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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

एकोनषष्टितमोऽध्यायः

विदलोत्पलदैत्यवधवर्णनम् -
काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा विदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य -


सनत्कुमार उवाच
शृणु व्यास सुसम्प्रीत्या चरितं परमेशितुः ।
यथावधीत्स्वप्रियया दैत्यमुद्दिश्य सञ्ज्ञया ॥ १ ॥
आस्तां पुरा महादैत्यो विदलोत्पलसञ्ज्ञकौ ।
अपुंवध्यौ महावीरौ सुदृप्तौ वरतो विधेः ॥ २ ॥
तृणीकृतत्रिजगती पुरुषाभ्यां स्वदोर्बलात् ।
ताभ्यां सर्वे सुरा ब्रह्मन् दैत्याभ्यां निर्जिता रणे ॥ ३ ॥
सनत्कुमार बोले-हे व्यासजी ! अब आप प्रेमपूर्वक शिवजीके उस चरित्रको सुनिये, जिस प्रकार उन्होंने संकेतद्वारा दैत्यको बताकर अपनी प्रियासे उस दैत्यका वध कराया था । पूर्व समयमें विदल तथा उत्पल नामक दो महाबली दैत्य थे । वे दोनों ही ब्रह्माजीके वरसे मनुष्योंसे वध न होनेका वर पाकर बड़े पराक्रमी तथा अभिमानी हो गये थे । हे ब्रह्मन् ! उन दैत्योंने अपनी भुजाओंके बलसे तीनों लोकोंको तृणवत् कर दिया तथा संग्राममें सम्पूर्ण देवताओंको जीत लिया ॥ १-३ ॥

ताभ्यां पराजिता देवा विधेस्ते शरणं गताः ।
नत्वा तं विधिवत्सर्वे कथयामासुरादरात ॥ ४ ॥
उन दैत्योंसे पराजित हुए सब देवता ब्रह्माजीकी शरणमें गये और आदरसे उनको विधिपूर्वक प्रणामकर उन्होंने [दैत्योंके उपद्रवको] कहा ॥ ४ ॥

इति ब्रह्मा ह्यवोचत्तान् देव्या वध्यौ च तौ ध्रुवम् ।
धैर्यं कुरुत संस्मृत्य सशिवं शिवमादरात् ॥ ५ ॥
तब ब्रह्माजीने उनसे यह कहा कि ये दोनों दैत्य निश्चय ही पार्वतीजीद्वारा मारे जायेंगे । आप सब पार्वतीसहित शिवजीका भलीभाँति स्मरण करके धैर्य धारण कीजिये ॥ ५ ॥

भक्तवत्सलनामासौ सशिवाशंकरः शिवः ।
शं करिष्यत्यदीर्घेण कालेन परमेश्वरः ॥ ६ ॥
देवीसहित भक्तवत्सल तथा कल्याण करनेवाले वे परमेश्वर बहुत शीघ्र ही आपलोगोंका कल्याण करेंगे ॥ ६ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्युक्त्वा तांस्ततो ब्रह्मा तूष्णीमासीच्छिवं स्मरन् ।
तेपि देवा मुदं प्राप्य स्वं स्वं धाम ययुस्तदा ॥ ७ ॥
सनत्कुमार बोले-तब देवताओंसे ऐसा कहकर वे ब्रह्माजी शिवका स्मरण करके मौन हो गये और वे देवता भी प्रसन्न होकर अपने अपने लोकको चले गये ॥ ७ ॥

अथ नारददेवर्षिः शिवप्रेरणया तदा ।
गत्वा तदीयभवनं शिवासौन्दर्यमुज्जगौ ॥ ८ ॥
तत्पश्चात् शिवजीकी प्रेरणासे देवर्षि नारदजीने उनके घर जाकर पार्वतीकी सुन्दरताका वर्णन किया ॥ ८ ॥

श्रुत्वा तद्वचनं दैत्यावास्तां मायाविमोहितौ ।
देवीं परिजिहीर्षू तौ विषमेषु प्रपीडितौ ॥ ९ ॥
विचारयामासतुस्तौ कदा कुत्र शिवा च सा ।
भविष्यति विधेः प्राप्तोदयान्नाविति सर्वदा ॥ १० ॥
तब नारदजीका वचन सुनकर मायासे मोहित, विषयोंसे पीड़ित तथा पार्वतीका हरण करनेकी इच्छावाले उन दोनों दैत्योंने मनमें विचार किया कि प्रारब्धके उदय होनेके कारण हम दोनोंको वह पार्वती कब और कहाँ मिलेगी ॥ ९-१० ॥

एकस्मिन्समये शम्भुर्विजहार सुलीलया ।
कौतुकेनैव चिक्रीडे शिवा कन्दुकलीलया ॥ ११ ॥
सखीभिःसह सुप्रीत्या कौतुकाच्छिवसन्निधौ ॥ १२ ॥
किसी समय शिवजी अपनी लीलासे विहार कर रहे थे, उसी समय पार्वती भी कौतुकसे अपनी सखियोंके साथ प्रीतिपूर्वक शिवजीके समीप कन्दुकक्रीडा करने लगीं ॥ ११-१२ ॥

उदञ्चन्त्यञ्चदङ्‌गानां लाघवं परितन्वती ।
निश्वासामोदमुदितभ्रमराकुलितेक्षणा ॥ १३ ॥
भ्रश्यद्धम्मिल्लसन्माल्यस्वपुरीकृतभूमिका ।
स्विद्यत्कपोलपत्रालीस्रवदम्बुकणोज्ज्वला ॥ १४ ॥
स्फुटच्चोलांशुकपथतिर्यदङ्‌गप्रभावृता ।
उल्लसत्कन्दुकास्फालातिश्रोणितकराम्बुजा ॥ १५ ॥
कन्दुकानुगसद्दृष्टिनर्तितभ्रूलताञ्चला ।
मृडानी किल खेलन्ती ददृशे जगदम्बिका ॥ १६ ॥
ऊपरको गेंद फेंकती हुई, अपने अंगोंकी लघुताका विस्तार करती हुई, श्वासकी सुगन्धसे प्रसन्न हुए भाँरोंसे घिरनेके कारण चंचल नेत्रवाली, केशपाशसे माला टूट जानेके कारण अपने रूपको प्रकट करनेवाली, पसीना आनेसे उसके कणोंसे कपोलोंकी पत्ररचनासे शोभित, प्रकाशमान चोलांशुक (कुर्ती) के मार्गसे निकलती हुई अंगकी कान्तिसे व्याप्त, शोभायमान गेंदको ताड़न करनेसे लाल हुए करकमलोंवाली और गेंदके पीछे दृष्टि देनेसे कम्पायमान भौंहरूपी लताके अंचलवाली जगत्की माता पार्वती खेलती हुई दिखायी दी ॥ १३-१६ ॥

अन्तरिक्षचराभ्यां च दितिजाभ्यां कटाक्षिता ।
क्रोडीकृताभ्यामिव वै समुपस्थितमृत्युना ॥ १७ ॥
विदलोत्पलसञ्ज्ञाभ्यां दृप्ताभ्यां वरतो विधेः ।
तृणीकृतत्रिजगती पुरुषाभ्यां स्वदोर्बलात् ॥ १८ ॥
आकाशमें विचरते हुए उन दोनों दैत्योंने कटाक्षासे देखा, मानो उपस्थित मृत्युने ही दोनोंको गोदमें ले लिया हो । ब्रह्माजीके वरदानसे गर्वित विदल और उत्पल नामक दोनों दैत्य अपनी भुजाओंके बलसे तीनों लोकोंको तृणके समान समझते थे ॥ १७-१८ ॥

देवीं तां सञ्जिहीर्षन्तौ विषमेषु प्रपीडितौ ।
दिव उत्तेरतुः क्षिप्रं मायां स्वीकृत्य शाम्बरीम् ॥ १९ ॥
धृत्वा पारिषदीं मायामायातावम्बिकान्तिकम् ।
तावत्यन्तं सुदुर्वृत्तावतिचञ्चलमानसौ ॥ २० ॥
कामदेवके बाणोंसे पीड़ित हुए दोनों दैत्य उन देवी पार्वतीके हरणकी इच्छासे शीघ्र ही शाम्बरी माया करके आकाशसे उतरे । अति दुराचारी तथा अति चंचल मनवाले वे दोनों दैत्य मायासे गणोंका रूप धारणकर पार्वतीके समीप आये ॥ १९-२० ॥

अथ दुष्टनिहन्त्रा वै सावज्ञेन हरेण तौ ।
विज्ञातौ च क्षणादास्तां चाञ्चल्याल्लोचनोद्‌भवात् ॥ २१ ॥
कटाक्षिताथ देवेन दुर्गा दुर्गतिघातिनी ।
दैत्याविमामिति गणौ नेति सर्वस्वरूपिणा ॥ २२ ॥
तभी दुष्टोंका नाश करनेवाले शिवजीने क्षणमात्रमें चंचल नेत्रोंसे उन दोनोंको जान लिया । सर्वस्वरूपी महादेवने संकटको दूर करनेवाली पार्वतीकी ओर देखा, उन्होंने समझ लिया कि ये दोनों दैत्य हैं, गण नहीं हैं ॥ २१-२२ ॥

अथ सा नेत्रसञ्ज्ञां स्वस्वामिनस्तां बुबोध ह ।
महाकौतुकिनस्तात शंकरस्य परेशितुः ॥ २३ ॥
उस समय पार्वतीजी महाकौतुकी तथा कल्याणकारी परमेश्वर अपने पति शिवके नेत्रसंकेतको समझ गयीं ॥ २३ ॥

ततो विज्ञाय सञ्ज्ञां तां सर्वज्ञार्द्धशरीरिणी ।
तेनैव कन्दुकेनाथ युगपन्निर्जघान तौ ॥ २४ ॥
महाबलौ महादेव्या कन्दुकेन समाहतौ ।
परिभ्रम्य परिभ्रम्य तौ दुष्टौ विनिपेततुः ॥ २५ ॥
वृन्तादिव फले पक्वे तालेनानिललोलिते ।
दम्भोलिना परिहते शृङ्‌गे इव महागिरेः ॥ २६ ॥
उस नेत्रसंकेतको जानकर शिवजीकी अर्धागिनी पार्वतीने सहसा उसी गेंदसे उन दोनोंपर एक साथ प्रहार कर दिया । तब महादेवी पार्वतीके गेंदसे प्रताड़ित हुए महाबलवान् वे दोनों दुष्ट घूम-घूमकर उसी प्रकार गिर पड़े, जिस प्रकार वायुके वेगसे ताड़के वृक्षके गुच्छेसे पके हुए फल तथा वनके प्रहारसे सुमेरु पर्वतके शिखर गिर जाते हैं ॥ २४-२६ ॥

तौ निपात्य महादैत्यावकार्यकरणोद्यतौ ।
ततः परिणतिं यातो लिङ्‌गरूपेण कन्दुकः ॥ २७ ॥
कुत्सित कर्ममें प्रवृत्त हुए उन दैत्योंको मारकर वह गेंद लिंगस्वरूपको प्राप्त हुआ ॥ २७ ॥

कन्दुकेश्वरसञ्ज्ञं च तल्लिङ्‌गमभवत्तदा ।
ज्येष्ठेश्वरसमीपे तु सर्वदुष्टनिवारणम् ॥ २८ ॥
उसी समयसे वह लिंग कन्दुकेश्वर नामसे प्रसिद्ध हो गया । सभी दोषोंका निवारण करनेवाला वह लिंग ज्येष्ठेश्वरके समीप है ॥ २८ ॥

एतस्मिन्नेव समये हरिब्रह्मादयः सुराः ।
शिवाविर्भावमाज्ञाय ऋषयश्च समाययुः ॥ २९ ॥
इसी समय शिवको प्रकट हुआ जानकर विष्णु, ब्रह्मा आदि सब देवता तथा ऋषिगण वहाँ आये ॥ २९ ॥

अथ सर्वे सुराः शम्भोर्वरान्प्राप्य तदाज्ञया ।
स्वधामानि ययुः प्रीतास्तथा काशीनिवासिनः ॥ ३० ॥
साम्बिकं शंकरं दृष्ट्‍वा कृताञ्जलिपुटाश्च ते ।
प्रणम्य तुष्टुवुर्भक्त्या वाग्भिरिष्टाभिरादरात् ॥ ३१ ॥
इसके बाद सम्पूर्ण देवता तथा काशीनिवासी शिवजीसे वरोंको पाकर उनकी आज्ञासे अपने स्थानको चले गये । पार्वतीसहित महादेवको देखकर उन्होंने अंजलि बाँधकर प्रणामकर भक्ति और आदरपूर्वक मनोहर वाणीसे उनकी स्तुति की ॥ ३०-३१ ॥

साम्बिकोऽपि शिवो व्यास क्रीडित्वा सुविहारवित् ।
जगाम स्वालयं प्रीतःसगणो भक्तवत्सलः ॥ ३२ ॥
हे व्यासजी ! उत्तम विहारको जाननेवाले भक्तवत्सल शिवजी पार्वतीके साथ क्रीड़ा करके प्रसन्न होकर गणोंसहित अपने लोकको चले गये ॥ ३२ ॥

कन्दुकेश्वरलिङ्‌गं च काश्यां दुष्टनिबर्हणम् ।
भुक्तिमुक्तिप्रदं सर्वकामदं सर्वदा सताम् ॥ ।३३ ॥
काशीपुरीमें कन्दुकेश्वर नामक लिंग दुष्टोंको नष्ट करनेवाला, भोग और मोक्षको देनेवाला तथा निरन्तर सत्पुरुषोंकी कामनाको पूर्ण करनेवाला है ॥ ३३ ॥

इदमाख्यानमतुलं शृणुयाद्यो मुदान्वितः ।
श्रावयेद्वा पठेद्यश्च तस्य दुःखभयं कुतः ॥ ३४ ॥
इह सर्वसुखं भुक्त्वा नानाविधमनुत्तमम् ।
परत्र लभते दिव्यां गतिं वै देवदुर्लभाम् ॥ ३५ ॥
जो मनुष्य इस अद्‌भुत चरित्रको प्रसन्न होकर सुनता या सुनाता है, पढ़ता या पड़ाता है, उसको दुःख और भय नहीं होता है । वह इस लोकमें सब प्रकारके उत्तम सुखोंको भोगकर परलोकमें देवगणोंके लिये भी दुर्लभ दिव्य गतिको प्राप्त करता है ॥ ३४-३५ ॥

इति तं वर्णितं तात चरितं परमाद्‌भुतम् ।
शिवयोर्भक्तवात्सल्यसूचकं शिवदं सताम् ॥ ३६ ॥
हे तात ! भक्तोंपर कृपालुताका सूचक, सजनोंका कल्याण करनेवाला तथा परम अद्‌भुत शिव-पार्वतीका यह चरित्र मैंने आपसे कहा ॥ ३६ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वामन्त्र्य तं व्यासं तन्नुतो मद्वरात्मजः ।
ययौ विहायसा काशीं चरितं शशिमौलिनः ॥ ३७ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] इस प्रकार शिवजीके चरित्रका वर्णनकर, उन व्यासजीसे अनुज्ञा लेकर और उनसे वन्दित होकर मेरे श्रेष्ठ पुत्र सनत्कुमार आकाशमार्गसे शीघ्र ही काशीको चले गये ॥ ३७ ॥

युद्धखण्डमिदं प्रोक्तं मया ते मुनिसत्तम ।
रौद्रीयसंहितामध्ये सर्वकामफलप्रदम् ॥ ३८ ॥
इयं हि संहिता रौद्री सम्पूर्णा वर्णिता मया ।
सदाशिवप्रियतरा भुक्तिमुक्तिफलप्रदा ॥ ३९ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! रुद्रसंहिताके अन्तर्गत सब कामनाओं और सिद्धियोंको पूर्ण करनेवाले इस युद्धखण्डका वर्णन मैंने आपसे किया । शिवको अत्यन्त सन्तुष्ट करनेवाली तथा भुक्ति-मुक्तिको देनेवाली इस सम्पूर्ण रुद्रसंहिताका वर्णन मैंने आपसे किया । ३८-३९ ॥

इमां यश्च पठेन्नित्यं शत्रुबाधानिवारिकाम् ।
सर्वान्कामानवाप्नोति ततो मुक्तिं लभेत ना ॥ ४० ॥
जो मनुष्य शत्रुबाधाका निवारण करनेवाली इस रुद्रसंहिताको नित्य पढ़ता है, वह सम्पूर्ण मनोरथोंको प्राप्त करता है और उसके बाद मुक्तिको प्राप्त कर लेता है ॥ ४० ॥

सूत उवाच
इति ब्रह्मसुतः श्रुत्वा पित्रा शिवयशः परम् ।
शतनामाप्य शम्भोश्च कृतार्थोऽभूच्छिवानुगः ॥ ४१ ॥
सूतजी बोले-इस प्रकार ब्रह्माके पुत्र नारदजी अपने पितासे शिवजीके परम यश तथा शिवके शतनामोंको सुनकर कृतार्थ एवं शिवानुगामी हो गये ॥ ४१ ॥

ब्रह्मनारदसंवादः सम्पूर्णः कथितो मया ।
शिवःसर्वप्रधानो हि किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ४२ ॥
मैंने यह ब्रह्मा और नारदजीका सम्पूर्ण संवाद आपसे कहा । शिवजी सम्पूर्ण देवताओंमें प्रधान हैं, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ॥ ४२ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे
विदलोत्पलदैत्यवधवर्णनं नामैकोनषष्टितमोऽध्यायः ॥ ५९ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें विदल और उत्पलदैत्यवधवर्णन नामक उनसठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५९ ॥

समाप्तेयं युद्धखण्डः ॥ समाप्तेयं द्वितीया रुद्रसंहिता ॥ २ ॥
॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयरुद्रसंहितायां पञ्चमो युद्धखण्डः समाप्तः ॥
॥ समाप्तेयं द्वितीया रुद्रसंहिता ॥ २ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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