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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

तृतीया शतरुद्रसंहितायां

पञ्चदशोऽध्यायः

गृहपत्यवतारवर्णनम् -
भगवान् शिवके गृहपति नामक अग्नीश्वरलिंगका माहात्म्य -


नन्दीश्वर उवाच -
विश्वानरः सपत्नीकः तच्छ्रुत्वा नारदेरितम् ।
तदेवम्मन्यमानोऽभूद्वज्रपातं सुदारुणम् ॥ १ ॥
नन्दीश्वर बोले-[हे सनत्कुमार !] नारदजीकी बात सुनकर स्त्रीसहित विश्वानरने उसे अत्यन्त दारुण वज्रपातके समान समझा ॥ १ ॥

हा हतोस्मीति वचसा हृदयं समताडयत् ।
मूर्च्छामवाप महतीं पुत्रशोकसमाकुलः ॥ २ ॥
शुचिष्मत्यपि दुःखार्ता रुरोदातीव दुःसहम् ।
अतिस्वरेण हारावैरत्यन्तं व्याकुलेन्द्रिया ॥ ३ ॥
'हाय मैं मर गया'-ऐसा कहकर वे छाती पीटने लगे और पुत्रके शोकसे सन्तप्त होकर मूच्छित हो गये । शुचिष्मती भी अत्यधिक दुःखित होकर ऊँचे स्वरमें हाहाकार करती हुई व्याकुल इन्द्रियोंवाली होकर रोने लगी ॥ २-३ ॥

श्रुत्वार्तनादमिति विश्वनरोपि मोहं
    हित्वोत्थितः किमिति किंत्विति किं किमेतत् ।
उच्चैर्वदन् गृहपतिः क्व स मे बहिस्थः
    प्राणोन्तरात्मनिलयः सकलेंद्रियेशः ॥ ४ ॥
ततो दृष्ट्‍वा स पितरौ बहुशोकसमावृतौ ।
स्मित्वोवाच गृहपतिः सबालः शंकरांशजः ॥ ५ ॥
शुचिष्मतीके विलापको सुनकर विश्वानर भी मच्छाका त्याग करके उठकर अरे ! यह क्या हुआ, यह क्या हुआ, इस प्रकार ऊँचे स्वरमें रोते हुए बोले-हाय ! मेरी सम्पूर्ण इन्द्रियोंका स्वामी, मेरा बाहर विचरनेवाला प्राण तथा मेरे आत्मामें निवास करनेवाला मेरा पुत्र गृहपति कहाँ है ? तब अपने माता-पिताको अत्यधिक शोकसे व्याकुल देखकर शंकरजीके अंशसे उत्पन्न वह बालक गृहपति मुसकराकर कहने लगा- ॥ ४-५ ॥

गृहपतिरुवाच -
हे मातस्तात किं जातं कारणं तद्वदाधुना ।
किमर्थं रुदितोऽत्यर्थं त्रासस्तादृक् कुतो हि वाम् ॥ ६ ॥
गृहपति बोला....हे माता ! हे पिता ! क्या हुआ है ? जिससे कि आपलोग इतने दुखी होकर रो रहे हैं, इसका कारण मुझे बताइये । इस तरह आपलोग भयभीत क्यों हो रहे हैं ? ॥ ६ ॥

न मां कृतवपुस्त्राणं भवच्चरणरेणुभिः ।
कालः कलयितुं शक्तो वराकीं चिञ्चलाल्पिका ॥ ७ ॥
आपलोगोंकी चरणधूलिसे सुरक्षित मेरे शरीरको काल भी मारने में समर्थ नहीं हो सकता. फिर अत्यन्त अल्प बिजली मेरा कर ही क्या सकती है ? ॥ ७ ॥

प्रतिज्ञां शृणुतान्तातौ यदि वां तनयो ह्यहम् ।
करिष्येहं तथा येन मृत्युस्त्रस्तो भविष्यति ॥ ८ ॥
मृत्युञ्जयं समाराध्य सर्वज्ञं सर्वदं सताम् ।
जपिष्यामि महाकालं सत्यं तातौ वदाम्यहम् ॥ ९ ॥
हे माता-पिता ! आपलोग मेरी प्रतिज्ञा सुनें, यदि मैं आप दोनोंका पुत्र हूँ, तो ऐसा कार्य करूँगा, जिससे मृत्यु भी सन्त्रस्त हो जायगी । हे माता-पिता ! मैं सत्पुरुषोंको सब कुछ देनेवाले सर्वज्ञ मृत्युंजय भगवानकी भलीभाँति आराधना करके महाकालको भी जीत लूँगा, यह मैं सत्य कह रहा हूँ । ८-९ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इति श्रुत्वा वचस्तस्य जारितौ द्विजदम्पती ।
अकालमृतवर्षौघैर्गततापौ तदोचतुः ॥ १० ॥
नन्दीश्वर बोले-उसकी इस प्रकारकी बातको सुनकर मुरझाये हुए द्विजदम्पती अकालमें हुई अमृतकी सघन वृष्टि के समान दु:खरहित होकर कहने लगे ॥ १० ॥

द्विजदम्पती ऊचतुः -
पुनर्ब्रूहि पुनर्ब्रूहि कीदृक् कीदृक् पुनर्वद ।
कालः कलयितुं नालं वराकी चञ्चलास्ति का ॥ ११ ॥
आवयोस्तापनाशाय महोपायस्त्वयेरितः ।
मृत्युञ्जयाख्यदेवस्य समाराधनलक्षणः ॥ १२ ॥
द्विजदम्पती बोले-हे पुत्र !] फिर कहो ! फिर कहो ! तुमने क्या कहा कि मुझे काल भी मारने में समर्थ नहीं है । फिर बेचारी बिजली कौन है ? तुमने हमलोगोंके शोकका निवारण करनेके लिये मृत्युंजयदेवताका समाराधनरूप उपाय उचित ही कहा है ॥ ११-१२ ॥

तद्वच्च शरणं शम्भोर्नातः परतरं हि तत् ।
मनोरथपथातीतकारिणः पापहारिणः ॥ १३ ॥
शिवजीका आश्रय ही सचमुच ऐसा है, उनसे बड़ा कोई नहीं है, वे सभी पापोंको दूर करनेवाले एवं मनोरथमार्गसे भी परे कामनाको पूर्ण करनेवाले हैं ॥ १३ ॥

किं न श्रुतं त्वया तात श्वेतकेतुं यथा पुरा ।
पाशितं कालपाशेन ररक्ष त्रिपुरान्तकः ॥ १४ ॥
शिलादतनयं मृत्युग्रस्तमष्टाब्दमात्रकम् ।
शिवो निजजनञ्चक्रे नन्दिनं विश्वनंदिनम् ॥ १५ ॥
हे तात ! क्या तुमने नहीं सुना है कि पूर्वकालमें जब श्वेतकेतु कालपाशमें बाँध लिया गया था, तब शिवजीने उसकी रक्षा की थी ? शिलादपुत्र नन्दीश्वर जो केवल आठ वर्षका बालक था, शिवजीने कालपाशसे छुड़ाकर उसे अपना गण तथा विश्वका रक्षक बना दिया ॥ १४-१५ ॥

क्षीरोदमथनोद्भूतं प्रलयानलसन्निभम् ।
पीत्वा हलाहलं घोरमरक्षद्भुवनत्रयम् ॥ १६ ॥
क्षीरसागरके मन्थनसे उत्पन्न तथा प्रलयाग्निके समान महाभयानक हालाहल विषको पीकर शिवजीने ही तीनों लोकोंकी रक्षा की थी ॥ १६ ॥

जलंधरं महादर्पं हृतत्रैलोक्यसम्पदम् ।
रुचिरांगुष्ठरेखोत्थचक्रेण निजघान यः ॥ १७ ॥
य एकेषु निपातोत्थज्वलनैस्त्रिपुरं पुरा ।
त्रैलोक्यैश्वर्यसम्मूढं शोषयामास भानुना ॥ १८ ॥
कामं दृष्टिनिपातेन त्रैलोक्यविजयोर्जितम् ।
निनायानंगपदवीं वीक्ष्यमाणेष्वजादिषु ॥ १९ ॥
तं ब्रह्माद्यैककर्तारं मेघवाहनमच्युतम् ।
प्रयाहि पुत्र शरणं विश्वरक्षामणिं शिवम् ॥ २० ॥
जिन्होंने त्रिलोकीकी सम्पत्तियोंका हरण करनेवाले महान अभिमानी जलन्धर नामक दैत्यको अपने सन्दर अँगूठेकी रेखासे उत्पन्न चक्रके द्वारा मार डाला । जिन्होंने त्रिलोककी सम्पदाको प्राप्तकर मोहित हुए त्रिपुरको एक ही बाण चलाकर उससे उत्पन्न हुई ज्वालाओंवाली अग्निसे सुखा डाला और जिन्होंने त्रिलोकके विजयसे उन्मत्त हुए कामदेवको ब्रह्मा आदिके देखते-ही-देखते दृष्टिनिक्षेपमात्रसे अनंग बना दिया । हे पुत्र ! तुम ब्रह्मा आदिके एकमात्र जन्मदाता, मेघपर सवार होनेवाले, अविनाशी तथा विश्वकी रक्षारूप मणि उन शिवजीकी शरणमें जाओ ॥ १७–२० ॥

नन्दीश्वर उवाच -
पित्रोरनुज्ञां प्राप्येति प्रणम्य चरणौ तयोः ।
प्रादक्षिण्यमुपावृत्य बह्वाश्वास्य विनिर्ययौ ॥ २१ ॥
सम्प्राप्य काशीं दुष्प्रापां ब्रह्मनारायणादिभिः ।
महासंवर्तसन्तापहन्त्रीं विश्वेशपालिताम् ॥ २२ ॥
स्वर्धुन्या हारयष्ट्येव राजिता कण्ठभूमिषु ।
विचित्रगुणशालिन्या हरपत्न्या विराजिताम् ॥ २३ ॥
नन्दीश्वर बोले-हे मुने ! माता-पिताकी आज्ञा पाकर उनके चरणोंमें प्रणाम करके उनकी प्रदक्षिणा करके और उन्हें बहुत तरहसे आश्वासन देकर वह वहाँसे चल दिया और उस काशीपुरीमें पहुँचा, जो ब्रह्मा, नारायण आदि देवोंके लिये दुर्लभ, महाप्रलयके सन्तापका विनाश करनेवाली, विश्वेश्वरद्वारा पालित, कण्ठ अर्थात् तटप्रदेशमें हारकी तरह पड़ी हुई गंगाजीसे सुशोभित और अद्‌भुत गुणोंसे सम्पन्न हरपत्नी [भगवती गिरिजा]-से शोभायमान है ॥ २१-२३ ॥

तत्र प्राप्य स विप्रेशः प्राग्ययौ मणिकर्णिकाम् ।
तत्र स्नात्वा विधानेन दृष्ट्‍वा विश्वेश्वरं प्रभुम् ॥ २४ ॥
साञ्जलिर्नतशीर्षोऽसौ महानन्दान्वितः सुधीः ।
त्रैलोक्यप्राणसन्त्राणकारिणं प्रणनाम ह ॥ २५ ॥
आलोक्यालोक्य तल्लिङ्‌गं तुतोष हृदये मुहुः ।
परमानंदकंदाढ्यं स्फुटमेतन्न संशयः ॥ २६ ॥
वहाँ पहुँचकर वे विप्रवर पहले मणिकर्णिका गये । वहाँ विधिपूर्वक स्नान करके प्रभु विश्वेश्वरका दर्शन करके उन बुद्धिमान्ने परम आनन्दसे युक्त होकर तीनों लोकोंके प्राणोंकी रक्षा करनेवाले शिवजीको हाथ जोड़कर सिर झुकाकर प्रणाम किया । वे बार-बार उसे देखकर हर्षित हो रहे थे और मनमें विचार कर रहे थे कि सचमुच यह लिंग परम आनन्दकन्दसे परिपूर्ण है, यह स्पष्ट ही है, इसमें संशय नहीं है ॥ २४-२६ ॥

अहो न मत्तो धन्योस्ति त्रैलोक्ये सचराचरे ।
यदद्राक्षिषमद्याहं श्रीमद्विश्वेश्वरं विभुम् ॥ २७ ॥
अहो ! इस चराचर त्रिलोकीमें मुझसे बढ़कर कोई धन्य नहीं है, जो कि मैंने आज ऐश्वर्यमय तथा सर्वव्यापी विश्वेश्वरका दर्शन किया ॥ २७ ॥

मम भाग्योदयायैव नारदेन महर्षिणा ।
पुरागत्य तथोक्तं यत्कृतकृत्योस्म्यहं ततः ॥ २८ ॥
मेरे भाग्योदयके लिये ही महर्षि नारदने जो मुझे आकर पहले ही बता दिया था, जिससे आज मैं [विश्वेश्वरका दर्शन प्राप्तकर] कृतकृत्य हो गया ॥ २८ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इत्यानन्दामृतरसैर्विधाय स हि पारणम् ।
ततः शुभेह्नि संस्थाप्य लिङ्‌गं सर्वहितप्रदम् ॥ २९ ॥
नन्दीश्वर बोले-मुने ! इस प्रकार आनन्दामृतरूपी रसोंद्वारा पारण करके गृहपतिने शुभ दिनमें सर्वहितप्रद शिवलिंगकी स्थापना की ॥ २९ ॥

जग्राह नियमान्घोरान् दुष्करानकृतात्मभिः ।
अष्टोत्तरशतैः कुम्भैः पूर्णैर्गङ्‌गाम्भसा शुभैः ॥ ३० ॥
संस्नाप्य वाससा पूतैः पूतात्मा प्रत्यहं शिवम् ।
नीलोत्पलमयीम्मालां समर्पयति सोऽन्वहम् ॥ ३१ ॥
अष्टाधिकसहस्रैस्तु सुमनोभिर्विनिर्मिताम् ।
तत्पश्चात् अजितेन्द्रियोंके लिये अति दुष्कर कठोर नियमोंको ग्रहणकर अनुष्ठानपरायण हुआ पवित्र चित्तवाला वह प्रतिदिन वस्त्रोंसे छाने गये गंगाजलसे पूर्ण एक सौ आठ पवित्र घड़ोंसे शिवजीको स्नान कराने लगा और एक हजार आठ नीलकमलोंसे बनी हुई माला समर्पित करने लगा ॥ ३०-३१ १/२ ॥

स पक्षे वाथ वा मासे कन्दमूलफलाशनः ॥ ३२ ॥
शीर्णपर्णाशनैर्धीरः षण्मासं सम्बभूव सः ।
षण्मासं वायुभक्षोऽभूत्षण्मासं जलबिन्दुभुक् ॥ ३३ ॥
पहले वह पक्षमें [एक बार फिर महीने-महीने में फल-मूल-कन्दको खाकर [छ: महीनेतक] रहा । इसके बाद अत्यन्त धीर वह गृहपति पुनः छः मास सूखे पत्ते खाकर और छः महीने वायु पीकर, फिर छ: महीने एक बूंद जल पीकर तपस्या करनेमें लगा रहा ॥ ३२-३३ ॥

एवं वर्षवयस्तस्य व्यतिक्रान्तं महात्मनः ।
शिवैकमनसो विप्रास्तप्यमानस्य नारद ॥ ३४ ॥
जन्मतो द्वादशे वर्षे तद्वचो नारदेरितम् ।
सत्यं करिष्यन्निव तमभ्यगात्कुलिशायुधः ॥ ३५ ॥
उवाच च वरं ब्रूहि दद्मि त्वन्मनसि स्थितम् ।
अहं शतक्रतुर्विप्र प्रसन्नोस्मि शुभव्रतैः ॥ । ३६ ॥
हे नारद ! इस प्रकार एकमात्र शिवजीको मनमें धारण करके तपमें निरत उस महात्माके दो वर्ष बीत गये । हे शौनक ! तब जन्मसे बारहवें वर्षमें देवर्षि नारदद्वारा कही गयी बातको मानो सत्य करनेकी इच्छासे स्वयं इन्द्रदेव उसके पास आये और बोले-हे विप्र ! मैं इन्द्र इस उत्तम तपस्यासे अत्यन्त प्रसन्न हो गया हूँ, तुम्हारे मनमें जो अभिलषित हो, उस वरको माँगो, मैं प्रदान कर रहा हूँ ॥ ३४-३६ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इत्याकर्ण्य महेन्द्रस्य वाक्यं मुनिकुमारकः ।
उवाच मधुरं धीरः कीर्तयन्मधुराक्षरम् ॥ ३७ ॥
नन्दीश्वर बोले- इन्द्रके इस वचनको सुनकर महाधीर मुनिकुमारने मधुर मधुराक्षरमयी वाणीमें कहा- ॥ ३७ ॥

गृहपतिरुवाच -
मघवन् वृत्रशत्रो त्वां जाने कुलिशपाणिनम् ।
नाहं वृणे वरन्त्वत्तः शंकरो वरदोऽस्ति मे ॥ ३८ ॥
गृहपति बोला-हे मघवन् ! हे वृत्रशत्रो ! मैं वज्र धारण करनेवाले आपको जानता हूँ । मैं आपसे वर नहीं माँगता, मुझे वर देनेवाले तो शिवजी हैं ॥ ३८ ॥

इन्द्र उवाच -
न मत्तः शङ्करस्त्वन्यो देवदेवोऽस्म्यहं शिशो ।
विहाय बालिशत्वं त्वं वरं याचस्व मा चिरम् ॥ ३९ ॥
इन्द्र बोले-हे बालक ! मेरे सिवा कोई दूसरा शिव नहीं है, मैं सभी देवताओंका भी देव हूँ । अतः तुम अपना लड़कपन त्यागकर [मुझसे] वर माँगो और देर मत करो ॥ ३९ ॥

गृहपतिरुवाच -
गच्छाहल्यापतेऽसाधो गोत्रारे पाकशासन ।
न प्रार्थये पशुपतेरन्यं देवान्तरं स्फुटम् ॥ ४० ॥
गृहपति बोला-तुम अहल्याके शीलको नष्ट करनेवाले असाधु हो, पाक नामक असुरका वध करनेवाले पर्वतोंके शत्रु हे इन्द्र ! तुम चले जाओ, यह स्पष्ट है कि मैं शिवजीके अतिरिक्त और किसी देवतासे वरकी प्रार्थना नहीं करता ॥ ४० ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इति तस्य वचः श्रुत्वा क्रोध संरक्तलोचनः ।
उद्यम्य कुलिशं घोरं भीषयामास बालकम् ॥ ४१ ॥
नन्दीश्वर बोले-उसकी यह बात सुनते ही क्रोधसे लाल नेत्रोंवाले इन्द्र अपना घोर वज्र उठाकर बालकको भयभीत करने लगे ॥ ४१ ॥

स दृष्ट्‍वा बालको वज्रं विद्युज्ज्वालासमाकुलम् ।
स्मरन्नारद वाक्यं च मुमूर्च्छ भयविह्वलः ॥ ४२ ॥
अथ गौरीपतिः शम्भुराविरासीत्तमोनुदः ।
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रं ते स्पर्शैः सञ्जीवयन्निव ॥ ४३ ॥
विद्युज्ज्वालाके समान प्रज्वलित वज्रको देखकर नारदकी बातका स्मरण करता हुआ वह बालक भयसे व्याकुल होकर मूर्छित हो गया । उसके पश्चात् अन्धकारका नाश करनेवाले गौरीपति शिवजी प्रकट हो गये और हाथके स्पर्शसे उसे जीवित-सा करते हुए उससे बोले उठो, उठो, तुम्हारा कल्याण हो ॥ ४२-४३ ॥

उन्मील्य नेत्रकमले सुप्ते इव दिनक्षये ।
अपश्यदग्रे चोत्थाय शम्भुमर्कशताधिकम् ॥ ४४ ॥
भाले लोचनमालोक्य कण्ठे कालं वृषध्वजम् ।
वामाङ्गसन्निविष्टाद्रितनयं चन्द्रशेखरम् ॥ ४५ ॥
कपर्देन विराजन्तं त्रिशूलाजगवायुधम् ।
स्फुरत्कर्पूरगौरांगं परिणद्धगजाजिनम् ॥ ४६ ॥
परिज्ञाय महादेवं गुरुवाक्यत आगमात् ।
हर्षबाष्पाकुलासन्नकण्ठरोमाञ्चकञ्चुकः ॥ ४७ ॥
क्षणं च गिरिवत्तस्थौ चित्रकूटत्रिपुत्रकः ।
यथा तथा सुसम्पन्नो विस्मृत्यात्मानमेव च ॥ ४८ ॥
तब [उस अपूर्व स्पर्शको प्राप्त करके] उसने रात्रिमें सोये हुएके समान अपने नेत्रकमलोंको खोलकर उठ करके अपने आगे सैकड़ों सूर्योसे भी अधिक प्रकाशमान शिवजीको देखा । उनके मस्तकमें नेत्र शोभित हो रहा था, कण्ठमें विषकी कालिमा थी, वे बैलपर सवार थे, उनके बायीं ओर भगवती पार्वती स्थित थीं, उनके मस्तकपर अर्धचन्द्र सुशोभित हो रहा था, वे जटाजूटसे युक्त थे, त्रिशूल एवं अजगव धनुष धारण किये हुए थे । उनका गौर शरीर कपूरके समान उज्ज्वल था और वे गजचर्म धारण किये हुए थे । तब गुरुवाक्य तथा आगमप्रमाणसे उन्हें महादेव जानकर हर्षातिरेकसे उसका कण्ठ ऊँध गया और शरीर रोमांचित हो गया । उसकी स्मृति लुप्त हो गयी । फिर भी वह जैसेतैसे क्षणभरके लिये चित्रलिखित पुतलेके समान स्तम्भित हो अवाक् खड़ा रहा ॥ ४४-४८ ॥

न स्तोतुं न नमस्कर्तुं किञ्चिद्विज्ञप्तिमेव च ।
यदा स न शशाकालं तदा स्मित्वाह शङ्करः ॥ ४९ ॥
जब वह न तो स्तुति, न नमस्कार और न कुछ कहनेमें ही समर्थ रहा, तब शिवजीने मुसकराकर उससे कहा- ॥ ४९ ॥

ईश्वर उवाच -
शिशो गृहपते शक्राद्वज्रोद्यतकरादहो ।
ज्ञात भीतोऽसि मा भैषीर्जिज्ञासा ते मया कृता ॥ ५० ॥
मम भक्तस्य नो शक्रो न वज्रं चान्तकोऽपि च ।
प्रभवेदिन्द्ररूपेण मयैव त्वम्विभीषितः ॥ ५१ ॥
ईश्वर बोले-हे बालक ! हे गृहपते ! मैंने समझ लिया कि तुम हाथमें वज्र लिये हुए इन्द्रसे डर गये हो, अब डरो मत ! यह तो मैंने ही तुम्हारी परीक्षा ली थी । मेरे भक्तको इन्द्र, वज्र अथवा काल भी नहीं डरा सकते हैं । यह तो मैंने ही इन्द्रका रूप धारणकर तुम्हें डराया था ॥ ५०-५१ ॥

वरन्ददामि ते भद्र त्वमग्निपदभाग्भव ।
सर्वेषामेव देवानां वरदस्त्वं भविष्यसि ॥ ५२ ॥
सर्वेषामेव भूतानां त्वमग्नेऽन्तश्चरो भव ।
धर्मराजेन्द्रयोर्मध्ये दिगीशो राज्यमाप्नुहि ॥ ५३ ॥
हे भद्र ! अब मैं तुम्हें वर प्रदान करता हूँ कि तुम अग्निका पद ग्रहण करनेवाले हो जाओ । तुम सभी देवताओंके वरदाता बनोगे । तुम सभी प्राणियोंके अन्दर [वैश्वानर नामकी] अग्नि बनकर विचरण करो और दक्षिण एवं पूर्व दिशाके मध्यमें [आग्नेयकोणका] दिगीश्वर बनकर राज्य करो ॥ ५२-५३ ॥

त्वयेदं स्थापितं लिङ्‌गं तव नाम्ना भविष्यति ।
अग्नीश्वर इति ख्यातं सर्वतेजोविबृंहणम् ॥ ५४ ॥
अग्नीश्वरस्य भक्तानां न भयं विद्युदग्निभिः ।
अग्निमांद्यभयं नैव नाकालमरणं क्वचित् ॥ ५५ ॥
तुम्हारे द्वारा स्थापित यह लिंग [आजसे] तुम्हारे ही नामसे [प्रसिद्ध] होगा । यह अग्नीश्वर नामवाला होगा, जो सभी तेजोंका विशिष्ट रूपसे अभिवर्धन करेगा । अग्नीश्वरके भक्तोंको विद्युत् एवं अग्निसे भय नहीं होगा । उन्हें अग्निमान्धका भय नहीं होगा और अकालमरण भी कभी नहीं होगा ॥ ५४-५५ ॥

अग्नीश्वरं समभ्यर्च्य काश्यां सर्वसमृद्धिदम् ।
अन्यत्रापि मृतो दैवाद्वह्निलोके महीयते ॥ ५६ ॥
सम्पूर्ण समृद्धियोंको देनेवाले इस अग्नीश्वर लिंगका काशीमें पूजन करके मनुष्य दैवयोगसे यदि कहीं भी मृत्युको प्राप्त होगा, तो उसे अग्निलोककी प्राप्ति हो जायगी ॥ ५६ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इत्युक्तानीय तद्‌बन्धून्पित्रोश्च परिपश्यतोः ।
दिक्पतित्वेऽभिषिच्याग्निं तत्र लिङ्‌गे शिवोऽविशत् ॥ ५७ ॥
नन्दीश्वर बोले-इस प्रकार कहकर शिवजीने गृहपतिके [माता-पिता एवं] बन्धुओंको बुलाकर उनके माता-पिताके देखते-देखते उस बालकको अग्निकोणके दिक्पालपदपर अभिषिक्तकर स्वयं उस लिंगमें प्रवेश किया ॥ ५७ ॥

इत्थमग्न्यवतारस्ते वर्णितो मे जनार्दनः ।
नाम्ना गृहपतिस्तात शंकरस्य परात्मनः ॥ ५८ ॥
हे तात ! इस प्रकार मैंने परमात्मा शिवके गृहपति नामक अग्निके रूपमें दुर्जनोंको पीड़ा देनेवाले अवतारका वर्णन किया ॥ ५८ ॥

चित्रहोत्रपुरी रम्या सुखदार्चिष्मती वरा ।
जातवेदसि ये भक्ता ते तत्र निवसन्ति वै ॥ ५९ ॥
चित्रहोत्र नामक सुखदायिनी, रम्य तथा प्रकाशमान पुरी है, जो लोग अग्निके भक्त हैं, वे वहाँ निवास करते हैं ॥ ५९ ॥

अग्निप्रवेशं ये कुर्युर्दृढसत्त्वा जितेन्द्रियाः ।
स्त्रियो वा सत्त्वसम्पन्नास्ते सर्वेप्यग्नितेजसः ॥ ६० ॥
जितेन्द्रिय एवं दृढ़ सत्व भाववाले पुरुष अथवा सत्त्वसम्पन्न स्त्रियाँ उस अग्निलोकमें प्रवेश करती हैं, वे सभी अग्निके समान तेजस्वी होते हैं ॥ ६० ॥

अग्निहोत्ररता विप्राः स्थापिता ब्रह्मचारिणः ।
पञ्चग्निवर्तिनोऽप्येवमग्निलोकेऽग्निवर्चसः ॥ ६१ ॥
अग्निहोत्रमें तत्पर ब्राह्मण, अग्निको स्थापित करनेवाले ब्रह्मचारी तथा पंचाग्नि तापनेवाले तपस्वी लोग भी अग्निके समान तेजस्वी होकर अग्निलोकमें निवास करते हैं ॥ ६१ ॥

शीते शीतापनुत्त्यै यस्त्वेधोभारान्प्रयच्छति ।
कुर्यादग्नीष्टिकां वाथ स वसेदग्निसन्निधौ ॥ ६२ ॥
अनाथस्याग्निसंस्कारं यः कुर्याच्छ्रद्धयान्वितः ।
अशक्तः प्रेरयेदन्यं सोग्निलोके महीयते ॥ ६३ ॥
जो शीतकालमें शीतको दूर करनेके लिये काष्ठसमूहका दान करता है अथवा ईंटोंसे अग्निकुण्डका निर्माण करता है, वह अग्निके सान्निध्यमें निवास करता है । जो श्रद्धायुक्त होकर अनाथ व्यक्तिका अग्निसंस्कार करता है अथवा स्वयं अशक्त होनेपर [इसके लिये] दूसरेको प्रेरित करता है, वह अग्निलोकमें पूजित होता है ॥ ६२-६३ ॥

अग्निरेको द्विजातीनां निःश्रेयसकरः परः ।
गुरुर्देवो व्रतं तीर्थं सर्वमग्निर्विनिश्चितम् ॥ ६४ ॥
एकमात्र अग्निदेव ही द्विजातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य)-का परम कल्याण करनेवाले हैं । अग्नि ही उनके गुरु, देवता, व्रत, तीर्थ एवं सब कुछ हैं—ऐसा निश्चित है ॥ ६४ ॥

अपावनानि सर्वाणि वह्निसंसर्गतः क्षणात् ।
पावनानि भवन्त्येव तस्माद्यः पावकः स्मृतः ॥ ६५ ॥
अग्निके संसर्गमात्रसे क्षणभरमें ही सभी अपवित्र वस्तुएँ पवित्र हो जाती हैं, इसलिये इन्हें पावक कहा गया है ॥ ६५ ॥

अन्तरात्मा ह्ययं साक्षान्निश्चयो ह्याशुशुक्षणिः ।
मांसग्रासान्पचेत्कुक्षौ स्त्रीणां नो मांसपेशिकाम् ॥ ६६ ॥
ये अग्नि प्राणियोंके साक्षात् अन्तरात्मा हैं और निश्चय ही सब कुछ जला देनेवाले हैं । ये स्त्रियोंकी कुक्षिमें मांसके ग्रासोंको तो पचा देते हैं, किंतु उसी में रहनेवाले मांसपेशी (गर्भ)-को [दयावश] नहीं पचाते ॥ ६६ ॥

तैजसी शाम्भवी मूर्तिः प्रत्यक्षा दहनात्मिका ।
कर्त्री हर्त्री पालयित्री विनैतां किं विलोक्यते ॥ ६७ ॥
'ये अग्नि साक्षात् शिवकी तेजोमयी दहनात्मिका मूर्ति हैं । यही [अग्निरूपा मूर्ति] सृष्टि करनेवाली, विनाश करनेवाली एवं पालन करनेवाली है । इनके बिना कुछ नहीं दिखायी पड़ता है ॥ ६७ ॥

चित्रभानुरयं साक्षान्नेत्रन्त्रिभुवनेशितुः ।
अन्धं तमोमये लोके विनैनं कः प्रकाशनः ॥ ६८ ॥
ये अग्नि शिवजीके साक्षात् नेत्र हैं । अन्धकारसे पूर्ण इस तमोमय संसारको अग्निके बिना कौन प्रकाशित कर सकता है । ६८ ॥

धूपप्रदीपनैवेद्यपयोदधिघृतैक्षवम् ।
एतद्भुक्तं निषेवन्ते सर्वे दिवि दिवौकसः ॥ ६९ ॥
धूप, दीप, नैवेद्य, दूध, दही, घी एवं मिष्टान्नादि पदार्थ अग्निमें हवन करनेपर स्वर्गमे निवास करनेवाले देवगण उसे प्राप्त करते हैं ॥ ६९ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां
गृहपत्यवतारवर्णनं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें गृहपत्यवतार वर्णन नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १५ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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