![]() |
॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ तृतीया शतरुद्रसंहितायां
नवमोऽध्यायः भैरवावतारलीलावर्णनम् -
भैरवावतारलीलावर्णन - नन्दीश्वर उवाच - सनत्कुमार सर्वज्ञ भैरवीमपरां कथाम् । शृणु प्रीत्या महादोषसंहर्त्रीं भक्तिवर्द्धिनीम् ॥ १ ॥ नन्दीश्वर बोले-हे सनत्कुमार ! हे सर्वज्ञ ! अब आप महादोषोंको दूर करनेवाली और भक्तिको बढ़ानेवाली दूसरी भैरवी कथाको प्रेमपूर्वक सुनिये ॥ १ ॥ तत्सान्निध्यं भैरवोऽपि कालोऽभूत्कालकालनः । स देवदेववाक्येन बिभ्रत्कापालिकं व्रतम् ॥ २ ॥ कपालपाणिर्विश्वात्मा चचार भुवनत्रयम् । नात्याक्षीच्चापि तं देवं ब्रह्महत्यापि दारुणा ॥ ३ ॥ काशीका सान्निध्य प्राप्तकर वे कालभैरव कालके भी भक्षक महाकाल हुए । देवदेवके आदेशसे कापालिक व्रत धारण किये हुए वे विश्वात्मा भैरव हाथमें [ब्रह्माका] कपाल लेकर तीनों लोकोंमें घमने लगे, किंतु उस दारुण ब्रह्महत्याने कहीं भी उन प्रभुका पीछा करना न छोड़ा ॥ २-३ ॥ प्रतितीर्थं भ्रमन्वापि विमुक्तो ब्रह्महत्यया । अतः कामारिमहिमा सर्वोपि ह्यवगम्यताम् ॥ ४ ॥ प्रत्येक तीर्थमें घूमते हुए भी वे ब्रह्महत्यासे नहीं मुक्त हुए, इसमें भी सभीको शिवकी अद्भुत महिमा ही जाननी चाहिये ॥ ४ ॥ प्रमथैः सेव्यमानोऽपि ह्येकदा विहरन्हरः । कापालिको ययौ स्वैरी नारायणनिकेतनम् ॥ ५ ॥ एक बार प्रमथगणोंसे सेवित होते हए भी कापालिक वेषवाले शिवजी [कालभैरव] विहार करते हुए अपनी इच्छासे विष्णुके निवासस्थानपर पहुँचे ॥ ५ ॥ अथायान्तं महाकालं त्रिनेत्रं सर्पकुण्डलम् । महादेवांशसम्भूतं पूर्णाकारं च भैरवम् ॥ ६ ॥ पपात दण्डवद्भूमौ तं दृष्ट्वा गरुडध्वजः । देवाश्च मुनयश्चैव देवनार्य्यः समन्ततः ॥ ७ ॥ अथ विष्णुः प्रणम्यैनं प्रयातः कमलापतिः । शिरस्यञ्जलिमाधाय तुष्टाव विविधैः स्तवैः ॥ ८ ॥ उस समय महादेवके अंशसे उत्पन्न हुए, सर्पका कुण्डल धारण किये, त्रिनेत्र, महाकाल तथा पूर्णाकार उन भैरवको आता हुआ देखकर गरुडध्वज विष्णुने तथा देवों, मुनियों एवं देवस्त्रियोंने भी दण्डवत् प्रणाम किया । इसके बाद लक्ष्मीपति विष्णुने उन्हें तत्त्वतः जानते हुए पुनः प्रणामकर सिरपर अंजलि रखकर नाना प्रकारके स्तोत्रोंसे उनकी स्तुति की ॥ ६-८ ॥ सानन्दोऽथ हरिः प्राह प्रसन्नात्मा महामुने । क्षीरोदमथनोद्भूतां पद्मां पद्मालयां मुदा ॥ ९ ॥ हे महामुने ! तदनन्तर आनन्दसे पूर्ण हुए विष्णु प्रसन्नचित्त होकर क्षीरसागरसे उत्पन्न हुई कमलनिवासिनी लक्ष्मीसे प्रेमपूर्वक कहने लगे- ॥ ९ ॥ विष्णुरुवाच - प्रिये पश्याब्जनयने धन्यासि सुभगेऽनघे । धन्योऽहं देवि सुश्रोणि यत्पश्यावो जगत्पतिम् ॥ १० ॥ विष्णजी बोले-हे प्रिये ! हे कमलनयने ! हे सुभगे ! हे अनघे ! हे देवि ! हे सुश्रोणि ! देखो, तुम धन्य हो और मैं भी धन्य हूँ, जो कि हम दोनों जगत्पति [शिव]-का साक्षात् दर्शन कर रहे हैं ॥ १० ॥ अयन्धाता विधाता च लोकानां प्रभुरीश्वरः । अनादिः शरणः शान्तः पुरः षड्विंशसंमितः ॥ ११ ॥ ये ही धाता, विधाता तथा लोकके प्रभु, ईश्वर, अनादि, सबको शरण देनेवाले, शान्त तथा छब्बीस तत्त्वोंके रूपमें भी ये ही अभिव्यक्त हो रहे हैं ॥ ११ ॥ सर्वज्ञः सर्वयोगीशः सर्वभूतैकनायकः । सर्वभूतान्तरात्माऽयं सर्वेषां सर्वदः सदा ॥ १२ ॥ ये सर्वज्ञ, सभी योगियोंके स्वामी, सभी प्राणियोंके एकमात्र नायक, सर्वभूतान्तरात्मा एवं सबको सदा सब कुछ देनेवाले हैं ॥ १२ ॥ ये विनिद्रा विनिश्वासाः शान्ता ध्यानपरायणाः । । धिया पश्यंति हृदये सोयं पद्मे समीक्षताम् ॥ १३ ॥ हे पो ! निद्राको त्यागकर तथा श्वासको रोककर शान्त स्वभाववाले जन जिन्हें ध्यान लगाकर बुद्धिके द्वारा हृदयमें देखते हैं, वे ये ही हैं, आप उनको देखें ॥ १३ ॥ यं विदुर्वेदतत्त्वज्ञा योगिनो यतमानसाः । अरूपो रूपवान्भूत्वा सोऽयमायाति सर्वगः ॥ १४ ॥ वेदतत्त्वज्ञ एवं स्थिर मनवाले योगीजन जिन्हें जानते हैं, वे ही सर्वव्यापक शिव अरूप होते हुए भी स्वरूप धारणकर यहाँ आ रहे हैं ॥ १४ ॥ अहो विचित्रं देवस्य चेष्टितम्परमेष्ठिनः । यस्याख्यां ब्रुवतो नित्यं न देहः सोऽपि देहभृत् ॥ १५ ॥ तं दृष्ट्वा न पुनर्जन्म लभ्यते मानवैर्भुवि । सोयमायाति भगवांस्त्र्यम्बकः शशिभूषणः ॥ १६ ॥ अहो, इन परमेष्ठीकी चेष्टा भी अद्भुत है कि जिनके चरित्रका वर्णन करनेवाला मनुष्य शरीरधारी होकर भी विदेह हो जाता है एवं जिनका दर्शन करनेसे मनुष्योंको पुनः पृथ्वीपर जन्म ग्रहण नहीं करना पड़ता, वे ही त्र्यम्बक शशिभूषण भगवान् शिव आ रहे हैं ॥ १५-१६ ॥ पुण्डरीकदलायामे धन्ये मेऽद्य विलोचने । यद् दृश्यते महादेवो ह्याभ्यां लक्ष्मि महेश्वरः ॥ १७ ॥ हे लक्ष्मि ! श्वेत कमलदलके समान बड़े-बड़े ये मेरे नेत्र आज धन्य हुए, जो इनके द्वारा महेश्वर महादेवका दर्शन किया जा रहा है ॥ १७ ॥ धिग्धिक्पदं तु देवानां परं दृष्ट्वा न शंकरम् । लभ्यते यत्र निर्वाणं सर्व दुःखान्तकृत्तु यत् ॥ १८ ॥ देवताओंके उस पदको धिक्कार है, जिन्होंने शंकरका दर्शन नहीं किया, जो समस्त दु:खोंका नाश करनेवाले तथा मोक्षदायक हैं ॥ १८ ॥ देवत्वादशुभं किञ्चिद्देवलोके न विद्यते । दृष्ट्वापि सर्वे देवेशं यन्मुक्तिन्न लभामहे ॥ १९ ॥ यदि देवदेवेश शिवका दर्शनकर हम सभीने मुक्ति न प्राप्त की, तो देवलोकमें देवता होनेसे बढ़कर और कुछ भी अशुभ बात नहीं है ॥ १९ ॥ एवमुक्त्वा हृषीकेशः संप्रहृष्टतनूरुहः । प्रणिपत्य महादेवमिदमाह वृषध्वजम् ॥ २० ॥ नन्दीश्वर बोले-[लक्ष्मीसे] इस प्रकार कहकर रोमांचित शरीरवाले विष्णु वृषभध्वज महादेवको प्रणाम करके यह कहने लगे- ॥ २० ॥ विष्णुरुवाच - किमिदं देवदेवेन सर्वज्ञेन त्वया विभो । क्रियते जगतां धात्रा सर्वपापहराव्यय ॥ २१ ॥ विष्णुजी बोले-हे विभो ! हे सर्वपापहर ! हे अव्यय ! हे सर्वज्ञ तथा संसारके धाता देवदेव ! आप यह क्या कर रहे हैं ? ॥ २१ ॥ क्रीडेयं तव देवेश त्रिलोचन महामते । किङ्कारणं विरूपाक्ष चेष्टितं ते स्मरार्दन ॥ २२ ॥ हे देवेश ! हे त्रिलोचन ! हे महामते ! यह आपकी क्रीड़ा किसलिये हो रही है ? हे विरूपाक्ष ! हे स्मरार्दन ! आपकी इस प्रकारकी चेष्टाका क्या कारण है ? ॥ २२ ॥ किमर्थं भगवञ्छम्भो भिक्षाञ्चरसि शक्तिप । संशयो मे जगन्नाथ एष त्रैलोक्यराज्यद ॥ २३ ॥ हे भगवन् ! हे शम्भो ! हे शक्तिपते ! आप किस कारणसे भिक्षाटन कर रहे हैं ? हे जगन्नाथ ! हे त्रैलोक्यका राज्य देनेवाले ! मुझे यह सन्देह हो रहा है ॥ २३ ॥ नन्दीश्वर उवाच - एवमुक्तस्ततः शम्भुर्विष्णुना भैरवो हरः । प्रत्युवाचाद्भुतोतिः स विष्णुं हि विहसन्प्रभुः ॥ २४ ॥ नन्दीश्वर बोले-विष्णु ने जब इस प्रकार शिवरूप भैरवसे कहा, तब अद्भुत लीला करनेवाले उन प्रभुने विष्णुजीसे हँसते हुए कहा- ॥ २४ ॥ भैरव उवाच - ब्रह्मणस्तु शिरश्छिन्नमंगुल्याग्रनखेन ह । तदघं प्रतिहन्तुं हि चराम्येतद् व्रतं शुभम् ॥ २५ ॥ भैरव बोले-मैंने अपने अंगुलीके नखाग्रसे ब्रह्मदेवका सिर काट लिया है, उसी पापको दूर करनेके निमित्त इस शुभ व्रतका अनुष्ठान कर रहा हूँ ॥ २५ ॥ नन्दीश्वर उवाच - एवमुक्तो महेशेन भैरवेण रमापतिः । स्मृत्वा किञ्चिन्नतशिराः पुनरेवमजिज्ञपत् ॥ २६ ॥ नन्दीश्वर बोले-महेशरूप भैरवके इस प्रकार कहनेपर लक्ष्मीपति कुछ स्मरण करके सिर झुकाकर पुनः इस प्रकार कहने लगे- ॥ २६ ॥ विष्णुरुवाच - यथेच्छसि तथा क्रीड सर्वविघ्नोपनोदक । मायया मां महादेव नाच्छादयितुमर्हसि ॥ २७ ॥ विष्णुजी बोले-सभी विघ्नोंका नाश करनेवाले हे महादेव ! आपकी जैसी इच्छा हो, वैसी क्रीड़ा कीजिये, परंतु मुझे अपनी मायासे मोहित न करें ॥ २७ ॥ नाभीकमलकोशात्तु कोटिशः कमलासनाः । कल्पे कल्पे पुरा ह्यान्सत्यं योगबलाद्विभो ॥ २८ ॥ हे विभो ! आपकी आज्ञाशक्तिसे मेरे नाभिकमलके कोशसे कल्प-कल्पमें करोड़ों ब्रह्मा पहले उत्पन्न हो चुके हैं ॥ २८ ॥ त्यज मायामिमां देव दुस्तरामकृतात्मभिः । ब्रह्मादयो महादेव मायया तव मोहिताः ॥ २९ ॥ हे देव ! आप पुण्यहीन मनुष्योंके लिये दुस्तर इस मायाका त्याग करें । हे महादेव ! आपकी मायासे ब्रह्मा आदि भी मोहित हो जाते हैं ॥ २९ ॥ यथावदनुगच्छामि चेष्टितन्ते शिवापते । तवैवानुग्रहाच्छम्भो सर्वेश्वर सतांगते ॥ ३० ॥ सत्पुरुषोंको गति देनेवाले हे पार्वतीपते ! हे शम्भो ! हे सर्वेश्वर ! मैं आपकी कृपासे ही आपकी समस्त चेष्टाएँ ठीक-ठीक जानता हूँ ॥ ३० ॥ संहारकाले संप्राप्ते सदेवान्निखिलान्मुनीन् । लोकान्वर्णाश्रमवतो हरिष्यसि यदा हर ॥ ३१ ॥ तदा कृते महादेव पापं ब्रह्मवधादिकम् । पारतन्त्र्यं न ते शम्भो स्वैरं क्रीडत्यतो भवान् ॥ ३२ ॥ हे हर ! संहारकालके उपस्थित होनेपर जब आप समस्त देवताओं, मुनियों एवं वर्णाश्रमी जनोंको उपसंहृत करेंगे, तब भी हे महादेव ! आपको ब्रह्मवध आदिका पाप नहीं लगेगा । हे शिव ! आप पराधीन नहीं हैं । अतः आप स्वतन्त्र होकर क्रीड़ा करते हैं ॥ ३१-३२ ॥ अर्घीव ब्रह्मणो ह्यस्थ्नां स्रक्कण्ठे तव भासते । तथाद्यनुगता शम्भो ब्रह्महत्या तवानघ ॥ ३३ ॥ आपके कण्ठमें पूर्वमें उत्पन्न हो चुके ब्रह्माओंकी अस्थियोंकी माला भासित हो रही है, तब भी हे निष्पाप शिव ! आपके पीछे ब्रह्महत्या लगी है ॥ ३३ ॥ कृत्वापि सुमहत्पापं यस्त्वां स्मरति मानवः । आधारं जगतामीश तस्य पापं विलीयते ॥ ३४ ॥ हे ईश ! जो मनुष्य महान् पाप करके भी आप जगदाधारका स्मरण करता है, उसका पाप नष्ट हो जाता है ॥ ३४ ॥ यथा तमो न तिष्ठेत सन्निधावंशुमालिनः । तथैव तव यो भक्तः पापं तस्य व्रजेत्क्षयम् ॥ ३५ ॥ जिस प्रकार सूर्यके समीप अन्धकार टिक नहीं सकता, उसी प्रकार जो आपका भक्त है, उसका पाप विनष्ट हो जाता है ॥ ३५ ॥ यश्चिन्तयति पुण्यात्मा तव पादाम्बुजद्वयम् । ब्रह्महत्याकृतमपि पापन्तस्य व्रजेत्क्षयम् ॥ ३६ ॥ तव नामानुरक्ता वाग्यस्य पुंसो जगत्पते । अप्यद्रिकूटतुलितं नैनस्तमनुबाधते ॥ ३७ ॥ जो पुण्यात्मा आपके दोनों चरणकमलोंका स्मरण करता है, उसका ब्रह्महत्याजनित पाप भी नष्ट हो जाता है । हे जगत्पते ! जिस मनुष्यकी वाणी आपके नाममें अनुरक्त है, पर्वतसमूहके समान भारी-से-भारी पाप भी उसे बाधित नहीं कर सकता है ॥ ३६-३७ ॥ परमात्मन्परं धाम स्वेच्छाभिधृतविग्रह । कुतूहलं तवेशेदं कृपणाधीनतेश्वर ॥ ३८ ॥ हे परमात्मन् ! हे परमधाम ! स्वेच्छासे शरीर धारण करनेवाले हे ईश्वर ! यह भक्तोंकी अधीनता भी आपका कुतूहलमात्र है ॥ ३८ ॥ अद्य धन्योऽस्मि देवेश यत्र पश्यन्ति योगिनः । पश्यामि तं जगन्मूर्त्तिं परमेश्वरमव्ययम् ॥ ३९ ॥ हे देवेश ! आज मैं धन्य हूँ; क्योंकि योगीजन भी जिन्हें नहीं देख पाते हैं, उन जगन्मूर्ति अव्यय परमेश्वरका मैं दर्शन कर रहा हूँ ॥ ३९ ॥ अद्य मे परमो लाभस्त्वद्य मे मंगलं परम् । तं दृष्ट्वामृततृप्तस्य तृणं स्वर्गापवर्गकम् ॥ ४० ॥ आज मुझे परम लाभ मिला और मेरा परम कल्याण हो गया । उन आपके दर्शनसे मैं अमृतपानकर तृप्त हुएके समान तृप्त हो गया । मुझे स्वर्ग और मोक्ष तृणके समान ज्ञात हो रहे हैं ॥ ४० ॥ इत्थं वदति गोविंदे विमला पद्मया तया । मनोरथवती नाम भिक्षा पात्रे समर्पिता ॥ ४१ ॥ भिक्षाटनाय देवोऽपि निरगात्परया मुदा । अन्यत्रापि महादेवो भैरवश्चात्तविग्रहः ॥ ४२ ॥ गोविन्द विष्णुके इस प्रकार कहनेके पश्चात् उन महालक्ष्मीने अत्यन्त निर्मल मनोरथवती नामकी भिक्षा उनके पात्रमें दे दी । तब लीलासे भैरवरूपधारी वे महादेव भी परम प्रसन्न हो भिक्षाटनके लिये अन्यत्र चलनेको उद्यत हो गये ॥ ४१-४२ ॥ दृष्ट्वानुयायिनीं तां तु समाहूय जनार्दनः । संप्रार्थयद् ब्रह्महत्यां विमुञ्च त्वं त्रिशूलिनम् ॥ ४३ ॥ उस समय विष्णुने उनके पीछे-पीछे जानेवाली ब्रह्महत्याको बुलाकर उससे प्रार्थना की कि तुम इन त्रिशूलधारी भैरवको छोड़ दो ॥ ४३ ॥ ब्रह्महत्योवाच - अनेनापि मिषेणाहं संसेव्यामुं वृषध्वजम् । आत्मानं पावयिष्यामि त्वपुनर्भवदर्शनम् ॥ ४४ ॥ ब्रह्महत्या बोली-जिनका दर्शन करनेसे पनर्जन्मकी प्राप्ति नहीं होती, ऐसे वृषभध्वजकी सेवाकर इस बहानेसे मैं भी अपनेको पवित्र कर लूँगी ॥ ४४ ॥ नन्दीश्वर उवाच - सा तत्याज न तत्पार्श्वं व्याहृतापि मुरारिणा । तमूचेऽथ हरिं शंभुः स्मेरास्यो भैरवो वचः ॥ ४५ ॥ नन्दीश्वर बोले-विष्णुके कहनेसे भी जब ब्रह्महत्याने भैरवका पीछा नहीं छोड़ा, तब भैरव शम्भुने मुसकराकर हरिसे यह वचन कहा- ॥ ४५ ॥ भैरव उवाच - त्वद्वाक्पीयूषपानेन तृप्तोऽस्मि बहुमानद । स्वभावोऽयं हि साधूनां यत्त्वं वदसि मापते ॥ ४६ ॥ भैरव बोले-हे बहुमानद ! आपके वचनामृतका पानकर मैं तृप्त हो गया । हे लक्ष्मीके पति ! सज्जनोंके स्वभावके अनुरूप ही आप वचन बोल रहे हैं ॥ ४६ ॥ वरं वृणीष्व गोविन्द वरदोऽस्मि तवानघ । अग्रणीर्मम भक्तानां त्वं हरे निर्विकारवान् ॥ ४७ ॥ हे गोविन्द ! तुम वर माँगो । हे निष्पाप ! मैं तुम्हें वर देनेवाला हूँ । हे विकाररहित हरे ! तुम मेरे भक्तोंमें अग्रगण्य रहोगे ॥ ४७ ॥ नो माद्यन्ति तथा भैक्ष्यैर्भिक्षवोऽप्यतिसंस्कृतैः । यथा मानसुधापानैर्ननु भिक्षाटनज्वराः ॥ ४८ ॥ भिक्षाटनरूपी ज्वरसे पीड़ित भिक्षु मानसुधाका पानकर जैसी तृप्ति प्राप्त करते हैं, वैसी तृप्ति अतिसंस्कृत भिक्षाओंसे भी नहीं प्राप्त करते हैं । ४८ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्याकर्ण्य वचः शंभोर्भैरवस्य परात्मनः । सुप्रसन्नतरो भूत्वा समवोचन्महेश्वरम् ॥ ४९ ॥ नन्दीश्वर बोले-परमात्मा शम्भुके अवतार भैरवके इन वचनोंको सुनकर विष्णु परम प्रसन्न होकर महेश्वरसे बोले- ॥ ४९ ॥ विष्णुरुवाच - एष एव वरः श्लाघ्यो यदहं देवताधिपम् । पश्यामि त्वां देवदेव मनोवाणी पथातिगम् ॥ ५० ॥ विष्णु बोले-हे देवदेव ! मेरे लिये यही वह प्रशंसनीय है, जिससे कि मैं [आज] मन और वाणीसे अगोचर देवताओंके स्वामी आपका दर्शन प्राप्त कर रहा हूँ ॥ ५० ॥ अदभ्रेयं सुधादृष्टिरनया मे महोत्सवः । अयत्ननिधिलाभोऽयं वीक्षणं हर ते सताम् ॥ ५१ ॥ आपकी जो अमृतमयी पूर्ण दृष्टि [मुझपर] पड़ रही है, इसीसे मुझे महान् हर्ष हो रहा है । हे हर ! सज्जनोंके लिये आपका दर्शन बिना यत्नके प्राप्त निधिके समान है ॥ ५१ ॥ अवियोगोऽस्तु मे देव त्वदंघ्रियुगलेन वै । एष एव वरः शंभो नान्यं कश्चिद् वृणे वरम् ॥ ५२ ॥ हे देव ! आपके चरणयुगलसे मेरा वियोग न हो, हे शम्भो ! यही मेरे लिये वरदान है । मैं किसी अन्य वरका वरण नहीं करता हूँ ॥ ५२ ॥ श्रीभैरवी उवाच - एवं भवतु ते तात यत्त्वयोक्तं महामते । सर्वेषामपि देवानां वरदस्त्वं भविष्यसि ॥ ५३ ॥ श्रीभैरव बोले-महामते तात ! जैसा आपने कहा है, वैसा ही हो । आप सभी देवताओंको वर देनेवाले होंगे ॥ ५३ ॥ नन्दीश्वर उवाच - अनुगृह्येति दैत्यारिं केंद्राद्रिभुवनेचरम् । भेजे विमुक्तनगरीं नाम्ना वाराणसीं पुरीम् ॥ ५४ ॥ नन्दीश्वर बोले-[ब्रह्माण्डके] भुवनोंसहित केन्द्रभूत सुमेरुपर्वतपर विचरण करते हुए दैत्यशत्रु विष्णुको इस प्रकार अनुगृहीतकर भैरव विमुक्तनगरी वाराणसीपुरीमें जा पहुँचे ॥ ५४ ॥ क्षेत्रे प्रविष्टमात्रेऽथ भैरवे भीषणाकृतौ । हाहेत्युक्त्वा ब्रह्महत्या पातालं चाविशत्तदा ॥ ९५ ॥ भयंकर आकृतिवाले भैरवके उस क्षेत्रमें प्रवेश करनेमात्रसे ही ब्रह्महत्या उसी समय हाहाकार करके पातालमें चली गयी ॥ ५५ ॥ कपालं ब्राह्मणः सद्यो भैरवस्य करांबुजात् । पपात भुवि तत्तीर्थमभूत्कापालमोचनम् ॥ ५६ ॥ उसी समय भैरवके हस्तकमलसे ब्रह्माका कपाल पृथिवीपर गिर पड़ा । तबसे वह तीर्थ कपालमोचन नामसे प्रसिद्ध हो गया ॥ ५६ ॥ कपालं ब्रह्मणो रुद्रः सर्वेषामेव पश्यताम् । हस्तात्पतन्तमालोक्य ननर्त परया मुदा ॥ ५७ ॥ विधेः कपालं नामुञ्चत्करमत्यन्तदुःसहम् । परस्य भ्रमतः क्वापि तत्काश्यां क्षणतोऽपतत् ॥ ५८ ॥ अपने हाथसे ब्रह्माके कपालको गिरता हुआ देखकर रुद्र सबके सामने परमानन्दसे नाचने लगे ॥ ५७ ॥ शूलिनो ब्रह्मणो हत्या नापैति स्म च या क्वचित् । सा काश्यां क्षणतो नष्टा तस्मात्सेव्या हि काशिका ॥ ५९ ॥ अत्यन्त दुस्सह जो ब्रह्माजीका कपाल [अन्य क्षेत्रोंमें] भ्रमण करते हुए परमेश्वरके हाथसे कहीं नहीं छूट पाया था, वह काशीमें क्षणमात्रमें छूटकर गिर पड़ा । शल धारण करनेवाले शिवकी जो ब्रह्महत्या कहीं भी नहीं दूर हो सकी, वह काशीमें आते ही क्षणभरमें नष्ट हो गयी, इसलिये काशीका ही सेवन करना चाहिये ॥ ५८-५९ ॥ कपालमोचनं काश्यां यः स्मरेत्तीर्थमुत्तमम् । इहान्यत्रापि यत्पापं क्षिप्रं तस्य प्रणश्यति ॥ ६० ॥ जो मनुष्य काशीमें [स्थित] कपालमोचन नामक उत्तम तीर्थका स्मरण करता है, उसका यहाँ अथवा अन्यत्रका किया हुआ पाप भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ॥ ६० ॥ आगत्य तीर्थप्रवरे स्नानं कृत्वा विधानतः । तर्पयित्वा पितॄन्देवान्मुच्यते ब्रह्महत्यया ॥ ६१ ॥ इस श्रेष्ठ तीर्थमें आकर विधानके अनुसार स्नानकर देवताओं और पितरोंका तर्पण करनेसे ब्रह्महत्यासे छुटकारा मिल जाता है ॥ ६१ ॥ कपालमोचनं तीर्थं पुरस्कृत्वा तु भैरवः । तत्रैव तस्थौ भक्तानां भक्षयन्नघसन्ततिम् ॥ ६२ ॥ कपालमोचन नामक तीर्थको समादृतकर भैरव भक्तोंके पापसमूहका भक्षण करते हुए वहींपर विराजमान हो गये ॥ ६२ ॥ कृष्णाष्टम्यां तु मार्गस्य मासस्य परमेश्वरः । आविर्बभूव सल्लीलो भैरवात्मा सतां प्रियः ॥ ६३ ॥ सुन्दर लीला करनेवाले, सज्जनोंके प्रिय, भैरवात्मा परमेश्वर शिव मार्गशीर्षमासके कृष्णपक्षकी अष्टमी तिथिको आविर्भूत हुए ॥ ६३ ॥ मार्गशीर्षासिताष्टम्यां कालभैरवसन्निधौ । उपोष्य जागरं कुर्वन्महापापैः प्रमुच्यते ॥ ६४ ॥ जो मनुष्य मार्गशीर्षमासके कृष्णपक्षकी अष्टमीतिथिको कालभैरवकी सन्निधिमें उपवास करके जागरण करता है, वह महान् पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ६४ ॥ अन्यत्रापि नरो भक्त्या तद् व्रतं यः करिष्यति । स जागरं महापापैर्मुक्तो यास्यति सद्गतिम् ॥ ६५ ॥ जो मनुष्य अन्यत्र भी भक्तिपूर्वक जागरणके सहित इस व्रतको करेगा, वह महापापोंसे मुक्त होकर सद्गतिको प्राप्त कर लेगा ॥ ६५ ॥ अनेकजन्मनियुतैर्यत्कृतं जन्तुभिस्त्वघम् । तत्सर्वं विलयं याति कालभैरवदर्शनात् ॥ ६६ ॥ कालभैरवभक्तानां पातकानि करोति यः । स मूढो दुःखितो भूत्वा पुनर्दुर्गतिमाप्नुयात् ॥ ६७ ॥ प्राणीके द्वारा लाखों जन्मोंमें किया गया जो पाप है, वह सभी कालभैरवके दर्शन करनेसे लुप्त हो जाता है । जो कालभैरवके भक्तोंका अपराध करता है, वह मूर्ख दुःखित होकर पुनः-पुनः दुर्गतिको प्राप्त करता रहता है ॥ ६६-६७ ॥ विश्वेश्वरेऽपि ये भक्ता नो भक्ताः कालभैरवे । ते लभन्ते महादुःखं काश्यां चैव विशेषतः ॥ ६८ ॥ जो काशीमें रहकर विश्वेश्वरमें तो भक्ति करते हैं, परंतु कालभैरवकी भक्ति नहीं करते, वे विशेषरूपसे महादुःखको प्राप्त करते हैं ॥ ६८ ॥ वाराणस्यामुषित्वा यो भैरवं न भजेन्नरः । तस्य पापानि वर्द्धन्ते शुक्लपक्षे यथा शशी ॥ ६९ ॥ जो मनुष्य वाराणसीमें रहकर [भी] कालभैरवका भजन नहीं करता है, उसके पाप शुक्लपक्षके चन्द्रमाके समान बढ़ते हैं ॥ ६९ ॥ कालराजं न यः काश्यां प्रतिभूताष्टमीकुजम् । भजेत्तस्य क्षयं पुण्यं कृष्णपक्षे यथा शशी ॥ ७० ॥ जो मंगलवार, चतुर्दशी तथा अष्टमीके दिन काशीमें कालराजका भजन नहीं करता है, उसका पुण्य कृष्णपक्षके चन्द्रमाके समान क्षीण हो जाता है ॥ ७० ॥ श्रुत्वाख्यानमिदं पुण्यं ब्रह्महत्यापनोदकम् । भैरवोत्पत्तिसञ्ज्ञं च सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ७१ ॥ ब्रह्महत्याको दूर करनेवाले, भैरवोत्पत्तिसंज्ञक इस पवित्र आख्यानको सुनकर प्राणी सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ७१ ॥ बन्धनागारसंस्थोऽपि प्राप्तोऽपि विपदं पराम् । प्रादुर्भावं भैरवस्य श्रुत्वा मुच्येत सङ्कटात् ॥ ७२ ॥ कारागारमें पड़ा हुआ अथवा भयंकर कष्टमें फँसा हुआ प्राणी भी भैरवकी उत्पत्ति [के आख्यान]-को सुनकर संकटसे छूट जाता है ॥ ७२ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायांशत रुद्रसंहितायां भैरवावतारलीलावर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें भैरवावतारलीलावर्णन नामक नौवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |