![]() |
॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ तृतीया शतरुद्रसंहितायां
चतुर्दशोऽध्यायः गृहपत्यवतारवर्णनम् -
विश्वानरके पुत्ररूपमें गृहपति नामसे शिवका प्रादुर्भाव - नन्दीश्वर उवाच - स विप्रो गृहमागत्य महाहर्षसमन्वितः । प्रियायै कथयामास तद्वृत्तान्तमशेषतः ॥ १ ॥ नन्दीश्वर बोले-हे सनत्कुमार ! घर आकर उस ब्राह्मणने परम हर्षसे युक्त होकर अपनी स्त्रीसे सारा वृत्तान्त कह सुनाया ॥ १ ॥ तच्छ्रुत्वा विप्रपत्नी सा मुदं प्राप शुचिष्मती । अतीव प्रेमसंयुक्ता प्रशशंस विधिं निजम् ॥ २ ॥ यह सुनकर उस विप्रपत्नी शुचिष्मतीको महान् आनन्द प्राप्त हुआ और वह प्रेमयुक्त होकर अपने भाग्यकी सराहना करने लगी ॥ २ ॥ अथ कालेन तद्योषिदन्तर्वत्नी बभूव ह । विधिवद्विहिते तेन गर्भाधानाख्यकर्मणि ॥ ३ ॥ तदनन्तर कुछ समयके बाद उस ब्राह्मणद्वारा यथाविधि गर्भाधानकर्म किये जानेपर उसकी पत्नी गर्भवती हुई ॥ ३ ॥ ततः पुंसवनं तेन स्यन्दनात्प्राग्विपश्चिता । गृह्योक्तविधिना सम्यक् कृतं पुंस्त्वविवृद्धये ॥ ४ ॥ तत्पश्चात् उस विद्वान् ब्राह्मणने गृह्यसूत्रमें कथित विधिके अनुसार पुंस्त्वकी वृद्धिके लिये गर्भस्पन्दनके पहले ही भलीभाँति पंसवन संस्कार किया ॥ ४ ॥ सीमन्तोऽथाष्टमे मासे गर्भरूपसमृद्धिकृत् । सुखप्रसवसिद्धौ च तेनाकरि क्रियाविदा ॥ ५ ॥ तत्पश्चात् आठवाँ महीना आनेपर क्रियावेत्ता उस ब्राह्मणने सुखपूर्वक प्रसवके लिये गर्भके रूपकी वृद्धि करनेवाला सीमन्त-संस्कार कराया ॥ ५ ॥ अथातः शुभतारासु ताराधिपवराननः । केन्द्रे गुरौ शुभे लग्ने सुग्रहेषु युगेषु च ॥ ६ ॥ अरिष्टदीपनिर्वाणः सर्वारिष्टविनाशकृत् । तनयो नाम तस्यां तु शुचिष्मत्यां बभूव ह ॥ ७ ॥ तदुपरान्त ताराओंके अनुकूल होनेपर बृहस्पतिके केन्द्रवर्ती होनेपर और शुभ ग्रहोंका योग होनेपर शुभ लग्नमें चन्द्रमाके समान सुन्दर मुखवाला सूतिकागृहके दीपकको अपने तेजसे शान्त अर्थात् प्रभाहीन-सा करनेवाला तथा सभी अरिष्टोंका विनाश करनेवाला पुत्र उस शुचिष्मतीके गर्भसे उत्पन्न हुआ ॥ ६-७ ॥ शर्वः समस्तसुखदो भूर्भुवः स्वर्न्निवासिनाम् । गन्धवाहनवाहाश्च दिग्वधूर्मुखवाससः ॥ ८ ॥ इष्टगन्धप्रसूनौघैर्ववृषुस्ते घनाघनाः । देवदुन्दुभयो नेदुः प्रसेदुः सर्वतो दिशः ॥ ९ ॥ परितः सरितः स्वच्छा भूतानां मानसैः सह । तमोऽताम्यत्तु नितरां रजोऽपि विरजोऽभवत् ॥ १० ॥ सत्त्वाः सत्त्वसमायुक्ताः सुधावृष्टिर्बभूव वै । कल्याणी सर्वथा वाणी प्राणिनः प्रियवत्यभूत् ॥ ११ ॥ वह बालक शिवजी ही थे, जो भूर्भुवः स्वः--इन तीनों लोकोंको समग्र सुख देनेके लिये अवतीर्ण हुए । उस समय गन्धको समग्र वहन करनेवाले वायुके वाहन (मेघ) दिशारूपी वधुओंके मुखपर वस्त्रसे बन गये अर्थात् चारों ओर काली घटा उमड़ आयी । वे घनघोर बादल गन्धवाली पुष्पराशिकी वर्षा करने लगे । देवदुन्दुभियाँ बज उठीं और सारी दिशाएँ निर्मल हो गयीं । प्राणियों के मनोंके साथ चारों ओर नदियाँ स्वच्छ हो गयीं, अन्धकार पूर्णरूपसे दूर हो गया, रजोगुण विरज अर्थात् विनष्ट हो गया । प्राणी सत्त्वगुणसे सम्पन्न हो गये । [चारों ओरसे] अमृतकी वर्षा होने लगी । सभी प्राणियोंकी वाणी कल्याणकारी और प्रिय लगनेवाली हो गयी ॥ ८-११ ॥ रंभामुख्या अप्सरसो मङ्गलद्रव्यपाणयः । विद्याधर्यश्च किन्नर्यस्तथा मर्यः सहस्रशः ॥ १२ ॥ गन्धर्वोरगयक्षाणां सुमानिन्यः शुभस्वराः । गायन्त्यो मंगलं गीतं तत्राजग्मुरनेकशः ॥ १३ ॥ रम्भा आदि अप्सराएँ, विद्याधरियाँ, किन्नरियाँ, देवपलियाँ और गन्धर्व-उरग एवं यक्षोंकी पत्नियाँ हजारोंकी संख्यामें अपने-अपने हाथों में मंगल-द्रव्य धारण किये हुए सुन्दर स्वरों में मंगल गीत गाती हुई वहाँ आ गयीं ॥ १२-१३ ॥ मारीचिरत्रिः पुलहः पुलस्त्यः क्रतुरङ्गिराः । वसिष्ठः कश्यपोऽगस्त्यो विभाण्डो माण्डवीसुतः ॥ १४ ॥ लोमशो रोमचरणो भरद्वाजोऽथ गौतमः । भृगुस्तु गालवो गर्गो जातूकर्ण्यः पराशरः ॥ १५ ॥ आपस्तम्बो याज्ञवल्क्यो दक्षवाल्मीकिमुद्गलाः । शातातपश्च लिखितः शिलादः शंख उञ्छभुक् ॥ १६ ॥ जमदग्निश्च संवर्तो मतंगो भरतोंऽशुमान् । व्यासः कात्यायनः कुत्सः शौनकस्तु श्रुतः शुकः ॥ १७ ॥ ऋष्यशृङ्गोऽथ दुर्वासाः शुचिर्नारदतुम्बुरुः । उत्तंको वामदेवश्च पवनोऽसितदेवलौ ॥ १८ ॥ सालङ्कायनहारीतौ विश्वामित्रोऽथ भार्गवः । मृकण्डः सह पुत्रेण पर्वतो दारुकस्तथा ॥ १९ ॥ धौम्योपमन्युवत्साद्या मुनयो मुनिकन्यकाः । तच्छान्त्यर्थं समाजग्मुर्धन्यं विश्वानराश्रमम् ॥ २० ॥ मरीचि, अत्रि, पुलह, पुलस्त्य, क्रतु, अंगिरा, वसिष्ठ, कश्यप, अगस्त्य, विभाण्ड, माण्डवीपुत्र लोमश, रोमचरण, भरद्वाज, गौतम, भृगु, गालव, गर्ग, जातूकर्ण्य, पराशर, आपस्तम्ब, याज्ञवल्क्य, दक्ष, वाल्मीकि, मुद्गल, शातातप, लिखित, शिलाद, उंछवृत्तिसे जीविका चलानेवाले शंख, जमदग्नि, संवर्त, मतंग, भरत, अंशुमान्, व्यास, कात्यायन, कुत्स, शौनक, सुश्रुत, शुक, ऋष्यशृंग, दुर्वासा, शुचि, नारद, तुम्बुरु, उत्तंक, वामदेव, पवन, असित, देवल, सालंकायन, हारीत, विश्वामित्र, भार्गव, अपने पुत्र [मार्कण्डेय] के साथ मृकण्ड, पर्वत, दारुक, धौम्य, उपमन्यु, वत्स आदि मुनिगण तथा मुनिकन्याएँ उस बालककी [अदृष्ट] शान्तिके लिये विश्वानरके प्रशंसनीय आश्रमपर आ गये ॥ १४-२० ॥ ब्रह्मा बृहस्पतियुतो देवो गरुडवाहनः । नन्दिभृङ्गिसमायुक्तो गौर्या सह वृषध्वजः ॥ २१ ॥ महेन्द्रमुख्या गीर्वाणा नागाः पातालवासिनः । रत्नान्यादाय बहुशः ससरित्का महाब्धयः ॥ २२ ॥ स्थावरा जंगमं रूपं धृत्वा याताः सहस्रशः । महामहोत्सवे तस्मिन् बभूवाकालकौमुदी ॥ २३ ॥ बृहस्पतिसहित ब्रह्मा तथा भगवान् विष्णु, नन्दी, भंगी तथा पार्वतीसहित शंकर, महेन्द्र आदि देवता, पातालवासी नागगण एवं अनेक प्रकारके रत्न लेकर नदियोंसहित समुद्र वहाँ गये और स्थावर [पर्वत आदि] हजारोंकी संख्यामें जंगमरूप धारणकर वहाँ आये । उस महोत्सवमें अचानक असमयमें चाँदनी उत्पन्न हो गयी ॥ २१–२३ ॥ जातकर्म स्वयं तस्य कृतवान्विधिरानतः । श्रुतिं विचार्य्य तद्रूपं नाम्ना गृहपतिस्त्वयम् ॥ २४ ॥ इति नाम ददौ तस्मै देयमेकादशेऽहनि । नामकर्मविधानेन तदर्थश्रुतिमुच्चरन् ॥ २५ ॥ चतुर्निगममन्त्रोक्तैराशीर्भिरभिनन्द्य च । समयाद्धं समारुह्य सर्वेषां च पितामहः ॥ २६ ॥ कृत्वा बालोचितां रक्षां लौकिकीं गतिमाश्रितः । आरुह्य यानं स्वन्धाम हरोऽपि हरिणा ययौ ॥ २७ ॥ उसके बाद ब्रह्माने विनम्र होकर स्वयं उसका जातकर्म-संस्कार किया, फिर वेदविधिका विचार करके ग्यारहवें दिन उसके रूपको देखकर उसका नाम गृहपति रखा । उन्होंने नामकरणके समय श्रुतिके मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए चारों वेदोंके चार मन्त्रोंसे उसे आशीर्वाद देकर लौकिक रीतिका आश्रय लेकर [रक्षामन्त्रोंसे] उसकी बालोचित रक्षा सम्पन्न की और हंसपर सवार हो सबके पितामह वे ब्रह्माजी अपने धामको चले गये । इसी प्रकार विष्णुके साथ शंकर भी अपने वाहनपर सवार हो अपने लोकको चले गये ॥ २४-२७ ॥ अहो रूपमहो तेजस्त्वहो सर्वांगलक्षणम् । अहो शुचिष्मतीभाग्यमाविरासीत्स्वयं हरः ॥ २८ ॥ अथवा किमिदं चित्रं शर्वभक्तजनेष्वहो । स्वयमाविरभूद्रुद्रो ययो रुद्रस्तदर्चितः ॥ २९ ॥ वे आपसमें विचार कर रहे थे कि अहो ! कैसा इसका रूप है, इसका विलक्षण तेज कैसा है और इसके सभी अंगलक्षण कैसे हैं, देखो शुचिष्मती कैसी भाग्यवती है कि [इसके गर्भसे] साक्षात् शिवजी प्रकट हो गये अथवा शिवजीके भक्तोंमें इस प्रकारकी घटना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; जिससे उनके द्वारा अर्चित रुद्र स्वयं प्रकट हो गये ॥ २८-२९ ॥ इति स्तुवन्तस्तेन्योऽन्यं सम्प्रहृष्टतनूरुहाः । विश्वानरं समापृच्छ्य जग्मुः सर्वे यथागतम् ॥ ३० ॥ इस प्रकार आपसमें प्रशंसा करते हुए पुलकित रोमोंवाले सभी देवता विश्वानरसे आज्ञा ले जिस प्रकार आये थे, उसी प्रकार चले गये ॥ ३० ॥ अतः पुत्रं समीहन्ते गृहस्थाश्रमवासिनः । पुत्रेण लोकाञ्जयति श्रुतिरेषा सनातनी ॥ ३१ ॥ पुत्रवान् व्यक्ति पुत्रसे लोकोंको जीतता है-यह सनातनी श्रुति है, इसीलिये समस्त गृहस्थ पुत्रकी कामना करते हैं ॥ ३१ ॥ अपुत्रस्य गृहं शून्यमपुत्रस्यार्जनं वृथा । अपुत्रस्य तपश्छिन्नं नो पवित्रत्यपुत्रतः ॥ ३२ ॥ पुत्रहीनका घर सूना है, पुत्रहीनका धन कमाना व्यर्थ है, अपुत्रका तप खण्डित है, जिसको पुत्र नहीं है, वह कभी पवित्र नहीं होता ॥ ३२ ॥ न पुत्रात्परमो लाभो न पुत्रात्परमं सुखम् । न पुत्रात्परमं मित्रं परत्रेह च कुत्रचित् ॥ ३३ ॥ पुत्रसे बढ़कर कोई परम लाभ नहीं, पुत्रसे बढ़कर कोई परम सुख नहीं और इस लोक तथा परलोकमें पुत्रसे बढ़कर कोई परम मित्र नहीं है ॥ ३३ ॥ निष्क्रमोऽथ चतुर्थेऽस्य मासि पित्रा कृतो गृहात् । अन्नप्राशनमब्दार्द्धे चूडार्द्धे चार्थवत्कृता ॥ ३४ ॥ चौथे महीनेमें गृहपतिके पिताने उसका गृहनिष्क्रमण संस्कार किया । फिर छठे महीनेमें उसका विधिपूर्वक अन्नप्राशन और वर्ष पूरा होनेपर चूडाकरणसंस्कार किया ॥ ३४ ॥ कर्णवेधं ततः कृत्वा श्रवणर्क्षे स कर्मवित् । ब्रह्मतेजोभिवृद्ध्यर्थं पञ्चमेऽब्दे व्रतं ददौ ॥ ३५ ॥ इसके बाद उस कर्मवेत्ताने श्रवणनक्षत्रमें कर्णवेध करके उसके ब्रह्मतेजकी अभिवृद्धिके लिये पाँच वर्षकी अवस्थामें यज्ञोपवीत-संस्कार किया ॥ ३५ ॥ उपाकर्मं ततः कृत्वा वेदानध्यापयत्सुधीः । अब्दं वेदान्स विधिनाध्यैष्ट सांगपदक्रमान् ॥ ३६ ॥ पुनः बुद्धिमान् पिताने उपाकर्मकर उसे वेदोंका अध्ययन कराया । इस प्रकार तीन वर्षमें ही उसने विधिपूर्वक अंग, पद तथा क्रमसहित समस्त वेदोंको पढ़ लिया ॥ ३६ ॥ विद्याजातं समस्तं च साक्षिमात्रं गुरोमुखात् । विनयादिगुणानाविष्कुर्वञ्जग्राह शक्तिमान् ॥ ३७ ॥ प्रतिभाशाली उस बालकने गुरु पिताके मुखसे समस्त विद्याएँ अपने विनय आदि गुणोंको प्रकाशित करते हुए मात्र साक्षिभावसे ग्रहण कर लिया ॥ ३७ ॥ ततोऽथ नवमे वर्षे पित्रोः शुश्रूषणे रतम् । वैश्वानरं गृहपतिं द्रष्टुमायाच्च नारदः ॥ ३८ ॥ तदुपरान्त नौवें वर्ष में माता-पिताकी सेवामें निरत गृहपति तथा उसके पिता विश्वानरको देखनेके लिये नारदजी [वहाँ] आये ॥ ३८ ॥ विश्वानरोटजं प्राप्य देवर्षिस्तं तु कौतुकी । अपृच्छत्कुशलं तत्र गृहीतार्धासनः क्रमात् ॥ ३९ ॥ ततः सर्वं च तद्भाग्यं पुत्रधर्मं च सम्मुखे । वैश्वानरं समवदत्स्मृत्वा शिवपदाम्बुजम् ॥ ४० ॥ कौतुकी देवर्षि नारदजीने विश्वानरकी पर्णशालामें प्रवेशकर अर्घ्य, आसन आदि क्रमसे ग्रहणकर उनसे कुशल-मंगल पूछा और उसके बाद शिवके चरणोंका ध्यान करके उनके सामने ही उनके समग्र भाग्य तथा पुत्रधर्मका वर्णन विश्वानरसे किया ॥ ३९-४० ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्तो मुनिना बालः पित्रोराज्ञामवाप्य सः । प्रणम्य नारदं श्रीमान् भक्त्या प्रह्व उपाविशत् ॥ ४१ ॥ नन्दीश्वर बोले-[हे सनत्कुमार ! तदुपरान्त] मुनि नारदजीके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर वह शोभासम्पन्न बालक माता-पिताकी आज्ञा प्राप्तकर भक्तिपूर्वक उनको नम्रतासे प्रणामकर बैठ गया ॥ ४१ ॥ वैश्वानर समभ्येहि ममोत्संगे निषीद भोः । लक्षणानि परीक्षेऽहं पाणिं दर्शय दक्षिणम् ॥ ४२ ॥ ततो दृष्ट्वा तु सर्वं हि तालुजिह्वादि नारदः । विश्वानरं समवदच्छिवप्रेरणया सुधीः ॥ ४३ ॥ नारदजी बोले-हे वैश्वानर ! मैं तुम्हारे लक्षणोंकी परीक्षा करूँगा, तुम आओ, मेरी गोदमें बैठ जाओ और अपना दाहिना हाथ मुझे दिखाओ । तब विद्वान् नारदजी बालकके तालु, जिह्वा आदिको देखकर शिवजीकी प्रेरणासे विश्वानरसे कहने लगे- ॥ ४२-४३ ॥ नारद उवाच - विश्वानर मुने वच्मि शृणु पुत्रांकमादरात् । सर्वांगस्वङ्कवान्पुत्रो महालक्षणवानयम् ॥ ४४ ॥ किन्तु सर्वगुणोपेतं सर्वलक्षणलक्षितम् । सम्पूर्णनिर्मलकलं पालयेद्विधुवद्विधिः ॥ ४५ ॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन रक्षणीयस्त्वसौ शिशु । ः गुणोऽपि दोषतां याति वक्रीभूते विधातरि ॥ ४६ ॥ शंकेऽस्य द्वादशे मासि प्रत्यूहो विद्युदग्नितः । इत्युक्त्वा नारदोऽगच्छद्देवलोकं यथागतम् ॥ ४७ ॥ नारदजी बोले-हे विश्वानर ! हे मुने ! मैं आपके पुत्रके सब लक्षणोंको कहता हूँ, उसे आदरपूर्वक सुनिये, आपके पुत्रके सभी अंग उत्तम लक्षणोंसे युक्त हैं, इसलिये यह अत्यन्त भाग्यशाली है । किंतु इसके सर्वगुणसम्पन्न, सम्पूर्ण शुभ लक्षणोंसे समन्वित और चन्द्रमाके समान निर्मल कलाओंसे सुशोभित होनेपर भी विधाता ही इसकी रक्षा करें । इसलिये सब तरहके उपायोंसे इस बालककी रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि विधाताके विपरीत होनेपर गुण भी दोष हो जाता है । मुझे इस बातकी शंका है कि बारहवें वर्षमें इसे बिजली अथवा अग्निसे विघ्न है । ऐसा कहकर नारदजी जैसे आये थे, वैसे देवलोकको चले गये ॥ ४४-४७ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां गृहपत्यवतारोपाख्याने गृहपत्यवतारवर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें गृहपत्यवतारवर्णन नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १४ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |