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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

तृतीया शतरुद्रसंहितायां

सप्तमोऽध्यायः

नन्दिकेश्वरावताराभिषेकविवाह वर्णनम् -
नन्दिकेश्वरका गणेश्वराधिपति पदपर अभिषेक एवं विवाह -


नन्दिकेश्वर उवाच -
तत्र गत्वा मुनेऽहं वै स्थित्वैकान्तस्थले सुधीः ।
अतपं तप उग्रं सन्मुनीनामपि दुष्करम् ॥ १ ॥
नन्दीश्वर बोलले - हे मुने ! मैं उस वनमें जाकर निर्जन स्थलमें आसन लगाकर धीरतापूर्वक कठोर तप करने लगा, जो मुनिजनोंके लिये भी असाध्य है ॥ १ ॥

हृत्पुण्डरीकसुषिरे ध्यात्वा देवं त्रियम्बकम् ।
त्र्यक्षं दशभुजं शान्तं पञ्चवक्त्रं सदा शिवम् ॥ २ ॥
रुद्रजाप्यमकार्षं वै परमध्यानमास्थितः ।
सरितश्चोत्तरे पुण्ये ह्येकचित्तः समाहितः ॥ ३ ॥
तस्मिञ्जाप्येऽथ संप्रीतः स्थितं मां परमेश्वरः ।
तुष्टोऽब्रवीन्महादेवः सोमः सोमार्द्धभूषणः ॥ ४ ॥
नदी के उत्तरकी ओर पवित्र भागमें स्थित हो अपने हृदयकमलके [मध्यवर्ती] विवरमें तीन नेत्रवाले, दस भुजाओंसे युक्त, परम शान्त, पंचमुख सदाशिव त्र्यम्बकदेवका ध्यान करके परम समाधिमें लीन होकर एकाग्रचित्तसे सावधानीपूर्वक रुद्रमन्त्रका जप करने लगा । मुझको उस जपमें स्थित देखकर चन्द्रकला धारण करनेवाले पार्वतीसहित परमेश्वर महादेवने मुझपर प्रसन्न होकर कहा- ॥ २-४ ॥

शिव उवाच -
शैलादे वरदोहं ते तपसानेन तोषितः ।
साधु तप्तं त्वया धीमन् ब्रूहि यत्ते मनोगतम् ॥ ५ ॥
शिवजी बोले-हे शिलादपुत्र ! मैं तुम्हारी इस तपस्यासे सन्तुष्ट होकर वर प्रदान करने आया हूँ । हे धीमन् ! तुमने अच्छी तरह तपस्या की है, तुमको जो अभीष्ट हो, उसे माँग लो ॥ ५ ॥

स एवमुक्तो देवेन शिरसा पादयोर्नतः ।
अस्तवं परमेशानं जराशोकविनाशनम् ॥ ६ ॥
शिवजीके ऐसा कहनेपर मैंने सिर झुकाकर उनके चरणोंमें प्रणाम किया और जरा एवं शोकका विनाश करनेवाले उन परमेश्वरकी स्तुति की ॥ ६ ॥

अथ मां नन्दिनं शम्भुर्भक्त्या परमया युतम् ।
अश्रुपूर्णेक्षणं सम्यक् पादयोः शिरसा नतम् ॥ ७ ॥
उत्थाय परमेशानः पस्पर्श परमार्तिहा ।
कराभ्यां संमुखाभ्यान्तु संगृह्य वृषभध्वजः ॥ ८ ॥
निरीक्ष्य गणपांश्चैव देवीं हिमवतः सुताम् ।
उवाच मां कृपादृष्ट्या समीक्ष्य जगतां पतिः ॥ ९ ॥
महाकष्टोंका नाश करनेवाले, वृषभध्वज, परमेश्वर शंभुने परम भक्तिसे युक्त, अश्रुपूर्ण नेत्रवाले और चरणोंमें सम्यक् सिर झुकाये हुए मुझ नन्दीको उठाकर दोनों हाथोंसे पकड़कर मेरा स्पर्श किया । इसके बाद गणपतियों एवं देवी पार्वतीकी ओर देखकर दयामयी दुष्टिसे मुझे निहारते हुए जगत्पति शिवजी कहने लगे- ॥ ७–९ ॥

वत्स नन्दिन् महाप्राज्ञ मृत्योर्भीतिः कुतस्तव ।
मयैव प्रेषितौ विप्रौ मत्समस्त्वं न संशयः ॥ १० ॥
अमरो जरया त्यक्तोऽदुःखी गणपतिः सदा ।
अव्ययश्चाक्षयश्चेष्टः स पिता स सुहृज्जनः ॥ ११ ॥
मद्बलः पार्श्वगो नित्यं ममेष्टो भवितानिशम् ।
न जरा जन्म मृत्युर्वै मत्प्रसादाद्भविष्यति ॥ १२ ॥
हे 'वत्स ! हे नन्दिन् ! हे महाप्राज्ञ ! तुमको मृत्युसे भय कहाँ ? मैंने ही उन दोनों ब्राह्मणों को भेजा था । तुम तो मेरे ही समान हो, इसमें संशय नहीं है । तुम अपने पिता एवं सुहृज्जनोंके सहित अजर, अमर, दु:खरहित, अविनाशी, अक्षय और सदा मेरे परम प्रिय गणपति हो गये । तुममें मेरे समान ही बल होगा और मेरे प्रिय होकर तुम निरन्तर मेरे समीप निवास करोगे । मेरी कृपासे तुमको जरा, जन्म एवं मृत्यु प्राप्त नहीं होगी ॥ १०-१२ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
एवमुक्त्वा शिरोमालां कुशेशयमयीं निजाम् ।
समुन्मुच्य बबन्धाशु मम कण्ठे कृपानिधिः ॥ १३ ॥
नन्दीश्वर बोले- हे सनत्कुमार ! इस प्रकार कहकर कृपानिधि शिवने कमलकी बनी हुई अपनी शिरोमालाको उतारकर मेरे कण्ठमें शीघ्रतासे पहना दिया ॥ १३ ॥

तयाहं मालया विप्र शुभया कण्ठसक्तया ।
त्र्यक्षो दशभुजश्चासं द्वितीय इव शङ्‌कर ॥ १४ ॥
हे विप्र ! उस पवित्र मालाके गले में पड़ते ही मैं तीन नेत्र एवं दस भुजाओंसे युक्त होकर दूसरे शिवके समान हो गया ॥ १४ ॥

तत एव समादाय हस्तेन परमेश्वरः ।
उवाच ब्रूहि किं तेऽद्य ददामि वरमुत्तमम् ॥ १५ ॥
तदनन्तर परमेश्वरने मुझे अपने हाथसे पकड़कर कहा- हे वत्स ! बताओ, मैं तुमको कौन-सा श्रेष्ठ वर प्रदान करूँ ? ॥ १५ ॥

ततो जटाश्रितं वारि गृहीत्वा हारनिर्मलम् ।
उक्त्वा नन्दी भवेतीह विससर्ज वृषध्वजः ॥ १६ ॥
तत्पश्चात् वृषभध्वजने अपनी जटामें स्थित हारके सम्मान निर्मल जलको लेकर 'तुम यहाँपर नदी हो जाओ'-ऐसा कहा और उसे छिड़क दिया ॥ १६ ॥

ततः पञ्चमिता नद्यः प्रावर्तत शुभावहाः ।
सुतोयाश्च महावेगा दिव्य रूपा च सुन्दरी ॥ १७ ॥
जटोदका त्रिस्रोताश्च वृषध्वनिरितीव हि ।
स्वर्णोदका जम्बुनदी पञ्च नद्यः प्रकीर्तिताः ॥ १८ ॥
उससे स्वच्छ जलवाली, महावेगसे युक्त, दिव्यस्वरूपा सुन्दरी एवं कल्याणकारिणी पाँच नदियाँ उत्पन्न हुई । जटोदका, त्रिस्रोदा, वृषध्वनि, स्वर्णोदका एवं जम्बुनदी ये पाँच नदियाँ कही गयी हैं ॥ १७-१८ ॥

एतत्पञ्चनदं नाम शिवपृष्ठतमं शुभम् ।
जपेश्वरसमीपे तु पवित्रं परमं मुने ॥ १९ ॥
यः पञ्चनदमासाद्य स्नात्वा जप्त्वेश्वरेश्वरम् ।
पूजयेच्छिवसायुज्यं प्रयात्येव न संशयः ॥ २० ॥
हे मुने ! यह पंचनद नामक शिवका शुभ पृष्ठदेश परम पवित्र है, जो जपेश्वरके समीप विद्यमान है । जो व्यक्ति पंचनदमें आकर इसमें स्नान तथा जपकर जपेश्वर शिवकी पूजा करता है, उसे शिवसायुज्यकी प्राप्ति होती है, इसमें संशय नहीं हैं ॥ १९-२० ॥

अथ शम्भुरुवाचोमामभिषिञ्चामि नन्दिनम् ।
गणेन्द्रं व्याहरिष्यामि किं वा त्वं मन्यसेऽव्यये ॥ २१ ॥
इसके बाद शिवजीने पार्वतीजीसे कहा- मैं नन्दीको अभिषिक्त करना चाहता हूँ और इसे गणेश्वर बनाना चाहता हूँ । हे अव्यये ! इसमें तुम्हारी क्या सम्मति हैं ? ॥ २१ ॥

उमोवाच -
दातुमर्हसि देवेश नन्दिने परमेश्वर ।
महाप्रियतमो नाथ शैलादिस्तनयो मम ॥ २२ ॥
उमा बोली... हे देवेश ! हे परमेश्वर ! आप इस नन्दीको अवश्य ही गणेश्वरपद प्रदान करें । हे नाथ ! यह शिलादपुत्र आजसे मेरा परम प्रिय पुत्र है ॥ २२ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
ततः स शङ्‌करः स्वीयान्सस्मार गणपान्वरान् ।
स्वतन्त्रः परमेशानः सर्वदो भक्तवत्सलः ॥ २३ ॥
स्मरणादेव रुद्रस्य सम्प्राप्ताश्च गणेश्वराः ।
असङ्ख्याता महामोदाः शङ्‌कराकृतयोऽखिलाः ॥ २४ ॥
नन्दीश्वर बोले- हे सनत्कुमार ! तदनन्तर स्वतन्त्र, सब कुछ प्रदान करनेवाले तथा भक्तवत्सल परमेश्वर शंकरने अपने श्रेष्ठ गणाधिपोंका स्मरण किया । शिवके स्मरण करते ही असंख्य गणेश्वर वहाँ उपस्थित हो गये, वे सब परम आनन्दसे परिपूर्ण तथा शंकरके स्वरूपवाले थे ॥ २३-२४ ॥

ते गणेशाः शिवं देवीं प्रणम्याहुः शुभं वचः ।
ते प्रणम्य करौ बद्ध्वा नतस्कन्धा महाबलाः ॥ २५ ॥
वे महाबली गणेश्वर शिव एवं पार्वतीको प्रणाम करके हाथ जोड़कर तथा विनत होकर शुभ वचन कहने लगे- ॥ २५ ॥

गणेशा ऊचुः -
किमर्थं च स्मृता देव ह्याज्ञापय महाप्रभो ।
किङ्‌करान्नः समायातांस्त्रिपुरार्दन कामद ॥ २६ ॥
गणेश्वर बोले- हे देव ! आपने किसलिये हमलोगोंका स्मरण किया है ? हे महाप्रभो ! हे त्रिपुरार्दन १ हे कामद ! यहाँ आये हुए हम सेवकोंको आज्ञा दीजिये ॥ २६ ॥

किं सागरान् शोषयामो यमं वा सह किंकरैः ।
हन्मो मृत्युं महामृत्युं विशेषं वृद्धपद्मजम् ॥ २७ ॥
बद्ध्वेन्द्रं सह देवैश्च विष्णुं वा पार्षदैः सह ।
आनयामः सुसंकुद्धान्दैत्यान्वा दानवैः सह ॥ २८ ॥
कस्याद्य व्यसनं घोरं करिष्यामस्तवाज्ञया ।
कस्य वाद्योत्सवो देव सर्वकामसमृद्धये ॥ २९ ॥
क्या हमलोग समुद्रोंको सुखा दें अथवा सेवकोंसहित यमराजको मार डालें अथवा मृत्यु, महामृत्यु तथा बूढ़े ब्रह्माका संहार कर दें अथवा देवताओंके सहित इन्द्रको अथवा पार्षदोंसहित विष्णुको अथवा दानवोंसहित अत्यन्त क्रुद्ध दैत्योंको बाँधकर ले आयें ? आज आपकी आज्ञासे हम किसे घोर दण्ड दें अथवा हे देव ! सभी कामनाओंकी सिद्धिके लिये हम आज किसका उत्सव मनायें ? ॥ २७–२९ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इत्याकर्ण्य वचस्तेषां गणानां वीरवादिनाम् ।
उवाच तान्स प्रशंस्य गणेशान्परमेश्वरः ॥ ३० ॥
नन्दीश्वर बोले- इस प्रकार वीरतापूर्ण वचन कहनेवाले उन गणोंकी बात सुनकर वे परमेश्वर उन गणपतियोंकी प्रशंसा करके कहने लगे- ॥ ३० ॥

शिव उवाच -
नन्दीश्वरोयं पुत्रो मे सर्वेषामीश्वरेश्वरः ।
प्रियो गणाग्रणीः सर्वैः क्रियतां वचनं मम ॥ ३१ ॥
शिवजी बोले- यह नन्दीश्वर मेरा परम प्रिय पुत्र है, अतः तुमलोग इसे सभी गणोंका अग्रणी तथा सभी गणाध्यक्षोंका ईश्वर बनाओ, यह मेरी आज्ञा है ॥ ३१ ॥

सर्वे प्रीत्याभिषिञ्चध्वं मद्गणानां गतिं पतिम् ।
अद्यप्रभृति युष्माकमयं नन्दीश्वरः प्रभुः ॥ ३२ ॥
मेरे जितने भी गणपति हैं, उन गणपतियोंके आश्रय इस नन्दीको पतिपदपर तुम सब प्रेमपूर्वक अभिषिक्त करो । यह नन्दीश्वर आजसे तुम सभीका स्वामी होगा ॥ ३२ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
एवमुक्ताः शङ्‌करेण गणपाः सर्व एव ते ।
एवमस्त्विति सम्प्रोच्य सम्भारानाहरँस्ततः ॥ ३३ ॥
नन्दीश्वर बोले- तब शंकरजीके द्वारा इस प्रकार कहे गये वे सभी गणेश्वर 'ऐसा ही होगा'-यह कहकर अभिषेककी सामग्री एकत्र करने लगे ॥ ३३ ॥

ततो देवाश्च सेन्द्राश्च नारायणमुखास्तथा ।
मुनयः सर्वतो लोका आजग्मुर्मुदिताननाः ॥ ३४ ॥
इसके बाद प्रसन्न मुखमण्डलवाले इन्द्रसहित सभी देवता, नारायण आदि मुख्य देवगण, मुनिगण एवं अन्य सभी लोग वहाँ उपस्थित हुए ॥ ३४ ॥

पितामहोपि भगवन्नियोगाच्छङ्‌करस्य वै ।
चकार नंदिनः सर्वमभिषेकं समाहितः ॥ ३५ ॥
ततो विष्णुस्ततः शक्रो लोकपालास्तथैव च ।
ऋषयस्तुष्टुवुश्चैव पितामहपुरोगमाः ॥ ३६ ॥
स्तुतिमत्सु ततस्तेषु विष्णुः सर्वजगत्पतिः ।
शिरस्यञ्जलिमाधाय तुष्टाव च समाहितः ॥ ३७ ॥
प्राञ्जलिः प्रणतो भूत्वा जयशब्दं चकार च ।
ततो गणाधिपाः सर्वे ततो देवास्ततोऽसुराः ॥ ३८ ॥
हे भगवन् ! शिवजीकी आज्ञासे स्वयं ब्रह्माने एकाग्रचित्त होकर नन्दीश्वरका समस्त गणाध्यक्षोंके अधिपति-पदपर अभिषेक किया । तत्पश्चात् विष्णु, इन्द्र एवं अन्य लोकपालोंने भी उसी प्रकार अभिषेक किया, तत्पश्चात् ऋषिगण एवं पितामह आदिने उनकी स्तुति की । उन सभीके स्तुति कर लेनेके अनन्तर सम्पूर्ण जगत्के स्वामी विष्णुने सिरपर अंजलि बाँधकर एकाग्रचित्त हो उनकी स्तुति की और हाथ जोड़कर प्रणाम करके उनका जयकार किया, पुनः सभी गणाधिपों, देवताओं एवं असुरोंने जयकार किया ॥ ३५–३८ ॥

एवं स्तुतश्चाभिषिक्तो देवैः स ब्रह्मकैस्तदा ।
नन्दीश्वरोहं विप्रेन्द्र नियोगात्प रमेशितुः ॥ ३९ ॥
हे विप्रेन्द्र ! इस प्रकार परमेश्वरकी आज्ञासे ब्रह्मासहित सभी देवताओंने मुझ नन्दीश्वरका अभिषेक तथा स्तवन किया ॥ ३९ ॥

उद्वाहश्च कृतस्तत्र नियोगात्परमेष्ठिनः ।
महोत्सवयुतः प्रीत्या विष्णुब्रह्मादिभिर्मम ॥ ४० ॥
ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओंने शिवजीकी आज्ञासे बड़े उत्सवके साथ प्रेमपूर्वक मेरा विवाह भी सम्पन्न किया ॥ ४० ॥

मरुतां च सुता देवी सुयशास्तु मनोहरा ।
पत्नी सा मेऽभवद्दिव्या मनोनयननन्दिनी ॥ ४१ ॥
मन तथा नेत्रोंको आनन्द देनेवाली मनोहर तथा दिव्य सुयशा नामक मरुत्कन्या मेरी पत्नी हुई ॥ ४१ ॥

लब्धं शशिप्रभं छत्रं तया तत्र विभूषितम् ।
चामरैश्चामरासक्तहस्ताग्रैः स्त्रीगणैर्युतम् ॥ ४२ ॥
सिंहासनं च परमं तया चाधिष्ठितं मया ।
अलंकृतो महालक्ष्म्या मुकुटाद्यैः सुभूषणैः ॥ ४३ ॥
उस सुयशाने हाथके अग्रभागमें चामर धारण की हुई स्त्रियोंसे युक्त तथा चामरोंसे सुशोभित चन्द्रप्रभासदृश छत्र प्राप्त किया । मैं उसके साथ श्रेष्ठतम सिंहासनपर बैठा और स्वयं महालक्ष्मीने मुकुट आदि सुन्दर भूषणोंसे मुझे सुशोभित किया ॥ ४२-४३ ॥

लब्धो हारश्च परमो देव्याः कण्ठगतस्तथा ।
वृषेन्द्रश्च शितो नागः सिंहः सिंहध्वजस्तथा ॥ ४४ ॥
रथश्च हेमहारश्च चन्द्रबिंबसमः शुभः ।
अन्यान्यपि च वस्तूनि लब्धानि हि मया मुने ॥ ४५ ॥
देवीने अपने कण्ठमें स्थित उत्तम हार उतारकर मुझे प्रदान किया । हे मुने ! मुझे श्वेत वृषेन्द्र, हाथी, सिंह, सिंहध्वज, रथ, चन्द्रबिम्बके समान स्वच्छ सोनेका हार और अन्यान्य वस्तुएँ भी प्राप्त हुईं ॥ ४४-४५ ॥

एवं कृतविवाहोऽहं तया पत्न्या महामुने ।
पादौ ववन्दे शम्भोश्च शिवाया ब्रह्मणो हरेः ॥ ४६ ॥
हे महामुने ! इस प्रकार विवाह हो जानेपर मैंने उस पत्नीके साथ शिव, पार्वती, ब्रह्मा एवं विष्णुके चरणोंकी वन्दना की ॥ ४६ ॥

तथाविधं त्रिलोकेशः सपत्नीकं च मां प्रभुः ।
प्रोवाच परया प्रीत्या स शिवो भक्तवत्सलः ॥ ४७ ॥
उस समय उन त्रिलोकेश्वर भक्तवत्सल प्रभु सदाशिवने उस स्वरूपवाले मुझ सपत्नीक नन्दीश्वरसे अत्यन्त प्रेमके साथ कहा- ॥ ४७ ॥

ईश्वर उवाच -
शृणु सत्पुत्र तातस्त्वं सुयशेयं तव प्रिया ।
ददामि ते वरम्प्रीत्या यत्ते मनसि वाञ्छितम् ॥ ४८ ॥
ईश्वर बोले- हे सत्पुत्र ! सुनो, तुम मेरे पुत्र हो । यह सुयशा तुम्हारी पत्नी है । तुम्हारे मनमें जो भी अभिलाषा है, उसे मैं प्रेमपूर्वक तुम्हें प्रदान करूँगा ॥ ४८ ॥

सदाऽहं तव नन्दीश सन्तुष्टोऽस्मि गणेश्वर ।
देव्या च सहितो वत्स शृणु मे परमं वचः ॥ ४९ ॥
सदेष्टश्च विशिष्टश्च परमैश्वर्यसंयुतः ।
महायोगी महेष्वासः स पिता स पितामहः ॥ ५० ॥
अजेयः सर्वजेता च सदा पूज्यो महाबलः ।
अहं यत्र भवांस्तत्र यत्र त्वं तत्र चाप्यहम् ॥ ५१ ॥
हे गणेश्वर ! हे नन्दीश्वर ! पार्वतीसहित मैं तुमपर सदा सन्तुष्ट हूँ । हे वत्स ! तुम मेरी उत्तम बात सुनो । तुम अपने पिता एवं पितामहके साथ सदा मेरे प्रिय, विशिष्ट, परमैश्वर्यसे युक्त, महायोगी, महाधनुर्धर, अजेय, सर्वजेता, सदा पूज्य एवं महाबली होओगे । जहाँ मैं रहूँगा, वहाँ तुम रहोगे और जहाँ तुम रहोगे, वहाँ मैं भी रहूँगा ॥ ४९-५१ ॥

अयं च ते पिता पुत्र परमैश्वर्य्यसंयुतः ।
भविष्यति गणाध्यक्षो मम भक्तो महाबलः ॥ ५२ ॥
हे पुत्र ! तुम्हारे ये पिता महान् ऐश्वर्यसे युक्त, महाबली, मेरे भक्त एवं गणोंके अध्यक्ष होंगे ॥ ५२ ॥

पितामहोऽपि ते वत्स तथास्तु नियमा इमे ।
मत्समीपं गमिष्यन्ति मया दत्तवरास्तथा ॥ ५३ ॥
हे वत्स ! तुम्हारे पितामह भी उसी प्रकारके होंगे । ये सभी मेरे द्वारा वरदान प्राप्तकर मेरी समीपता प्राप्त करेंगे । तुम्हारे लिये मैंने यह वरदान दिया ॥ ५३ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
ततो देवी महाभागा नन्दिनं वरदाब्रवीत् ।
वरं ब्रूहीति मां पुत्र सर्वान्कामान्यथेप्सितान् ॥ ५४ ॥
नन्दीश्वर बोले- हे मुने ! तब वरदायिनी महाभागा पार्वती देवीने मुझ नन्दीश्वरसे कहा- हे पुत्र ! तुम मुझसे सभी अभिलषित वर माँगो ॥ ५४ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं देव्याः प्रावोचत्साञ्जलिस्तदा ।
भक्तिर्भवतु मे देवि पादयोस्ते सदा वरा ॥ ५५ ॥
तब पार्वती देवीके उस वचनको सुनकर नन्दीश्वरने हाथ जोड़कर कहा- हे देवि ! आपके चरणोंमें सदा मेरी उत्तम भक्ति हो ॥ ५५ ॥

श्रुत्वा मम वचो देवी ह्येवमस्त्विति साब्रवीत् ।
सुयशां तां च सुप्रीत्या नन्दिप्रियतमां शिवाम् ॥ ५६ ॥
मेरे वचनको सुनकर उन देवीने कहा- ऐसा ही हो, पुनः उन्होंने बड़े प्रेमसे मुझ नन्दीकी कल्याणमयी पत्नी सुयशासे कहा- ॥ ५६ ॥

देव्युवाच -
वत्से वरं यथेष्टं हि त्रिनेत्रा जन्मवर्जिता ।
पुत्रपौत्रेस्तु भक्तिर्मे तथा च भर्तुरेव हि ॥ ५७ ॥
देवी बोलीं- हे वत्से ! तुम यथेष्ट वर ग्रहण करो । तुम तीन नेत्रवाली एवं जन्म-मृत्यु-से रहित रहोगी और पुत्र-पौत्रोंके सहित तुम्हारी भक्ति मुझमें और अपने पतिमें निरन्तर बनी रहेगी ॥ ५७ ॥

नन्द्युवाच -
तदा ब्रह्मा च विष्णुश्च सर्वे देवगणाश्च वै ।
ताभ्यां वरान्ददुः प्रीत्या सुप्रसन्नाश्शिवाज्ञया ॥ ५८ ॥
नन्दी बोले- उस समय ब्रह्मा, विष्णु तथा सभी देवताओंने प्रसन्नतापूर्वक शिवकी आज्ञासे उन दोनोंको वर दिये ॥ ५८ ॥

सान्वयं मां गृहीत्वेशस्ततः सम्बन्धिबान्धवैः ।
आरुह्य वृषमीशानो गतो देव्या निजं गृहम् ॥ ५९ ॥
उसके बाद ईश शिवजी सम्बन्धियों, बन्धु-बान्धवों एवं कुटुम्बके साथ मुझे लेकर पार्वतीसहित बैलपर सवार होकर अपने धामको गये ॥ ५९ ॥

विष्ण्वादयः सुराः सर्वे प्रशंसन्तो ह्यमी तदा ।
स्वधामानि ययुः प्रीत्या संस्तुवन्तः शिवं शिवाम् ॥ ६० ॥
वे विष्णु आदि सभी देवता भी मेरी प्रशंसा करते हुए तथा शिव-पार्वतीकी स्तुति करते हुए अपने-अपने धामको चले गये ॥ ६० ॥

इति ते कथितो वत्स स्वावतारो महामुने ।
सदानन्दकरः पुंसां शिवभक्तिप्रवर्द्धनः ॥ ६१ ॥
हे वत्स ! हे महामुने ! इस प्रकार मैंने अपना अवतार आपसे कहा, जो मनुष्योंको सदा आनन्द देनेवाला एवं शिवजीमें भक्ति बढ़ानेवाला है ॥ ६१ ॥

य इदन्नन्दिनो जन्म वरदानन्तथा मम ।
अभिषेकं विवाहं च शृणुयाच्छ्रावयेत्तथा ॥ ६२ ॥
पठेद्वा पाठयेद्वापि श्रद्धावान्भक्तिसंयुतः ।
इह सर्वसुखं भुक्त्वा परत्र लभते गतिम् ॥ ६३ ॥
जो व्यक्ति श्रद्धा तथा भक्तिसे युक्त होकर मुझ नन्दीके इस जन्म, वरदान, अभिषेक तथा विवाहके प्रसंगको सुनता है अथवा सुनाता है अथवा भक्तिपूर्वक पढ़ता है या पढ़ाता है, वह इस लोकमें सभी सुखोंको भोगकर परलोकमें मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥ ६२-६३ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां
नन्दिकेश्वरावताराभिषेकविवाह वर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
इस प्रकार शिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें नन्दीकेश्वरका अभिषेक एवं विवाहवर्णन नामक नवा अध्याय पूर्ण हुआ ।



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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