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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ तृतीया शतरुद्रसंहितायां
दशमोऽध्यायः शार्दूलावतारे नृसिंहचरितवर्णनंम् -
नृसिंहचरित्रवर्णन - नंदीश्वर उवाच - विध्वंसी दक्षयज्ञस्य वीरभद्राह्वयः प्रभो । अवतारश्च विज्ञेयः शिवस्य परमात्मनः ॥ १ ॥ सतीचरित्रे कथितं चरितं तस्य कृत्स्नशः । श्रुतं त्वयापि बहुधा नातः प्रोक्तं सुविस्तरात् ॥ २ ॥ नन्दीश्वर बोले-[हे सनत्कुमार !] दक्ष प्रजापतिके यज्ञको विध्वंस करनेवाले वीरभद्र नामक [गणाध्यक्ष]को परमात्मा प्रभु शिवजीका अवतार जानना चाहिये, उनका सम्पूर्ण चरित सतीके चरित्रमें कहा गया है । आपने भी उसे अनेक प्रकारसे सन लिया है. इसीलिये यहाँ विस्तारसे नहीं कहा गया ॥ १-२ ॥ अतः परं मुनिश्रेष्ठ भवत्स्नेहाद् ब्रवीमि तत् । शार्दूलाख्यावतारं च शङ्करस्य प्रभोः शृणु ॥ ३ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! इसके पश्चात् आपके स्नेहवश अब प्रभु शंकरके शार्दूल नामक अवतारको कह रहा हूँ, उसको सुनिये ॥ ३ ॥ सदाशिवेन देवानां हितार्थं रूपमद्भुतम् । शारभं च धृतं दिव्यं ज्वलज्ज्वालासमप्रभम् ॥ ४ ॥ भगवान् सदाशिवने देवताओंके कल्याणार्थ जलती हुई अग्निके समान कान्तियुक्त अत्यन्त अद्भुत शरभ रूपको धारण किया था ॥ ४ ॥ शिवावतारा अमिताः सद्भक्तहितकारकाः । सङ्ख्या न शक्यते कर्तुं तेषां च मुनिसत्तमाः ॥ ५ ॥ हे मुनिसत्तमो ! श्रेष्ठ भक्तोंके हितसाधक अपरिमित शिवावतार हुए हैं, उनकी संख्याकी गणना नहीं की जा सकती है ॥ ५ ॥ आकाशस्य च ताराणां रेणुकानां क्षितेस्तथा । आसाराणां च वृद्धेन बहुकल्पैः कदापि हि ॥ ६ ॥ सङ्ख्या विशक्यते कर्तुं सुप्राज्ञैर्बहुजन्मभिः । शिवावताराणां नैव सत्यं जानीहि मद्वचः ॥ ७ ॥ तथापि च यथाबुद्ध्या कथयामि कथाश्रुतम् । चरित्रं शारभं दिव्यं परमैश्वर्य्यसूचकम् ॥ ८ ॥ आकाशके तारोंकी, पृथ्वीके धूलिकणोंकी तथा वर्षाकी बूंदोंकी गणना अनेक कल्पोंमें अनेक जन्म लेकर कोई बुद्धिमान् पुरुष भले ही कर ले, परंतु शिवजीके अवतारोंकी गणना कदापि नहीं की जा सकती है, मेरा यह कथन सत्य समझें । फिर भी जैसा मैंने सुना है, अपनी बुद्धिके अनुसार दिव्य तथा परम ऐश्वर्यसूचक उस शरभ-चरित्रको कह रहा हूँ ॥ ६-८ ॥ जयश्च विजयश्चैव भवद्भिः शापितौ यदा । तदा दितिसुतौ द्वौ तावभूतां कश्यपान्मुने ॥ ९ ॥ हे मुने ! जब आपलोगोंद्वारा जय-विजय [नामक द्वारपालों]-को शाप दिया गया, तब वे दोनों कश्यपके द्वारा दितिके गर्भसे पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए ॥ ९ ॥ हिरण्यकशिपुश्चाद्यो हिरण्याक्षोऽनुजो बली । देवर्षिपार्षदौ जातौ तौ द्वावपि दितेः सुतौ ॥ १० ॥ प्रथम हिरण्यकशिपु तथा छोटा भाई महाबली हिरण्याक्ष था, वे दोनों पहले भगवान् विष्णुके देवर्षिपार्षद थे, जो [आपलोगोंसे शापित होकर] दितिके पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए ॥ १० ॥ पृथ्व्युद्धारे विधात्रा वै प्रार्थितो हि पुरा प्रभुः । हिरण्याक्षं जघानासौ विष्णुर्वाराहरूपधृक् ॥ १ १ ॥ पूर्वकालमें पृथ्वीका उद्धार करनेहेतु ब्रह्माजीद्वारा प्रार्थना किये जानेपर भगवान् विष्णुने वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वध किया ॥ ११ ॥ तं श्रुत्वा भ्रातरं वीरं निहतं प्राणसन्निभम् । चुकोप हरयेऽतीव हिरण्यकशिपुर्मुने ॥ १२ ॥ हे मुने ! अपने प्राणोंके समान [प्रिय] उस वीर भाईको मारा गया सुनकर हिरण्यकशिपुने विष्णुपर अत्यधिक क्रोध किया ॥ १२ ॥ वर्षाणामयुतं तप्त्वा ब्रह्मणो वरमाप सः । न कश्चिन्मारयेन्मां वै त्वत्सृष्टाविति तुष्टतः ॥ १३ ॥ तत्पश्चात् हिरण्यकशिपुने दस हजार वर्षतक तप करके सन्तुष्ट हुए ब्रह्माजीसे यह वरदान प्राप्त किया कि आपकी सृष्टिमें कोई भी मुझे न मार सके ॥ १३ ॥ शोणिताख्यपुरं गत्वा देवानाहूय सर्वतः । त्रिलोकीं स्ववशे कृत्वा चक्रे राज्यमकण्टकम् ॥ १४ ॥ वह हिरण्यकशिपु शोणितपुर नामक पुरमें जाकर चारों तरफसे देवताओंको बलाकर त्रिलोकीको अपने वशमें करके निष्कण्टक राज्य करने लगा ॥ १४ ॥ देवर्षिकदनं चक्रे सर्वधर्म विलोपकः । द्विजपीडाकरः पापी हिरण्यकशिपुर्मुने ॥ १५ ॥ हे मुने ! सभी धर्मोंको नष्ट करनेवाला तथा ब्राह्मणोंको पीड़ित करनेवाला पापी हिरण्यकशिपु देवताओं तथा ऋषियोंको सताने लगा ॥ १५ ॥ प्रह्लादेन स्वपुत्रेण हरिभक्तेन दैत्यराट् । यदा विद्वेषमकरोद्धरिर्वैरं विशेषतः ॥ १६ ॥ सभास्तम्भात्तदा विष्णुरभूदाविर्द्रुतं मुने । सन्ध्यायां क्रोधमापन्नो नृसिंहवपुषा ततः ॥ १७ ॥ हे मुने ! तदनन्तर विष्णुवैरी दैत्यराजने अपने हरिभक्त पुत्र प्रह्लादसे भी जब विशेषरूपसे द्वेष करना प्रारम्भ कर दिया, तब सभामण्डपके खम्भेसे सन्ध्याके समय अत्यन्त क्रोधित होकर भगवान् विष्णु नृसिंहशरीरसे प्रकट हुए ॥ १६-१७ ॥ सर्वथा मुनिशार्दूल करालं नृहरेर्वपुः । प्रजज्वालातिभयदं त्रासयन्दैत्यसत्तमान् ॥ १८ ॥ हे मुनिशार्दूल ! भगवान् नृसिंहका विकराल तथा भयदायक शरीर सब प्रकारसे महादैत्योंको सन्त्रस्त करता हुआ अग्निके समान जाज्वल्यमान हो उठा ॥ १८ ॥ नृसिंहेन तदा दैत्या निहताश्चैव तत्क्षणम् । हिरण्यकशिपुश्चाथ युद्धं चक्रे सुदारुणम् ॥ १९ ॥ नृसिंहने उसी क्षण सभी दैत्योंका संहार कर डाला और तब [दैत्योंके संहारको देखकर] हिरण्यकशिपने उनसे अत्यन्त भयानक युद्ध किया ॥ १९ ॥ महायुद्धं तयोरासीन्मुहूर्त्तं मुनिसत्तमाः । विकरालं च भयदं सर्वेषां रोमहर्षणम् ॥ २० ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! मुहूर्तभरतक उन दोनोंमें विकराल, सबको भयभीत करनेवाला तथा लोमहर्षक युद्ध होता रहा ॥ २० ॥ सायं चकर्ष देवेशो देहल्यां दैत्यपुङ्गवम् । व्योम्नि देवेषु पश्यत्सु नृसिंहश्च रमेश्वरः ॥ २१ ॥ अथोत्संगे च तं कृत्वा नखैस्तदुदरं द्रुतम् । विदार्य मारयामास पश्यतां त्रिदिवौकसाम् ॥ २२ ॥ सायंकाल होनेपर लक्ष्मीपति देवेश नृसिंहने आकाशमें स्थित देवताओंके देखते-देखते हिरण्यकशिपुको देहलीपर खींच लिया और अपनी गोदमें उसे लेकर नखोंसे शीघ्र ही स्वर्गनिवासियोंके समक्ष उसका उदर विदीर्णकर मार डाला ॥ २१-२२ ॥ हते हिरण्यकशिपौ नृसिंहे नैवविष्णुना । जगत्स्वास्थ्यन्तदा लेभे न वै देवा विशेषतः ॥ २३ ॥ इस प्रकार नृसिंहरूपधारी विष्णुके द्वारा हिरण्यकशिपुके मारे जानेपर जगत्में चारों तरफ शान्ति स्थापित हो गयी, परंतु इससे देवताओंको विशेष आनन्द प्राप्त नहीं हुआ ॥ २३ ॥ देवदुन्दुभयो नेदुः प्रह्लादो विस्मयं गतः । लक्ष्मीश्च विस्मयं प्राप्ता रूपं दृष्ट्वाऽद्भुतं हरेः ॥ २४ ॥ देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजने लगीं, प्रह्लाद आश्चर्यचकित हो गये, विष्णुके उस अद्भुत रूपको देखकर लक्ष्मीजी भी अत्यन्त विस्मित हो गयीं ॥ २४ ॥ हतो यद्यपि दैत्येन्द्रस्तथापि न पुरं सुखम् । ययुर्देवा नृसिंहस्य ज्वाला सा न निवर्तिता ॥ २५ ॥ यद्यपि हिरण्यकशिपु मार डाला गया, किंतु भगवान् नृसिंहके क्रोधकी ज्वाला शान्त नहीं हुई, इसी कारण देवताओंको उत्तम सुख प्राप्त नहीं हो रहा था ॥ २५ ॥ तया च व्याकुलं जातं सर्वं चैव जगत्पुनः । देवाश्च दुःखमापन्नाः किं भविष्यति वा पुनः ॥ २६ ॥ इत्येवं च वदन्तस्ते भयाद् दूरमुपस्थिताः । नृसिंहक्रोधजज्वालाव्याकुलाः पद्मभूमुखाः ॥ २७ ॥ प्रह्रादं प्रेषयामासुस्तच्छान्त्यै निकटं हरेः । सर्वान्मिलित्वा प्रह्लादः प्रार्थितो गतवांस्तदा ॥ २८ ॥ उस ज्वालासे सम्पूर्ण संसार व्याकुल हो उठा, देवता भी दुखी हुए । 'अब क्या होगा'-ऐसा कहते हुए वे भयके कारण दूर चले गये । नृसिंहके क्रोधसे उत्पन्न ज्वालासे व्याकुल हुए ब्रह्मा आदिने उस ज्वालाकी शान्तिहेतु प्रह्लादको श्रीहरिके पास भेजा । सभीने मिलकर जब प्रार्थना की, तब प्रह्लाद वहाँ गये ॥ २६-२८ ॥ उरसाऽऽलिंगयामास तं नृसिंहः कृपानिधिः । हृदयं शीतलं जातं रुड्ज्वाला न निवर्त्तिता ॥ २९ ॥ कृपानिधि नृसिंहने उन्हें [अपने] हृदयसे लगा लिया, जिससे उनका हृदय तो शीतल हो गया, परंतु क्रोधकी ज्वाला शान्त न हुई ॥ २९ ॥ तथापि न निवृता रुड्ज्वाला नरहरेर्यदा । इष्टं प्राप्तास्ततो देवाः शंकर शरणं ययुः ॥ ३० ॥ इसपर भी जब नसिंहके क्रोधकी ज्वाला शान्त नहीं हुई, तब दुःखको प्राप्त हुए देवता [भगवान्] शंकरकी शरणमें गये ॥ ३० ॥ तत्र गत्वा सुराः सर्वे ब्रह्माद्या मुनय स्तथा । शंकरं स्तवयामासुर्लोकानां सुखहेतवे ॥ ३१ ॥ वहाँ जाकर ब्रह्मा आदि सभी देवता तथा मुनिगण संसारके सुखके लिये शिवजीकी स्तुति करने लगे ॥ ३१ ॥ देवा ऊचुः - देवदेव महादेव शरणागतवत्सल । पाहि नः शरणापन्नान्सर्वान्देवाञ्जगन्ति च ॥ ३२ ॥ देवता बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे शरणागतवत्सल ! शरणमें आये हुए हम सभी देवताओं तथा लोकोंकी रक्षा कीजिये ॥ ३२ ॥ नमस्तेऽस्तु नमस्तेऽस्तु नमस्तेऽस्तु सदाशिव । पूर्वं दुःखं यदा जातं तदा ते रक्षिता वयम् ॥ ३३ ॥ समुद्रो मथितश्चैव रत्नानां च विभागशः । कृते देवैस्तदा शंभो गृहीतं गरलन्त्वया ॥ ३४ ॥ रक्षिताः स्म तदा नाथ नीलकण्ठ इति श्रुतः । विषं पास्यसि नो चेत्त्वं भस्मीभूतास्तदाखिलाः ॥ ३५ ॥ हे सदाशिव ! आपको नमस्कार है. आपको नमस्कार है, आपको नमस्कार है । पूर्वकालमें जब भी हमलोगोंपर दुःख पड़ा, तब आपने ही हमलोगोंकी रक्षा की है । जब समुद्रमन्थन किया गया और देवताओंके द्वारा रत्नोंको आपसमें बाँट लिया गया, हे शम्भो ! तब आपने विषको ही ग्रहण कर लिया । हे नाथ ! उस समय आपने हमारी रक्षा की और 'नीलकण्ठ' इस नामसे प्रसिद्ध हुए । यदि आप विषपान न करते, तो सभी लोग भस्म हो जाते ॥ ३३-३५ ॥ प्रसिद्धं च यदा यस्य दुःखं च जायते प्रभो । तदा त्वन्नाममात्रेण सर्वदुःखं विलीयते ॥ ३६ ॥ हे प्रभो ! यह प्रसिद्ध ही है कि जब जिस किसीको दुःख प्राप्त होता है तब आपके नाममात्रके स्मरणसे ही उसका समस्त दुःख दूर हो जाता है ॥ ३६ ॥ इदानीं नृहरिज्वालापीडितान्नः सदाशिव । तां त्वं शमयितुं देव शक्तोऽसीति सुनिश्चितम् ॥ ३७ ॥ हे सदाशिव ! इस समय नृसिंहके क्रोधकी ज्वालासे पीड़ित हमलोगोंकी रक्षा कीजिये । हे देव ! आप उसे शान्त करनेमें समर्थ हैं-यह पूर्णरूपसे निश्चित है ॥ ३७ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इति स्तुतस्तदा देवैश्शंकरो भक्तवत्सलः । प्रत्युवाच प्रसन्नात्माऽभयन्दत्त्वा परप्रभुः ॥ ३८ ॥ नन्दीश्वर बोले-देवताओंद्वारा इस प्रकार स्तुति किये जानेपर भक्तवत्सल भगवान् शिव उन्हें परम अभय प्रदान करके प्रसन्नचित्त होकर कहने लगे- ॥ ३८ ॥ शंकर उवाच - स्वस्थानं गच्छत सुराः सर्वे ब्रह्मादयोऽभयाः । शमयिष्यामि यद्दुःखं सर्वथा हि व्रतं मम ॥ ३९ ॥ शंकर बोले-हे ब्रह्मादि देवताओ ! आपलोग निडर होकर अपने-अपने स्थानपर जायँ, आपलोगोंका जो दुःख है, उसे मैं सब प्रकारसे दूर करूँगा-यह मेरा व्रत है ॥ ३९ ॥ गतो मच्छरणं यस्तु तस्य दुःखं क्षयं गतम् । मत्प्रियः शरणापन्नः प्राणेभ्योऽपि न संशयः ॥ ४० ॥ जो भी मेरी शरणमें आता है, उसका दुःख नष्ट हो जाता है; क्योंकि शरणागत मुझे प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हैं, इसमें संशय नहीं है ॥ ४० ॥ नन्दीश्वर उवाच - इति श्रुत्वा तदा देवा ह्यानन्दं परमं गताः । यथागतं तथा जग्मुः स्मरन्तः शंकरं मुदा ॥ ४१ ॥ नन्दीश्वर बोले-तब यह सुनकर वे देवता परम आनन्दित हुए और वे जैसे आये थे, प्रसन्नतापूर्वक शिवजीका स्मरण करते हुए वैसे ही चले गये ॥ ४१ ॥ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां शार्दूलावतारे नृसिंहचरितवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहिताके शार्दूल-अवतारमें नृसिंहचरितवर्णन नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |