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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

तृतीया शतरुद्रसंहितायां

द्वादशोऽध्यायः

शरभावतारवर्णनम् -
शरभावतार-धारण -


सनत्कुमार उवाच -
नन्दीश्वर महाप्राज्ञ विज्ञातं तदनन्तरम् ।
ममोपरि कृपां कृत्वा प्रीत्या त्वं तद्वदाधुना ॥ १ ॥
सनत्कुमार बोले-हे नन्दीश्वर ! हे महाप्राज्ञ ! इसके बाद [जो वृत्तान्त आपको] ज्ञात हुआ, मेरे ऊपर कृपा करके उस वृत्तान्तको इस समय प्रीतिपूर्वक कहिये ॥ १ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इत्युक्तो वीरभद्रेण नृसिंहः क्रोधविह्वलः ।
निनदन्ननुवेगेन तं ग्रहीतुं प्रचक्रमे ॥ २ ॥
नन्दीश्वर बोले-वीरभद्रके इस प्रकारके कहनेपर नृसिंह क्रोधसे व्याकुल हो गये और गर्जन करते हुए बड़े वेगसे उन्हें पकड़नेके लिये उद्यत हुए ॥ २ ॥

अत्रान्तरे महाघोरं प्रत्यक्षभयकारणम् ।
गगनव्यापि दुर्धर्षं शैवतेजः समुद्भवम् ॥ ३ ॥
वीरभद्रस्य तद्‌रूमदृश्यन्तु ततः क्षणात् ।
तद्वै हिरण्मयं सौम्यं न सौरं नाग्निसम्भवम् ॥ ४ ॥
न तडिच्चन्द्रसदृशमनौपम्यं महेश्वरम् ।
तदा तेजांसि सर्वाणि तस्मिँल्लीनानि शंकरे ॥ ५ ॥
न तद्‌व्योमं महत्तेजो व्यक्तान्तश्चाभवत्ततः ।
रुद्रसाधारणं चैव चिह्नितं विकृताकृति ॥ ६ ॥
इसी बीच महाघोर, प्रत्यक्ष, भयके कारण अत्यन्त प्रचण्ड, आकाशव्यापी, दुर्धर्ष, शिवतेजसे उत्पन्न तथा कभी भी न दिखायी पड़नेवाला वीरभद्रका अद्‌भुत रूप प्रकट हुआ, जो न तो हिरण्मय था, न सौम्य था, वह तेज न सर्य और न तो अग्निसे उत्पन्न हआ था. न बिजलीके समान और न चन्द्रमाके समान था, वह शिवतेज अनुपम था । उस समय सभी तेज उन शंकरके तेजमें विलीन हो गये । वह महातेज आकाशमें भी न समा सका । वह तेज प्रकट कालरूप ही था । अत्यन्त विकृताकार वह तेज रुद्रका साधारण चिह्न था ॥ ३-६ ॥

ततः संहाररूपेण सुव्यक्तं परमेश्वरः ।
पश्यतां सर्वदेवानां जयशब्दादिमंगलैः ॥ ७ ॥
जय-जय आदि मंगल शब्दोंके साथ उन देवताओंके देखते-देखते ही परमेश्वर स्वयं संहाररूपसे प्रकट हुए ॥ ७ ॥

सहस्रबाहुर्जटिलश्चन्द्रार्द्धकृतशेखरः ।
समृद्धोग्रशरीरेण पक्षाभ्यां चञ्चुना द्विजः ॥ ८ ॥
अतितीक्ष्णो महादंष्ट्रो वज्रतुल्यनखायुधः ।
कण्ठे कालो महाबाहुश्चतुष्पाद्वह्निसन्निभः ॥ ९ ॥
युगान्तोद्यतजीमूतभीमगम्भीरनिस्वनः ।
महाकुपितकृत्याग्निव्यावृत्तनयनत्रयः ॥ १० ॥
स्पष्टदंष्ट्राधरोष्ठश्च हुंकारसंयुतो हरः ।
ईदृग्विधस्वरूपश्च ह्युग्र आविर्बभूव ह ॥ ११ ॥
हजार भुजाओंसे समन्वित, जटाधर, ललाटपर बालचन्द्र धारण किये हुए अत्यन्त उग्र शरीरवाले वे दो पंख एवं चोंचसे युक्त पक्षीके रूपमें दिखायी पड़ रहे थे । उनके दाँत अत्यन्त विशाल तथा तीक्ष्णतम थे । वे वज्रतुल्य नखरूपी आयुधसे युक्त थे, वे नीलकण्ठ, महाबाहु और चार चरणोंसे युक्त तथा अग्निके समान तेजस्वी थे । वे युगान्तकालीन अर्थात् प्रलयकारी मेघके समान गम्भीर गर्जना कर रहे थे और महाकोपसे व्याप्त नेत्रोंद्वारा कृत्याग्निके समान जान पड़ते थे । उनके दाँत और अधरोष्ठ क्रोधके कारण फड़क रहे थे । इस प्रकारका उग्र स्वरूप धारण किये, हुंकार करते हुए विकटरूपधारी शंकर [नृसिंहजीके आगे] प्रकट हो गये ॥ ८-११ ॥

हरिस्तद्दर्शनादेव विनष्टबलविक्रमः ।
बिभ्रद्धाम सहस्रांशोरधः खद्योतविभ्रमम् ॥ १२ ॥
उस रूपको देखते ही नृसिंहका समस्त बल पराक्रम उसी प्रकार लुप्त हो गया, जिस प्रकार सूर्यके तेजसे तिरस्कृत जुगनू विभ्रान्त हो जाता है ॥ १२ ॥

अथ विभ्रम्य पक्षाभ्यां नाभिपादान्विदारयन् ।
पादान्बबंध पुच्छेन बाहुभ्यां बाहु मण्डलम् ॥ १३ ॥
भिन्दन्नुरसि बाहुभ्यां निजग्राह हरो हरिम् ।
ततो जगाम गगनं देवैः सह महर्षिभिः ॥ १४ ॥
इसके बाद उन्होंने अपने दोनों पक्षोंको घुमाते हुए उनसे नृसिंहके नाभि और चरणोंको विदीर्ण करते हुए अपनी पूँछसे उनके चरणोंको तथा हाथोंसे उनकी भुजाओंको बाँध लिया । इसके बाद भुजाओंसे हृदय विदीर्ण करते हुए शिवजीने नृसिंहको पकड़ लिया । उसके बाद देवताओं और महर्षियोंके साथ आकाशमें चले गये ॥ १३-१४ ॥

सहसैवाभयाद्विष्णुं स हि श्येन इवोरगम् ।
उत्क्षिप्योत्क्षिप्य संगृह्य निपात्य च निपात्य च ॥ १५ ॥
उड्डीयोड्डीय भगवान्पक्षघातविमोहितम् ।
हरीं हरस्तं वृषभं विवेशानन्त ईश्वरः ॥ १६ ॥
जिस प्रकार गरुड निर्भयतापूर्वक साँपको कभी ऊपर कभी नीचे पटकता है, कभी उसे लेकर उड़ जाता है, उसी प्रकार उन्होंने नृसिंहको अपने पंखोंसे मारमारकर आहत कर दिया । फिर वे अनन्त ईश्वर उन नृसिंहको लेकर वृषभपर सवार हो चल पड़े ॥ १५-१६ ॥

अनुयान्तं सुराः सर्वे नमो वाक्येन तुष्टुवुः ।
प्रणेमुः सादरं प्रीत्या ब्रह्माद्याश्च मुनीश्वराः ॥ १७ ॥
तत्पश्चात् सभी ब्रह्मादि देवों तथा मुनीश्वरोंने जाते हुए शिवको आदरपूर्वक प्रणाम किया और वे लोग 'नमः' शब्दसे उनकी स्तुति करने लगे ॥ १७ ॥

नीयमानः परवशो दीनवक्त्रः कृताञ्जलिः ।
तुष्टाव परमेशानं हरिस्तं ललिताक्षरैः ॥ १८ ॥
नाम्नामष्टशतेनैव स्तुत्वा तं मृडमेव च ।
पुनश्च प्रार्थयामास नृसिंहः शरभेश्वरम् ॥ १९ ॥
यदा यदा ममाज्ञेयं मतिः स्याद्‌गर्वदूषिता ।
तदा तदाऽपनेतव्या त्वयैव परमेश्वर ॥ २० ॥
इस प्रकार ले जाये जाते हुए पराधीन तथा दीनमुख नृसिंह हाथ जोड़कर मनोहर अक्षरों [-वाले स्तोत्रों]से उन परमेश्वरकी स्तुति करने लगे । शिवके एक सौ आठ नामोंद्वारा इन शरभेश्वरकी स्तुतिकर नृसिंहने पुनः उनसे प्रार्थना की-हे परमेश्वर ! जब-जब मेरी यह मूढ़ बुद्धि अहंकारसे दूषित हो जाय, तब-तब आप ही उसे दूर करें ॥ १८-२० ॥

नन्दीश्वर उवाच -
एवं विज्ञापयन्प्रीत्या शङ्‌करं नरकेसरी ।
नत्वाऽशक्तोऽभवद्विष्णु जीवितान्तपराजितः ॥ २१ ॥
तद्वक्त्रं शेषगात्रान्तं कृत्वा सर्वस्वविग्रहम् ।
शक्तियुक्तं तदीयाङ्‌गं वीरभद्रः क्षणात्ततः ॥ २२ ॥
नन्दीश्वर बोले-इस प्रकार प्रीतिपूर्वक शिवसे प्रार्थना करते हुए नृसिंहरूपधारी विष्णु जीवनपर्यन्त पराधीनता स्वीकारकर बार-बार प्रणाम करके दीन हो गये । वीरभद्रने क्षणमात्रमें ही नृसिंहके मुखसहित समस्त शरीर एवं उनकी शक्तिको अपनेमें समाहित कर लिया ॥ २१-२२ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
अथ ब्रह्मादयो देवाः शारभं रूपमास्थितम् ।
तुष्टुवुः शंकरं देवं सर्वलोकैकशंकरम् ॥ २३ ॥
नन्दीश्वर बोले-तदनन्तर ब्रह्मादि समस्त देवता शरभरूप धारण किये हुए सम्पूर्ण लोकोंके एकमात्र कल्याणकारी भगवान् शंकरकी स्तुति करने लगे ॥ २३ ॥

देवा ऊचुः -
ब्रह्मविष्ण्विन्द्रचन्द्रादिसुराः सर्वे महर्षयः ॥
दितिजाद्याः सम्प्रसूताः त्वत्तः सर्वे महेश्वर । २४ ॥
देवता बोले-हे महेश्वर ! ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्रचन्द्रमा आदि समस्त देवता, महर्षि एवं दैत्य आदिसबके सब आपसे ही उत्पन्न हुए हैं ॥ २४ ॥

ब्रह्मविष्णुमहेन्द्रांश्च सूर्याद्यानसुरान्सुरान् ।
त्वं वै सृजसि पास्यत्सि त्वमेव सकलेश्वरः ॥ २५ ॥
आप ही ब्रह्मा, विष्णु, महेन्द्र, चन्द्र तथा सूर्य आदि देवताओं एवं असुरोंका सृजन, पालन एवं संहार करते हैं, आप ही सबके स्वामी हैं ॥ २५ ॥

यतो हरसि संसारं हर इत्युच्यते बुधैः ।
निगृहीतो हरिर्यस्माद्धर इत्युच्यते बुधैः ॥ २६ ॥
यतो बिभर्षि सकलं विभज्य तनुमष्टधा ।
अतोऽस्मान्पाहि भगवन् सुरान् दानैरभीप्सितैः ॥ २७ ॥
आप संसारका हरण करते हैं, इसलिये विद्वान लोग आपको 'हर' कहते हैं और आपने विष्णुका निग्रह किया है, इसलिये भी आप विद्वानोंके द्वारा हर कहे जाते हैं । हे प्रभो ! आप अपने शरीरको आठ भागोंमें बाँटकर इस जगत्का संरक्षण करते हैं, अतः हे भगवन् ! अभीष्ट वरोंके द्वारा हम देवताओंकी रक्षा कीजिये ॥ २६-२७ ॥

त्वं महापुरुषः शम्भुः सर्वेशः सुरनायकः ।
निःस्वात्मा निर्विकारात्मा परब्रह्म सतां गतिः ॥ २८ ॥
दीनबन्धुर्दयासिन्धुऽरद्भुतोतिः परात्मदृक् ।
प्राज्ञो विराट् विभुः सत्यः सच्चिदानन्दलक्षणः ॥ २९ ॥
आप महापुरुष, शम्भु, सर्वेश्वर, सुरनायक, नि:स्वात्मा, निर्विकारात्मा, परब्रह्म, सत्पुरुषोंकी गति, दीनबन्धु, दयासिन्धु, अद्‌भुत लीला करनेवाले, परात्मदृक्, प्राज्ञ, विराट्, विभु, सत्य एवं सत्-चित्-आनन्द लक्षणसे युक्त हैं ॥ २८-२९ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इत्याकर्ण्य वचः शम्भुर्देवानां परमेश्वरः ॥
उवाच तान् सुरान्देवामहर्षींश्च पुरातनान् ॥ ३० ॥
नन्दीश्वर बोले-इस प्रकार देवताओंके वचनको सुनकर परमेश्वर सदाशिव उन पुरातन देवताओं एवं महर्षियोंसे कहने लगे- ॥ ३० ॥

यथा जलं जले क्षिप्तं क्षीरे क्षीरं घृते घृतम् ।
एक एव तदा विष्णुः शिवे लीनो न चान्यथा ॥ ३१ ॥
[शिवजी बोले-] जिस प्रकार जलमें जल, दूधमें दूध और घीमें घी मिलकर समरस हो जाता है, ठीक उसी प्रकार भगवान् विष्णु भी शिवजीमें मिलकर समरस हो गये हैं, इसमें संशय नहीं है ॥ ३१ ॥

एको विष्णुर्नृसिंहात्मा सदर्पश्च महाबलः ।
जगत्संहारकरणे प्रवृत्तो नरकेसरी ॥ ३२ ॥
प्रार्थनीयो नमस्तस्मै मद्भक्तैः सिद्धिकारिभिः ।
मद्भक्तप्रवरश्चैव मद्भक्तवर दायकः ॥ ३३ ॥
इस समय एकमात्र विष्णु ही महाबलवान् तथा अहंकारी नृसिंहका रूप धारणकर संसारके संहार करनेमें प्रवृत्त हुए हैं, उन्हें नमस्कार है । सिद्धिहेतु प्रयत्नशील मेरे भक्तोंके द्वारा वे प्रार्थनाके योग्य हैं, वे स्वयं भी मेरे भक्तोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं और मेरे भक्तोंको वर देनेवाले हैं ॥ ३२-३३ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
एतावदुक्त्वा भगवान् पक्षिराजो महाबलः ।
पश्यतां सर्वदेवानां तत्रैवान्तरधीयत ॥ ३४ ॥
वीरभद्रोऽपि भगवान्गणाध्यक्षो महाबलः ।
नृसिंहकृत्तिं निष्कृष्य समादाय ययौ गिरिम् ॥ ३५ ॥
नन्दीश्वर बोले-इस प्रकार कहकर महाबली भगवान् पक्षिराज देवताओंके देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गये । गणाध्यक्ष महाबलवान् भगवान् वीरभद्र भी नृसिंहका चर्म निकाल और उसे लेकर कैलासपर्वतपर चले गये ॥ ३४-३५ ॥

नृसिंहकृत्तिवसनस्तदाप्रभृति शंकरः ।
तद्वक्त्रं मुण्डमालायां नायकत्वेन कल्पितम् ॥ ३६ ॥
ततो देवा निरातङ्‌काः कीर्त्तयन्तः कथामिमाम् ।
विस्मयोत्फुल्लनयना जग्मुः सर्वे यथागतम् ॥ ३७ ॥
उसी समयसे शिवजी नृसिंहके चर्मको धारण करते हैं । उन्होंने नृसिंहके मुखको अपनी मुण्डमालाका सुमेरु बनाया था । तदनन्तर सभी देवता निर्भय होकर इस कथाका वर्णन करते हुए विस्मयसे प्रफुल्लितनेत्र हो जैसे आये थे, वैसे ही चले गये ॥ ३६-३७ ॥

य इदं परमाख्यानं पुण्यं वेदरसान्वितम् ।
पठति शृणुयाच्चैव सर्वान्कामानवाप्नुयात् ॥ ३८ ॥
जो [व्यक्ति] वेदरससे परिपूर्ण इस परम पवित्र आख्यानको पढ़ता है तथा सुनता है, उसकी सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं ॥ ३८ ॥

धन्यं यशस्यमायुष्यमारोग्यम्पुष्टिवर्द्धनम् ।
सर्वविघ्रप्रशमनं सर्वव्याधिविनाशनम् ॥ ३९ ॥
दुःखप्रशमनं वाञ्छासिद्धिदं मंगलालयम् ।
अपमृत्युहरं बुद्धिप्रदं शत्रुविनाशनम् ॥ ४० ॥
यह आख्यान धन्य, यशको प्रदान करनेवाला, आयुको बढ़ानेवाला, आरोग्य देनेवाला तथा पुष्टिकी वृद्धि करनेवाला, समस्त विघ्नोंको शान्त करनेवाला, सभी व्याधियोंका नाश करनेवाला, दुःखोंको दूर करनेवाला, मनोरथ सिद्ध करनेवाला, कल्याणका आश्रयस्थान, अपमृत्युका हरण करनेवाला, बुद्धिको बढ़ानेवाला तथा शत्रुओंका नाश करनेवाला है ॥ ३९-४० ॥

इदं तु शरभाकारं परं रूपम्पिनाकिनः ।
प्रकाशनीयं भक्तेषु शंकरस्य चरेषु वै ॥ ४१ ॥
तैरेव पठितव्यं च श्रोतव्यं च शिवात्मभिः ।
नवधाभक्तिदं दिव्यमन्तःकरणबुद्धिदम् ॥ ४२ ॥
यह शरभरूप पिनाकधारी शिवजीका उत्तम रूप है, इसे शिवके भक्तों तथा गणोंमें प्रकाशित करते रहना चाहिये अर्थात् साधारण जनोंके समक्ष यह प्रकाश्य नहीं है । उन्हीं शिवभक्तोंको इस आख्यानको पढ़ना एवं सुनना चाहिये । यह नौ प्रकारकी भक्ति प्रदान करनेवाला दिव्य एवं अन्तःकरण तथा बुद्धिका वर्धन करनेवाला है ॥ ४१-४२ ॥

शिवोत्सवेषु सर्वेषु चतुर्दश्यष्टमीषु च ।
पठेत्प्रतिष्ठाकाले तु शिवसन्निधिकारणम् ॥ ४३ ॥
शिवजीके सभी उत्सवोंमें, चतुर्दशी तथा अष्टमीको एवं शिवकी प्रतिष्ठाके समय इस आख्यानको पढ़नेसे शिवजीका सांनिध्य प्राप्त होता है ॥ ४३ ॥

चौरव्याघ्रनृसिंहात्मकृतराजभयेषु च ।
अन्येषूत्पातभूकम्पदस्य्वादिपांसुवृष्टिषु ॥ ४४ ॥
उल्कापाते महावाते विनावृष्ट्यतिवृष्टिषु ।
पठेद्यः प्रयतो विद्वान् शिवभक्तो दृढव्रतः ॥ ४५ ॥
यः पठेच्छृणुयाद्वापि निष्कामो व्रतमैश्वरम् ।
रुद्रलोकं समासाद्य रुद्रस्यानुचरो भवेत् ॥ ४६ ॥
रुद्रलोकमनुप्राप्य रुद्रेण सह मोदते ।
ततः सायुज्यमाप्नोति शिवस्य कृपया मुने ॥ ४७ ॥
चोर-बाघ-मनुष्य-सिंहके भयमें, आत्मकृत अर्थात् मनमें अकारण उत्पन्न भय तथा राजभयमें, अन्य प्रकारके उत्पात, भूकम्प, डाकू आदिसे भय उपस्थित होनेपर, धूलिवर्षाकालमें, उल्कापात, महावात, अनावृष्टि और अतिवृष्टिमें जो विद्वान् सावधान होकर इसे पढ़ता है, वह दृढ़व्रती शिवभक्त हो जाता है । जो निष्काम भावसे इस शिवचरित्रको पढता या सनता है और शिवव्रत करता है, वह रुद्रलोकको प्राप्तकर रुद्रका अनुचर हो जाता है । इस प्रकार रुद्रलोकको प्राप्तकर वह रुद्रके साथ आनन्द करता है और हे मुने ! उसके बाद शिवजीकी कृपासे वह शिवसायुज्य प्राप्त करता है । ४४-४७ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां
शरभावतारवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें शरभावतारवर्णन नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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