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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ तृतीया शतरुद्रसंहितायां
द्वितीयोऽध्यायः शिवाष्टमूर्त्तिवर्णनम् -
भगवान् शिवकी अष्टमूर्तियोंका वर्णन - नन्दीश्वर उवाच - शृणु तात महेशस्यावतारान्परमान्प्रभो । सर्वकार्यकराँल्लोके सर्वस्य सुखदां मुने ॥ १ ॥ नन्दीश्वर बोले - हे प्रभो ! हे तात ! हे मुने ! अब महेश्वरके समस्त प्राणियोंको सुख प्रदान करनेवाले तथा लोकके संपूर्ण कार्योंको सम्पादित करनेवाले अन्य श्रेष्ठतम अवतारोंको सुनें ॥ १ ॥ तस्य शंभोः परेशस्य मूर्त्यष्टकमयं जगत् । तस्मिन्व्याप्य स्थितं विश्वं सूत्रे मणिगणा इव ॥ २ ॥ यह सारा संसार परेश शिवकी उन आठ मूर्तियोंका स्वरूप ही है, उस मूर्तिसमूहमें व्याप्त होकर विश्व उसी प्रकार स्थित है, जैसे सूत्रमें पिरोयी हुई मणियाँ ॥ २ ॥ शर्वो भवस्तथा रुद्र उग्रो भीमः पशोः पतिः । ईशानश्च महादेवो मूर्तयश्चाष्ट विश्रुताः ॥ ३ ॥ शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान और महादेव - ये शंकरकी आठ मूर्तियाँ विख्यात हैं ॥ ३ ॥ भूम्यंभोग्निमरुद्व्योमक्षेत्रज्ञार्कनिशाकराः । अधिष्ठिताश्च शर्वाद्यैरष्टरूपैः शिवस्य हि ॥ ४ ॥ धत्ते चराचरं विश्वं रूपं विश्वंभरात्मकम् । शंकरस्य महेशस्य शास्त्रस्यैवेति निश्चयः ॥ ५ ॥ भूमि, जल, अग्नि, पवन, आकाश, क्षेत्रज्ञ, सूर्य एवं चन्द्रमा- ये निश्चय ही शिवके शर्व आदि आठों रूपोंसे अधिष्ठित हैं । महेश्वर शंकरका विश्वम्भरात्मक [शर्व] रूप चराचर विश्वको धारण करता है,ऐसा ही शास्त्रका निश्चय है ॥ ४-५ ॥ सञ्जीवनं समस्तस्य जगतः सलिलात्मकम् । भव इत्युच्यते रूपं भवस्य परमात्मनः ॥ ६ ॥ समस्त संसारको जीवन देनेवाला जल परमात्मा शिवका भव नामक रूप कहा जाता है ॥ ६ ॥ बहिरंतर्जगद्विश्वं बिभर्ति स्पन्दते स्वयम् । उग्र इत्युच्यते सद्भी रूपमुग्रस्य सत्प्रभो ॥ ७ ॥ जो प्राणियोंके भीतर तथा बाहर गतिशील रहकर विश्वका भरण-पोषण करता है और स्वयं भी स्पन्दित होता रहता है, सज्जनोंद्वारा उसे उग्रस्वरूप परमात्मा शिवका उग्र रूप कहा जाता है ॥ ७ ॥ सर्वावकाशदं सर्वव्यापकं गगनात्मकम् । रूपं भीमस्य भीमाख्यं भूपवृन्दस्व भेदकम् ॥ ८ ॥ भीमस्वरूप शिवका सबको अवकाश देनेवाला, सर्वव्यापक तथा आकाशात्मक भीम नामक रूप कहा गया है, वह महाभूतोंका भेदन करनेवाला है ॥ ८ ॥ सर्वात्मनामधिष्ठानं सर्वक्षेत्रनिवासकम् । रूपं पशुपतेर्ज्ञेयं पशुपाशनिकृन्तनम् ॥ ९ ॥ जो सभी आत्माओंका अधिष्ठान, समस्त क्षेत्रोंका निवासस्थान तथा पशुपाशको काटनेवाला है उसे पशुपतिका पशुपति नामक रूप जानना चाहिये ॥ ९ ॥ सन्दीपयञ्जगत्सर्वं दिवाकरसमाह्वयम् । ईशानाख्यं महेशस्य रूपं दिवि विसर्पति ॥ १० ॥ सूर्य नामसे जो विख्यात होकर संपूर्ण जगत्को प्रकाशित करता है और आकाशमें भ्रमण करता है, वह महेशका ईशान नामक रूप है ॥ १० ॥ आप्याययति यो विश्वममृतांशुर्निशाकरः । महादेवस्य तद्रूपं महादेवस्य चाह्वयम् ॥ ११ ॥ जो अमृतके समान किरणोंसे युक्त होकर चन्द्ररूपसे सारे संसारको आप्यायित करता है, महादेव शिवजीका वह रूप महादेव नामसे विख्यात है ॥ ११ ॥ आत्मा तस्याष्टमं रूपं शिवस्य परमात्मनः । व्यापिकेतरमूर्तीनां विश्वं तस्माच्छिवात्मकम् ॥ १२ ॥ उन परमात्मा शिवका आठवाँ रूप आत्मा है, जो अन्य सभी मूर्तियोंकी अपेक्षा सर्वव्यापक है । इसलिये यह समस्त चराचर जगत् शिवका ही स्वरूप है ॥ १२ ॥ शाखाः पुष्यन्ति वृक्षस्य वृक्षमूलस्य सेचनात् । तद्वदस्य वपुर्विश्वं पुष्यते च शिवार्चनात् ॥ १३ ॥ जिस प्रकार वृक्षकी जडको सींचनेसे उसकी शाखाएँ पुष्ट होती हैं, उसी प्रकार शिवका शरीरभूत संसार शिवार्चनसे पुष्ट होता है ॥ १३ ॥ यथेह पुत्रपौत्रादेः प्रीत्या प्रीतो भवेत्पिता । तथा विश्वस्य सम्प्रीत्या प्रीतो भवति शंकरः ॥ १४ ॥ जिस प्रकार इस लोकमे पुत्र, पौत्रादिके प्रसन्न होनेपर पिता प्रफुल्लित हो जाता है उसी प्रकार संसारके प्रसन्न होनेसे शिवजी प्रसन्न रहते हैं ॥ १४ ॥ क्रियते यस्य कस्यापि देहिनो यदि निग्रहः । अष्टमूर्त्तेरनिष्टं तत्कृतमेव न संशयः ॥ १५ ॥ यदि किसीके द्वारा जिस किसी भी शरीरधारीको कष्ट दिया जाता है, तो मानो अष्टमूर्ति शिवका ही वह अनिष्ट किया गया है, इसमे संशय नहीं है ॥ १५ ॥ अष्टमूर्त्यात्मना विश्वमधिष्ठायास्थितं शिवम् । भजस्व सर्वभावेन रुद्रं परमकारणम् ॥ १६ ॥ इति प्रोक्ताः स्वरूपास्ते विधिपुत्राष्टविश्रुताः । सर्वोपकारनिरताः सेव्याः श्रेयोर्थिभिर्नरैः ॥ १७ ॥ अतः अष्टमूर्तिरूपसे सारे विश्वको व्याप्त करके सर्वतोभावेन स्थित परमकारण रुद्र शिवका सर्वभावसे भजन कीजिये । हे सनत्कुमार ! हे विधिपुत्र ! इस प्रकार मैने आपसे शिवके प्रसिद्ध आठ स्वरूपोंका वर्णन किया । अपना कल्याण चाहनेवाले मनुष्योंको सभीके उपकारमें निरत इन रूपोंकी उपासना करनी चाहिये ॥ १६-१७ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां शिवाष्टमूर्त्तिवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें शिवाष्टमूर्तिवर्णन नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |