनद्मि शतशस्त्विह ॥ २६ ॥
उसने अपने मनमें विचार किया कि आज रणप्रिय, नाना शस्त्रास्त्रोंका पारगामी वह कौन-सा योद्धा है, जो मुझसे युद्ध करनेके लिये कहाँसे आयेगा ? क्या वह सचमुच मेरी सहस्रों भुजाओंको अग्निदग्ध काष्ठके समान नष्ट कर देगा ? मैं भी युद्ध में महातीव्र अपने शस्त्रोंसे सैकड़ों योद्धाओं को काट डालूँगा ॥ २५-२६ ॥

एतस्मिन्नन्तरे कालः सम्प्राप्तः शंकरेण हि ।
यत्र सा बाणदुहिता सुजाता कृतमंगला ॥ २७ ॥
इसी बीच शिवजीकी प्रेरणासे वह काल आ पहुँचा, जब बाणासुरको सुन्दर कन्या ऊषा शृंगारकर विराजमान थी ॥ २७ ॥

माधवं माधवे मासि पूजयित्वा महानिशि ।
सुप्ता चान्तः पुरे गुप्ते स्त्रीभावमुपलम्भिता ॥ २८ ॥
गौर्या सम्प्रेषितेनापि व्याकृष्टा दिव्यमायया ।
कृष्णात्मजात्मजेनाथ रुदन्ती सा ह्यनाथवत् ॥ २९ ॥
स चापि तां बलाद्‌भुक्त्वा पार्वत्याः सखिभिः पुनः ।
नीतस्तु दिव्ययोगेन द्वारकां निमिषान्तरात् ॥ ३० ॥
वह वैशाख मासकी अर्धरात्रिमें विष्णुकी पूजाकर स्त्रीभावसे उपलम्भित होकर गुप्त अन्तःपुरमें सो रही थी । तभी भगवती पार्वतीकी दिव्य मायासे आकृष्ट होनेके कारण कृष्णपुत्र प्रद्युम्नसे उत्पन्न हुए अनिरुद्धने उस रात्रिमें उससे बलपूर्वक विहार किया, जिससे वह अनाथके समान रोने लगी । अनिरुद्ध भी उस कन्यासे बलपूर्वक रमणकर पार्वतीकी सखियोंके साथ दिव्य योगसे क्षणमात्रमें द्वारकापुरी चले आये ॥ २८-३० ॥

मृदिता सा तदोत्थाय रुदन्ती विविधा गिरः ।
सखीभ्यः कथयित्वा तु देहत्यागे कृतक्षणा ॥ ३१ ॥
तब उपभोग की हुई वह कन्या उठकर रोते-रोते अपनी सखियोंसे नाना प्रकारके वाक्य कहते हुए शरीरका त्याग करनेके लिये तैयार हो गयी ॥ ३१ ॥

सख्या कृतात्मनो दोषं सा व्यास स्मारिता पुनः ।
सर्वं तत्पूर्ववृत्तान्तं ततो दृष्ट्‍वा च साऽभवत् ॥ ३२ ॥
अब्रवीच्चित्रलेखां च ततो मधुरया गिरा ।
ऊषा बाणस्य तनया कुम्भाण्डतनयां मुने ॥ ३३ ॥
हे व्यासजी ! जब सखियोंने उसके द्वारा किये गये पूर्व दोषका स्मरण कराया, तो वह अपने पूर्व कृत्योंका स्मरण करने लगी । हे मुने ! उस समय बाणासुरकी पुत्री ऊषाने कुम्भाण्डकी पुत्री चित्रलेखासे मधुर वाणीमें कहा- ॥ ३२-३३ ॥

ऊषोवाच
सखि यद्येष मे भर्ता पार्वत्या विहितः पुरा ।
केनोपायेन ते गुप्तः प्राप्यते विधिवन्मया ॥ ३४ ॥
कस्मिन्कुले स वा जातो मम येन हृतं मनः ।
इत्युषावचनं श्रुत्वा सखी प्रोवाच तां तदा ॥ ३५ ॥
ऊषा बोली-हे सखि ! यदि पार्वतीने पहले ही इसे मेरा पति निश्चित किया है, तो वह गुप्त पति किस उपायसे मुझे प्राप्त हो सकता है ? जिसने मेरा मन हरण किया, वह किस कुलमें उत्पन्न हुआ है ? ऊषाकी यह बात सुनकर सखीने उससे कहा- ॥ ३४-३५ ॥

चित्रलेखोवाच
त्वया स्वप्ने च यो दृष्टः पुरुषो देवि तं कथम् ।
अहं संमानयिष्यामि न विज्ञातस्तु यो मम ॥ ३६ ॥
चित्रलेखा बोली-हे देवि ! तुमने स्वप्नमें जिस पुरुषको देखा है, उसे मैं किस प्रकारसे लाऊँ, जो मेरे ज्ञानसे परे है, उसको ले आना किस प्रकार सम्भव है ! ॥ ३६ ॥

दैत्यकन्या तदुक्ते तु रागान्धा मरणोत्सुका ।
रक्षिता च तया सख्या प्रथमे दिवसे ततः ॥ ३७ ॥
पुनः प्रोवाच सोषां वै चित्रलेखा महामतिः ।
कुम्भाण्डस्य सुता बाणतनयां मुनिसत्तम ॥ ३८ ॥
व्यसनं तेऽपकर्षामि त्रिलोक्यां यदि भाष्यते ।
समानेष्ये नरं यस्ते मनोहर्ता तमादिश ॥ ३९ ॥
उसके ऐसा कहनेपर अनुरागवती दैत्यकन्या ऊषाने उसके वियोगके कारण मरनेका निश्चय कर लिया, किंतु उस सखीने [समझा-बुझाकर] प्रथम दिन उसकी रक्षा की । इसके बाद हे मुनिश्रेष्ठ ! कुम्भाण्डकी पुत्री महाबुद्धिमती उस चित्रलेखाने बाणासुरकी पुत्री ऊषासे पुनः इस प्रकार कहा-हे सखि ! तुम अपने मनको हरण करनेवाले उस पुरुषको बताओ, यदि वह इस त्रिलोकीमें कहीं भी है, तो मैं उसे लाऊँगी और तुम्हारी विपत्ति दूर करूँगी ॥ ३७-३९ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्युक्त्वा वस्त्रपुटके देवान्दैत्यांश्च दानवान् ।
गन्धर्वसिद्धनागांश्च यक्षादींश्च तथालिखत् ॥ ४० ॥
तथा नरांस्तेषु वृष्णीन् शूरमानकदुन्दुभिम् ।
व्यलिखद्‌रामकृष्णौ च प्रद्युम्नं नरसत्तमम् ॥ ४१ ॥
सनत्कुमार बोले-इस प्रकार कहकर चित्रलेखाने वस्त्रके ऊपर देव, दैत्य, दानव, गन्धर्व, सिद्ध, नाग तथा यक्ष आदिके चित्र खींचे । उसने मनुष्यों में वृष्णिवंशी यादवों, शूर, वसुदेव, बलराम, कृष्ण तथा नरश्रेष्ठ प्रद्युम्नका चित्र खींचा ॥ ४०-४१ ॥

अनिरुद्धं विलिखितं प्राद्युम्निं वीक्ष्य लज्जिता ।
आसीदवाङ्मुखी चोषा हृदये हर्षपूरिता ॥ ४२ ॥
जब उसने प्रद्युम्नपुत्र अनिरुद्धका चित्र खींचा, तो उस चित्रको देखते ही लज्जित हो ऊषाने अपना मुख नीचे कर लिया और मनसे वह अत्यन्त प्रसन्न हुई ॥ ४२ ॥

ऊषा प्रोवाच चौरोऽसौ मया प्राप्तस्तु यो निशि ।
पुरुषः सखि येनाशु चेतोरत्नं हृतं मम ॥ ४३ ॥
यस्य संस्पर्शनादेव मोहिताहं तथाभवम् ।
तमहं ज्ञातुमिच्छामि वद सर्वं च भामिनि ॥ ४४ ॥
कस्यायमन्वये जातो नाम किं चास्य विद्यते ।
इत्युक्ता साब्रवीन्नाम योगिनी तस्य चान्वयम् ॥ ४५ ॥
ऊषा बोली-हे सखि रात्रिमें आकर जिसने शीघ्र ही मेरे चित्तरलको चुराया था, वह यही पुरुष है, मैंने उसे पा लिया । हे भामिनि ! जिसके स्पर्शमात्रसे मैं मोहित हो गयी थी, उसे मैं जानना चाहती हूँ, तुम सब कुछ बताओ । यह किसके कुलमें उत्पन्न हुआ है और इसका क्या नाम है ? ऊषाके ऐसा कहनेपर उस योगिनीने उसके वंश तथा नामका वर्णन किया ॥ ४३-४५ ॥

सर्वमाकर्ण्य सा तस्य कुलादि मुनिसत्तम ।
उत्सुका बाणतनया बभाषे सा तु कामिनी ॥ ४६ ॥
हे मुनिसत्तम ! उसका कुल आदि सब कुछ जानकर बाणासुरकी पुत्री उस कामिनी ऊषाने उत्कण्ठित हो इस प्रकार कहा- ॥ ४६ ॥

ऊषोवाच
उपायं रचय प्रीत्या तत्प्राप्त्यै सखि तत्क्षणात् ।
येनोपायेन तं कान्तं लभेयं प्राणवल्लभम् ॥ ४७ ॥
ऊषा बोली-हे सखि ! अब तुम उसकी प्राप्तिके लिये प्रेमपूर्वक कोई उपाय करो, जिससे मैं अपने उस प्राणवल्लभ पतिको शीघ्र प्राप्त कर सकूँ ॥ ४७ ॥

यं विनाहं क्षणं नैकं सखि जीवितुमुत्सहे ।
तमानयेह सद्यत्नात्सुखिनीं कुरु मां सखि ॥ ४८ ॥
हे सखि ! मैं जिसके बिना एक क्षण भी जीवन धारण करनेमें समर्थ नहीं हूँ, उसे प्रयत्नपूर्वक शीघ्र यहाँ लाओ और मुझे सुखी करो ॥ ४८ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्युक्ता सा तथा बाणात्मजया मन्त्रिकन्यका ।
विस्मिताभून्मुनिश्रेष्ठ सुविचारपराऽभवत् ॥ ४९ ॥
सनत्कुमार बोले-हे मुनिवर ! तब बाणकी कन्याके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर मन्त्री कुम्भाण्डकी पुत्री चित्रलेखा विस्मित हो गयी और विचार करने लगी ॥ ४९ ॥

ततःसखीं समाभाष्य चित्रलेखा मनोजवा ।
बुद्ध्वा तं कृष्णपौत्रं सा द्वारकां गन्तुमुद्यता ॥ ५० ॥
इसके बाद सखीसे आज्ञा लेकर मनके समान वेगवाली वह चित्रलेखा उस पुरुषको कृष्णका पौत्र अनिरुद्ध जानकर द्वारका जानेको उद्यत हो गयी ॥ ५० ॥

ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां तृतीये तु गतेऽहनि ।
आप्रभातान्मुहूर्ते तु सम्प्राप्ता द्वारकां पुरीम् ॥ ५१ ॥
एकेन क्षणमात्रेण नभसा दिव्ययोगिनी ।
ततश्चान्तःपुरोद्याने प्राद्युम्निर्ददृशे तया ॥ ५२ ॥
क्रीडन्नारीजनैःसार्द्धं प्रपिबन्माधवी मधु ।
सर्वाङ्‌गसुन्दरः श्यामः सुस्मितो नवयौवनः ॥ ५३ ॥
वह ज्येष्ठ मासके कृष्णपक्षको चतुर्दशीको प्रातःकालसे तीन प्रहर बीत जानेपर द्वारकापुरी पहुँची । उस दिव्य योगिनीने क्षणमात्रमें आकाशमार्गसे अन्तःपुरके उद्यानमें प्रद्युम्नपुत्र अनिरुद्धको देखा । उस समय सर्वांगसुन्दर श्यामवर्ण तथा नवीन यौवनयुक्त वे अनिरुद्ध स्त्रियोंके साथ क्रीड़ा कर रहे थे । वे माधवी लतासे निर्मित मधुका पान कर रहे थे और मन्द-मन्द हँस रहे थे । ५१-५३ ॥

ततः खट्‍वां समारूढमन्धकारपटेन सा ।
आच्छादयित्वा योगेन तामसेन च माधवम् ॥ ५४ ॥
ततःसा मूर्ध्नि तां खट्‍वां गृहीत्वा निमिषान्तरात् ।
सम्प्राप्ता शोणितपुरं यत्र सा बाणनन्दिनी ॥ ५५ ॥
कामार्ता विविधान्भावाञ्चकारोन्मत्तमानसा ।
आनीतमथ तं दृष्ट्‍वा तदा भीता च साऽभवत् ॥ ५६ ॥
उसके बाद शय्यापर बैठे हुए उन अनिरुद्धको उसने तामस योगके द्वारा अन्धकार-पटसे आच्छादित कर दिया, पुनः उस शय्याको अपने सिरपर रखकर वह क्षणमात्रमें शोणितपुरमें आ गयी, जहाँ कामपीड़ित वह बाणकन्या ऊषा उन्मत्तचित्त होकर नाना प्रकारके भाव व्यक्त कर रही थी । उस समय लाये गये अपने पति अनिरुद्धको देखकर ऊषा भयभीत हो गयी ॥ ५४-५६ ॥

अन्तःपुरे सुगुप्ते च नवे तस्मिन्समागमे ।
यावत्क्रीडितुमारब्धं तावज्ज्ञातं च तत्क्षणात् ॥ ५७ ॥
अन्तःपुरद्वारगतैर्वेत्रजर्जरपाणिभिः ।
इङ्‌गितैरनुमानैश्च कन्यादौःशील्यमाचरन् ॥ ५८ ॥
स चापि दृष्टस्तैस्तत्र नरो दिव्यवपुर्धरः ।
तरुणो दर्शनीयस्तु साहसी समरप्रियः ॥ ५९ ॥
अत्यन्त सुरक्षित उस अन्तःपुरमें नवीन समागममें ज्यों ही उन दोनोंने क्रीड़ा प्रारम्भ की, उसी समय हाथमें बॅत लिये द्वारपालोंने कामचेष्टाओं तथा अनुमानोंसे कन्याके दुराचरणको जान लिया । उन लोगोंने दिव्य शरीरधारी, नवयुवक, साहसी एवं युद्धकलामें कुशल उस पुरुष (अनिरुद्ध) को भी देख लिया ॥ ५७-५९ ॥

तं दृष्ट्‍वा सर्वमाचख्युर्बाणाय बलिसूनवे ।
पुरुषास्ते महावीराः कन्यान्तःपुररक्षकाः ॥ ६० ॥
द्वारपाला ऊचुः
देव कश्चिन्न जानीते गुप्तश्चान्तःपुरे बलात् ।
स कस्तु तव कन्यां वै स्वयंग्राहादधर्षयत् ॥ ६१ ॥
इसके बाद अन्तःपुरके रक्षक उन महावीर पुरुषोंने उसे देखकर सारा वृत्तान्त बलिपुत्र बाणसे कह दिया ॥ ६० ॥

दानवेन्द्र महाबाहो पश्यपश्यैनमत्र च ।
यद्युक्तं स्यात्तत्कुरुष्व न दुष्टा वयमित्युत ॥ ६२ ॥
द्वारपाल बोले-हे देव ! अत्यन्त सुरक्षित अन्तःपुरमें प्रवेशकर किसी पुरुषने आपकी कन्याके साथ बलात् शयन किया है, वह कौन है, हमलोग उसे नहीं जानते । हे दानवेन्द्र ! हे महाबाहो ! इसे देखिये, देखिये और जो उचित हो, उसे कीजिये, हमलोग दोषी नहीं हैं । ६१-६२ ॥

सनत्कुमार उवाच
तेषां तद्वचनं श्रुत्वा दानवेन्द्रो महाबलः ।
विस्मितोभून्मुनिश्रेष्ठ कन्यायाः श्रुतदूषणः ॥ ६३ ॥
सनत्कुमार बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! उनका वचन सुनकर और कन्याका दोष सुनकर महाबली दैत्येन्द्र [बाणासुर] आश्चर्यचकित हो गया ॥ ६३ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहि तायां पञ्चमे
युद्धखण्डे ऊषाचरित्रवर्णनं नाम द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५२ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें ऊषाचरित्रवर्णन नामक बावनवा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५२ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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