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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ तृतीया शतरुद्रसंहितायां
एकादशोऽध्यायः शरभावतारवर्णनम् -
भगवान् नृसिंह और वीरभद्रका संवाद - नन्दीश्वर उवाच - एवमभ्यर्थितो देवैर्मतिं चक्रे कृपालयः । महातेजो नृसिंहाख्यं संहर्त्तुं परमेश्वरः ॥ १ ॥ नन्दीश्वर बोले-[हे सनत्कुमार !] देवताओंने जब इस प्रकार प्रार्थना की, तब कृपानिधि परमेश्वरने नृसिंह नामक महातेजको संहृत करनेका निश्चय किया ॥ १ ॥ तदूर्द्ध्वं स्मृतवान् रुद्रो वीरभद्रम्महाबलम् । आत्मनो भैरवं रूपं प्राह प्रलयकारकम् ॥ २ ॥ इसके बाद रुद्रने महाबलवान् प्रलयकारी एवं अपने भैरवरूप वीरभद्रका स्मरण किया और उनसे कहा ॥ २ ॥ आजगाम ततः सद्यो गणानामग्रणीर्हसन् । साट्टहासैर्गणवरैरुत्पतद्भिरितस्ततः ॥ ३ ॥ नृसिंहरूपैरत्युग्रैः कोटिभिः परिवारितः । माद्यद्भिरभितो वीरैर्नृत्यद्भिश्च मुदान्वितैः ॥ ४ ॥ क्रीडद्भिश्च महावीरैर्ब्रह्माद्यैः कन्दुकैरिव । अदृष्टपूर्वैरन्यैश्च वेष्टितो वीरवन्दितः ॥ ५ ॥ तब तत्काल ही अट्टहास करते हुए श्रेष्ठ गणोंसे परिवेष्टित गणाग्रणी वीरभद्र वहाँ आ पहुँचे । वीरभद्रके वे गण इधर-उधर उछल रहे थे, उनमेंसे करोड़ों गण अति उग्र नृसिंहरूप धारण किये हुए थे । कुछ आनन्दित हो नाचते हुए वीरभद्रकी परिक्रमा कर रहे थे । कुछ उन्मत्त थे, और कुछ ब्रह्मादि देवताओंसे कन्दुकके समान क्रीड़ा कर रहे थे । कुछ ऐसे भी थे, जो सर्वथा अज्ञात थे । इस प्रकारके कल्पान्तकी अग्निके समान प्रज्वलित त्रिनेत्रसे युक्त, मस्तकपर जटाजूट एवं बालचन्द्रमा तथा अल्प शस्त्रोंको धारण किये हुए जाज्वल्यमान वीरभद्र अपने गणोंसे वन्दित हो रहे थे ॥ ३-५ ॥ कल्पान्तज्वलनज्वालो विलसल्लोचनत्रयः । अशस्त्रो हि जटाजूटी ज्वलद् बालेन्दुमण्डितः ॥ ६ ॥ बालेन्दुवलयाकारतीक्ष्णदंष्ट्रांकुरद्वयः । आखण्डलधनुःखण्डसंनिभभ्रूलतान्वितः ॥ ७ ॥ महाप्रचण्डहुङ्कारबधिरीकृतदिङ्मुखः । नीलमेघाञ्जन श्यामो भीषणः श्मश्रुलोऽद्भुतः ॥ ८ ॥ वाद्यखण्डमखण्डाभ्यां भ्रामयंस्त्रिशिखं मुहुः । वीरभद्रोऽपि भगवान्वरशक्तिविजृम्भितः ॥ ९ ॥ स्वयं विज्ञापयामास किमत्र स्मृतिकारणम् । आज्ञापय जगत्स्वामिन् प्रसादः क्रियताम्मयि ॥ १० ॥ उनके आगेके तीक्ष्ण दन्ताग्र बालचन्द्राकार तथा दोनों भौंहें इन्द्रधनुषके खण्डके समान प्रतीत हो रही थीं । वीरभद्रके प्रचण्डतम हुंकारसे दिशाएँ बधिर हो रही थीं । उनका रूप काले बादल और काजलके समान कृष्णवर्ण और भयावह था, उनके मुखपर दाढ़ी एवं मूंछे थीं । अद्भुत स्वरूपवाले वे अपनी अखण्ड भुजाओंसे वाद्यखण्ड (वाद्यदण्ड)-की भाँति बार-बार त्रिशूल घुमा रहे थे । इस प्रकार अपनी वीरोचित शक्तिसहित भगवान् वीरभद्र शिवजीके समीप आकर स्वयं बोले-हे देव ! यहाँ आपद्वारा मैं किस उद्देश्यसे स्मरण किया गया हूँ ? हे जगत्के स्वामिन् ! शीघ्र मेरे ऊपर प्रसन्न होकर आज्ञा प्रदान कीजिये ॥ ६-१० ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्याकर्ण्य महेशानो वीरभद्रोक्तमादरात् । विलोक्य वचनं प्रीत्या प्रोवाच खल दण्डधृक् ॥ ११ ॥ नन्दीश्वर बोले-वीरभद्रके आदरपूर्वक कहे गये इस वचनको सुनकर दुष्टोंको दण्ड देनेवाले शिवजी उनकी ओर देखकर प्रीतिपूर्वक कहने लगे- ॥ ११ ॥ शंकर उवाच - अकाले भयमुत्पन्नं देवानामपि भैरवम् । ज्वलितः स नृसिंहाग्निः शमयैनं दुरासदम् ॥ १२ ॥ शंकर बोले-[हे वीरभद्र !] असमयमें देवताओंको घोर भय उत्पन्न हो गया है । नृसिंहकी असह्य कोपाग्नि प्रज्वलित हो उठी है, तुम इस कोपाग्निको शान्त करो ॥ १२ ॥ सान्त्वयन् बोधयादौ तं तेन किन्नोपशाम्यति । ततो मत्परमं भावं भैरवं सम्प्रदर्शय ॥ १३ ॥ पहले सान्त्वना देते हुए उन्हें समझाओ कि आप क्यों नहीं शान्त होते हैं । तब भी यदि वे शान्त न हों तो तुम मेरे परम भैरवरूपको दिखाओ ॥ १३ ॥ सूक्ष्मं संहृत्य सूक्ष्मेण स्थूलं स्थूलेन तेजसा । वक्त्रमानाय कृत्तिं च वीरभद्र ममाज्ञया ॥ १४ ॥ हे वीरभद्र ! तुम सूक्ष्म तेजसे सूक्ष्मका और स्थूल तेजसे स्थूलका संहरण करके मेरी आज्ञासे अग्निको वशमें करो ॥ १४ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्यादिष्टो गणाध्यक्षो प्रशान्तं वपुरास्थितः । जगाम रंहसा तत्र यत्रास्ते नरकेसरी ॥ १५ ॥ नन्दीश्वर बोले-शिवजीकी इस आज्ञाको स्वीकार गणाध्यक्ष वीरभद्रने परमशान्त रूप धारण कर लिया और जहाँ नृसिंह थे, वहाँ वे अतिशीघ्र जा पहुँचे ॥ १५ ॥ ततस्तम्बोधयामास वीरभद्रो हरो हरिम् । उवाच वाक्यमीशानः पितापुत्रमिवौरसम् ॥ १६ ॥ तत्पश्चात् शिवरूप वीरभद्रने नृसिंहरूपी विष्णुको समझाया और उन महेश्वरने इस प्रकार वचन कहा, जैसे पिता अपने औरस पुत्रसे बात करता है ॥ १६ ॥ वीरभद्र उवाच - जगत्सुखाय भगवन्नवतीर्णोऽसि माधव । स्थित्यर्थं त्वं प्रयुक्तोऽसि परेशः परमेष्ठिना ॥ १७ ॥ वीरभद्र बोले-हे भगवन् ! हे माधव ! आप संसारके कल्याणके निमित्त अवतीर्ण हुए हैं । परमेष्ठीने आप परमेश्वरको पालनके लिये नियुक्त किया है ॥ १७ ॥ जन्तुचक्रं भगवता प्रच्छिन्नं मत्स्यरूपिणा । पुच्छेनैव समाबध्य भ्रमन्नेकार्णवे पुरा ॥ १८ ॥ बिभर्षि कर्मरूपेण वाराहेणोद्धृता मही । अनेन हरिरूपेण हिरण्यकशिपुर्हतः ॥ १९ ॥ वामनेन बलिर्बद्धस्त्वया विक्रमता पुनः । त्वमेव सर्वभूतानां प्रभवः प्रभुरव्ययः ॥ २० ॥ पूर्व समयमें जब प्रलय हुआ था, उस समय भगवन् ! आपने मत्स्यका रूप धारणकर प्राणियों [से युक्त नौका]-को अपनी पूँछमें बाँधकर [सागरमें] भ्रमण करते हुए उनकी रक्षा की थी । इसी प्रकार आपने कूर्मस्वरूपसे [मन्दराचलको] धारण किया एवं वराहावतारद्वारा पृथ्वीका उद्धार किया था और [इस समय भी आपने] इस नृसिंहरूपसे हिरण्यकशिपुका वध किया है । इसी प्रकार आपने वामनावतार ग्रहणकर [दैत्यराज] बलिको तीन पैरमें तीनों लोकों और उसके शरीरको नापकर बाँध लिया । आप ही सभी प्राणियोंके उत्पत्तिस्थान और अविनाशी प्रभु हैं ॥ १८-२० ॥ यदा यदा हि लोकस्य दुःखं किञ्चित्प्रजायते । तदा तदावतीर्णस्त्वं करिष्यसि निरामयम् ॥ २१ ॥ नाधिकस्त्वत्समोऽप्यस्ति हरे शिवपरायणः । त्वया वेदाश्च धर्माश्च शुभमार्गे प्रतिष्ठिताः ॥ २२ ॥ जब-जब इस संसारपर कोई विपत्ति आती है, तब-तब आप अवतार ग्रहणकर उसे दुःखरहित करते हैं । हे हरे ! आपसे बढ़कर अथवा आपके समान भी कोई अन्य शिवपरायण नहीं है । आपने ही वेदों तथा धर्मोंको शुभमार्गमें प्रतिष्ठित किया है ॥ २१-२२ ॥ यदर्थमवतारोऽयं निहतः स हि दानवः । हिरण्यकशिपुश्चैव प्रह्लादोऽपि सुरक्षितः ॥ २३ ॥ जिसके लिये आपका यह अवतार हुआ है, वह दानव हिरण्यकशिपु मार डाला गया और प्रह्लादकी भी रक्षा हो गयी ॥ २३ ॥ अतीव घोरं भगवन्नरसिंहवपुस्तव । उपसंहर विश्वात्मंस्त्वमेव मम सन्निधौ ॥ २४ ॥ अत: हे भगवन् ! हे विश्वात्मन् ! [आपका प्रयोजन सिद्ध हो चुका है,] अब आप अपने इस घोर नृसिंहरूपको मेरे समक्ष ही उपसंहृत कीजिये ॥ २४ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्तो वीरभद्रेण नृसिंहः शान्तया गिरा । ततोऽधिकं महाघोरं कोपञ्चक्रे महामदः ॥ २५ ॥ उवाच च महाघोरं कठिनं वचनन्तदा । वीरभद्रम्महावीरं दंष्ट्राभिर्भीषयन्मुने ॥ २६ ॥ नन्दीश्वर बोले-इस प्रकार वीरभद्रद्वारा शान्त वाणीमें निवेदन किये जानेपर महामदसे भरे हुए उन नृसिंहने पहलेसे भी अधिक महाभयानक क्रोध किया और हे मुने ! अपने दाँतोंसे भयभीत करते हुए महावीर वीरभद्रसे महाघोर एवं कठोर वचन कहा- ॥ २५-२६ ॥ नृसिंह उवाच - आगतोसि यतस्तत्र गच्छ त्वं मा हितं वद । इदानीं संहरिष्यामि जगदेतच्चराचरम् ॥ २७ ॥ संहर्तुर्न हि संहारः स्वतो वा परतोऽपि वा । शासितं मम सर्वत्र शास्ता कोऽपि न विद्यते ॥ २८ ॥ नृसिंह बोले-[हे वीरभद्र !] तुम जहाँसे आये हो, वहीं चले जाओ और मुझसे लोकहितकी बात न कहो । मैं अभी इसी समय इस चराचर जगत्को विनष्ट करूँगा । स्वयं मुझ संहारकर्ताका संहार अपनेसे अथवा दूसरेसे नहीं हो सकता है । सर्वत्र मेरा ही शासन है, मेरे ऊपर शासन करनेवाला कोई भी नहीं है ॥ २७-२८ ॥ मत्प्रसादेन सकलमभयं हि प्रवर्तते । अहं हि सर्वशक्तीनां प्रवर्तकनिवर्तकः ॥ २९ ॥ मेरी कृपासे सारा संसार निर्भय रहता है, मैं ही सभी शक्तियोंका प्रवर्तक एवं निवर्तक हूँ ॥ २९ ॥ यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा । तत्तद्विद्धि गणाध्यक्ष मम तेजोविजृम्भितम् ॥ ३० ॥ हे गणाध्यक्ष ! [इस जगत्में] जो भी विभूतिमान्, कान्तियुक्त तथा शक्तिसम्पन्न वस्तु है, उस-उसको मेरे ही तेजसे विजृम्भित जानो ॥ ३० ॥ देवतापरमार्थज्ञं मामेव परमं विदुः । मदंशाः शक्तिसम्पन्ना ब्रह्मशक्रादयः सुराः ॥ ३१ ॥ समस्त देवगण मुझे ही परमार्थको जाननेवाला तथा परमब्रह्म कहते हैं और ब्रह्मा एवं इन्द्रादि समस्त देवगण मेरे ही अंश तथा [मुझसे ही] शक्तिसम्पन्न हैं ॥ ३१ ॥ मन्नाभिकमलाज्जातः पुरा ब्रह्मा जगत्करः । सर्वाधिकः स्वतन्त्रश्च कर्ता हर्ताखिलेश्वरः ॥ ३२ ॥ जगत्कर्ता ब्रह्मा भी पूर्व समयमें मेरे नाभिकमलसे उत्पन्न हुए थे । मैं ही सबसे अधिक, स्वतन्त्र, कर्ता, हर्ता तथा अखिलेश्वर हूँ ॥ ३२ ॥ इदं तु मत्परं तेजः किं पुनः श्रोतुमिच्छसि । अतो मां शरणं प्राप्य गच्छ त्वं विगतज्वरः ॥ ३३ ॥ यह [नृसिंहरूपकी ज्वाला] मेरा सर्वाधिक तेज है, [मेरे विषयमें] और क्या सुनना चाहते हो ? अत: मेरी शरणमें आकर निर्भय होकर तुम चले जाओ ॥ ३३ ॥ अवेहि परमं भावमिदम्भूतं गणेश्वर । मामकं सकलं विश्वं सदेवासुरमानुषम् ॥ ३४ ॥ हे गणेश्वर दिखायी पडनेवाले इस संसारको मेरा ही परम स्वरूप जानो । देवता, असुर एवं मनुष्योंसे युक्त यह सारा विश्व मेरा है ॥ ३४ ॥ कालोऽस्म्यहं लोकविनाशहेतु- र्लोकान्समाहर्तुमहं प्रवृत्तः । मृत्योर्मृत्युं विद्धि मां वीरभद्र जीवन्त्येते मत्प्रसादेन देवाः ॥ ३५ ॥ मैं लोकोंके विनाशका कारण कालस्वरूप हूँ, अतः मैं लोकोंका संहार करनेके लिये प्रवृत्त हुआ हूँ । हे वीरभद्र ! मुझे मृत्युका भी मृत्यु समझो, ये देवगण मेरी ही कृपासे जीवन धारण करते हैं ॥ ३५ ॥ नन्दीश्वर उवाच - साहङ्कारं वचः श्रुत्वा हरेरमितविक्रमः । विहस्योवाच सावज्ञन्ततो विस्फुरिताधरः ॥ ३६ ॥ नन्दीश्वर बोले-विष्णुके अहंकारयुक्त वचनको सुनकर महापराक्रमी वीरभद्र ओठोंको फड़फड़ाते हुए अवज्ञापूर्वक हँसकर कहने लगे-- ॥ ३६ ॥ वीरभद्र उवाच - किन्न जानासि विश्वेशं संहर्तारं पिनाकिनम् । असद्वादो विवादश्च विनाशस्त्वयि केवलः ॥ ३७ ॥ वीरभद्र बोले- क्या आप संसारके ईश्वर तथा संहारकर्ता पिनाकधारी शिवको नहीं जानते हैं ? आपमें केवल मिथ्या वाद-विवाद भरा पड़ा है, जो कि आपके विनाशका कारण है ॥ ३७ ॥ तवान्योन्यावताराणि कानि शेषाणि साम्प्रतम् । कृतानि येन केनैव कथाशेषो भविष्यति ॥ ३८ ॥ आपके अन्यान्य कितने ही अवतार हो चुके हैं, कितने ही बाकी हैं । हे विष्णो ! जिस कारणसे आपका यह अवतार हुआ है, कहीं ऐसा न हो कि उसी अवतारसे आप कथामात्र ही शेष न रह जायें ॥ ३८ ॥ दोषं तं वद येन त्वमवस्थामीदृशी गतः । तेन संहारदक्षेण दक्षिणाशेषमेष्यसि ॥ ३९ ॥ आप उस दोषको बताइये, जिससे आप इस दशाको प्राप्त हुए हैं । संसारके संहारमें प्रवीण होनेके कारण कहीं ऐसा न हो कि उसकी दक्षिणा आपको ही प्राप्त हो जाय ॥ ३९ ॥ प्रकृतिस्त्वं पुमान्रुद्रस्त्वयि वीर्यं समाहितम् । त्वन्नाभिपङ्कजाज्जातः पञ्वक्त्रः पितामहः ॥ ४० ॥ आप प्रकृति हैं तथा रुद्र पुरुष हैं, उन्होंने आपमें अपने वीर्यका आधान किया है, इसीलिये आपके नाभिकमलसे पाँच मुखवाले ब्रह्माजी उत्पन्न हुए हैं ॥ ४० ॥ जगत्त्रयीसर्जनार्थं शंकरं नीललोहितम् । ललाटेऽचिन्तयत्सोयं तपस्युग्रे च संस्थितः ॥ ४१ ॥ तल्ललाटादभूच्छम्भुः सृष्ट्यर्थे तेन भूषणम् । अतोऽहं देवदेवस्य तस्य भैरवरूपिणः ॥ ४२ ॥ त्वत्संहारे नियुक्तोऽस्मि विनयेन बलेन च । देवदेवेन रुद्रेण सकलप्रभुणा हरे ॥ ४३ ॥ उन्होंने इस त्रिलोकीकी सृष्टिके लिये अपने ललाटमें नीललोहित शिवका ध्यान किया और वे उग्र तपमें स्थित हुए । तब उन्हींके ललाटसे सृष्टिहेतु शिवजी उत्पन्न हुए और ब्रह्माजीने उन्हें भूषणरूपमें धारण किया । मैं उन्हीं देवाधिदेव भैरवरूपधारीकी आज्ञासे यहाँ आया हूँ । हे हरे ! मैं उन्हीं देवदेव सर्वेश्वर रुद्रके द्वारा विनय और बल दोनोंसे आपका नियमन करनेके लिये नियुक्त किया गया हूँ ॥ ४१-४३ ॥ एकं रक्षो विदार्यैव तच्छक्तिकलया युतः । अहंकारावलेपेन गर्जसि त्वमतन्द्रितः ॥ ४४ ॥ उपकारो हि साधूनां सुखाय किल संमतः । उपकारो ह्यसाधूनामपकाराय केवलम् ॥ ४५ ॥ आपने तो उनकी शक्तिकी कलामात्रसे ही युक्त होकर एक राक्षसका वध किया, पर अब असावधान होकर अहंकारके प्रभावसे गर्जन कर रहे हैं । सज्जन व्यक्तियोंके साथ किया गया उपकार सुखको बढ़ानेवाला होता है । किंतु वही उपकार यदि दष्ट व्यक्तियोंके साथ किया जाय तो वह हानिकारक होता है ॥ ४४-४५ ॥ यन्नृसिंह महेशानं पुनर्भूतं तु मन्यसे । तर्ह्यज्ञानी महागर्वी विकारी सर्वथा भवान् ॥ ४६ ॥ हे नसिंह ! यदि आप शिवजीको अजन्मा नहीं मानते हैं, तो निश्चय ही आप अज्ञानी, महागर्वी एवं दोषोंसे परिपूर्ण हैं ॥ ४६ ॥ न त्वं स्रष्टा न संहर्ता भर्तापि न नृसिंहक । परतन्त्रो विमूढात्मा न स्वतन्त्रो हि कुत्रचित् ॥ ४७ ॥ हे नृसिंह ! आप न स्रष्टा हैं, न भर्ता हैं और न संहारकर्ता ही हैं, आप किसी भी प्रकार स्वतन्त्र नहीं हैं, आप परतन्त्र एवं विमूढ चित्तवाले हैं ॥ ४७ ॥ कुलालचक्रवच्छक्त्या प्रेरितोऽसि पिनाकिना । नानावतारकर्ता त्वं तदधीनः सदा हरे ॥ ४८ ॥ हे हरे ! आप महादेवकी शक्तिसे ही कुलालचक्रकी भाँति प्रेरित हैं और सदा उन्हींके अधीन रहकर अनेक अवतार धारण करते हैं । ४८ ॥ अद्यापि तव निक्षिप्तं कपालं कूर्मरूपिणः । हर हारलतामध्ये दग्धः कश्चिन्न बध्यते ॥ ४९ ॥ [हे हरे !] कूर्मावतारके समय [बारम्बार मन्दराचलके द्वारा घर्षित होनेसे] झुलसे हुए कपालको किसीने धारण नहीं किया । तुम्हारेद्वारा त्यागा गया वह कपाल आज भी शिवजीकी हारलता (मुण्डमाला)-में विद्यमान है ॥ ४९ ॥ विस्मृतिः किं तदंशेन दंष्ट्रोत्पातनपीडितम् । वाराहविघ्नहस्तेऽद्य याक्रोशन्तारकारिणा ॥ ५० ॥ उनके अंशमात्रसे उत्पन्न हुए तारकासुरने जो आपका वैरी था, वराहावतारमें तुम्हारे दाँतोंको उखाड़कर जैसी पीड़ा पहुँचायी, पुनः जिन शिवजीकी कृपासे आपके सारे विघ्न दूर हो गये, क्या उन परमात्मा शिवजीको आप भूल गये ! ॥ ५० ॥ दग्धोसि पश्य शूलाग्ने विष्वक्सेनच्छलाद्भवान् । दक्षयज्ञे शिरश्छिन्नं मया तेजःस्वरूपिणा ॥ ५१ ॥ अद्यापि तव पुत्रस्य ब्रह्मणः पञ्चमं शिरः । छिन्नं न सज्जितं भूयो हरे तद्विस्मृतं त्वया ॥ ५२ ॥ विष्वक्सेनावतारमें शिवजीने अपने शूलाग्रसे आपको दग्ध कर दिया था । तेजस्वरूप मैंने दक्षके यज्ञमें आपके पुत्र ब्रह्माका पाँचवाँ सिर काट दिया था, जिसे अबतक कोई जोड़ न सका, हे हरे ! क्या आप उसे भूल गये हैं ? ॥ ५१-५२ ॥ निर्जितस्त्वं दधीचेन संग्रामे समरुद्गणः । कण्डूयमाने शिरसि कथं तद्विस्मृतं त्वया ॥ ५३ ॥ चक्रं विक्रमतो यस्य चक्रपाणे तव प्रियम् । कुतः प्राप्तं कृतं केन त्वया तदपि विस्मृतम् ॥ ५४ ॥ शिवभक्त दधीचिने सिर खुजलानेमात्रसे मरुद्गणोंसहित आपको संग्राममें जीत लिया था, क्या आप उसे भूल गये ? । हे चक्रपाणे ! आप जिस चक्रके सहारे अपना पुरुषार्थ प्रकट करते हैं, वह कहाँसे और किसके द्वारा प्राप्त हुआ है, क्या आप उसको भूल गये हैं ? ॥ ५३-५४ ॥ ये मया सकला लोका गृहीतास्त्वं पयोनिधौ । निद्रापरवशः शेषे स कथं सात्त्विको भवान् ॥ ५५ ॥ मैंने तो सम्पूर्ण लोकोंको धारण कर रखा है और तुम क्षीरसागरमें निद्राके परवश होकर सोते रहते हो, ऐसी स्थितिमें तुम सात्त्विक कैसे हो ? ॥ ५५ ॥ त्वदादिस्तम्बपर्यन्तं रुद्रशक्तिविजृम्भितम् । शक्तिमानभितस्त्वं च ह्यनलात्त्वं विमोहितः ॥ ५६ ॥ तत्तेजसो हि माहात्म्यं पुमान्द्रष्टुं न हि क्षमः । अस्थूला ये प्रपश्यन्ति तद्विष्णोः परमम्पदम् ॥ ५७ ॥ आपसे लेकर स्तम्बपर्यन्त शिवजीकी शक्ति फैली हुई है, उसीसे आप सर्वथा शक्तिमान् हैं, अन्यथा आप उनके लिंगाकार तेजमात्रके प्रकट होते ही मोहित हो गये थे । उनके तेजके माहात्म्यको देखनेमें कोई भी पुरुष समर्थ नहीं है । सूक्ष्म बुद्धिवाले लोग ही उन सर्वव्यापीके परम पदको देख पाते हैं ॥ ५६-५७ ॥ द्यावापृथिव्या इन्द्राग्नेर्यमस्य वरुणस्य च । ध्वान्तोदरे शशांके च जनित्वा परमेश्वरः ॥ ५८ ॥ आकाश, पृथ्वीका अन्तराल, इन्द्र, अग्नि, यम, वरुण, अन्धकारको लील जानेवाले सूर्य एवं चन्द्रमाको उत्पन्नकर वही परमेश्वर उनमें प्रविष्ट हो जाते हैं ॥ ५८ ॥ कालोसि त्वं महाकालः कालकालो महेश्वर । अतस्त्वमुग्रकलया मृत्योर्मृत्युर्भविष्यसि ॥ ५९ ॥ हे [नृसिंह !] आप ही काल, महाकाल, कालकाल तथा महेश्वर हैं, आप अपनी उग्रकलाके कारण मृत्युके भी मृत्यु हैं ॥ ५९ ॥ स्थिरोऽद्य त्वक्षरो वीरो वीरो विश्वावकः प्रभुः । उपहन्ता ज्वरं भीमो मृगः पक्षी हिरण्मयः ॥ ६० ॥ शास्ता शेषस्य जगतस्तत्त्वं नैव चतुर्मुखः । नान्ये च केवलं शम्भुः सर्वशास्ता न संशयः ।६१ ॥ वे [शिवजी ही] स्थिर, अक्षर, वीर, विश्वरक्षक, प्रभु, दुःखोंके नाशकर्ता, भीम, मृग, पक्षी, हिरण्मय हैं और सम्पूर्ण जगत्के शास्ता हैं; आप, ब्रह्मा तथा अन्य कोई नहीं है, केवल शम्भु ही सबके शासक हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ६०-६१ ॥ इत्थं सर्वं समालोक्य संहारात्मानमात्मना । न विनष्टं त्वमात्मानं कुरु हे नृहरेऽबुध ॥ ६२ ॥ नो चेदिदानीं क्रोधस्य महाभैरवरूपिणः । वज्राशनिरिव स्थाणौ त्वयि मृत्युः पतिष्यति ॥ ६३ ॥ इस प्रकार सब कुछ विचारकर आप अपनी ज्वालाको स्वयं ही शान्त करें, हे नृसिंह ! हे अबुध ! आप अपनेको विनष्ट न करें, अन्यथा इसी समय जैसे सूखे वृक्षपर बिजली गिरती है, वैसे ही महाभैरवरूप उन रुद्रका क्रोध मृत्युरूप होकर तुमपर गिरेगा ॥ ६२-६३ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्त्वा वीरभद्रोपि विररामाकुतोभयः । दृष्ट्वा नृसिंहाभिप्रायं क्रोधमूर्त्तिः शिवस्य सः ॥ ६४ ॥ नन्दी बोले-इतना कहकर शिवकी क्रोधमूर्ति वे वीरभद्र निर्भय होकर नृसिंहका अभिप्राय जानकर मौन हो गये ॥ ६४ ॥ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां शरभावतारवर्णनं नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें शरभावतार वर्णन नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |