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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

तृतीया शतरुद्रसंहितायां

अष्टमोऽध्यायः

भैरवावतारवर्णनम् -
भैरवावतारवर्णन -


नन्दीश्वर उवाच -
सनत्कुमार सर्वज्ञ शृणु त्वं भैरवीं कथाम् ।
यस्याः श्रवणमात्रेण शैवी भक्तिर्दृढा भवेत् ॥ १ ॥
नन्दीश्वर बोले-हे सनत्कुमार ! हे सर्वज्ञ ! अब आप भैरवकी कथा सुनें, जिसके सुननेमात्रसे शिवभक्ति सुस्थिर हो जाती है ॥ १ ॥

भैरवः पूर्णरूपो हि शंकरस्य परात्मनः ।
मूढास्तं वै न जानन्ति मोहिताः शिवमायया ॥ २ ॥
भैरवजी परमात्मा शंकरके पूर्णरूप हैं, शिवजीकी मायासे मोहित मूर्खलोग उन्हें नहीं जान पाते ॥ २ ॥

सनत्कुमार नो वेत्ति महिमानं महेशितुः ।
चतुर्भुजोऽपि विष्णुर्वै चतुर्वक्त्रोऽपि वै विधिः ॥ ३ ॥
हे सनत्कुमार ! चतुर्भुज विष्णु तथा चतुर्मुख ब्रह्माजी भी महेश्वरकी महिमाको नहीं जान पाते हैं ॥ ३ ॥

चित्रमत्र न किञ्चिद्वै दुर्ज्ञेया खलु शाम्भवी ।
तया संमोहिताः सर्वे नार्चयन्त्यपि तं परम् ॥ ४ ॥
इसमें कोई आश्चर्य नहीं है; क्योंकि शिवजीकी माया दुर्जेय है । उसी मायासे मोहित होकर [ये] सभी [संसारी] लोग उन परमेश्वरकी पूजा नहीं करते हैं ॥ ४ ॥

वेद चेद्यदि वात्मानं स एव परमेश्वरः ।
तदा विदन्ति ते सर्वे स्वेच्छया न हि केऽपि तम् ॥ ५ ॥
यदि वे परमेश्वर स्वयं ही अपना ज्ञान करा दें, तभी वे सभी लोग उन्हें जान सकते हैं, अपनी इच्छासे कोई भी उन्हें नहीं जान पाता है ॥ ५ ॥

सर्वगोऽपि महेशानो नेक्ष्यते मूढबुद्धिभिः ।
देववद् बुध्यते लोके योऽतीतो मनसां गिराम् ॥ ६ ॥
यद्यपि महेश्वर सर्वव्यापी हैं, किंतु मूढ़ बुद्धिवाले उन्हें देख नहीं पाते हैं । जो वाणी एवं मनसे परे हैं, उन्हें लोग मात्र देवता ही समझते हैं ॥ ६ ॥

अत्रेतिहासं वक्ष्येऽहं परमर्षे पुरातनम् ।
शृणु तं श्रद्धया तात परमं ज्ञानकारणम् ॥ ७ ॥
हे महर्षे ! इस विषयमें पुराना इतिहास कह रहा हूँ । हे तात ! आप उसको श्रद्धापूर्वक सुनिये । वह परमोत्तम और ज्ञानका कारण है ॥ ७ ॥

मेरुशृङ्गेऽद्भुते रम्ये स्थितं ब्रह्माणमीश्वरम् ।
जग्मुर्देवर्षयः सर्वे सुतत्त्वं ज्ञातुमिच्छया ॥ ८ ॥
समस्त देवता और ऋषिगण परम तत्त्व जाननेकी इच्छासे सुमेरुपर्वतके अद्‌भुत तथा मनोहर शिखरपर स्थित भगवान् ब्रह्माके पास गये ॥ ८ ॥

तत्रागत्य विधिन्नत्वा पप्रच्छुस्ते महादरात् ।
कृताञ्जलिपुटाः सर्वे नतस्कन्धा मुनीश्वराः ॥ ९ ॥
वहाँ जाकर ब्रह्माजीको नमस्कार करके वे सब हाथ जोड़कर तथा कन्धा झुकाकर आदरपूर्वक पूछने लगे- ॥ ९ ॥

देवर्षय ऊचुः -
देवदेव प्रजानाथ सृष्टिकृल्लोकनायक ।
तत्त्वतो वद चास्मभ्यं किमेकं तत्त्वमव्ययम् ॥ १० ॥
देवता तथा ऋषि बोले-हे देवदेव ! हे प्रजानाथ ! हे सृष्टिकर्ता ! हे लोकनायक ! आप हमें ठीक-ठीक बताइये कि अद्वितीय तथा अविनाशी तत्त्व क्या है ? ॥ १० ॥

नन्दीश्वर उवाच -
स मायया महेशस्य मोहितः पद्मसम्भवः ।
अविज्ञाय परं भावं संभावं प्रत्युवाच ह ॥ ११ ॥
नन्दीश्वर बोले-शिवजीकी मायासे मोहित वे ब्रह्माजी परम तत्त्वको न समझकर सामान्य बात कहने लगे ॥ ११ ॥

ब्रह्मोवाच -
हे सुरा ऋषयः सर्वे सुमत्या शृणुतादरात् ।
वच्म्यहं परमं तत्त्वमव्ययं वै यथार्थतः ॥ १२ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे देवताओ तथा ऋषियो ! आप सब आदरपूर्वक सद्‌बुद्धिसे मेरी बात सुनें । मैं यथार्थ रूपसे अव्यय परम तत्त्वको बता रहा हूँ ॥ १२ ॥

जगद्योनिरहं धाता स्वयम्भूरज ईश्वरः ।
अनादिभागहं ब्रह्म ह्येक आत्मा निरञ्जनः ॥ १३ ॥
प्रवर्तको हि जगतामहमेव निवर्त्तकः ।
संवर्तको मदधिको नान्यः कश्चित्सुरोत्तमाः ॥ १४ ॥
मैं जगत्का मूल कारण हूँ । मैं धाता, स्वयम्भू, अज, ईश्वर, अनादिभाक्, ब्रह्म, अद्वितीय एवं निरंजन आत्मा हूँ । मैं ही सारे जगत्का प्रवर्तक, संवर्तक तथा निवर्तक हूँ । हे श्रेष्ठ देवताओ ! मुझसे बड़ा दूसरा कोई नहीं है ॥ १३-१४ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
तस्यैवं वदतो धातुर्विष्णुस्तत्र स्थितो मुने ।
प्रोवाच प्रहसन्वाक्यं संक्रुद्धो मोहितोऽजया ॥ १५ ॥
नन्दीश्वर बोले-हे मुने ! जब ब्रह्माजी इस बातको कह रहे थे, उसी समय वहाँ स्थित विष्णुने सनातनी मायासे विमोहित होकर हँसते हुए क्रुद्ध होकर यह वचन कहा- ॥ १५ ॥

न चैतदुचिता ब्रह्मन्योगयुक्तस्य मूर्खता ।
अविज्ञाय परं तत्त्वं वृथैतत्ते निगद्यते ॥ १६ ॥
हे ब्रह्मन् ! योगसे युक्त होते हुए भी आपकी यह मूर्खता उचित नहीं है । परमतत्त्वको न जानकर आप यह व्यर्थ बोल रहे हैं ॥ १६ ॥

कर्ता वै सर्वलोकानां परमात्मा परः पुमान् ।
यज्ञो नारायणो देवो मायाधीशः परा गतिः ॥ १७ ॥
सम्पूर्ण लोकोंका कर्ता, परमपुरुष, परमात्मा, यज्ञस्वरूप नारायण, मायाधीश एवं परमगति प्रभु मैं ही हूँ ॥ १७ ॥

ममाज्ञया त्वया ब्रह्मन् सृष्टिरेषा विधीयते ।
जगतां जीवनं नैव मामनादृत्य चेश्वरम् ॥ १८ ॥
हे ब्रह्मन् ! आप मेरी आज्ञासे ही इस सृष्टिकी रचना करते हैं । मुझ ईश्वरका अनादरकर यह जगत् किसी भी प्रकार जीवित नहीं रह सकता ॥ १८ ॥

एवं त्रिप्रकृतौ मोहात्परस्परजयैषिणौ ।
प्रोचतुर्निगमांश्चात्र प्रमाणे सर्वथा तनौ ॥ १९ ॥
प्रष्टव्यास्ते विशेषेण स्थिता मूर्तिधराश्च ते ।
पप्रच्छतुः प्रमाणज्ञानित्युक्त्वा चतुरोऽपि तान् ॥ २० ॥
इस प्रकार परस्पर तिरस्कृत होकर वे दोनों ही अर्थात् ब्रह्मा एवं विष्णु मोहवश एक-दूसरेको जीतनेकी इच्छाकर आपसमें विवाद करते हुए अपने-अपने विषयमें वेदप्रामाण्यकी अपेक्षासे प्रमाणतत्त्वज्ञ, मूर्तिधारी चारों वेदोंके पास जाकर पूछने लगे- ॥ १९-२० ॥

विधिविष्णू ऊचतुः -
वेदाः प्रमाणं सर्वत्र प्रतिष्ठा परमामिताः ।
यूयं वदत विश्रब्धं किमेकं तत्त्वमव्ययम् ॥ २१ ॥
ब्रह्मा एवं विष्णु बोले-हे वेदो ! आपलोगोंका सर्वत्र प्रामाण्य है और आपलोगोंको परम प्रतिष्ठा भी प्राप्त हुई है, अतः विश्वासपूर्वक कहिये कि एकमात्र अविनाशी तत्त्व क्या है ? ॥ २१ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इत्याकर्ण्य तयोर्वाचं पुनस्ते हि ऋगादयः ।
अवदंस्तत्त्वतः सर्वे संस्मरतो परं प्रभुम् ॥ २२ ॥
नन्दीश्वर बोले-उन दोनोंका यह वचन सुनकर ऋक् आदि सभी वेद परमेश्वर शिवका स्मरण करते हुए यथार्थ बात कहने लगे ॥ २२ ॥

यदि मान्या वयं देवौ सृष्टिस्थितिकरौ विभू ।
तदा प्रमाणं वक्ष्यामो भवत्सन्देहभेदकम् ॥ २३ ॥
हे सृष्टिस्थितिकर्ता, सर्वव्यापी देवो ! यदि हम [आपलोगोंको ] मान्य हैं, तो आपलोगोंके सन्देहको दूर करनेवाले प्रमाणको हमलोग कह रहे हैं ॥ २३ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
श्रुत्युक्तविधिमाकर्ण्य प्रोचतुस्तौ सुरौ श्रुतीः ।
युष्मदुक्तं प्रमाणं नौ किं तत्त्वं सम्यगुच्यताम् ॥ २४ ॥
नन्दीश्वर बोले-वेदोंके द्वारा कही गयी विधिको सुनकर ब्रह्मा एवं विष्णुने वेदोंसे कहा कि जो कुछ भी आपलोग कहेंगे, वही प्रमाण हमलोग मान लेंगे, अत: तत्त्व क्या है, इसे भलीभाँति कहें ॥ २४ ॥

ऋग्वेद उवाच -
यदन्तःस्थानि भूतानि यतः सर्वं प्रवर्त्तते ।
यदाहुः परमं तत्त्वं स रुद्रस्त्वेक एव हि ॥ २५ ॥
ऋग्वेद बोला-जिनके भीतर सम्पूर्ण भूत स्थित हैं, जिनसे सब कुछ प्रवृत्त होता है एवं जिन्हें परम तत्त्व कहते हैं, वे एकमात्र रुद्र ही हैं ॥ २५ ॥

यजुर्वेद उवाच -
यो यज्ञैरखिलैरीशो योगेन च समिज्यते ।
येन प्रमाणं खलु नः स एकः सर्वदृक् छिवः ॥ २६ ॥
यजुर्वेद बोला-मनुष्य योग एवं समस्त यज्ञोंके द्वारा जिन ईश्वरकी आराधना करता है और जिनसे निश्चय ही हमलोग प्रमाणित हैं, वे एकमात्र सबके द्रष्टा शिव ही परमतत्त्व हैं ॥ २६ ॥

सामवेद उवाच -
येनेदं भ्रम्यते विश्वं योगिभिर्यो विचिन्त्यते ।
यद्भासा भासते विश्वं स एकस्त्र्यम्बकः परः ॥ २७ ॥
सामवेद बोला-यह जगत् जिनके द्वारा भ्रमण कर रहा है, योगीजन जिनका चिन्तन करते हैं और जिनके प्रकाशसे यह संसार प्रकाशित हो रहा है, वे एकमात्र त्र्यम्बक शिव ही परमतत्त्व हैं ॥ २७ ॥

अथर्ववेद उवाच -
यं प्रपश्यन्ति देवेशं भक्त्यनुग्रहिणो जनाः ।
तमाहुरेकं कैवल्यं शंकरं दुःखतः परम् ॥ २८ ॥
अथर्ववेद बोला-जिनकी भक्तिका अनुग्रह प्राप्तकर भक्तजन उनका साक्षात्कार करते हैं, उन्हीं दुःखरहित एवं कैवल्यस्वरूप एकमात्र शंकरको परमतत्त्व कहा गया है ॥ २८ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
श्रुत्युक्तमिदमाकर्ण्यातीव मायाविमोहितौ ।
स्मित्वाहतुर्विधिहरी निगमांस्तान्विचेतनौ ॥ २९ ॥
नन्दीश्वर बोले-वेदोंका यह वचन सुनकर शिवजीको मायासे अत्यन्त विमोहित ब्रह्मा एवं विष्णु अचेतसे हो गये, फिर मुसकराकर उन वेदोंसे कहने लगे- ॥ २९ ॥

विधिहरी ऊचतुः -
हे वेदाः किमिदं यूयम्भाषन्ते गतचेतनाः ।
किञ्जातं वोऽद्य सर्वं हि नष्टं सुवयुनं परम् ॥ ३० ॥
ब्रह्मा एवं विष्णु बोले-हे वेदो ! आपलोग चेतनाहीन होकर यह क्या प्रलाप कर रहे हैं ? आज आपलोगोंको क्या हो गया है ? अवश्य ही आपलोगोंका सारा श्रेष्ठ ज्ञान नष्ट हो गया है ॥ ३० ॥

कथम्प्रमथनाथोऽसौ रममाणो निरन्तरम् ।
दिगम्बरः पीतवर्णो शिवया धूलिधूसरः ॥ ३१ ॥
विरूपवेषो जटिलो वृषगो व्यालभूषणः ।
परं ब्रह्मत्वमापन्नः क्व च तत्संगवर्जितः ॥ ३२ ॥
प्रमथनाथ, दिगम्बर, पीतवर्णवाले, धूलिधूसरित, निरन्तर पार्वतीके साथ रमण करनेवाले, अत्यन्त विकृत रूपवाले, जटाधारी, बैलपर सवारी करनेवाले तथा सौका आभूषण धारण करनेवाले वे शिव नि:संग परम ब्रह्म किस प्रकार हो सकते हैं ? ॥ ३१-३२ ॥

इत्युदीरितमाकर्ण्य प्रणवः सर्वगस्तयोः ।
अमूर्तो मूर्तिमान्प्रीत्या जृम्भमाण उवाच तौ ॥ ३३ ॥
उस समय उन दोनोंकी इस बातको सुनकर सर्वत्र व्यापक तथा निराकार प्रणवने मूर्तिमान् प्रकट होकर उनसे कहा- ॥ ३३ ॥

प्रणव उवाच -
न हीशो भगवान् शक्त्या ह्यात्मनो व्यतिरिक्तया ।
कदाचिद्‌रमते रुद्रो लीलारूपधरो हरः ॥ ३४ ॥
प्रणव बोला-लीलारूपधारी, हर भगवान् रुद्र अपनी शक्तिके बिना कभी भी रमण करनेमें समर्थ नहीं होते ॥ ३४ ॥

असौ हि परमेशानः स्वयञ्ज्योतिः सनातनः ।
आनन्दरूपा तस्यैषा शक्तिर्नागन्तुकी शिवा ॥ ३५ ॥
ये परमेश्वर शिव सनातन तथा स्वयं ज्योतिःस्वरूप हैं और ये शिवा उन्हींकी आह्लादिनी शक्ति हैं, अत: आगन्तुक नहीं हैं, अपितु उन्हींके समान नित्य [तथा उनसे अभिन्न] हैं ॥ ३५ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इत्येवमुक्तोऽपि तदा विधेर्विष्णोश्च वै तदा ।
नाज्ञानमगमन्नाशं श्रीकण्ठस्यैव मायया ॥ ३६ ॥
प्रादुरासीत्ततो ज्योतिरुभयोरन्तरे महत् ।
पूरयन्निजया भासा द्यावाभूम्योर्यदन्तरम् ॥ ३७ ॥
नन्दीश्वर बोले-उस समय ॐकारके इस प्रकार कहनेपर भी शिवमायासे मोहित ब्रह्मा एवं विष्णुका अज्ञान जब दूर नहीं हुआ, तब उसी समय अपने प्रकाशसे पृथ्वी तथा आकाशके अन्तरालको पूर्ण करती हुई एक महान् ज्योति उन दोनोंके बीचमें प्रकट हो गयी ॥ ३६-३७ ॥

ज्योतिर्मण्डलमध्यस्थो ददृशे पुरुषाकृतिः ।
विधिक्रतुभ्यां तत्रैव महाद्भुततनुर्मुने ॥ ३८ ॥
हे मुने ! उस ज्योतिसमूहके बीचमें स्थित एक अत्यन्त अद्‌भुत शरीरवाले पुरुषको ब्रह्मा एवं विष्णुने देखा ॥ ३८ ॥

प्रजज्वालाथ कोपेन ब्रह्मणः पञ्चमं शिरः ।
आवयोरन्तरे कोऽसौ बिभृयात्पुरुषाकृतिम् ॥ ३९ ॥
तब क्रोधके कारण ब्रह्माजीका पाँचवाँ सिर जलने लगा कि हम दोनोंके मध्य यह पुरुषशरीरको धारण किये हुए कौन है ? ॥ ३९ ॥

विधिः संभावयेद्यावत्तावत्स त्रिविलोचनः ।
दृष्टः क्षणेन च महापुरुषो नीललोहितः ॥ ४० ॥
त्रिशूलपाणिर्भालाक्षो नागोडुपविभूषणः ।
हिरण्यगर्भस्तं दृष्ट्‍वा विहसन्प्राह मोहितः ॥ ४१ ॥
जबतक ब्रह्माजी यह विचार कर ही रहे थे कि इतनेमें उसी क्षण वह महापुरुष त्रिलोचन, नीललोहित सदाशिवके रूपमें दिखायी पड़ा । हाथमें त्रिशूल धारण किये, मस्तकपर नेत्रवाले, सर्प एवं चन्द्रमाको भूषणके रूपमें धारण किये उन्हें देखकर मोहित हुए ब्रह्माजी हँसते हुए कहने लगे- ॥ ४०-४१ ॥

ब्रह्मोवाच -
नीललोहित जाने त्वां मा भैषीश्चन्द्रशेखर ।
भालस्थलान्मम पुरा रुद्रः प्रादुरभूद्भवान् ॥ ४२ ॥
रोदनाद् रुद्रनामापि योजितोऽसि मया पुरा ।
मामेव शरणं याहि पुत्र रक्षां करोमि ते ॥ ४३ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे नीललोहित ! हे चन्द्रशेखर ! मैं तुम्हें जानता हूँ, डरो मत । तुम पूर्व समयमें मेरे ललाट-प्रदेशसे रोते हुए उत्पन्न हुए थे । पहले मैंने ही रोनेके कारण तुम्हारा नाम रुद्र रखा था । हे पुत्र ! मेरी शरणमें आओ, मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा ॥ ४२-४३ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
अथेश्वरः पद्मयोनेः श्रुत्वा गर्ववतीं गिरम् ।
चुकोपातीव च तदा कुर्वन्निव लयं मुने ॥ ४४ ॥
नन्दीश्वर बोले-हे मुने ! उसके बाद ब्रह्माकी अहंकारयुक्त वाणी सुनकर शिवजी अत्यन्त क्रोधित हुए, उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो प्रलय कर देंगे ॥ ४४ ॥

स कोपतः समुत्पाद्य पुरुषं भैरवं क्वचित् ।
प्रज्वलन्तं सुमहसा प्रीत्या च परमेश्वरः ॥ ४५ ॥
उस समय परमेश्वर शिव अपने क्रोधके द्वारा परम तेजसे देदीप्यमान भैरव नामक एक पुरुषको उत्पन्न करके प्रेमपूर्वक [उससे कहने लगे--] ॥ ४५ ॥

ईश्वर उवाच -
प्राक् च पंकजजन्मासौ शास्यस्ते कालभैरव ।
कालवद्‌राजसे साक्षात्कालराजस्ततो भवान् ॥ ४६ ॥
ईश्वर बोले-हे कालभैरव ! सर्वप्रथम तुम इस पद्मयोनि ब्रह्माको दण्ड दो, तुम साक्षात् कालके सदृश शोभित हो रहे हो. अतः तम कालराज [नामसे विख्यात] होओगे ॥ ४६ ॥

विश्वं भर्तुं समर्थोसि भीषणाद्भैरवः स्मृतः ।
त्वत्तो भेष्यति कालोऽपि ततस्त्वं कालभैरवः ॥ ४७ ॥
तुम संसारका पालन करनेमें सर्वथा समर्थ हो, उसका भरण-पोषण करनेसे तुम भैरव कहे गये हो, तुमसे काल भी डरेगा । अत: तुम कालभैरव कहे जाओगे ॥ ४७ ॥

आमर्दयिष्यति भवान्रुष्टो दुष्टात्मनो यतः ।
आमर्दक इति ख्यातिं ततः सर्वत्र यास्यसि ॥ ४८ ॥
तुम रुष्ट होनेपर दुष्टात्माओंका मर्दन करोगे, इसलिये सर्वत्र आमर्दक नामसे विख्यात होओगे ॥ ४८ ॥

यतः पापानि भक्तानां भक्षयिष्यसि तत्क्षणात् ।
पापभक्षण इत्येव तव नाम भविष्यति ॥ ४९ ॥
तुम भक्तोंके पापोंका तत्काल भक्षण करोगे, इसलिये तुम्हारा नाम पापभक्षण भी होगा ॥ ४९ ॥

या मे मुक्तिपुरी काशी सर्वाभ्योऽहि गरीयसी ।
आधिपत्यं च तस्यास्ते कालराज सदैव हि ॥ ५० ॥
तत्र ये पातकिनरास्तेषां शास्ता त्वमेव हि ।
शुभाशुभं च तत्कर्म चित्रगुप्तो लिखिष्यति ॥ ५१ ॥
हे कालराज ! सभी पुरियोंसे श्रेष्ठ जो मेरी मुक्तिपुरी काशी है, तुम सदा उसके अधिपति बनकर रहोगे । वहाँ जो पापी मनुष्य होंगे, उनके शासक तुम ही रहोगे, उनके अच्छे-बुरे कर्मको चित्रगुप्त लिखेंगे ॥ ५०-५१ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
एतान्वरान्प्रगृह्याथ तत्क्षणात्कालभैरवः ।
वामांगुलिनखाग्रेण चकर्त च विधेश्शिरः ॥ ५२ ॥
नन्दीश्वर बोले-कालभैरवने इस प्रकारके वरोंको प्राप्तकर अपनी बाँयीं अँगुलियोंके नखोंके अग्रभागसे ब्रह्माका पाँचवाँ सिर तत्क्षण ही काट डाला ॥ ५२ ॥

यदंगमपराध्नोति कार्यं तस्यैव शासनम् ।
अतो येन कृता निन्दा तच्छिन्नं पञ्चमं शिरः ॥ ५३ ॥
जो अंग अपराध करता है, उसीको दण्ड देना चाहिये, अत: जिस सिरने निन्दा की थी, उस पाँचवें सिरको उन्होंने काट दिया ॥ ५३ ॥

अथ च्छिन्नं विधिशिरो दृष्ट्‍वा भीततरो हरिः ।
शातरुद्रियमन्त्रैश्च भक्त्या तुष्टाव शङ्करम् ॥ ५४ ॥
उसके बाद ब्रह्माके सिरको कटा हुआ देखकर विष्णु बहुत भयभीत हो गये और शतरुद्रिय मन्त्रोंसे भक्तिपूर्वक शिवजीकी स्तुति करने लगे ॥ ५४ ॥

भीतो हिरण्यगर्भोऽपि जजाप शतरुद्रियम् ।
इत्थं तौ गतगर्वौ हि सञ्जातौ तत्क्षणान्मुने ॥ ५५ ॥
हे मुने ! तब भयभीत हुए ब्रह्माजी भी शतरुद्रिय मन्त्रका जप करने लगे । इस प्रकार वे दोनों ही उसी क्षण अहंकाररहित हो गये ॥ ५५ ॥

परब्रह्म शिवः साक्षात्सच्चिदानन्दलक्षणः ।
परमात्मा गुणातीत इति ज्ञानमवापतुः ॥ ५६ ॥
उन दोनोंको यह ज्ञान हो गया कि साक्षात् शिव ही सच्चिदानन्द लक्षणसे युक्त परमात्मा, गुणातीत तथा परब्रह्म हैं ॥ ५६ ॥

सनत्कुमार सर्वज्ञ शृणु मे परमं शुभम् ।
यावद्‌गर्वो भवेत्तावज्ज्ञानगुप्तिर्विशेषतः ॥ ५७ ॥
हे सनत्कुमार ! हे सर्वज्ञ ! मेरा यह उत्तम शुभ वचन सुनिये, जबतक अहंकार रहता है, तबतक विशेषरूपसे ज्ञान लुप्त रहता है ॥ ५७ ॥

त्यक्त्वाभिमानं पुरुषो जानाति परमेश्वरम् ।
गर्विणं हन्ति विश्वेशो जातो गर्वापहारकः ॥ ५८ ॥
अहंकारका त्याग करनेपर ही मनष्य परमेश्वरको जान पाता है । विश्वेश्वर शिव अहंकारी [के अहंकार]का नाश करते हैं, क्योंकि वे गर्वापहारक कहे गये हैं । ५८ ॥

अथ विष्णुविधी ज्ञात्वा विगर्वौ परमेश्वरः ।
प्रसन्नोऽभून्महादेवोऽकरोत्तावभयौ प्रभुः ॥ ५९ ॥
इसके बाद ब्रह्मा तथा विष्णको अहंकाररहित जानकर परमेश्वर महादेव प्रसन्न हो गये और उन प्रभुने उन दोनोंको भयरहित कर दिया ॥ ५९ ॥

आश्वास्य तौ महादेवः प्रीतः प्रणतवत्सलः ।
प्राह स्वां मूर्तिमपरां भैरवन्तं कपर्दिनम् ॥ ६० ॥
प्रसन्न हुए भक्तवत्सल महादेव उन्हें आश्वस्त करके अपने दूसरे स्वरूप उन कपर्दी भैरवसे कहने लगे- ॥ ६० ॥

महादेव उवाच -
त्वया मान्यो विष्णुरसौ तथा शतधृतिः स्वयम् ।
कपालं वैधसं वापि नीललोहित धारय ॥ ६१ ॥
ब्रह्महत्यापनोदाय व्रतं लोकाय दर्शय ।
चर त्वं सततं भिक्षां कपालव्रतमाश्रितः ॥ ६२ ॥
महादेव बोले-[हे भैरव !] ये ब्रह्मा एवं विष्णु तुम्हारे मान्य हैं । हे नीललोहित ! तुम ब्रह्माके [कटे हुए] इस कपालको धारण करो और ब्रह्महत्याको दूर करनेके लिये संसारके समक्ष व्रत प्रदर्शित करो, कपालव्रत धारणकर तुम निरन्तर भिक्षाचरण करो ॥ ६१-६२ ॥

इत्युक्त्वा पश्यतस्तस्य तेजोरूपः शिवोऽब्रवीत् ।
उत्पाद्य चैकां कन्यां तु ब्रह्महत्याभिविश्रुताम् ॥ ६३ ॥
इस प्रकार [कालभैरवसे] कहकर उनके देखते ही ब्रह्महत्या नामक कन्याको उत्पन्नकर तेजोरूप शिवजीने उससे कहा- ॥ ६३ ॥

यावद्वाराणसीं दिव्यां पुरीमेषां गमिष्यति ।
तावत्त्वं भीषणे कालमनुगच्छोग्ररूपिणम् ॥ ६४ ॥
सर्वत्र ते प्रवेशोऽस्ति त्यक्त्वा वाराणसीं पुरीम् ।
वाराणसीं यदा गच्छेत्तन्मुक्तां भव तत्क्षणात् ॥ ६५ ॥
तुम उग्र रूप धारण करनेवाले इन भयंकर कालभैरवके पीछे-पीछे तबतक चलो, जबतक ये वाराणसीपुरीतक नहीं जाते । इनके वाराणसीमें जाते ही तुम मुक्त हो जाओगी । वाराणसीपुरीको छोड़कर सर्वत्र तुम्हारा प्रवेश होगा ॥ ६४-६५ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
नियोज्य तामिति तदा ब्रह्महत्यां च तां प्रभुः ।
महाद्भुतश्च स शिवोऽप्यन्तर्धानमगात्ततः ॥ ६६ ॥
नन्दीश्वर बोले-वे परम अद्‌भुत प्रभु भगवान् शंकर भी उस ब्रह्महत्याको [उस यात्राके लिये] नियुक्त करके अन्तर्हित हो गये ॥ ६६ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां
भैरवावतारवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें भैरवावतारवर्णन नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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