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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे
त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ऊषाचरित्रे अनिरुद्धोषाविहारवर्णनम् -
क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बाँधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना - सनत्कुमार उवाच अथ बाणासुरः क्रुद्धस्तत्र गत्वा ददर्श तम् । दिव्यलीलात्तवपुषं प्रथमे वयसि स्थितम् ॥ १ ॥ सनत्कुमार बोले-इसके बाद बाणासुरने अत्यन्त क्रुद्ध हो वहाँ जाकर दिव्य लीलासे युक्त शरीरवाले तथा नवीन युवावस्थासे सम्पन्न उन अनिरुद्धको देखा ॥ १ ॥ तं दृष्ट्वा विस्मितं वाक्यं किं कारणमथाब्रवीत् । बाणः क्रोधपरीतात्मा युधि शौण्डो हसन्निव ॥ २ ॥ अहो मनुष्यो रूपाढ्यःसाहसी धैर्यवानिति । कोयमागतकालश्च दुष्टभाग्यो विमूढधीः ॥ ३ ॥ येन मे कुलचारित्रं दूषितं दुहिता हिता । तं मारयध्वं कुपिताः शीघ्रं शस्त्रैः सुदारुणैः ॥ ४ ॥ दुराचारं च तं बद्ध्वा घोरे कारागृहे ततः । रक्षध्वं विकटे वीरा बहुकालं विशेषतः ॥ ५ ॥ न जाने कोऽयमभयः को वा घोरपराक्रमः । विचार्येति महाबुद्धिः संदिग्धोऽभूच्छरासुरः ॥ ६ ॥ उन्हें देखकर आश्चर्यचकित हो युद्ध में प्रचण्ड वह बाणासुर क्रोधसे आगबबूला हो हँसते हुए उनके आनेके कारणोंपर विचार करता हुआ राक्षसोंसे बोला-अहो ! इतना रूपवान्, साहसी, धैर्यशील, अभागा एवं मूर्ख यह कौन पुरुष है, जिसकी मृत्यु आसन्न है और जिसने मेरी पुत्रीको दूषितकर मेरा कुल दूषित किया है । तुमलोग क्रुद्ध होकर अपने अति कठोर शस्त्रोंसे शीघ्र ही उसका वध करो । अथवा इस दुराचारीको बाँधकर बहुत कालके लिये घोर तथा विकट कारागारमें रखो । 'मालूम नहीं कि निर्भीक एवं महापराक्रमी यह कौन है'-यह सोचकर वह महाबुद्धि बाणासुर सन्देहमें पड़ गया ॥ २-६ ॥ ततो दैत्येन सैन्यं तु दशसाहस्रकं शनैः । वधाय तस्य वीरस्य व्यादिष्टं पापबुद्धिना ॥ ७ ॥ इसके बाद उस पापबुद्धि दैत्यने उस वीरको मारनेके लिये दस हजार सैनिकोंको आज्ञा दी ॥ ७ ॥ तदादिष्टास्तु ते वीराः सर्वतोन्तःपुरं द्रुतम् । छादयामासुरत्युग्राश्छिन्धि भिन्दीति वादिनः ॥ ८ ॥ उसके द्वारा आदिष्ट समस्त वीरोंने 'मारो काटो' कहते हुए शीघ्र ही चारों ओरसे अन्तःपुरको घेर लिया ॥ ८ ॥ शत्रुसैन्यं ततो दृष्ट्वा गर्जमानः स यादवः । अन्तःपुरं द्वारगतं परिघं गृह्य चातुलम् ॥ ९ ॥ निष्क्रान्तो भवनात्तस्माद्वज्रहस्त इवान्तकः । तेन तान्किङ्करान् हत्वा पुनश्चान्तःपुरं ययौ ॥ १० ॥ एवं दशसहस्राणि सैन्यानि मुनिसत्तम । जघान रोषरक्ताक्षो वर्द्धितः शिवतेजसा ॥ ११ ॥ तब शत्रुसेनाको अन्तःपुरके द्वारपर आया हुआ देखकर गर्जना करते हुए वे अनिरुद्ध अतुलनीय परिष हाथमें लेकर, हाथमें वज़ लिये हुए कालके समान भवनसे निकले और उससे समस्त सैनिकोंका वधकर पुनः अन्तःपुरमें चले गये । हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार शिवके तेजसे पराक्रमशील अनिरुद्धने क्रोधसे रक्तनेत्र हो दस हजार सेनाओंका वध कर दिया ॥ ९-११ ॥ लक्षे हतेऽथ योधानां ततो बाणासुरो रुषा । कुभाण्डं स गृहीत्वा तु युद्धे शौण्डं समाह्वयत् ॥ १२ ॥ अनिरुद्धं महाबुद्धिं द्वन्द्वयुद्धे महाहवे । प्राद्युम्निं रक्षितं शैवतेजसा प्रज्वलत्तनुम् ॥ १३ ॥ इसके बाद [पुनः युद्धके लिये आयी हुई) एक लाख सेनाका वध कर दिये जानेपर क्रोधमें भरे हुए बाणासुरने युद्धकुशल कुम्भाण्डको लेकर शिवतेजसे रक्षित तथा कान्तिमान् शरीरवाले महाबुद्धिमान् प्रद्युम्नपुत्र अनिरुद्धको उस महायुद्धमें द्वन्द्वयुद्धके लिये ललकारा ॥ १२-१३ ॥ ततो दशसहस्राणि तुरंगाणां रथोत्तमान् । युद्धप्राप्तेन खड्गेन दैत्येन्द्रस्य जघान सः ॥ १४ ॥ तब उन्होंने दैत्येन्द्रको दस हजार सेना, उतने घोड़े और उतने ही रथोंको उसीके खड्गसे नष्ट कर दिया, जो द्वन्द्वयुद्ध में उन्हें बाणासुरसे प्राप्त हुआ था ॥ १४ ॥ तद्वधाय ततः शक्तिं कालवैश्वानरोपमाम् । अनिरुद्धो गृहीत्वा तां तया तं निजघान हि ॥ १५ ॥ इसके बाद अनिरुद्धने कालाग्निके समान शक्ति उसके वधके लिये ग्रहणकर उसके ऊपर प्रहार किया ॥ १५ ॥ रथोपस्थे ततो बाणस्तेन शक्त्याहतो दृढम् । स साश्वस्तत्क्षणं वीरस्तत्रैवान्तरधीयत ॥ १६ ॥ इसके बाद रथके पिछले भागमें स्थित वह वीर बाणासुर उस शक्तिसे दृढ़तापूर्वक आहत होते ही रथ एवं घोड़ोंके सहित उसी क्षण बहीपर अन्तर्धान हो गया ॥ १६ ॥ तस्मिंस्त्वदर्शनं प्राप्ते प्राद्युम्निरपराजितम् । आलोक्य ककुभःसर्वाः तस्थौ गिरिरिवाचलः ॥ १७ ॥ अदृश्यमानस्तु तदा कूटयोधः स दानवः । नानाशस्त्रसहस्रैस्तं जघान हि पुनः पुनः ॥ १८ ॥ तब बिना पराजित हुए उस दैत्यके अन्तर्धान हो जानेपर अनिरुद्ध सभी दिशाओंकी ओर देखकर पहाड़के समान अचल हो गये । उस समय अन्तर्हित होकर वह दैत्य कपटपूर्वक युद्ध करता हुआ नाना प्रकारके शस्त्रोंसे अनिरुद्धपर बार-बार प्रहार करने लगा ॥ १७-१८ ॥ छद्मनां नागपाशैस्तं बबन्ध स महाबलः । बलिपुत्रो महावीरः शिवभक्तः शरासुरः ॥ १९ ॥ उसके बाद महाबली महावीर तथा शिवभक्त बलिपुत्र बाणासुरने छलसे अनिरुद्धको नागपाशमें बाँध लिया ॥ १९ ॥ तं बद्ध्वा पञ्जरान्तःस्थं कृत्वा युद्धादुपारमत् । उवाच बाणः सङ्कुद्धः सूतपुत्रं महाबलम् ॥ २० ॥ इस प्रकार उन्हें बाँधकर पिंजड़ेमें बन्द करके बाणासुर युद्धसे विश्राम करने लगा । इसके बाद उसने क्रोधमें भरकर महाबली सूतपुत्र (सारथी)-से कहा- ॥ २० ॥ बाणासुर उवाच सूतपुत्र शिरश्छिन्धि पुरुषस्यास्य वै लघु । येन मे दूषितं पूतं बलाद्दुष्टेन सत्कुलम् ॥ २१ ॥ छित्वा तु सर्वगात्राणि राक्षसेभ्यः प्रयच्छ भोः । अथास्य रक्तमांसानि क्रव्यादा अपि भुञ्जताम् ॥ २२ ॥ अगाधे तृणसङ्कीर्णे कूपे पातकिनं जहि । किं बहूक्त्या सूतपुत्र मारणीयो हि सर्वथा ॥ २३ ॥ दाणासुर बोला-हे सूतपुत्र ! बड़ी शीघ्रतासे इस पुरुषका सिर काट लो, जिसने बलपूर्वक मेरे पवित्र उत्तम कुलको दूषित किया है अथवा इसके सम्पूर्ण शरीरको काटकर राक्षसोंको दे दो और इसके रुधिर तथा मांसको मांसभक्षी [चील, कौवे आदि] भी खायें अथवा इस पापीको तृणोंसे व्याप्त गहरे कुएँमें डालकर मार डालो । हे सूतपुत्र ! बहुत क्या कहूँ, यह सभी प्रकारसे वधके योग्य है ॥ २१-२३ ॥ सनत्कुमार उवाच तस्य तद्वचनं श्रुत्वा धर्मबुद्धिर्निशाचरः । कुम्भाण्डस्त्वब्रवीद्वाक्यं बाणं सन्मन्त्रिसत्तमम् ॥ २४ ॥ सनत्कुमार बोले-उसका यह वचन सुनकर वह धर्मबुद्धिवाला राक्षस कुम्भाण्ड बाणासुरसे नीतियुक्त यह वाक्य कहने लगा- ॥ २४ ॥ कुम्भाण्ड उवाच नैतत्कर्तुं समुचितं कर्म देव विचार्यताम् । अस्मिन् हते हतो ह्यात्मा भवेदिति मतिर्मम ॥ २५ ॥ कुम्भाण्ड बोला-हे देव ! विचार कीजिये, यह कर्म करना उचित नहीं है; क्योंकि इसके मार डालनेपर आत्माका हनन होगा, ऐसा मेरा विचार है ॥ २५ ॥ अयं तु दृश्यते देव तुल्यो विष्णोः पराक्रमैः । वर्धितश्चन्द्रचूडस्य त्वद्दुष्टस्य सुतेचसा ॥ २६ ॥ अथ चन्द्रललाटस्य साहसेन समत्स्वयम् । इमामवस्थां प्राप्तोऽसि पौरुषे संव्यवस्थितः ॥ २७ ॥ अयं शिवप्रसादाद्वै कृष्णपौत्रो महाबलः । अस्मांस्तृणोपमान् वेत्ति दष्टोऽपि भुजगैर्बलात् ॥ २८ ॥ हे देवयह तो पराक्रममें विष्णुके समान तथा आपके इष्ट शिवजीके तेजसे बढ़ा हुआ दिखायी पड़ रहा है, पुरुषार्थमें शिवजीके साहससे भरा हुआ यह इस अवस्थाको प्राप्त हुआ है । श्रीकृष्णका यह महाबली पौत्र बलपूर्वक दैत्यरूपी साँसे डंसा हुआ भी शिवजीके प्रसादसे हमलोगोंको तृणके समान समझ रहा है ॥ २६-२८ ॥ सनत्कुमार उवाच एतद्वाक्यं तु बाणाय कथयित्वा स दानवः । अनिरुद्धमुवाचेदं राजनीतिविदुत्तमः ॥ २९ ॥ सनत्कुमार बोले-बाणासुरसे ऐसा वचन कहकर राजनीतिविशारद उस दैत्यने अनिरुद्धसे कहा- ॥ २९ ॥ कुम्भाण्ड उवाच कोसि कस्यासि रे वीर सत्यं वद ममाग्रतः । केन वा त्वमिहानीतो दुराचार नराधम ॥ ३० ॥ दैत्येन्द्रं स्तुहि वीरं त्वं नमस्कुरु कृताजलिः । जितोस्मीति वचो दीनं कथयित्वा पुनः पुनः ॥ ३१ ॥ एवं कृते तु मोक्षःस्यादन्यथा बन्धनादि च । तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य प्रतिवाक्यमुवाच सः ॥ ३२ ॥ कुम्भाण्ड बोला-हे वीर ! हे दुराचारी ! हे नराधम ! तुम कौन हो, किसके पुत्र हो और तुमको यहाँ कौन लाया है-यह सब मेरे समक्ष सत्य-सत्य कहो और 'मैं हार गया'-इस प्रकारका दीन वचन बार-बार कहकर हाथ जोड़कर दैत्येन्द्रकी स्तुति करो तथा उन्हें नमस्कार करो । ऐसा करनेपर तुम बन्धनसे मुक्त हो जाओगे, अन्यथा बंधे ही रहोगे । उसका यह वचन सुनकर वे उत्तर देने लगे- ॥ ३०-३२ ॥ अनिरुद्ध उवाच रे रे दैत्याऽधमसखे करपिण्डोपजीवक । निशाचर दुराचार शत्रुधर्मं न वेत्सि भोः ॥ ३३ ॥ अनिरुद्ध बोले-हे अधम दैत्यके मित्र ! प्रजाद्वारा प्राप्त धनसे आजीविका चलानेवाले हे निशाचर ! हे दुराचारी ! तुम शत्रुधर्मको नहीं जानते ॥ ३३ ॥ दैन्यं पलायनं चाथ शूरस्य मरणाधिकम् । विरुद्धं चोपशल्यं च भवेदिति मतिर्मम ॥ ३४ ॥ दीनता तथा युद्धसे भागना शूरके लिये मरनेसे भी बढ़कर है, यह प्रतिकूल और शल्यके समान दुःखदायी है, ऐसा मेरा विचार है ॥ ३४ ॥ क्षत्रियस्य रणे श्रेयो मरणं सम्मुखे सदा । न वीरमानिनो भूमौ दीनस्येव कृताञ्जलिः ॥ ३५ ॥ वीर तथा मानी क्षत्रियके लिये संग्राममें सम्मुख होकर मृत्युको प्राप्त हो जाना श्रेयस्कर है, किंतु दीनकी भौति हाथ जोड़कर भूमिपर रहना श्रेष्ठ नहीं है ॥ ३५ ॥ सनत्कुमार उवाच इत्यादि वीरवाक्यानि बहूनि स जगाद तम् । तदाकर्ण्य सबाणोऽसौ विस्मितोऽभूच्चुकोप च ॥ ३६ ॥ तदोवाच नभोवाणी बाणस्याश्वासनाय हि । शृण्वतां सर्ववीराणामनिरुद्धस्य मन्त्रिणः ॥ ३७ ॥ सनत्कुमार बोले-इस प्रकारके वीरतापूर्ण अनेक वाक्य अनिरुद्धने उस दैत्यसे कहे । यह सुनकर बाणासुरसहित वह कुम्भाण्ड आश्चर्यचकित हुआ और क्रोधित हो उठा । उसी समय सभी वीरों, अनिरुद्ध तथा मन्त्रीको सुनाते हुए उस बाणासुरको समझानेके लिये आकाशवाणी हुई ॥ ३६-३७ ॥ व्योमवाण्युवाच भो भो बाण महावीर न क्रोधं कर्तुमर्हसि । बलिपुत्रोसि सुमते शिवभक्त विचार्यताम् ॥ ३८ ॥ आकाशवाणी बोली-हे महावीर ! हे बाणासुर ! हे सुमते ! हे शिवभक्त ! तुम बलिके पुत्र हो, तुम्हारे लिये क्रोध करना उचित नहीं है, इसपर जरा विचार करो ॥ ३८ ॥ शिवः सर्वेश्वरः साक्षी कर्मणां परमेश्वरः । तदधीनमिदं सर्वं जगद्वै सचराचरम् ॥ ३९ ॥ शिवजी सबके ईश्वर, कौके साक्षी तथा परमेश्वर हैं, यह चराचर जगत् उन्हींके अधीन है ॥ ३९ ॥ स एव कर्ता भर्ता च संहर्ता जगतां सदा । रजः सत्त्वतमोधारी विधिविष्णुहरात्मकः ॥ ४० ॥ सर्वस्यान्तर्गतः स्वामी प्रेरकः सर्वतः परः । निर्विकार्यव्ययो नित्यो मायाधीशोऽपि निर्गुणः ॥ ४१ ॥ तस्येच्छयाऽबलो ज्ञेयो बली बलिवरात्मज । इति विज्ञाय मनसि स्वस्थो भव महामते ॥ ४२ ॥ वे ही सत्त्वगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी होकर ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवरूपसे इस जगत्के कर्ता, पालक तथा संहारक हैं । वे सबके अन्तर्यामी, स्वामी, सबके प्रेरक, सबसे परे, निर्विकार, अविनाशी, नित्य मायाके अधिपति तथा निर्गुण हैं । हे बलिके श्रेष्ठ पुत्र ! उनकी इच्छासे निबलको भी बलवान् जानना चाहिये । हे महामते ऐसा मनमें जानकर सावधान हो जाओ । ४०-४२ ॥ गर्वापहारी भगवान्नानालीलाविशारदः । नाशयिष्यति ते गर्वमिदानीं भक्तवत्सलः ॥ ४३ ॥ अभिमानका नाश करनेवाले, भक्तोंका पालन करनेवाले तथा नाना प्रकारकी लीला करने में निपुण भगवान् सदाशिव अभी तुम्हारा अभिमान नष्ट करेंगे ॥ ४३ ॥ सनत्कुमार उवाच इत्याभाष्य नभोवाणी विरराम महामुने । बाणासुरस्तद्वचनादनिरुद्धं न जघ्निवान् ॥ ४४ ॥ किं तु स्वान्तःपुरं गत्वा पपौ पानमनुत्तमम् । मद्वाक्यं च विसस्मार विजहार विरुद्धधीः ॥ ४५ ॥ ततोनिरुद्धो बद्धस्तु नागभोगैर्विषोल्बणैः । प्रिययाऽतृप्तचेतास्तु दुर्गां सस्मार तत्क्षणात् ॥ ४६ ॥ सनत्कुमार बोले-हे महामुने ! ऐसा कहकर आकाशवाणी शान्त हो गयी और बाणासुरने उसके वचनके अनुसार अनिरुद्धको नहीं मारा, किंतु अपने अन्तःपुरमें जाकर उस प्रतिकूल बुद्धिवालेने उत्तम रसका पान किया और वह उस वचनको भूल गया तथा विहार करने लगा । उसके बाद भयंकर विषवाले नागोंसे बँधे हुए तथा प्रियाके बिना अतृप्त चित्तवाले अनिरुद्धने उसी क्षण दुर्गादेवीका स्मरण किया ॥ ४४-४६ ॥ अनिरुद्ध उवाच शरण्ये देवि बद्धोऽस्मि दह्यमानस्तु पन्नगैः । आगच्छ मे कुरु त्राणं यशोदे चण्डरोषिणि ॥ ४७ ॥ शिवभक्ते महादेवि सृष्टिस्थित्यन्तकारिणी । त्वां विना रक्षको नान्यस्तस्माद्रक्ष शिवे हि माम् ॥ ४८ ॥ अनिरुद्ध बोले-हे शरण्ये ! हे देवि ! हे यशोदे ! हे चण्डरोषिणि ! मैं बँधा हूँ तथा साँसे भस्म हो रहा हूँ, आप आइये और मेरी रक्षा कीजिये । हे शिवभक्ते ! हे शिवे ! हे महादेवि ! आप सृष्टि, स्थिति तथा प्रलय करनेवाली हैं, आपके अतिरिक्त कोई भी रक्षा करनेवाला नहीं है, अतः आप मेरी रक्षा कीजिये ॥ ४७-४८ ॥ सनत्कुमार उवाच तेनेत्थं तोषिता तत्र काली भिन्नाञ्जनप्रभा । ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां सम्प्राप्तासीन्महानिशि ॥ ४९ ॥ गुरुभिर्मुष्टिनिर्घातैर्दारयामास पञ्जरम् । शरांस्तान्भस्मसात्कृत्वा सर्परूपान् भयानकान् ॥ ५० ॥ मोचयित्वानिरुद्धं तु ततश्चान्तःपुरं ततः । प्रवेशयित्वा दुर्गा तु तत्रैवादर्शनं गता ॥ ५१ ॥ सनत्कुमार बोले-उनके द्वारा इस प्रकारको स्तुति किये जानेपर निखरे हुए काजलके समान वर्णवाली कालीजी ज्येष्ठ मासके कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको महानिशामें प्रकट हुई । उन्होंने अपनी विशाल मुष्टिके प्रहारसे उस पिंजरेको तोड़ दिया तथा उन भयानक सर्परूपी बाणोंको भस्मकर अनिरुद्धको बन्धनमुक्त करके उन्हें अन्तःपुरमें प्रविष्ट करानेके पश्चात् दुर्गा वहींपर अन्तर्धान हो गयीं ॥ ४९-५१ ॥ इत्थं देव्याः प्रसादात्तु शिवशक्तेर्मुनीश्वर । कृच्छ्रमुक्तोनिरुद्धोभूत्सुखी चैव गतव्यथः ॥ ५२ ॥ हे मुनीश्वर ! इस प्रकार शिवशक्तिरूपा देवीकी कृपासे अनिरुद्ध दुःखसे निवृत्त हो गये और व्यथारहित होकर सुखी हो गये ॥ ५२ ॥ अथ लब्धजयो भूत्वानिरुद्धः शिवशक्तितः । प्राद्युम्निर्बाणतनयां प्रियां प्राप्य मुमोद च ॥ ५३ ॥ पूर्ववद्विजहारासौ तया स्वप्रियया सुखी । पीतपानःसुरक्ताक्षः स बाणसुतया ततः ॥ ५४ ॥ तब शिवशक्तिके प्रभावसे विजय प्राप्तकर तथा बाणपुत्री अपनी प्रियाको प्राप्तकर अनिरुद्ध आनन्दित हो गये । इसके बाद मद्यपान करके लाल नेत्रोंवाले वे अनिरुद्ध अपनी प्रिया उस बाणासुरकी कन्याके साथ सुखी होकर पूर्वकी भीति विहार करने लगे ॥ ५३-५४ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे ऊषाचरित्रे अनिरुद्धोषाविहारवर्णनंनाम त्रिपञ्चाशत्तमो ऽध्याय ॥ ५३ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुगसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें ऊषाचरित्रमें अनिरुद्ध ऊषाविहारवर्णन नामक तिरपनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५३ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |