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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ तृतीया शतरुद्रसंहितायां
षष्ठोऽध्यायः नन्दिकेशावतारवर्णनम् -
नन्दीश्वरावतारवर्णन - सनत्कुमार उवाच - भवान्कथमनुप्राप्तो महादेवांशजः शिवम् । श्रोतुमिच्छामि तत्सर्वं वक्तुमर्हसि मे प्रभो ॥ १ ॥ सनत्कुमार बोले- [हे नन्दीश्वर !] आप महादेवके अंशसे किस प्रकार उत्पन्न हुए और किस प्रकार शिवत्वको प्राप्त हुए ? हे प्रभो ! मैं वह सब सुनना चाहता हूँ, अतः आप मुज्ञे बतानेकी कृपा करे ॥ १ ॥ नन्दीश्वर उवाच - सनत्कुमार सर्वज्ञ सावधानतया शृणु । यथाऽहं च शिवं प्राप्तो महादेवांशजो मुने ॥ २ ॥ नन्दीश्वर बोले- हे सनत्कुमार ! हे सर्वज्ञ ! हे मुने ! जिस प्रकार शिवजीके अंशसे उत्पन्न होकर मैंने शिवत्वको प्राप्त किया है, उसको आप सावधानीपूर्वक सुनिये ॥ २ ॥ प्रजाकामः शिलादोऽभूदुक्तः पितृभिरादरात् । तदुद्धर्तुमना भक्त्या समुद्धारमभीप्सुभिः ॥ ३ ॥ किसी समय उद्धारकी अभिलाषावाले पितरोंने महर्षि शिलादसे आदरपूर्वक कहा कि सन्तान उत्पन्त करनेका प्रयत्न करें, तब शिलादने भक्तिपूर्वक उनका उद्धार करनेकी इच्छासे पुत्रोत्पत्ति करनेका विचार किया ॥ ३ ॥ अधोदृष्टिः सुधर्मात्मा शिलादो नाम वीर्यवान् । तस्यासीन्मुनिकैर्वृत्तिः शिवलोके च सोगमत् ॥ ४ ॥ शक्रमुद्दिश्य स मुनिस्तपस्तेपे सुदुः सहम् । निश्चलात्मा शिलादाख्यो बहुकालं दृढव्रतः ॥ ५ ॥ परम धर्मात्मा तथा तेजस्वी उन शिलादमुनिने अधोदृष्टि एवं मुनिवृत्ति धारण कर ली और वे शिवलोकको गये । उन शिलादमुनिने स्थिर मन तथा दृढ व्रतवाला होकर इन्द्रको उद्देश्य करके बहुत समयतक अति कठोर तप किया ॥ ४-५ ॥ तपतस्तस्य तपसा संतुष्टोऽभूच्छतक्रतुः । जगाम च वरं दातुं सर्वदेवप्रभुस्तदा ॥ ६ ॥ शिलादमाह सुप्रीत्या शक्रस्तुष्टोऽस्मि तेऽनघ । तेन त्वं मुनिशार्दूल वरयस्व वरानिति ॥ ७ ॥ तब तपोनिरत उनके तपसे सर्वदेवप्रभु इन्द्र सन्तुष्ट हो गये और वर देनेहेतु गये तथा अत्यन्त प्रेमपूर्वक शिलादसे बोले-हे अनघ ! मैं आपपर प्रसन्न हूँ । अतः हे मुनिशार्दूल ! आप वर माँगे ॥ ६ -७ ॥ ततः प्रणम्य देवेशं स्तुत्वा स्तुतिभिरादरात् । शिलादो मुनिशार्दूलस्तमाह सुकृताञ्जलिः ॥ ८ ॥ तव शिलादमुनि देवेश इन्द्रको प्रणामकर स्तोत्रोंके द्वारा आदरपूर्वक स्तुति करके हाथ जोडकर उनसे कहने लगे- ॥ ८ ॥ शिलाद उवाच - शतक्रतो सुरेशान सन्तुष्टो यदि मे प्रभो । अयोनिजं मुत्युहीनं पुत्रमिच्छामि सुव्रतम् ॥ ९ ॥ शिलाद बोले- हे इन्द्र ! हे सुरेशान ! हे प्रभो ! यदि आप मुझपर प्रसन्त हैं, तो मैं आपसे अयोनिज, अमर तथा उत्तम व्रतवाले पुत्रकी कामना करता हूँ ॥ ९ ॥ शक्र उवाच - पुत्रं दास्यामि पुत्रार्थिन्योनिजं मृत्युसंयुतम् । अन्यथा ते न दास्यामि मृत्युहीना न सन्ति वै ॥ १० ॥ न दास्यामि सुतं तेऽहं मृत्युहीनमयोनिजम् । हरिर्विधिश्च भगवान्किमुतान्यो महामुने ॥ ११ ॥ शक्र बोले- हे पुत्रार्थिन् ! मैं आपको योनिसे उत्पन्न तथा मृत्युको प्राप्त होनेवाला पुत्र दे सकताहूँ इसके विपरीत नहीं; क्योकि मृत्युहीन तो कोई नहीं है । मैं आपको अयोनिज तथा मृत्युरहित पुत्र नहीं दे सकता, हे महामुने ! अयोनिज एवं अमर पुत्र तो भगवान् विष्णुः ब्रह्मा तथा कोई अन्य भी नहीं दे सकते हैं ॥ १०-११ ॥ तावपि त्रिपुरार्यङ्गसम्भावौ मरणान्वितौ । तयोरप्यायुषा मानं कथितं निगमे पृथक् ॥ १२ ॥ वे दोनों भी शिवके शरीरसे उत्पन्न होते हैं और मरते रहते हैं एवं उन दोनोंकी आयुका प्रमाण भी वेदमें अलग कहा गया है ॥ १२ ॥ तस्मादयोनिजे पुत्रे मृत्युहीने प्रयत्नतः । परित्यजाशां विप्रेन्द्र गृहाणात्मक्षमं सुतम् ॥ १३ ॥ इसलिये हे विप्रवर ! मृत्युहीन एवं अयोनिज पुत्रकी कामना प्रयत्नपूर्वक छोडे और अपने सामर्थ्यवाला पुत्र प्राप्त करें ॥ १३ ॥ किन्तु देवेश्वरो रुद्रः प्रसीदति महेश्वरः । सुदुर्लभो मृत्युहीनस्तव पुत्रो ह्ययोनिजः ॥ १४ ॥ हाँ यदि देवाधिदेव महादेव रुद्र आपपर प्रसन्न हो जाये तो आपको अत्यन्त दुर्लभ, मृत्युहीन और अयोनिज पुत्र प्राप्त हो सकता है ॥ १४ ॥ अहं च विष्णुर्भगवान् द्रुहिणश्च महामुने । अयोनिजं मृत्युहीनं पुत्रं दातुं न शक्नुमः ॥ १५ ॥ आराधय महादेवं तत्पुत्रविनिकाम्यया । सर्वेश्वरो महाशक्तः स ते पुत्रं प्रदास्यति ॥ १६ ॥ हे महामुने ! मैं, भगवान् विष्णु एवं ब्रह्मा भी अयोनिज तथा मृत्युहीन पुत्र नहीं दे सकते । यदि इस प्रकारके पुत्रको प्राप्त करनेकी कामनासे आप महादेवकी आराधना कीजिये, तो महान् सामर्थ्यवाले वे सर्वेश्वर आपको इस प्रकारका पुत्र देंगे ॥ १५-१६ ॥ नन्दीश्वर उवाच - एवं व्याहृत्य विप्रेन्द्रमनुगृह्य च तं घृणी । देवैर्वृतः सुरेशानः स्वलोकं समगान्मुने ॥ १७ ॥ नन्दीश्वर बोले- हे मुने ! परम दयालु इन्द्र उन विप्रेन्द्रको इस प्रकारसे कहकर तथा उनपर अनुग्रह करके देवताओंके साथ अपने लोकको चले गये ॥ १७ ॥ गते तस्मिंश्च वरदे सहस्राक्षे शिलाशनः । आराधयन्महादेवं तपसातोषयद्भवम् ॥ १८ ॥ वरदाता इन्द्रके चले जानेपर वे शिलादमुनि महादेवकी आराधना करते हुए अपनी तपस्यासे शिवको प्रसन्न करने लगे ॥ १८ ॥ अथ तस्यैवमनिशं तत्परस्य द्विजस्त वै । दिव्यं वर्षसहस्रं तु गतं क्षणमिवाद्भुतम् ॥ १९ ॥ इस प्रकार रात-दिन तत्परतापूर्वक तपस्या करते हुए उन द्विज शिलादमुनि के दिव्य एक हजार वर्ष एक क्षणके समान बीत गये, यह आश्चर्यजनक था ॥ १९ ॥ वल्मीकेन वृताङ्गश्च लक्षकोटगणैर्मुनिः । वज्रसूचीमुखैश्चान्यै रक्तभुग्भिश्च सर्वतः ॥ २० ॥ निर्मांसरुधिरत्वग्वै बिले तस्मिन्नवस्थितः । अस्थिशेषोभवत्पश्चाच्छिलादो मुनिसत्तमः ॥ २१ ॥ उनका समस्त शरीर वज्रसूचीके समान मुखवाले एवं अन्यान्य रुधिरपान करनेवाले लाखो कीडोंसे तथा वल्मीकसे ढँक गया । उनका शरीर त्वचा, रुधिर एवं मांससे रहित हो गया, बाँबीमें स्थित उन मुनिश्रेष्ठ शिलादकी हड्डीयाँ ही बची रह गयी थी ॥ २०-२१ ॥ तुष्टः प्रभुस्तदा तस्मै दर्शयामास स्वां तनुम् । दिव्यां दिव्यगुणैर्युक्तामलभ्यां वामबुद्धिभिः ॥ २२ ॥ तबव शिवजीने प्रसन्न होकर उन्हे दिव्य गुणोंसे युक्त अपना दिव्य शरीर दिखलाया, जिसे कुटिल बुद्धि रखनेवाले नहीं प्राप्त कर सकते हैं ॥ २२ ॥ दिव्यवर्षसहस्रेण तप्यमानाय शूलधृक् । सर्वदेवाधिपस्तस्मै वरदोऽस्मीत्यभाषत ॥ २३ ॥ तब सभी देवताओंके स्वामी शूलधारी शिवने देवताओंके एक हजार वर्षसे तप करते हुए उन शिलादमुनिसे कहा कि मैं आपको वर देनेहेतु आया हूँ ॥ २३ ॥ महासमाधिसंलीनः स शिलादो महामुनिः । नाशृणोत्तद्गिरं शम्भोर्भक्त्यधीनरतस्य वै ॥ २४ ॥ महासमाधिमें लीन वे महामुनि शिलाद भक्तिके अधीन रहनेवाले शिवजीकी उस वाणीको नहीं सुन सके ॥ २४ ॥ यदा स्पृष्टो मुनिस्तेन करेण त्रिपुरारिणा । तदैव मुनिशार्दूल उत्ससर्ज तपःक्रमम् ॥ २५ ॥ जब शिवजीने अपने हाथसे मुनिका स्पर्श किया, तब मुनिश्रेष्ठ शिलादने तपस्या छोड़ी ॥ २५ ॥ अथोन्मील्य मुनिर्नेत्रे सोमं शंभुं विलोकयन् । द्रुतं प्रणम्य स मुदा पादयोर्न्यपतन्मुने ॥ २६ ॥ हे मुने ! तदनन्तर नेत्र खोलकर पार्वतीसहित शिवका दर्शन प्राप्तकर शीघ्रतासे आनन्दपूर्वक प्रणाम करके शिलादमुनि उनके चरणोंपर गिर पड़े ॥ २६ ॥ हर्षगद्गदया वाचा नतस्कंधः कृताञ्जलिः । प्रसन्नात्मा शिलादः स तुष्टाव परमेश्वरम् ॥ २७ ॥ तत्पश्चात् प्रसन्नचित्त वे शिलाद कंधा झुकाकर हाथ जोड़कर हर्षके कारण गद्गद वाणीमें परमेश्वरकी स्तुति करने लगे ॥ २७ ॥ ततः प्रसन्नो भगवान्देवदेवस्त्रिलोचनः । वरदोऽस्मीति तम्प्राह शिलादं मुनिपुंगवम् ॥ २८ ॥ तपसानेन किं कार्यं भवते हि महामते । ददामि पुत्रं सर्वज्ञं सर्वशास्त्रार्थपारगम् ॥ २९ ॥ तदनन्तर प्रसन्न हुए देवाधिदेव त्रिलोचन भगवान् शिवने उन मुनिश्रेष्ठ शिलादसे [पुनः] कहा- मैं आपको वर देने आया हूँ । हे महामते ! इस तपस्यासे आपको क्या करना है ? मैं आपको सर्वज्ञ तथा सर्वशास्त्रार्थवेत्ता पुत्र दे रहा हूँ ॥ २८-२९ ॥ ततः प्रणम्य देवेशं तच्छ्रुत्वा च शिलाशनः । हर्षगद्गदया वाचोवाच सोमविभूषणम् ॥ ३० ॥ तब यह सुनकर शिलादने शिवजीको प्रणामकर हर्षके कारण गदगद वाणीमें उन चन्द्रशेखरसे कहा- ॥ ३० ॥ शिलाद उवाच - महेश यदि तुष्टोऽसि यदि वा वरदश्च मे । इच्छामि त्वत्समं पुत्रं मृत्युहीनमयोनिजम् ॥ ३१ ॥ शिलाद बोले- हे महेश्वर ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं और मुझे वर देना चाहते हैं, तो मैं आपके समान ही अयोनिज और मृत्युहीन पुत्र चाहता हूँ ॥ ३१ ॥ नंदीश्वर उवाच - एवमुक्तस्ततो देवस्त्र्यम्बकस्तेन शङ्करः । प्रत्युवाच प्रसन्नात्मा शिलादं मुनिसत्तमम् ॥ ३२ ॥ नन्दीश्वर बोले- हे सनत्कुमार ! तब उनके ऐसा कहनेपर त्रिनेत्र भगवान् शिव प्रसन्नचित्त होकर मुनिश्रेष्ठ शिलादसे कहने लगे- ॥ ३२ ॥ शिव उवाच - पूर्वमाराधितो विप्र ब्रह्मणाहं तपोधन । तपसा चावतारार्थं मुनिभिश्च सुरोत्तमैः ॥ ३३ ॥ तव पुत्रो भविष्यामि नन्दी नाम्ना त्वयोनिजः । पिता भविष्यसि मम पितुर्वै जगतां मुने ॥ ३४ ॥ शिवजी बोले- हे विप्र ! हे तपोधन ! पूर्वकालमें ब्रह्मा, देवताओं तथा मुनियोंने मेरे अवतारके लिये तपस्याके द्वारा मेरी आराधना की थी, इसलिये मैं नन्दी नामसे आपके अयोनिज पुत्रके रूपमें अवतरित होऊँगा और हे मुने ! तब आप मुझ तीनों लोकोंके पिताके भी पिता बन जायँगे ॥ ३३-३४ ॥ नन्दीश्वर उवाच - एवमुक्त्वा मुनिं प्रेक्ष्य प्रणिपत्यास्थितं घृणी । सोमस्तूर्णं तमादिश्य तत्रैवान्तर्दधे हरः ॥ ३५ ॥ नन्दीश्वर बोले- ऐसा कहकर प्रणाम करके स्थित मुनिकी ओर देखकर उन्हें आज्ञा देकर उमासहित दयालु शिव वहीं अन्तर्हित हो गये ॥ ३५ ॥ गते तस्मिन्महादेवे स शिलादो महामुनिः । स्वमाश्रयमुपागम्य ऋषिभ्योऽकथयत्ततः ॥ ३६ ॥ तब उन महादेवके अन्तर्धान हो जानेपर अपने आश्रममें आकर उन महामुनि शिलादने ऋषियोंको वह वृत्तान्त बताया ॥ ३६ ॥ कियता चैव कालेन तदासौ जनकः स मे । यज्ञाङ्गणं चकर्षाशु यज्ञार्थं यज्ञवित्तमः ॥ ३७ ॥ हे सनत्कुमार ! कुछ समय बाद यज्ञवेत्ताओंमें श्रेष्ठ मेरे पिता शिलादमुनि यज्ञ करनेके लिये यज्ञस्थलका शीघ्रतासे कर्षण करने लगे ॥ ३७ ॥ ततः क्षणादहं शंभोस्तनुजस्तस्य चाज्ञया । स जातः पूर्वमेवाहं युगान्ताग्निसमप्रभः ॥ ३८ ॥ उसी समय यज्ञारम्भसे पूर्व ही शिवजीकी आज्ञासे प्रलयाग्निके सदृश देदीप्यमान होकर मैं उनके शरीरसे पुत्ररूपमें प्रकट हुआ ॥ ३८ ॥ अवर्षंस्तदा पुष्करावर्तकाद्या जगुः खेचराः किन्नराः सिद्धसाध्या । शिलादात्मजत्वं गते मय्यृषीन्द्राः समन्ताच्च वृष्टिं व्यधुः कौसुमीं ते ॥ ३९ ॥ अथ ब्रह्मादयो देवा देवपल्यश्च सर्वशः । तत्राजग्मुश्च सुप्रीत्या हरिश्चैव शिवोऽम्बिका ॥ ४० ॥ उस समय शिलादमुनिके पुत्ररूपमें मेरे अवतरित होनेपर पुष्करावर्त आदि मेघ वर्षा करने लगे; आकाशचारी किन्नर, सिद्ध और साध्यगण गान करने लगे और ऋषिगण चारों ओरसे पुष्पवृष्टि करने लगे । इसके बाद ब्रह्मा आदि देवगण, देवपत्नियाँ, विष्णु, शिव, अम्बिकाये सब अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक वहाँ आये ॥ ३९-४० ॥ तदोत्सवो महानासीन्ननृतुश्चाप्सरोगणाः । आदृत्य मां तथा लिंगं तुष्टुवुर्हर्षिताश्च ते ॥ ४१ ॥ सुप्रशस्य शिलादं तं स्तुत्वा च सुस्तवैः शिवौ । सर्वे जग्मुश्च धामानि शिवावप्यखिलेश्वरौ ॥ ४२ ॥ उस समय वहाँपर बहुत बड़ा उत्सव हुआ । अप्सराएँ नाचने लगीं । वे सभी देवगण हर्षित होकर मेरा समादर तथा आलिंगन करके स्तुति करने लगे । वे लोग उन शिलादमुनिकी प्रशंसा कर तथा उत्तम स्तोत्रोंसे शिव एवं पार्वतीकी स्तुति कर अपने-अपने धामोंको चले गये, अखिलेश्वर शिव-शिवा भी अपने धामको चले गये ॥ ४१-४२ ॥ शिलादोऽपि च मां दृष्ट्वा कालसूर्य्यानलप्रभम् । त्र्यक्षं चतुर्भुजं बालं जटामुकुटधारिणम् ॥ ४३ ॥ त्रिशूलाद्यायुधं दीप्तं सर्वथा रुद्ररूपिणम् । महानन्दभरः प्रीत्या प्रणम्यं प्रणनाम च ॥ ४४ ॥ महर्षि शिलाद भी प्रलयकालीन सूर्य और अग्निके समान कान्तिमान्, तीन नेत्रोंसे युक्त, चार भुजावाले, जटामुकुटधारी, त्रिशूल आदि शस्त्र धारण करनेवाले, देदीप्यमान रुद्रके समान रूपवाले तथा सब प्रकारसे प्रणम्य मुझ नन्दीश्वरको बालकके रूपमें देखकर परम आनन्दसे परिपूर्ण होकर प्रेमपूर्वक प्रणाम करने लगे ॥ ४३-४४ ॥ शिलाद उवाच - त्वयाहं नन्दितो यस्मान्नन्दी नाम्ना सुरेश्वर । तस्मात्त्वां देवमानन्दं नमामि जगदीश्वरम् ॥ ४५ ॥ शिलाद बोले- हे सुरेश्वर ! आपने मुझे आनन्दित किया है, अत: आपका नाम नन्दी होगा और इसलिये आनन्दस्वरूप आप प्रभु जगदीश्वरको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ४५ ॥ नन्दीश्वर उवाच - मया सह पिता हृष्टः सुप्रणम्य महेश्वरम् । उटजं स्वं जगामाशु निधिं लब्ध्वेव निर्धनः ॥ ४६ ॥ नन्दीश्वर बोले- हे सनत्कुमार ! पिताजी उन महेश्वरको भलीभाँति प्रणाम करके मुझे साथ लेकर शीघ्रतापूर्वक पर्णकुटीमें चले गये । वे इतने प्रसन्न हुए, मानो किसी निर्धनको निधि मिल गयी हो ॥ ४६ ॥ यदा गतोहमुटजं शिलादस्य महामुने । तदाहं तादृशं रूपं त्यक्त्वा मानुष्यमास्थितः ॥ ४७ ॥ हे महामुने ! जब मैं महर्षि शिलादकी कुटीमें गया. तब मैंने उस प्रकारके रूपको त्यागकर मनुष्यशरीर धारण कर लिया ॥ ४७ ॥ मानुष्यमास्थितं दृष्ट्वा पिता मे लोकपूजितः । विललापातिदुःखार्त्तः स्वजनैश्च समावृतः ॥ ४८ ॥ जातकर्मादिकान्येव सर्वाण्यपि चकार मे । शालंकायनपुत्रो वै शिलादः पुत्रवत्सलः ॥ ४९ ॥ तदनन्तर मुझे मनुष्य-शरीर धारण किया हुआ देखकर लोकपूजित मेरे पिता अपने कुटुम्बियोंसहित दुखी होकर विलाप करने लगे । शालंकायनमुनिके पुत्र पुत्रवत्सल शिलादने मेरा समस्त जातकर्मादि संस्कार सम्पादित किया ॥ ४८-४९ ॥ वेदानध्यापयामास सांगोपांगानशेषतः । शास्त्राण्यन्यान्यपि तथा पञ्चवर्षे पिता च माम् ॥ ५० ॥ सम्पूर्णे सप्तमे वर्षे मित्रावरुणसञ्ज्ञकौ । मुनी तस्याश्रमं प्राप्तौ द्रष्टुं मां चाज्ञया विभोः ॥ ५१ ॥ पाँचवें वर्ष में मेरे पिताने मुझे सांगोपांग वेदों तथा सम्पूर्ण शास्त्रोंका भी अध्ययन कराया । सातवें वर्षके सम्पूर्ण होनेपर मित्र और वरुण नामवाले दो मुनि शिवजीकी आज्ञासे मुझे देखनेके लिये उनके आश्रमपर आये ॥ ५०-५१ ॥ सत्कृतौ मुनिना तेन सूपविष्टो महामुनी । ऊचतुश्च महात्मानौ मां निरीक्ष्य मुहुर्मुहुः ॥ ५२ ॥ उन मुनि [शिलाद] के द्वारा सत्कृत होकर सुखपूर्वक बैठे हुए दोनों महात्मा महामुनि मुझे बार-बार देखकर कहने लगे--- ॥ ५२ ॥ मित्रावरुणावूचतुः - तात नंदीस्तवाल्पायुः सर्वशास्त्रार्थपारगः । न दृष्टमेव चापश्यं ह्यायुर्वर्षादतः परम् ॥ ५३ ॥ मित्र और वरुण बोले- हे तात ! आपके पुत्र नन्दी-जैसा सम्पूर्ण शास्त्रोंमें पारंगत मुझे अभीतक कोई दिखायी या सुनायी नहीं पड़ा, किंतु दुःख है कि यह अल्पायु है । अब इस वर्षसे अधिक इसकी आयु हमलोग देख नहीं पा रहे हैं ॥ ५३ ॥ विप्रयोरित्युक्तवतोः शिलादः पुत्रवत्सलः । तमालिङ्ग्य च दुःखार्तो रुरोदातीव विस्वरम् ॥ ५४ ॥ उन विप्रोंके ऐसा कहनेपर पुत्रवत्सल शिलाद उसका आलिंगनकर दुःखसे व्याकुल होकर ऊँचे स्वरमें अत्यधिक विलाप करने लगे ॥ ५४ ॥ मृतवत्पतितं दृष्ट्वा पितरं च पितामहम् । प्रत्यवोचत्प्रसन्नात्मा स्मृत्वा शिवपदाम्बुजम् ॥ ५५ ॥ केन त्वं तात दुःखेन वेपमानश्च रोदिषि । दुःखं ते कुत उत्पन्नं ज्ञातुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ ५६ ॥ तदनन्तर मृतकके समान गिरे हुए पिता एवं पितामहको देखकर वह बालक शिवके चरणकमलका ध्यानकर प्रसन्नचित्त होकर कहने लगा- हे तात ! आप किस दुःखसे दुखी होकर काँपते हुए रो रहे हैं, आपको यह दुःख कहाँसे उत्पन्न हुआ, मैं उसको यथार्थ रूपसे जानना चाहता हूँ ॥ ५५-५६ ॥ पितोवाच - तवाल्पमृत्युदुःखेन दुःखितोऽतीव पुत्रक । को मे दुःखं हरतु वै शरणं तं प्रयामि हि ॥ ५७ ॥ पिता बोले- हे पुत्र ! तुम्हारी अल्पावस्थामें मृत्युके दुःखसे मैं अत्यधिक दुखी हूँ । मेरे दुःखको कौन दूर करेगा, मैं उसकी शरणमें जाऊँ ॥ ५७ ॥ पुत्र उवाच - देवो वा दानवो वापि यमः कालोथऽवापि हि । ऋध्येयुर्यद्यपि ह्येते मामन्येपि जनास्तथा ॥ ५८ ॥ अथापि चाल्पमृत्युर्मे न भविष्यति मां तुदः । सत्यं ब्रवीमि जनकं शपथन्ते करोम्यहम् ॥ ५९ ॥ पुत्र बोला-हे पिताजी ! देवता, दानव, यमराज, काल अथवा अन्य कोई भी प्राणी यदि मुझे मारना चाहें, तो भी मेरी अल्पमृत्यु नहीं होगी, आप दुखी न हों । हे पिताजी ! मैं आपकी सौगन्ध खाता हूँ, यह सच कह रहा हूँ ॥ ५८-५९ ॥ पितोवाच - किं तपः किं परिज्ञानं को योगश्च प्रभुश्च ते । येन त्वं दारुणं दुःखं वञ्चयिष्यसि पुत्र मे ॥ ६० ॥ पिता बोले- हे पुत्र ! वह कौन-सा तप है, ज्ञान है अथवा योग है या कौन तुम्हारा प्रभु है, जिससे तुम मेरे इस दारुण दुःखको दूर करोगे ? ॥ ६० ॥ पुत्र उवाच - न तात तपसा मृत्युं वञ्चयिष्ये न विद्यया । महादेवस्य भजनान्मृत्युं जेष्यामि नान्यथा ॥ ६१ ॥ पुत्र बोला- हे तात ! मैं न तो तपसे और न विद्यासे ही मृत्युको रोक सकूँगा, मैं तो केवल महादेवके भजनसे मृत्युको जीतूंगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ६१ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्त्वाहं पितुः पादौ प्रणम्य शिरसा मुने । प्रदक्षिणीकृत्य च तमगच्छं वनमुत्तमम् ॥ ६२ ॥ नन्दीश्वर बोले- हे मुने ! ऐसा कहकर मैं सिर झुकाकर पिताके चरणोंमें प्रणाम कर उनकी प्रदक्षिणा करके उत्तम बनकी ओर चला गया ॥ ६ २ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां नन्दिकेशावतारवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥ इस प्रकार शिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें नन्दीकेशावतारवर्णन नामक नवा अध्याय पूर्ण हुआ । श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |