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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

तृतीया शतरुद्रसंहितायां

त्रयोदशोऽध्यायः

गृहपत्यवतारवर्णनम् -
भगवान् शंकरके गृहपति-अवतारकी कथा -


नन्दीश्वर उवाच -
शृणु ब्रह्मसुत प्रीत्या चरितं शशिमौलिनः ।
सोऽवतीर्णो यथा प्रीत्या विश्वानरगृहे शिवः ॥ १ ॥
नन्दीश्वर बोले-हे ब्रह्मपुत्र ! अब चन्द्रमाको सिरपर धारण करनेवाले शिवके एक अन्य चरित्रको प्रसन्नतापूर्वक सुनिये, जिस प्रकार उन्होंने प्रेमपूर्वक विश्वानरके घरमें जन्म लिया ॥ १ ॥

नाम्ना गृहपतिः सोऽभूदग्निलोकपतिर्मुने ।
अग्निरूपस्तेजसश्च सर्वात्मा परमः प्रभुः ॥ २ ॥
नर्मदायास्तटे रम्ये पुरे नर्मपुरे पुरा ।
पुरारिभक्तः पुण्यात्मा भवद्विश्वानरो मुनिः ॥ ३ ॥
हे मुने ! गृहपति नामवाले वे अग्निलोकके स्वामी हुए, वे अग्निके सदृश, तेजस्वी, सर्वात्मा एवं परम प्रभु थे । पूर्वकालमें नर्मदाके तटपर नर्मपुरमें शिवजीके भक्त विश्वानर नामवाले पुण्यात्मा मुनि हुए ॥ २-३ ॥

ब्रह्मचर्याश्रमे निष्ठो ब्रह्मयज्ञरतः सदा ।
शाण्डिल्यगोत्रः शुचिमान्ब्रह्मतेजो निधिर्वशी ॥ ४ ॥
वे सदा ब्रह्मचर्याश्रम धर्मका पालन करते हुए नित्य-प्रति ब्रह्मयज्ञ किया करते थे । वे शाण्डिल्यगोत्री थे और बड़े पवित्र, ब्रह्मतेजस्वी तथा जितेन्द्रिय थे ॥ ४ ॥

विज्ञाताखिलशास्त्रार्थः सदाचाररतः सदा ।
शैवाचारप्रवीणोऽति लौकिकाचारविद्वरः ॥ ५ ॥
वे सभी शास्त्रोंके अर्थोंके ज्ञाता, सर्वदा सदाचारमें तत्पर, शैव आचारमें अति प्रवीण तथा लौकिक आचारके ज्ञाताओंमें श्रेष्ठ थे ॥ ५ ॥

चित्ते विचार्य्य गृहिणीगुणान्विश्वानरः शुभान् ।
उदुवाह विधानेन स्वोचितां कालकन्यकाम् ॥ ६ ॥
उन्होंने भार्याके उत्तम गुणोंपर विचारकर उचित समयमें विधिपूर्वक अपने योग्य कुलीन कन्यासे विवाह किया ॥ ६ ॥

अग्निशुश्रूषणरतः पञ्चयज्ञपरायणः ।
षट्कर्मनिरतो नित्यं देवपित्रतिथिप्रियः ॥ ७ ॥
वे प्रतिदिन अग्निशुश्रूषा, पंचयज्ञ तथा षट्कर्ममें संलग्न रहते थे और देवता, पितर एवं अतिथियोंका पूजन करते थे ॥ ७ ॥

एवं बहुतिथे काले गते तस्याग्रजन्मनः ।
भार्या शुचिष्मती नाम भर्तारं प्राह सुव्रता ॥ ८ ॥
इस प्रकार बहुत समय बीत जानेके उपरान्त [एक दिन] उन ब्राह्मणकी शुचिष्मती नामक पतिव्रता पत्नीने पतिसे कहा- ॥ ८ ॥

नाथ भोगा मया सर्वे भुक्ता वै त्वत्प्रसादतः ।
स्त्रीणां समुचिता ये स्युः त्वां समेत्य मुदावहाः ॥ ९ ॥
हे नाथ ! मैंने आपकी कृपासे आपके साथ उन सभी भोगोंको भोग लिया है, जो स्त्रियोंके योग्य तथा आनन्ददायक हैं ॥ ९ ॥

एवं मे प्रार्थितं नाथ चिराय हृदि संस्थितम् ।
गृहस्थानां समुचितं त्वमेतद्दातुमर्हसि ॥ १० ॥
हे नाथ ! अब मेरी एक ही विशेष अभिलाषा है, जो मेरे हृदयमें चिरकालसे स्थित है और वह गृहस्थोंके लिये उचित भी है, उसे देनेकी कृपा करें ॥ १० ॥

विश्वानर उवाच -
किमदेयं हि सुश्रोणि तव प्रियहितैषिणी ।
तत्प्रार्थय महाभागे प्रयच्छाम्यविलम्बितम् ॥ ११ ॥
महेशितुः प्रसादेन मम किञ्चिन्न दुर्लभम् ।
इहामुत्र च कल्याणि सर्वकल्याणकारिणः ॥ १२ ॥
विश्वानर बोले-हे सुश्रोणि ! हे प्रियहितैषिणि ! मुझे तुम्हारे लिये कुछ भी अदेय नहीं है । हे महाभागे ! तुम उसे माँगो, मैं शीघ्र ही प्रदान करूँगा । हे कल्याणि ! सम्पूर्ण कल्याण करनेवाले महेश्वरकी कृपासे मुझे इस लोक एवं परलोकमें कुछ भी दुर्लभ नहीं है ॥ ११-१२ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इत्याकर्ण्य वचः पत्युस्तस्य सा पतिदेवता ।
उवाच हृष्यवदना करौ बद्ध्वा विनीतिका ॥ १३ ॥
नन्दीश्वर बोले-पतिके इस वचनको सुनकर प्रसन्न मुखवाली वह पतिव्रता स्त्री प्रसन्नतासे विनीत हो दोनों हाथ जोड़कर कहने लगी- ॥ १३ ॥

शुचिष्मत्युवाच -
वरयोग्यास्मि चेन्नाथ यदि देयो वरो मम ।
महेशसदृशं पुत्रं देहि नान्यं वरं वृणे ॥ १४ ॥
शुचिष्मती बोली-हे नाथ ! यदि मैं वरके योग्य हूँ और यदि आपको मुझे वर प्रदान करना है तो मुझे शिवके समान पुत्र दीजिये, मैं कोई अन्य वर नहीं चाहती हूँ ॥ १४ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इति तस्या वचः श्रुत्वा ब्राह्मणः स शुचिव्रतः ।
क्षणं समाधिमाधाय हृद्येतत्समचिन्तयत् ॥ १५ ॥
अहो किं मे तया तन्व्या प्रार्थितं ह्यतिदुर्लभम् ।
मनोरथपथाद्दूरमस्तु वा स हि सर्वकृत् ॥ १६ ॥
नन्दीश्वर बोले-उसके इस वचनको सुनकर वे पवित्रात्मा ब्राह्मण क्षणभरके लिये समाधिस्थ होकर अपने हृदयमें विचार करने लगे । अहो ! मेरी इस स्त्रीने अत्यन्त दुर्लभ तथा मनोरथ मार्गसे दूर कैसी वस्तु माँगी है अथवा वे शिवजी ही सब कुछ पूरा करनेवाले हैं ॥ १५-१६ ॥

तेनैवास्या मुखे स्थित्वा वाक्स्वरूपेण शम्भुना ।
व्याहृतं कोऽन्यथा कर्त्तुमुत्सहेत भवेदिदम् ॥ १७ ॥
उन शम्भुने ही इसके मुखमें वाणीरूपसे स्थित होकर ऐसा कहा है । शिवजीकी यदि ऐसी इच्छा है, तो उसे अन्यथा करने में कौन समर्थ हो सकता है ! ॥ १७ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इति सञ्चिन्त्य स मुनिर्विश्वानर उदारधीः ।
ततः प्रोवाच तां पत्नीमेकपत्नीव्रते स्थितः ॥ १८ ॥
ऐसा विचारकर उदार बुद्धिवाले तथा एकपत्नीव्रतमें परायण रहनेवाले विश्वानर मुनिने बादमें उस पत्नीसे कहा- ॥ १८ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इत्थमाश्वास्य तां पत्नीञ्जगाम तपसे मुनिः ।
यत्र विश्वेश्वरः साक्षात्काशीनाथोऽधितिष्ठति ॥ १९ ॥
नन्दीश्वर बोले- इस प्रकार अपनी पत्नीको [अनेक प्रकारसे] आश्वस्त करके मुनि तप करनेके लिये वहाँ चले गये, जहाँ साक्षात् काशीनाथ विश्वेश्वर स्थित हैं ॥ १९ ॥

प्राप्य वाराणसीं तूर्णं दृष्ट्‍वा तां मणिकर्णिकाम् ।
तत्याज तापत्रितयमपि जन्मशतार्जितम् ॥ २० ॥
उन्होंने शीघ्र ही वाराणसी पहुँचकर मणिकर्णिकाका दर्शन करके अपने सैकड़ों जन्मोंके अर्जित तीनों तापोंसे मुक्ति प्राप्त कर ली ॥ २० ॥

दृष्ट्‍वा सर्वाणि लिंगानि विश्वेशप्रमुखानि च ।
स्नात्वा सर्वेषु कुण्डेषु वापीकूपसरः सु च ॥ २१ ॥
नत्वा विनायकान्सर्वान्गौरीं शर्वां प्रणम्य च ।
सम्पूज्य कालराजं च भैरवं पापभक्षणम् ॥ २२ ॥
दण्डनायकमुख्यांश्च गणान्स्तुत्वा प्रयत्नतः ।
आदिकेशवमुख्यांश्च केशवं परितोष्य च ॥ २३ ॥
लोकार्कमुखसूर्यांश्च प्रणम्य स पुनः पुनः ।
कृत्वा च पिण्डदानानि सर्वतीर्थेष्वतन्द्रितः ॥ २४ ॥
सहस्रभोजनाद्यैश्च मुनीन्विप्रान्प्रतर्प्य च ।
महापूजोपचारैश्च लिंगान्यभ्यर्च्य भक्तितः ॥ २५ ॥
असकृच्चिन्तयामास किं लिंगं क्षिप्रसिद्धिदम् ।
यत्र निश्चलतामेति तपस्तनयकाम्यया ॥ २६ ॥
उसके बाद उन्होंने विश्वेश्वर आदि सभी लिंगोंका दर्शन करके काशीस्थ सभी कुण्डों, वापियों एवं सरोवरोंमें स्नान करके, सभी विनायकोंको नमस्कार करके, शिवा गौरीको प्रणाम करके, पापोंका भक्षण करनेवाले कालराज भैरवका भी पूजन किया, फिर प्रयत्नपूर्वक दण्डपाणि विनायक आदि प्रमुख गणोंकी स्तुतिकर, आदिकेशव आदि [मुख्य द्वादश केशवों]-को प्रसन्न करके फिर लोलार्क आदि प्रमुख सूर्योंको बार-बार प्रणाम किया, पुनः सभी तीर्थोंमें समाहितचित्त होकर पिण्डदान करके हजारों प्रकारके भोजनादिसे मुनियों तथा ब्राह्मणोंको सन्तुष्टकर महापूजोपचारसे भक्तिपूर्वक [अनेक] लिंगोंका पूजन करके वे बार-बार विचार करने लगे कि शीघ्र ही सिद्धि प्रदान करनेवाला कौन-सा लिंग है, जहाँ पुत्रकी कामनासे मेरा तप सफल होगा ॥ २१–२६ ॥

क्षणं विचार्य स मुनिरिति विश्वानरः सुधीः ।
क्षिप्रं पुत्रप्रदं लिंगं वीरेशं प्रशशंस ह ॥ २७ ॥
असंख्याताः सहस्राणि सिद्धाः सिद्धिं गतास्ततः ।
सिद्धलिंगमिति ख्यातन्तस्माद्‌वीरेश्वं परम् ॥ २८ ॥
वीरेश्वरं महालिंगमब्दमभ्यर्च्य भक्तितः ।
आयुर्मनोरथं सर्वं पुत्रादिकमनेकशः ॥ २९ ॥
अहमप्यत्र वीरेशं समाराध्य त्रिकालताः ।
आशु पुत्रमवाप्स्यामि यथाभिलषितं स्त्रिया ॥ ३० ॥
उन बुद्धिमान् विश्वानर मुनिने कुछ क्षण ऐसा विचार करके शीघ्र ही पुत्र देनेवाले वीरेश [नामक] लिंगकी प्रशंसा की । [उन्होंने अपने मनमें विचार किया कि] यह वीरेश्वर सिद्ध लिंग है, [इसकी पूजाके प्रभावसे] असंख्य साधक सिद्धिको प्राप्त किये हैं, इसीलिये यह श्रेष्ठ लिंग सबसे अधिक प्रसिद्ध है । लोग भक्तिभावसे समन्वित होकर वर्षपर्यन्त इस वीरेश्वर महालिंगकी पूजा करके आयु तथा पुत्रादि सभी मनोरथ प्राप्त करते हैं । अतः मैं भी यहीं वीरेश लिंगकी त्रिकाल आराधनाकर शीघ्र वैसा ही पुत्र प्राप्त करूँगा, जैसे कि मेरी स्त्रीने अभिलाषा की है ॥ २७–३० ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इति कृत्वा मतिं धीरो विप्रो विश्वानरः कृती ।
चन्द्रकूपजले स्नात्वा जग्राह नियमं व्रती ॥ ३१ ॥
नन्दीश्वर बोले-ऐसा विचारकर बुद्धिमान्, पुण्यात्मा तथा व्रती ब्राह्मण विश्वानरने चन्द्रकूपके जलमें स्नानकर नियम धारण किया ॥ ३१ ॥

एकाहारोऽभवन्मासं मासं नक्ताशनोऽभवत् ।
अयाचिताशनो मासं मासं त्यक्ताशनः पुनः ॥ ३२ ॥
उन्होंने एक मासपर्यन्त दिनमें एकाहार, एक मासपर्यन्त रात्रिमें एकाहार, एक मासपर्यन्त अयाचित आहार पुनः एक मासतक निराहार रहकर तप किया ॥ ३२ ॥

पयोव्रतोऽभवन्मासं मासं मासं शाक फलाशनः ।
मासं मुष्टितिलाहारो मासं पानीयभोजनः ॥ ३३ ॥
वे एक महीनेतक दूध पीकर, एक महीनेतक शाक-फल खाकर, एक महीनेतक मुट्ठीभर तिल खाकर और एक महीने पानी पीकर रहे ॥ ३३ ॥

पञ्चगव्याशनो मासं मासं चान्द्रायणव्रती ।
मासं कुशाग्रजलभुग्मासं श्वसनभक्षणः ॥ ३४ ॥
वे एक महीनेतक पंचगव्य पीकर, एक मासतक चान्द्रायणव्रतकर, एक मासतक कुशाग्रका जल पीकर पुनः एक महीने वायु भक्षणकर रहने लगे ॥ ३४ ॥

एवमब्दमितं कालन्तताप स तपोऽद्भुतम् ।
त्रिकालमर्चयद्भक्त्या वीरेशं लिङ्गमुत्तमम् ॥ ३५ ॥
उत्तम वीरेश्वरलिंगकी भक्तिपूर्वक पूजा करते हुए इस प्रकार उन्होंने एक वर्षतक अद्‌भुत तप किया ॥ ३५ ॥

अथ त्रयोदशे मासि स्नात्वा त्रिपथगाम्भसि ।
प्रत्यूष एव वीरेशं यावदायाति स द्विजः ॥ ३६ ॥
तावद्विलोकयाञ्चक्रे मध्ये लिंगं तपोधनः ।
विभूतिभूषणम्बालमष्टवर्षाकृतिं शिशुम् ॥ ३७ ॥
आकर्णायतनेत्रं च सुरक्तदशनच्छदम् ।
चारुपिंगजटामौलिं नग्न प्रहसिताननम् ॥ ३८ ॥
शैशवोचितनेपथ्यधारिणं चितिधारिणम् ।
पठन्तं श्रुतिसूक्तानि हसन्तं च स्वलीलया ॥ ३९ ॥
उसके बाद तेरहवें महीनेमें गंगाके जलमें प्रात:काल स्नानकर ज्यों ही वे ब्राह्मण वीरेश्वरकी ओर आये, उसी समय उन तपोधनने [वीरेश्वर] लिंगके मध्यमें विभूतिसे विभूषित, आठ वर्षकी आकृतिवाले एक बालकको देखा । उस बालककी आँखें कानोंतक फैली हुई थीं, उसके ओठ गहरे लाल थे, मस्तकपर अत्यन्त पिंगलवर्णकी जटा शोभा पा रही थी, वह नग्न तथा प्रसन्नमुख था और बालोचित वेशभूषा तथा चिताका भस्म धारण किये हुए श्रुतिके सूक्तोंका पाठ करता हुआ लीलापूर्वक हँस रहा था ॥ ३६-३९ ॥

तमालोक्य मुदं प्राप्य रोमकञ्चुकितो मुनिः ।
प्रोच्चचार हृदालापान्नमोऽस्त्विति पुनः पुनः ॥ ४० ॥
अभिलाषप्रदैः पद्यैरष्टभिर्बालरूपिणम् ।
तुष्टाव परमानन्दं शंभुं विश्वानरः कृती ॥ ४१ ॥
उसे देखकर आनन्दित होकर रोमांचयुक्त विश्वानर मुनिने बार-बार हृदयसे 'नमोऽस्तु' कहकर प्रणाम किया । तदनन्तर विश्वानर मुनि कृतार्थ होकर अभिलाषा पूर्ण करनेवाले आठ पद्योंसे बालकरूपधारी परमानन्दस्वरूप शिवकी स्तुति करने लगे ॥ ४०-४१ ॥

विश्वानर उवाच -
एकम्ब्रह्मैवाद्वितीयं समस्तं
    सत्यं सत्यं नेह नानास्ति किञ्चित् ॥
एको रुद्रो न द्वितीयोऽवतस्थे
    तस्मादेकं त्वां प्रपद्ये महेशम् । ४२ ॥
विश्वानर बोले- यह सब कुछ एक अद्वितीय ब्रह्म ही है, वही सत्य है, वही सत्य है, सर्वत्र उस ब्रह्मके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । वह ब्रह्म एकमात्र ही है और दूसरा कोई नहीं है, इसलिये मैं एकमात्र आप महेश्वरकी शरण प्राप्त करता हूँ ॥ ४२ ॥

कर्ता हर्त्ता त्वं हि सर्वस्य शम्भो
    नानारूपेष्वेकरूपोऽप्यरूपः ।
यद्वत्प्रत्यग्धर्म एकोऽप्यनेक-
    स्तस्मान्नान्यं त्वां विनेशं प्रपद्ये ॥ ४३ ॥
हे शम्भो ! एक आप ही सबका सृजन करनेवाले तथा हरण करनेवाले हैं, आप रूपविहीन होकर भी अनेक रूपोंमें एक रूपवाले हैं, जैसे आत्मधर्म एक होता हुआ भी अनेक रूपोंवाला है, इसलिये मैं आप महेश्वरको छोड़कर किसी अन्यकी शरण नहीं प्राप्त करना चाहता हूँ ॥ ४३ ॥

रज्जो सर्पः शुक्तिकायां च रौप्यं
    नैरः पूरस्तन्मृगाख्ये मरीचौ ।
यद्यत्सद्वद्विष्वगेव प्रपञ्चो
    यस्मिञ्ज्ञाते तं प्रपद्ये महेशम् ॥ ४४ ॥
जिस प्रकार रस्सीमें साँप, सीपीमें चाँदी और मृगमरीचिकामें जलप्रवाह [मिथ्या] भासित होता है, उसी प्रकार [आपमें] यह सारा प्रपंच भासित हो रहा है । जिसके जान लेनेपर इस प्रपंचका मिथ्यात्व भलीभाँति ज्ञात हो जाता है, मैं उन महेश्वरकी शरण प्राप्त करता हूँ ॥ ४४ ॥

तोये शैत्यं दाहकत्वं च वह्नौ
    तापो भानौ शीतभानौ प्रसादः ।
पुष्पे गन्धो दुग्धमध्येऽपि सर्पि-
    र्यत्तच्छंभो त्वं ततस्त्वां प्रपद्ये ॥ ४५ ॥
हे शम्भो ! जिस प्रकार जलमें शीतलता, अग्निमें दाहकता, सूर्यमें ताप, चन्द्रमामें आह्लादकत्व, पुष्पमें गन्ध एवं दुग्धमें घृत व्याप्त रहता है, उसी प्रकार सर्वत्र आप ही व्याप्त हैं, अतः मैं आपकी शरण प्राप्त करता हूँ ॥ ४५ ॥

शब्दं गृह्णास्यश्रवास्त्वं हि जिघ्र-
    स्यप्राणस्त्वं व्यंघ्रिरायासि दूरात् ।
व्यक्षः पश्येस्त्वं रसज्ञोऽप्यजिह्वः
    कस्त्वां सम्यग्वेत्त्यतस्त्वां प्रपद्ये ॥ ४६ ॥
हे प्रभो ! आप कानोंके बिना सुनते हैं, नाकके बिना सूंघते हैं, बिना पैरके दूरसे आते हैं, बिना आँखके देखते हैं और बिना जिह्वाके रस ग्रहण करते हैं, अतः आपको भलीभाँति कौन जान सकता है । इस प्रकार मैं आपकी शरण प्राप्त करता हूँ ॥ ४६ ॥

नो वेद त्वामीश साक्षाद्धि वेदो
    नो वा विष्णुर्नो विधाताखिलस्य ।
नो योगीन्द्रा नेन्द्रमुख्याश्च देवा
    भक्तो वेदस्त्वामतस्त्वां प्रपद्ये ॥ ४७ ॥
हे ईश ! आपको न साक्षात् वेद, न विष्णु, न सर्वस्रष्टा ब्रह्मा, न योगीन्द्र और न तो इन्द्रादि देवगण ही जान सकते हैं, केवल भक्त ही आपको जान पाता है, अत: मैं आपकी शरण प्राप्त करता हूँ ॥ ४७ ॥

नो ते गोत्रं नो सजन्मापि नाशो
    नो वा रूपं नैव शीलन्न देशः ।
इत्थम्भूतोऽपीश्वरस्त्वं त्रिलोक्याः
    सर्वान्कामान्पूरयेस्त्वं भजे त्वाम् ॥ ४८ ॥
हे ईश ! आपका न तो गोत्र है, न जन्म है, न आपका नाम है, न आपका रूप है, न शील है एवं न देश । ऐसा होते हुए भी आप तीनों लोकोंके स्वामी हैं और आप समस्त मनोरथोंको पूर्ण करते हैं, अतः मैं आपका भजन करता हूँ । ४८ ॥

त्वत्तः सर्वं त्वं हि सर्वं स्मरारे
    त्वं गौरीशस्त्वं च नग्नोऽतिशान्तः ।
त्वं वै वृद्धस्त्वं युवा त्वं च बाल-
    स्तत्त्वं यत्किं नान्यतस्त्वां नतोऽहम् ॥ ४९ ॥
हे कामशत्रो ! सब कुछ आपसे है और आप ही सब कुछ हैं, आप पार्वतीपति हैं, आप दिगम्बर एवं अत्यन्त शान्त हैं । आप वृद्ध, युवा और बालक हैं । कौन ऐसा पदार्थ है, जो आप नहीं हैं, अतः मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ४९ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
स्तुत्वेति विप्रो निपपात भूमौ
    संबद्धपाणिर्भवतीह यावत् ।
तावत्स बालोऽरिबलवृद्धवृद्धः
    प्रोवाच भूदेवमतीव हृष्टः ॥ ५० ॥
नन्दीश्वर बोले-इस प्रकार स्तुतिकर हाथ जोड़े हुए वे ब्राह्मण जबतक पृथ्वीपर गिरते, तबतक वह बालक वृद्धोंके भी वृद्ध पुरातन पुरुषके रूपमें अत्यन्त प्रसन्न होकर ब्राह्मणसे कहने लगा- ॥ ५० ॥

बाल उवाच -
विश्वानर मुनिश्रेष्ठ भूदेवाहं त्वयाद्य वै ।
तोषितः सुप्रसन्नात्मा वृणीष्व वरमुत्तमम् ॥ ५१ ॥
बालक बोला-हे विश्वानर ! हे मुनिश्रेष्ठ ! हे ब्राह्मण ! आपने आज मुझे अत्यन्त सन्तुष्ट कर दिया । अतः आप प्रसन्नचित्त होकर उत्तम वर माँगिये ॥ ५१ ॥

तत उत्थाय हृष्टात्मा सुनिर्विश्वानरः कृती ।
प्रत्यब्रवीन्मुनिश्रेष्ठः शंकरं बालरूपिणम् ॥ ५२ ॥
तब मुनियोंमें श्रेष्ठ वे विश्वानर मुनि प्रसन्नचित्त हो उठकर बालकरूपी शिवजीसे कहने लगे ॥ ५२ ॥

विश्वानर उवाच -
महेश्वर किमज्ञातं सर्वज्ञस्य तव प्रभो ।
सर्वान्तरात्मा भगवा शर्वः सर्वप्रदो भवान् ॥ ५३ ॥
विश्वानर बोले-हे महेश्वर ! आप तो सर्वज्ञ हैं, अतः आपसे कौन ऐसी बात है, जो छिपी रह सकती है । हे प्रभो ! आप सर्वान्तरात्मा, भगवान्, शर्व तथा सब कुछ प्रदान करनेवाले हैं ॥ ५३ ॥

याच्ञां प्रति नियुक्तं मां किं ब्रूषे दैन्यकारिणीम् ।
इति ज्ञात्वा महेशान यथेच्छसि तथा कुरु ॥ ५४ ॥
दीनता प्रकट करनेवाली याचनाके लिये मुझे नियुक्त करके आप मुझसे क्या कहलाना चाहते हैं, हे महेशान ! ऐसा जानकर आप जैसा चाहते हैं, वैसा करें ॥ ५४ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इति श्रुत्वा वचस्तस्य देवो विश्वानरस्य हि ।
शुचिः शुचिव्रतस्याथ शुचिं स्मित्वाब्रवीच्छिशुः ॥ ५५ ॥
नन्दीश्वर बोले-पवित्र व्रत करनेवाले उन विश्वानरके इस पवित्र वचनको सुनकर परम पवित्र उस बालकरूप महादेवने मन्द-मन्द मुसकराकर कहा- ॥ ५५ ॥

त्वया शुचे शुचिष्मत्यां योऽभिलाषः कृतो हृदि ।
अचिरेणैव कालेन स भविष्यत्यसंशयम् ॥ ५६ ॥
हे शुचे ! आपने शुचिष्मतीमें हृदयसे जो इच्छा की है, वह थोड़े ही दिनोंमें निःसन्देह पूर्ण हो जायगी ॥ ५६ ॥

तव पुत्रत्वमेष्यामि शुचिष्मत्यां महामते ।
ख्यातो गृहपतिर्नाम्ना शुचिः सर्वामरप्रियः ॥ ५७ ॥
हे महामते ! मैं शुचिष्मतीके गर्भसे आपके पुत्ररूपमें जन्म लूँगा और शुद्धात्मा तथा सभी देवताओंको प्रिय मैं गृहपति नामसे प्रसिद्ध होऊँगा ॥ ५७ ॥

अभिलाषाष्टकं पुण्यं स्तोत्रमेतत्त्वयेरितम् ।
अब्दत्रिकालपठनात्कामदं शिवसन्निधौ ॥ ५८ ॥
आपके द्वारा कहा गया यह पवित्र अभिलाषाष्टकस्तोत्र एक वर्षपर्यन्त तीनों कालमें शिवकी सन्निधिमें पढ़ते रहनेपर [मनुष्योंको] सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाला होगा ॥ ५८ ॥

एतत्स्तोत्रप्रपठनं पुत्रपौत्रधनप्रदम् ।
सर्वशान्तिकरश्चापि सर्वापत्तिविनाशनम् ॥ ५९ ॥
स्वर्गापवर्गसम्पत्तिकारकं नात्र संशयः ।
सर्वस्तोत्रसमं ह्येतत्सर्वकामप्रदं सदा ॥ ६० ॥
इस स्तोत्रका पाठ पुत्र-पौत्र-धन प्रदान करनेवाला, सभी प्रकारकी शान्ति करनेवाला तथा सम्पूर्ण आपत्तियोंका विनाश करनेवाला है और यह स्वर्ग, मोक्ष तथा सम्पत्ति देनेवाला है, इसमें संशय नहीं है । यह स्तोत्र अकेला ही सभी स्तोत्रोंके तुल्य है तथा सम्पूर्ण कामनाओंको प्रदान करनेवाला है ॥ ५९-६० ॥

प्रातरुत्थाय सुस्नातो लिंगमभ्यर्च्य शाम्भवम् ।
वर्षं जपन्निदं स्तोत्रमपुत्रः पुत्रवान्भवेत् ॥ ६१ ॥
प्रात:काल उठकर भली-भाँति स्नान करके शिवलिंगकी पूजाकर वर्षपर्यन्त इस स्तोत्रका पाठ करता हुआ पुत्रहीन मनुष्य पुत्रवान् हो जाता है ॥ ६१ ॥

अभिलाषाष्टकमिदन्न देयं यस्य कस्यचित् ।
गोपनीयं प्रयत्नेन महावन्ध्याप्रसूतिकृत् ॥ ६२ ॥
इस अभिलाषाष्टकस्तोत्रको जिस किसीको नहीं बताना चाहिये और इसे प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिये, यह महावन्ध्या स्त्रीको भी सन्तान देनेवाला है ॥ ६२ ॥

स्त्रिया वा पुरुषेणापि नियमाल्लिंगसन्निधौ ।
अब्दं जप्तमिदं स्तोत्रं पुत्रदं नात्र संशयः ॥ ६३ ॥
जो स्त्री अथवा पुरुष नियमपूर्वक शिवलिंगके समीप एक वर्षपर्यन्त इस स्तोत्रका पाठ करता है, उसे यह स्तोत्र पुत्र प्रदान करता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ६३ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इत्युक्त्वान्तर्दधे शम्भुर्बालरूपः सतां गतिः ।
सोऽपि विश्वानरो विप्रो हृष्टात्मा स्वगृहं ययौ ॥ ६४ ॥
नन्दीश्वर बोले- ऐसा कहकर सज्जनोंको गति प्रदान करनेवाले बालक-रूपधारी शिवजी अन्तर्धान हो गये और वे विश्वानर ब्राह्मण भी प्रसन्नचित्त होकर अपने घर चले गये ॥ ६४ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां रुद्रसंहितायां
गृहपत्यवतारवर्णनंनाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें गृहपत्यवतारवर्णन नामक तेरहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १३ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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