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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

तृतीया शतरुद्रसंहितायां

प्रथमोऽध्यायः

शिवस्य पञ्चब्रह्मावतारवर्णनम् -
सूतजीसे शौनकादि मुनियोंका शिवावतारविषयक प्रश्न -


वन्दे महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराजसमुद्भवं शंकरमादिदेवम् ॥ १ ॥
मैं परम आनन्दस्वरूप, अनन्त लीलाओंसे युक्त, सर्वत्र व्यापक महान् गौरीप्रिय, कार्तिकेय और गजाननको उत्पन्न करनेवाले आदिदेव महेश्वर शंकरको नमस्कार करता हूँ ॥

शौनक उवाच -
व्यासशिष्यमहाभाग सूत ज्ञानदयानिधे ।
वद शंभ्ववतारांश्च यैरकार्षीत्सतां शिवम् ॥ १ ॥
शौनकजी बोले- हे व्यासशिष्य ! हे महाभाग ! हे ज्ञान और दयाके सागर सूतजी ! आप शिवजीके उन अवतारोंका वर्णन कीजिये, जिनके द्वारा [उन्होंने] सज्जन व्यक्तियोंका कल्याण किया हे ॥ १ ॥

सूत उवाच -
मुने शौनक सद्भक्त्या दत्तचित्तो जितेन्द्रियः ।
अवताराञ्छिवस्याहं वच्मि ते मुनये शृणु ॥ २ ॥
सूतजी बोले - हे मुने ! हे शौनक ! मैं शिवजीमें मन लगाकर और इन्द्रियोंको वशमें करके भक्तिपूर्वक शिवजीके अवतारोंका वर्णन आप महर्षिसे कर रहा हूँ, आप सुनिये ॥ २ ॥

एतत्पृष्टः पुरा नन्दी शिवमूर्तिः सतां गतिः ।
सनत्कुमारेण मुने तमुवाच शिवं स्मरन् ॥ ३ ॥
हे मुने ! पूर्वकालमे इसी बातको सनत्कुमारने शिवस्वरूप तथा सत्पुरुषोंकी रक्षा करनेमें समर्थ नन्दीश्वरसे पूछा था, तब शिवजीका स्मरण करते हुए नन्दीश्वर ने उनसे कहा था ॥ ३ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
असंख्याता हि कल्पेषु विभोः सर्वेश्वरस्य वै ।
अवतारास्तथापीह वच्म्यहं तान्यथामति ॥ ४ ॥
नन्दीश्वर बोले- हे सनत्कुमार ! सर्वव्यापक तथा सर्वेश्वर शंकरके विविध कल्पोंमें यद्यपि असंख्य अवतार हुए हैं, फिर भी मैं अपनी बुद्धिके अनुसार यहाँपर उनका वर्णन कर रहा हूँ ॥ ४ ॥

एकोनविंशकः कल्पो विज्ञेयः श्वेत लोहितः ।
सद्योजातावतारस्तु प्रथमः परिकीर्तितः ॥ ५ ॥
उन्नीसवाँ कल्प श्वेतलोहित नामवाला जानना चाहिये, इसमे प्रथम सद्योजात अवतार कहा गया है ॥ ५ ॥

तस्मिंस्तत्परमं ब्रह्म ध्यायतो ब्रह्मणस्तथा ।
उत्पन्नस्तु शिखायुक्तः कुमारः श्वेतलोहितः ॥ ६ ॥
उस कल्पमें जब ब्रह्माजी परम ब्रह्मके ध्यानमें अवस्थित थे, उसी समय उनसे शिखासे युक्त श्वेत और लोहित वर्णवाला एक कुमार उत्पन्न हुआ ॥ ६ ॥

तं दृष्ट्‍वा पुरुषं ब्रह्मा ब्रह्मरूपिणमीश्वरम् ।
ज्ञात्वा ध्यात्वा स हृदये ववन्दे प्रयताञ्जलिः। ७ ॥ ।
ब्रह्माजीने उस पुरुषको देखते ही उन्हें ब्रह्मस्वरूप ईश्वर जानकर उनका हृदयमें ध्यान करके हाथ जोडकर प्रणाम किया ॥ ७ ॥

सद्योजातं शिवं बुद्ध्वा जहर्ष भुवनेश्वरः ।
मुहुर्मुहुश्च सद्बुद्ध्या परं तं समचिन्तयत् ॥ ८ ॥
उनको सद्योजात शिव समझकर वे भुवनेश्वर अत्यन्त हर्षित हुए और बार-बार सद्‌बुद्धिपूर्वक परमतत्त्वरूप उन पुरुषका चिन्तन करने लगे ॥ ८ ॥

ततोऽस्य ध्यायतः श्वेताः प्रादुर्भूता यशस्विनः ।
कुमाराः परविज्ञानपरब्रह्मस्वरूपिणः ॥ ९ ॥
सुनन्दो नन्दनश्चैव विश्वनन्दोपनन्दनौ ।
शिष्यास्तस्य महात्मानो यैस्तद्ब्रह्म समावृतम् ॥ १० ॥
उसके बाद ब्रह्माके पुनः ध्यान करनेपर श्वेतवर्ण, यशस्वी, परम ज्ञानी एवं परब्रह्मस्वरूपवाले अनेक कुमार उत्पन्न हुए । उनके नाम सुनन्द, नन्दन, विश्वनन्द और उपनन्दन थे । ये सभी महात्मा उनके शिष्य हुए, उनके द्वारा यह संपूर्ण ब्रह्मलोक समावृत है ॥ ९-१० ॥

सद्योजातश्च वै शम्भुर्ददौ ज्ञानं च वेधसे ।
सर्गशक्तिमपि प्रीत्या प्रसन्नः परमेश्वरः ॥ ११ ॥
उन्हीं सद्योजात नामक परमेश्वर शिवजीने प्रसन्न होकर प्रेमपूर्वक ब्रह्माजीको ज्ञान प्रदान किया एवं सृष्टि उत्पन्न करनेका सामर्थ्य भी प्रदान किया ॥ ११ ॥

ततो विंशतिमः कल्पो रक्तो नाम प्रकीर्तितः ।
ब्रह्मा यत्र महातेजा रक्तवर्णमधारयत् ॥ १२ ॥
इसके बाद बीसवाँ रक्त नामक कल्प कहा गया है, जिसमें महातेजस्वी ब्रह्माजीने रक्तवर्ण धारण किया ॥ १२ ॥

ध्यायतः पुत्रकामस्य प्रादुर्भूतो विधेः सुतः ।
रक्तमाल्याम्बरधरो रक्ताक्षो रक्तभूषणः ॥ १३ ॥
जब पुत्रप्राप्तिकी कामनासे ब्रह्माजी ध्यानमें लीन थे, उसी समय उनसे रक्तवर्णकी माला तथा वस्त्रोंको धारण किये हुए रक्तनेत्रवाला तथा रक्त आभूषणोंसे अलंकृत एक कुमार प्रादुर्भूत हुआ ॥ १३ ॥

स तं दृष्ट्‍वा महात्मानं कुमारं ध्यानमाश्रितः ।
वामदेवं शिवं ज्ञात्वा प्रणनाम कृताञ्जलिः ॥ १४ ॥
ध्यानमे निमग्न ब्रह्माजीने उन महात्मा कुमारको देखते ही उन्हें वामदेव शिव जानकर हाथ जोड करके प्रणाम किया ॥ १४ ॥

ततस्तस्य सुता ह्यासंश्चत्वारो रक्तवाससः ।
विरजाश्च विवाहश्च विशोको विश्वभावनः ॥ १५ ॥
तदुपरान्त उनसे लाल वस्त्र धारण किये हुए विरजा, विवाह, विशोक और विश्वभावन नामक चार पुत्र उत्पन्न हुए ॥ १५ ॥

वामदेवः स वै शम्भुर्ददौ ज्ञानं च वेधसे ।
सर्गशक्तिमपि प्रीत्या प्रसन्नः परमेश्वरः ॥ १६ ॥
उन्हीं वामदेव नामक शिवने प्रसन्न होकर प्रेमपूर्वक ब्रह्माजीको ज्ञान प्रदान किया और सृष्टि उत्पन्न करनेकी शक्ति भी प्रदान की ॥ १६ ॥

एकविंशतिमः कल्पः पीतवासा इति स्मृतः ।
ब्रह्मा यत्र महाभागः पीतवासा बभूव ह ॥ १७ ॥
ध्यायतः पुत्रकामस्य विधेर्जातः कुमारकः ।
पीतवस्त्रादिकप्रौढो महातेजा महाभुजः ॥ १८ ॥
इक्कीसवाँ कल्प पीतवासा-इस नामसे कहा गया है । इस कल्पमें महाभाग्यशाली ब्रह्मा पीतवस्त्र धारण किये हुए थे । इस कल्पमें जब ब्रह्माजी पुत्रकी अभिलाषासे ध्यान कर रहे थे, उसी समय उनसे पीताम्बरधारी, महातेजस्वी तथा महाबाहु एक कुमार अवतरित हुआ ॥ १७-१८ ॥

तं दृष्ट्‍वा ध्यानसंयुक्तं ज्ञात्वा तत्पुरुषं शिवम् ।
प्रणनाम ततो बुद्ध्या गायत्रीं शांकरीं विधिः ॥ १९ ॥
जपित्वा तु महादेवीं सर्वलोकनमस्कृताम् ।
प्रसन्नस्तु महादेवो ध्यानयुक्तेन चेतसा ॥ २० ॥
उस कुमारको देखते ही ध्यानयुक्त ब्रह्माने उन्हें तत्पुरुष शिव जानकर प्रणाम किया और शुद्धबुद्धिसे वे शिवगायत्री (तत्पुरुषाय विद्यहे महादेवाय धीमहि) - का जप करने लगे । संपूर्ण लोकोंसे नमस्कृत महादेवी गायत्रीका ध्यानमग्न मनसे जप करते हुए देखकर महादेवजी ब्रह्मापर बहुत ही प्रसन्न हुए ॥ १९-२० ॥

ततोऽस्य पार्श्वतो दिव्याः प्रादुर्भूताः कुमारकाः ।
पीतवस्त्रा हि सकला योगमार्गप्रवर्तकाः ॥ २१ ॥
उसके बाद ब्रह्माजीके पार्श्वभागसे पीतवस्त्रधारी अनेक दिव्य कुमार उत्पन्न हुए; वे सभी कुमार योगमार्गके प्रवर्तकके रूपमे प्रसिद्ध हुए ॥ २१ ॥

ततस्तस्मिन्गते कल्पे पीतवर्ण स्वयम्भुवः ।
पुनरन्यः प्रवृत्तस्तु कल्पो नाम्ना शिवस्तु स । २२ ॥
तदनन्तर ब्रह्माजीके पीतवासा नामक कल्पके व्यतीत हो जानेके पश्चात् शिव नामक एक अन्य कल्प प्रारम्भ हुआ ॥ २२ ॥

एकार्णवे संव्यतीते दिव्यवर्षसहस्रके ।
स्रष्टुकामः प्रजा ब्रह्मा चिन्तयामास दुःखितः ॥ २३ ॥
उस कल्पके हजार दिव्य वर्ष बीतनेपर जब सारा जगत् जलमय था, उस समय ब्रह्माजी प्रजाओंकी सृष्टि करनेके विचारसे समस्त जगतको जलमय देखकर दुखी होकर सोचने लगे ॥ २३ ॥

ततोऽपश्यन्महातेजा प्रादुर्भूतं कुमारकम् ।
कृष्णवर्णं महावीर्यं दीप्यमानं स्वतेजसा ॥ २४ ॥
धृतकृष्णाम्बरोष्णीषं कृष्णयज्ञोपवीतिनम् ।
कृष्णेन मौलिनायुक्तं कृष्णस्नानानुलेपनम् ॥ २५ ॥
उसी समय महातेजस्वी ब्रह्माने कृष्णवर्णवाले, महापराक्रमी तथा अपने तेजसे दीप्त एक कुमारको उत्पन्न हुआ देखा, जो काला वस्त्र, काली पगडी, काले रंगका यज्ञोपवीत, कृष्णवर्णका मुकुट तथा कृष्णवर्णके सुगन्धित चन्दनका अनुलेप धारण किये हुए था ॥ २४-२५ ॥

स तं दृष्ट्‍वा महात्मानमघोरं घोरविक्रमम् ।
ववन्दे देवदेवेशमद्भुतं कृष्णपिंगलम् ॥ २६ ॥
अघोरं तु ततो ब्रह्मा ब्रह्मरूपं व्यचिन्तयत् ।
तुष्टाव वाग्भिरिष्टाभिर्भक्तवत्सलमव्ययम् ॥ २७ ॥
ब्रह्माजीने उन महात्मा, घोर पराक्रमी, कृष्णपिंगल वर्णयुक्त अद्‌भुत तथा अघोर रूपधारी देवाधिदेव शंकरको देखकर प्रणाम किया । इसके बाद ब्रह्माजी अघोरस्वरूप परब्रह्मका ध्यान करने लगे और उन भक्तवत्सल तथा अविनाशी अघोरकी प्रिय वचनोंसे स्तुति करने लगे ॥ २६-२७ ॥

अथास्य पार्श्वतः कृष्णाः कृष्णस्नानानुलेपनाः ।
चत्वारस्तु महात्मानः सम्बभूवुः कुमारकाः ॥ २८ ॥
कृष्ण कृष्णशिखश्चैव कृष्णास्यः कृष्णकण्ठधृक् ।
इति तेऽव्यक्तनामानः शिवरूपाः सुतेजसः ॥ २९ ॥
तत्पश्चात् ब्रह्माजीके पार्श्वभागसे कृष्ण सुगन्धानुलेपनसे लिप्त कृष्णवर्णके चार महात्मा कुमार उत्पन्न हुए । कृष्ण, कृष्णशिख, कृष्णास्य, कृष्णकण्ठधृक् - इस प्रकारके अव्यक्त नामवाले वे परमतेजसे सम्पन्न तथा शिवस्वरूप थे ॥ २८-२९ ॥

एवंभूता महात्मानो ब्रह्मणः सृष्टिहेतवे ।
योगं प्रवर्त्तया मासुर्घोराख्यं महदद्भुतम् ॥ ३० ॥
इस प्रकारके उन महात्माओंने ब्रह्माजीको सृष्टि करनेके लिये घोर [अघोर] नामक अत्यन्त अद्‌भुत योगमार्गका उपदेश किया ॥ ३० ॥

अथान्यो ब्रह्मणः कल्पः प्रावर्त्तत मुनीश्वराः ।
विश्वरूप इति ख्यातो नामतः परमाद्भुतः ॥ ३१ ॥
श्रीसूतजीने कहा- हे मुनीश्वरो ! इसके बाद ब्रह्माजीका विश्वरूप इस नामसे प्रसिद्ध एक अत्यन्त अद्‌भुत कल्प प्रारम्भ हुआ ॥ ३१ ॥

ब्रह्मणः पुत्रकामस्य ध्यायतो मनसा शिवम् ।
प्रादुर्भूता महानादा विश्वरूपा सरस्वती ॥ ३२ ॥
तथाविधः स भगवानीशानः परमेश्वरः ।
शुद्धस्फटिकसंकाशः सर्वाभरणभूषितः ॥ ३३ ॥
उस कल्पमे पुत्रकामनावाले ब्रह्माजीने शिवजीका मनसे ध्यान किया, तब महानादस्वरूपवाली विश्वरूपा सरस्वती उत्पन्न हुईं और उसी तरह शुद्ध स्फटिकके समान कान्तिवाले तथा सभी आभूषणोंसे अलंकृत परमेश्वर भगवान् शिव ईशानके रूपमें प्रकट हुए ॥ ३२-३३ ॥

तं दृष्ट्‍वा प्रणनामासौ ब्रह्मेशानमजं विभुम् ।
सर्वगं सर्वदं सर्वं सुरूपं रूपवर्जितम् ॥ ३४ ॥
ब्रह्माने अजन्मा, विभु, सर्वगामी, सब कुछ देनेवाले, सर्वस्वरूप, रूपवान् एवं रूपरहित उन ईशानको देखकर प्रणाम किया ॥ ३४ ॥

ईशानोऽपि तथादिश्य सन्मार्गं ब्रह्मणे विभुः ।
सशक्तिः कल्पयाञ्चक्रे स बालांश्चतुरः शुभान् ॥ ३५ ॥
इसके बाद सर्वव्यापक उन ईशानने भी ब्रह्माको सन्मार्गका उपदेश करके अपनी शक्तिसे युक्त हो चार सुन्दर बालकोंको उत्पन्न किया ॥ ३५ ॥

जटीमुण्डी शिखण्डी च अर्द्धमुण्डश्च जज्ञिरे ।
योगेनादिश्य सद्धर्मं कृत्वा योगगतिं गताः ॥ ३६ ॥
वे जटी, मुण्डी, शिखण्डी तथा अर्धमुण्ड नामवाले उत्पन्न हुए । वे योगके द्वारा उपदेश देकर सद्धर्म करके योग-गतिको प्राप्त हो गये ॥ ३६ ॥

एवं संक्षेपतः प्रोक्तः सद्यादीनां समुद्भवः ।
सनत्कुमार सर्वज्ञ लोकानां हितकाम्यया ॥ ३७ ॥
[नन्दीश्वर बोले-] हे सनत्कुमार ! हे सर्वज्ञ ! इस प्रकार मैनें लोकके कल्याणके निमित्त शिवके सद्योजात आदि अवतारोंका संक्षेपसे वर्णन किया ॥ ३७ ॥

अथ तेषां महाप्राज्ञ व्यवहारं यथायथम् ।
त्रिलोकहितकारं हि सर्वं ब्रह्माण्डसंस्थितम् ॥ ३८ ॥
हे महाप्राज्ञ ! तीनों लोकोंके लिये हितकर उनका संपूर्ण यथोचित व्यवहार इस ब्रह्माण्डमें फैला हुआ है ॥ ३८ ॥

ईशानः पुरुषो घोरो वामसंज्ञस्तथैव च ।
ब्रह्मसंज्ञा महेशस्य मूर्तयः पञ्च विश्रुताः ॥ ३९ ॥
महेश्वरकी ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव तथा सद्योजात नामक पाँच मूर्तियाँ ब्रह्म संज्ञासे इस जगत्मे प्रख्यात हैं ॥ ३९ ॥

ईशानः शिवरूपश्च गरीयान्प्रथमः स्मृतः ।
भोक्तारं प्रकृतेः साक्षात्क्षेत्रज्ञमधितिष्ठति ॥ ४० ॥
उनमें ईशान प्रथम तथा सर्वश्रेष्ठ शिवरूप कहा गया है, जो साक्षात् प्रकृतिका भोग करनेवाले क्षेत्रज्ञको अधिकृत करके स्थित है ॥ ४० ॥

शैवस्तत्पुरुषाख्यश्च स्वरूपो हि द्वितीयकः ।
गुणाश्रयात्मकं भोग्यं सर्वज्ञमधितिष्ठति ॥ ४१ ॥
शिवजीका द्वितीय रूप तत्पुरुषसंज्ञक है, जो गुणोंके आश्रयवाले तथा भोगनेयोग्य सर्वज्ञपर अधिकार करके स्थित है ॥ ४१ ॥

धर्माय स्वाङ्‌गसंयुक्तं बुद्धितत्त्वं पिनाकिनः ।
अघोराख्यस्वरूपो यस्तिष्ठत्य‍न्तस्तृतीयकः ॥ ४२ ॥
शिवजीका जो तीसरा अघोर नामक रूप है, वह धर्मके व्यवहारके लिये अपने अंगोंसे संयुक्त बुद्धितत्त्वका विस्तार करके अन्तःकरणमे अवस्थित है ॥ ४२ ॥

वामदेवाह्वयो रूपश्चतुर्थः शङ्करस्य हि ।
अहंकृतेरधिष्ठानो बहुकार्यकरः सदा ॥ ४३ ॥
शिवजीका चौथा रूप वामदेवके नामसे विख्यात है, जो समस्त अहंकारका अधिष्ठान होकर अनेक प्रकारके कार्योंको सर्वदा सम्पादित करनेवाला है ॥ ४३ ॥

ईशानाह्वस्वरूपो हि शंकरस्येश्वरः सदा ।
श्रोत्रस्य वचसश्चापि विभोर्व्योम्नस्तथैव च ॥ ४४ ॥
सर्वव्यापी शिवजीका ईशान नामक रूप श्रोत्रेन्द्रिय, वागिन्द्रिय तथा आकाशका ईश्वर है ॥ ४४ ॥

त्वक्पाणिस्पर्शवायूनामीश्वरं रूपमैश्वरम् ।
पुरुषाख्यं विचारज्ञा मतिमन्तः प्रचक्षते ॥ ४५ ॥
बुद्धिमान् विचारक शिवजीके तत्पुरुष नामक रूपको त्वचा, पाणि, स्पर्श और वायुका ईश्वर मानते हैं ॥ ४५ ॥

वपुषश्च रसस्यापि रूपस्याग्नेस्तथैव च ।
अघोराख्यमधिष्ठानं रूपं प्राहुर्मनीषिणः ॥ ४६ ॥
मनीषीगण शिवजीके अघोर नामसे विख्यात रूपको शरीर, रस, रूप एवं अग्निका अधिष्ठान मानते हैं ॥ ४६ ॥

रशनायाश्च पायोश्च रसस्यापां तथैव च ।
ईश्वरं वामदेवाख्यं स्वरूपं शांकरं स्मृतम् ॥ ४७ ॥
प्राणस्य चैवोपस्थस्य गंधस्य च भुवस्तथा ।
सद्योजाताह्वयं रूपमीश्वरं शांकरं विदुः ॥ ४८ ॥
शिवजीका वामदेव नामक रूप जिह्वा, पायुः रस तथा जलका स्वामी माना गया है । शिवजीके सद्योजात नामक रूपको नासिका, उपस्थेन्द्रिय, गन्ध एवं भूमिका अधिष्ठातृदेवता कहा गया है ॥ ४७ -४८ ॥

इमे स्वरूपाः शंभोर्हि वन्दनीयाः प्रयत्नतः ।
श्रेयोर्थिभिर्नरैर्नित्यं श्रेयसामेकहेतवः ॥ ४९ ॥
अपना कल्याण चाहनेवाले पुरुषोंको शिवजीके इन रूपोंकी प्रयत्‍नपूर्वक नित्य वन्दना करनी चाहिये; क्योंकि ये रूप सभी प्रकारके कल्याणके एकमात्र कारण हैं ॥ ४९ ॥

यः पठेच्छृणुयाद्वापि सद्यादीनां समुद्भवम् ।
स भुक्त्वा सकलान्कामान्प्रयाति परमां गतिम् ॥ ५० ॥
जो व्यक्ति सद्योजात आदिकी उत्पत्तिको सुनता अथवा पढता है, वह संपूर्ण भोगोंको भोगकर परमगति प्राप्त कर लेता है ॥ ५० ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां
शिवस्य पञ्चब्रह्मावतारवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरूद्रसंहितामें शिवका पंचब्रह्मावतारवर्णन नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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