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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

बाणभुजकृन्तनगर्वापहारवर्णनंम् -
भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा-अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना -


व्यास उवाच
सनत्कुमार सर्वज्ञ ब्रह्मपुत्र नमोस्तु ते ।
अद्‌भुतेयं कथा तात श्राविता मे त्वया मुने ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे सर्वज्ञ ! हे ब्रह्मपुत्र ! हे सनत्कुमार ! आपको नमस्कार है । हे मुने ! हे तात ! आपने मुझे यह अद्‌भुत कथा सुनायी ॥ १ ॥

जृम्भिते जृम्भणास्त्रेण हरिणा समरे हरे ।
हते बाणबले बाणः किमकार्षीच्च तद्वद ॥ २ ॥
श्रीकृष्णके द्वारा युद्धमें जृम्भणास्त्रसे शिवजीके मोहित किये जानेपर तथा बाणकी सेनाके मार दिये जानेपर बाणासुरने क्या किया, उसको कहिये ॥ २ ॥

सूत उवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य व्यासस्यामिततेजसः ।
प्रत्युवाच प्रसन्नात्मा ब्रह्मपुत्रो मुनीश्वरः ॥ ।६ ॥
सूतजी बोले-अमिततेजस्वी उन व्यासजीका वचन सुनकर ब्रह्माके पुत्र मुनीश्वर [सनत्कुमार] प्रसन्नचित्त होकर कहने लगे- ॥ ३ ॥

सनत्कुमार उवाच
शृणु व्यास महाप्राज्ञ कथां च परमाद्‌भुताम् ।
कृष्णशंकरयोस्तात लोकलीलानुसारिणोः ॥ ४ ॥
सनत्कुमार बोले-हे महाप्राज्ञ ! हे व्यासजी ! हे तात ! लोकलीलाका अनुसरण करनेवाले श्रीकृष्ण तथा शिवजीकी अद्‌भुत तथा सुन्दर कथाका श्रवण कीजिये ॥ ४ ॥

शयिते लीलया रुद्रे सपुत्रे सगणे सति ।
बाणो विनिर्गतो युद्धं कर्तुं कृष्णेन दैत्यराट् ॥ ५ ॥
पुत्रों तथा गणोंसहित लीलासे शिवजीके सो जानेपर वह दैत्यराज बाणासुर कृष्णके साथ युद्ध करनेके लिये निकल पड़ा ॥ ५ ॥

कुम्भाण्डसङ्‌गृहीताश्वो नानाशस्त्रास्त्रधृक् ततः ।
चकार युद्धमतुलं बलिपुत्रो महाबलः ॥ ६ ॥
कुम्भाण्डसे घोड़ा लेकर वह महाबली दैत्य अनेक प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंको धारणकर अतुलनीय युद्ध करने लगा ॥ ६ ॥

दृष्ट्‍वा निजबलं नष्टं स दैत्येन्द्रोऽत्यमर्षितः ।
चकार युद्धमतुलं बलि पुत्रो महाबलः ॥ ७ ॥
उस महाबली दैत्येन्द्र बाणासुरने अपनी सेनाको नष्ट हुआ देखकर क्रोधित हो घोर युद्ध किया ॥ ७ ॥

श्रीकृष्णोपि महावीरो गिरिशाप्तमहाबलः ।
उच्चैर्जगर्ज तत्राजौ बाणं मत्वा तृणोपमम् ॥ ८ ॥
उस संग्राममें शिवजीसे महान् बल पाकर महावीर श्रीकृष्णने बाणासुरको तिनकेके समान मानकर बड़े जोरसे गर्जन किया ॥ ८ ॥

धनुष्टङ्‌कारयामास शार्ङ्‌गाख्यं निजमद्‌भुतम् ।
त्रासयन्बाणसैन्यं तदवशिष्टं मुनीश्वर ॥ ९ ॥
हे मुनीश्वर बाणासुरकी शेष बची हुई सेनाको भयभीत करते हुए वे अपने अद्‌भुत शार्क नामक धनुषकी टंकार करने लगे ॥ ९ ॥

तेन नादेन महता धनुष्टङ्‌कारजेन हि ।
द्यावाभूम्योरन्तरं वै व्याप्तमासीदनन्तरम् ॥ १० ॥
धनुषकी टंकारसे उत्पन्न हुए उस तीव्र नादसे भूमि और आकाशका मध्यभाग व्याप्त हो गया ॥ १० ॥

चिक्षेप विविधान्बाणान्बाणाय कुपितो हरिः ।
कर्णान्तं तद्विकृष्याथ तीक्ष्णानाशीविषोपमान् ॥ ११ ॥
उसी समय श्रीकृष्णने क्रोधित हो उस धनुषको कानतक खींचकर बाणासुरके ऊपर सपोंके समान विषैले अनेक तीक्ष्ण बाणोंको छोड़ा ॥ ११ ॥

आयातांस्तान्निरीक्ष्याऽथ स बाणो बलिनन्दनः ।
अप्राप्तानेव चिच्छेद स्वशरैः स्वधनुश्च्युतैः ॥ १२ ॥
बलिपुत्र बाणासुरने उन बाणोंको आता हुआ देखकर अपने धनुषसे निकले हुए बाणोंसे उन्हें अपनेतक पहुँचनेके पहले बीचमें ही काट दिया ॥ १२ ॥

पुनर्जगर्ज स विभुर्बाणो वैरिगणार्दनः ।
तत्रसुर्वृष्णयः सर्वे कृष्णात्मानो विचेतसः ॥ १३ ॥
शत्रुओंको विनष्ट करनेवाला वह दैत्यराज बाण पुनः गर्जना करने लगा, तब वहाँ सम्पूर्ण यादव भयभीत हो गये और श्रीकृष्णका स्मरण करते हुए मूछित हो गये ॥ १३ ॥

स्मृत्वा शिवपदाम्भोजं चिक्षेप निजसायकान् ।
स कृष्णायातिशूराय महागर्वो बलेःसुतः ॥ १४ ॥
इसके बाद बलिके पुत्र महान् अहंकारी बाणने शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण करके अतिशूर श्रीकृष्णके ऊपर अपने बाण छोड़े ॥ १४ ॥

कृष्णोपि तानसम्प्राप्तानच्छिनत्सशरैर्द्रुतम् ।
स्मृत्वा शिवपदाम्भोजममरारिर्महाबलः ॥ १५ ॥
तब महादैत्योंके शत्रु श्रीकृष्णजीने भी शिवजीके चरणकमलोंका स्मरणकर अपने बाणोंसे उन बाणोंको दूरसे शीघ्र ही काट दिया ॥ १५ ॥

रामादयो वृष्णयश्च स्वं स्वं योद्धारमाहवे ।
निजघ्नुर्बलिनःसर्वे कृत्वा क्रोधं समाकुलाः ॥ १६ ॥
तब संग्राममें आकुल बलराम आदि सभी बली यादवोंने क्रोध करके अपने-अपने प्रतियोद्धाको मारा ॥ १६ ॥

इत्थं चिरतरं तत्र बलिनोश्च द्वयोरपि ।
बभूव तुमुलं युद्धं शृण्वतां विस्मयावहम् ॥ १७ ॥
इस प्रकार वहाँ उन दोनों बली पुरुषोंका बहुत समय-तक भयानक युद्ध हुआ, जो सुननेवालोंको भी आश्चर्यचकित कर देनेवाला था ॥ १७ ॥

तस्मिन्नवसरे तत्र क्रोधं कृत्वाऽतिपक्षिराट् ।
बाणासुरबलं सर्वं पक्षाघातैरमर्दयत् ॥ १८ ॥
संग्राममें उस समय गरुड़जीने अति क्रोध करके अपने पंखोंके प्रहारोंसे बाणासुरकी सब सेनाको चूर्ण-चूर्ण कर दिया ॥ १८ ॥

मर्दितं स्वबलं दृष्ट्‍वा मर्दयन्तं च तं बली ।
चुकोपाति बलेः पुत्रः शैवराड् दितिजेश्वरः ॥ १९ ॥
स्मृत्वा शिवपदाम्भोजं सहस्रभुजवान्द्रुतम् ।
महत्पराक्रमं चक्रे वैरिणां दुःसहं स वै ॥ २० ॥
तब अपनी सेनाका मर्दन करनेवाले गरुड़को तथा अपनी सेनाको मर्दित देखकर शैवोंमें श्रेष्ठ बलवान् उस दैत्यने उनके ऊपर अति क्रोध किया और हजार भुजावाले उस दैत्यने शीघ्र ही महादेवके चरणारविन्दोंका स्मरण करके शत्रुओंके लिये असह्य महान् पराक्रम प्रदर्शित किया ॥ १९-२० ॥

चिक्षेप युगपद्‌बाणानमितांस्तत्र वीरहा ।
कृष्णादिसर्वयदुषु गरुडे च पृथक् पृथक् ॥ २१ ॥
वहाँ वीरोंको नष्ट करनेवाले उस दैत्यने एक साथ श्रीकृष्णादि समस्त यादवोंपर तथा गरुड़के ऊपर अलग-अलग अनेक बाणोंसे प्रहार किया ॥ २१ ॥

जघानैकेन गरुडं कृष्णमेकेन पत्त्रिणा ।
बलमेकेन च मुने परानपि तथा बली ॥ २२ ॥
हे मुने ! बलवान् उस दैत्यने एक बाणसे गरुडको, एक बाणसे श्रीकृष्णको. एकसे बलरामको और एकसे अन्य लोगोंको मारा ॥ २२ ॥

ततः कृष्णो महावीर्यो विष्णुरूपः सुरारिहा ।
चुकोपातिरणे तस्मिञ्जगर्ज च महेश्वरः ॥ २३ ॥
जघान बाणं तरसा शार्ङ्‌गनिःसृतसच्छरैः ।
अति तद्‌बलमत्युग्रं युगपत्स्मृतशंकरः ॥ २४ ॥
उस समय बड़े पराक्रमी विष्णुके अवताररूप तथा दैत्योंका नाश करनेवाले परमेश्वर श्रीकृष्ण उस युद्ध में अत्यधिक कुपित हुए और गरजने लगे तथा शिवजीका स्मरणकर अपने धनुषसे छोड़े हुए बाणोंसे अति उग्र पराक्रमवाले उसके सैनिकों तथा उस दैत्य बाणासुरपर उन्होंने एक साथ प्रहार किया ॥ २३-२४ ॥

चिच्छेद तद्धनुः शीघ्रं छत्रादिकमनाकुलः ।
हयांश्च पातयामास हत्वा तान्स्वशरैर्हरिः ॥ २५ ॥
निश्चिन्त होकर श्रीकृष्णाने अपने बाणोंसे उसके धनुष, छत्र आदिको काट दिया और उसके घोड़ोंको मारकर गिरा दिया ॥ २५ ॥

बाणोऽपि च महावीरो जगर्जाति प्रकुप्य ह ।
कृष्णं जघान गदया सोऽपतद्धरणीतले ॥ २६ ॥
महावीर बाणासुरने अतिक्रोधित हो गर्जन किया और अपनी गदासे श्रीकृष्णपर प्रहार किया, जिससे वे पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ २६ ॥

उत्थायारं ततः कृष्णो युयुधे तेन शत्रुणा ।
शिवभक्तेन देवर्षे लोकलीलाऽनुसारतः ॥ २७ ॥
हे देवर्षे । तब श्रीकृष्ण लोकमें लीला करनेके कारण शीघ्र ही भूमिसे उठकर शिवभक्त उस शत्रुके साथ युद्ध करने लगे ॥ २७ ॥

एवं द्वयोश्चिरं कालं बभूव सुमहान् रणः ।
शिवरूपो हरिः कृष्णः स च शैवोत्तमो बली ॥ २८ ॥
इस प्रकार उन दोनोंमें बहुत समयतक घोर संग्राम होता रहा, भगवान् श्रीकृष्ण शिवरूप थे तथा वह बली बाणासुर शिवजीके भक्तोंमें श्रेष्ठ था ॥ २८ ॥

कृष्णोऽथ कृत्वा समरं चिरं बाणेन वीर्यवान् ।
शिवाऽऽज्ञया प्राप्तबलश्चुकोपाति मुनीश्वरः ॥ २९ ॥
हे मुनीश्वर ! पराक्रमशाली श्रीकृष्ण बहुत देरतक बाणासुरके साथ युद्धकर पुन: शिवजीकी आज्ञासे बल प्राप्तकर अत्यधिक क्रोधित हो उठे ॥ २९ ॥

ततःसुदर्शनेनाशु कृष्णो बाणभुजान्बहून् ।
चिच्छेद भगवान् शम्भुः शासनात्परवीरहा ॥ ३० ॥
तदनन्तर शत्रुवीरोंका नाश करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने शिवजीकी आज्ञासे शीघ्र ही सुदर्शनचक्रसे बाणासुरकी बहुत-सी भुजाओंको काट दिया ॥ ३० ॥

अवशिष्टा भुजास्तस्य चत्वारोऽतीव सुन्दराः ।
गतव्यथो बभूवाशु शंकरस्य प्रसादतः ॥ ३१ ॥
उस समय उसकी श्रेष्ठ चार भुजाएँ शेष रह गयीं और शिवजीके अनुग्रहसे वह शीघ्र ही व्यथारहित हो गया ॥ ३१ ॥

गतस्मृतिर्यदा बाण शिरश्छेत्तुं समुद्यतः ।
कृष्णो वीरत्वमापन्नस्तदा रुद्रः समुत्थितः ॥ ३२ ॥
जिस समय बाणासुर शिवजीके स्मरणसे हीन हुआ, उसी समय वीरताको प्राप्त हुए श्रीकृष्ण उसका सिर काटनेको उद्यत हुए, तब भगवान् सदाशिव उनके सामने खड़े हो गये ॥ ३२ ॥

रुद्र उवाच
भगवन्देवकीपुत्र यदाज्ञप्तं मया पुरा ।
तत्कृतं च त्वया विप्र मदाज्ञाकारिणा सदा ॥ ३३ ॥
रुद्र बोले-हे भगवन् ! हे देवकीपुत्र ! हे विष्णो ! मैंने जो पहले आपको आज्ञा दी थी, मेरी आज्ञाका पालन करनेवाले आपने वैसा ही किया ॥ ३३ ॥

मा बाणस्य शिरश्छिन्धि संहरस्व सुदर्शनम् ।
मदाज्ञया चक्रमिमममोघं मज्जने सदा ॥ ३४ ॥
अब आप बाणासुरके सिरको मत काटिये, मेरी आज्ञासे अपने सुदर्शनचक्रको लौटा लीजिये । क्योंकि मेरे भक्तके ऊपर सदा यह चक्र निष्फल होगा ॥ ३४ ॥

दत्तं मया पुरा तुभ्यमनिवार्यं रणे तव ।
चक्रं जयं च गोविन्द निवर्तस्व रणात्ततः ॥ ३५ ॥
हे गोविन्द ! संग्राममें मैंने आपको यह अनिवार्य सुदर्शन चक्र दिया है, इसलिये इस विजयचक्रको युद्धभूमिसे लौटा लीजिये ॥ ३५ ॥

दधीचे रावणे वीरे तारकादिपुरेष्वपि ।
विना मदाज्ञां लक्ष्मीश रथाङ्‌गं नामुचः पुरा ॥ ३६ ॥
त्वं तु योगीश्वरः साक्षात्परमात्मा जनार्दन ।
विचार्यतां स्वमनसा सर्वभूतहिते रतः ॥ ३७ ॥
वरमस्य मया दत्तं न मृत्युर्भयमस्ति वै ।
तन्मे वचः सदा सत्यं परितुष्टोस्म्यहं तव ॥ ३८ ॥
हे लक्ष्मीश ! पहले भी आपने यह सुदर्शनचक्र दधीचि, वीर रावण तथा तारक आदिके ऊपर मेरी आज्ञाके बिना नहीं चलाया । आप तो योगीश्वर साक्षात् परमात्मा, जनार्दन तथा सब प्राणियोंके हितमें तत्पर रहनेवाले हैं, इसका अपने मनमें विचार कीजिये । मैंने इसे यह वर दे दिया है कि तुम्हें मृत्युका भय नहीं रहेगा । अतः मेरा यह वचन सदा सत्य होगा, मैं आपसे सन्तुष्ट हूँ ॥ ३६-३८ ॥

पुराऽयं गर्वितो मत्तो युद्धं देहीति मेऽब्रवीत् ।
भुजान्कण्डूयमानस्तु विस्मृतात्मगतिर्हरे ॥ ३९ ॥
तदाहमशपं तं वै भुजच्छेत्ताऽऽगमिष्यति ।
अचिरेणातिकालेन गतगर्वो भविष्यसि ॥ ४० ॥
हे हरे । पहले यह अपनी भुजाओंको खुजलाकर अपनी गतिको भूल गया और गर्वित तथा उन्मत्त होकर इसने मुझसे युद्धका वर माँगा । तब मैंने उसे शाप दिया कि थोड़े ही समयमें तुम्हारी भुजाओंको काटनेवाला आयेगा और तुम्हारा अभिमान नष्ट हो जायगा ॥ ३९-४० ॥

मदाज्ञया हरिः प्राप्तो भुजच्छेत्ता तवाऽथ वै ।
निवर्तस्व रणाद्‌गच्छ स्वगृहं सवधूवरः ॥ ४१ ॥
वे बाणसे बोले-मेरी आज्ञासे तुम्हारी भुजाओंको काटनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण आ गये हैं, इसलिये तुम अब संग्रामसे लौट जाओ और [श्रीकृष्णसे कहा-] वधू और वरके साथ अपने स्थानको चले जाओ ॥ ४१ ॥

इत्युक्तः स तयोमैत्रीं कारयित्वा महेश्वरः ।
तममुज्ञाप्य सगणः सपुत्रः स्वालयं ययौ ॥ ४२ ॥
ऐसा कहकर शिवजी उन दोनोंमें मित्रता कराकर उनको आज्ञा देकर गणों तथा पुत्रोंसहित अपने स्थानको चले गये ॥ ४२ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्याकर्ण्य वचः शम्भोः संहृत्य च सुदर्शनम् ।
अक्षताङ्‌गस्तु विजयी तत्कृष्णोन्तःपुरं ययौ ॥ ४३ ॥
अनिरुद्धं समाश्वास्य सहितं भार्यया पुनः ।
जग्राह रत्नसङ्‌घातं बाणदत्तमनेकशः ॥ ४४ ॥
तत्सखीं चित्रलेखां च गृहीत्वा परयोगिनीम् ।
प्रसन्नोऽभूत्ततः कृष्णः कृतकार्यः शिवाज्ञया ॥ ४५ ॥
सनत्कुमार बोले-इस प्रकार भगवान् शिवजीका वचन सुनकर अपने सुदर्शनचक्रको लौटाकर अक्षत शरीरवाले विजयी श्रीकृष्णने अन्तःपुरमें प्रवेश किया । भार्यासहित अनिरुद्धको आश्वासन देकर उन्होंने बाणासुरके द्वारा प्रदान किये गये अनेक रत्नसमुदायको स्वीकार किया । ऊषाकी सखी परमयोगिनी चित्रलेखाको लेकर शिवजीकी आज्ञासे कृतकृत्य श्रीकृष्ण अति प्रसन्न हुए ॥ ४३-४५ ॥

हृदा प्रणम्य गिरिशमामन्त्र्य च बलेः सुतम् ।
परिवारसमेतस्तु जगाम स्वपुरीं हरिः ॥ ४६ ॥
पथि जित्वा च वरुणं विरुद्धं तमनेकधा ।
द्वारकां च पुरीं प्राप्तः समुत्सवसमन्वितः ॥ ४७ ॥
विसर्जयित्वा गरुडं सखीन्वीक्ष्योपहस्य च ।
द्वारकायां ततो दृष्ट्‍वा कामचारी चचार ह ॥ ४८ ॥
इसके बाद श्रीकृष्ण हदयसे शिवजीको प्रणामकर बलिपुत्र बाणासुरसे विदा लेकर कुटुम्बसहित अपने नगरको चले गये । मार्गमें प्रतिकूल हुए वरुणको अनेक प्रकारसे जीतकर वे आनन्दित होकर द्वारकापुरीमें आये । इसके बाद गरुड़जीको विसर्जितकर अपने मित्रोंको देखकर तथा उनसे हासपरिहास करते हुए द्वारकामें पहुँचकर इच्छानुसार विचरण करने लगे ॥ ४६-४८ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे
बाणभुजकृन्तनगर्वापहारवर्णनं नाम पञ्चपञ्चाशत्तमोध्यायः ॥ ५५ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुगसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें बाणभुजकनान गर्वापहारवर्णन नामक पचपनयाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५५ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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