![]() |
॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ तृतीया शतरुद्रसंहितायां
षोडशोध्यायः यक्षेश्वरावतारवर्णनम् -
यक्षेश्वरावतारका वर्णन - यक्षेश्वरावतारं च शृणु शंभोर्मुनीश्वर । गर्विणं गर्वहन्तारं सताम्भक्तिविवर्द्धनम् ॥ १ ॥ नन्दीश्वर बोले-हे मुनीश्वर ! अब आप [भगवान्] शम्भुके यक्षेश्वरावतारको सुनिये, जो अहंकारसे युक्त जनोंके गर्वको नष्ट करनेवाला तथा सज्जनोंकी भक्तिका संवर्धन करनेवाला है ॥ १ ॥ क्षीरोदधिं ममन्थुस्ते सुकृतस्वार्थसन्धयः ॥ २ ॥ पूर्वकालमें महाबलवान् देवता एवं दैत्योंने अपनेअपने स्वार्थके लिये आपसमें भलीभाँति सन्धिकर अमृत प्राप्त करनेके लिये क्षीरसागरका मन्थन किया था ॥ २ ॥ अग्नेः समुत्थितं तस्माद्विषं कालानलप्रभम् ॥ ३ ॥ जब देवता एवं दानव अमृतके लिये क्षीरसागरका मन्थन कर रहे थे तो सर्वप्रथम [समुद्र में विद्यमान] अग्निसे कालाग्निके समान विष निकला ॥ ३ ॥ विद्रुत्य तरसा तात शंभोस्ते शरणं ययुः ॥ ४ ॥ हे तात ! उस विषको देखते ही समस्त देवता और दानव भयसे व्याकुल हो गये और वे भागकर शीघ्र ही शिवजीकी शरणमें गये ॥ ४ ॥ प्रणम्य तुष्टुवुर्भक्त्या साच्युता नतन् मस्तकाः ॥ ५ ॥ ततः प्रसन्नो भगवान् शङ्करो भक्तवत्सलः । पपौ विषं महाघोरं सुरासुरगणार्दनम् ॥ ६ ॥ विष्णुसहित सभी देवता समस्त देवताओंके शिखामणिस्वरूप उन शिवजीको देखकर सिर झकाकर उन्हें प्रणाम करके भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति करने लगे । उससे प्रसन्न होकर भक्तवत्सल भगवान् सदाशिवने देवता एवं दानवोंको पीड़ित करनेवाले उस महाघोर विषका पान कर लिया ॥ ५-६ ॥ रेजे तेनाति स विभुर्नीलकण्ठो बभूव ह ॥ ७ ॥ पीये गये उस महाभयानक विषको उन्होंने अपने कण्ठमें ही धारण कर लिया, उससे वे प्रभु अत्यन्त सुशोभित हुए और नीलकण्ठ नामवाले हो गये ॥ ७ ॥ विषदाहविनिर्मुक्ताः शिवानुग्रहतोऽखिलाः ॥ ८ ॥ उसके पश्चात् शिवजीके अनुग्रहसे विषके दाहसे मुक्त हुए देवताओं एवं असुरोंने पुन: समुद्रका मन्थन किया ॥ ८ ॥ अमृतं च पदार्थं हि सुरदानवयोर्मुने ॥ ९ ॥ तत्पपुः केवलं देवा नासुराः कृपया हरेः । ततो बभूव सुमहद्रत्नं तेषां मिथोऽकदम् ॥ १० ॥ हे मने । इसके बाद देवता तथा दानवोंके [प्रयत्नोंसे मथे गये] समुद्रसे अनेक रल निकले और अमृत जैसा-- यह उत्तम पदार्थ भी उसीसे निकला, किंतु विष्णुकी कृपासे देवताओं तथा असुरोंमेंसे केवल देवता ही उसे पी गये, असुर नहीं । तब यह महान् रत्न उनके बीच द्वेषका कारण बन गया ॥ ९-१० ॥ तत्र राहुभयाच्चन्द्रो विदुद्राव तदर्दितः ॥ ११ ॥ जगाम सदनं शंभोः शरणम्भय विह्वलः । सुप्रणम्य च तुष्टाव पाहिपाहीति संवदन् ॥ १२ ॥ हे मुने ! देवों और दानवोंमें [भीषण] द्वन्द्वयुद्ध प्रारम्भ हुआ, तब राहुसे पीड़ित हुए चन्द्रमा उसके भयसे सन्तप्त होकर भाग खड़े हुए और भयसे व्याकुल होकर शिवजीकी शरणमें उनके भवन गये एवं प्रणाम करके 'रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये'-इस प्रकार कहते हुए उनकी स्तुति करने लगे ॥ ११-१२ ॥ दध्रे शिरसि चन्द्रं स विभुः शरणमागतम् ॥ १३ ॥ तब सत्पुरुषोंको अभय प्रदान करनेवाले भक्तवत्सल तथा सर्वव्यापक शिवजीने शरणमें आये हुए चन्द्रमाको अपने मस्तकपर धारण कर लिया ॥ १३ ॥ शंकरं सकलाधीशं वाग्भिरिष्टाभिरादरात् ॥ १४ ॥ तदनन्तर [चन्द्रमाका पीछा करता हुआ] राहु भी वहाँ आया और उसने सर्वेश्वर शिवजीको भलीभाँति प्रणामकर आदरपूर्वक प्रिय वाणीमें उनकी स्तुति की ॥ १४ ॥ पुरा छिन्नानि वै केतुसञ्ज्ञानि निदधे गले ॥ १५ ॥ शिवजीने उसका अभिप्राय जानकर पूर्व में विष्णुके द्वारा काटे गये उसके केतुसंज्ञक सिरोंको [अपनी मुण्डमालामें पिरोकर] गलेमें धारण कर लिया ॥ १५ ॥ पीत्वाऽमृतं सुराः सर्वे जयं प्रापुर्महाबलाः ॥ १६ ॥ इसके बाद उस युद्ध में सभी असुर देवताओंसे पराजित हो गये । अमृतका पान करके सभी महाबली देवगणोंने विजय प्राप्त की ॥ १६ ॥ बलानि चांकुरन्तोन्तः शिवमायाविमोहिताः ॥ १७ ॥ [विजय प्राप्त कर लेनेपर] शिवजीकी मायासे मोहित हुए विष्णु आदि देवताओंको अत्यन्त अहंकार हो गया और वे अपने-अपने बलोंकी प्रशंसा करने लगे ॥ १७ ॥ यक्षो भूत्वा जगामाशु यत्र देवाः स्थिता मुने ॥ १८ ॥ हे मुने ! इसके बाद गर्वको चूर करनेवाले सर्वाधीश वे भगवान् शंकर यक्षका रूप धारणकर जहाँ देवगण स्थित थे, वहाँ शीघ्र गये ॥ १८ ॥ महागर्वाढ्यमनसा महेशाः प्राह गर्वहा ॥ १९ ॥ गर्वका नाश करनेवाले यक्षपतिरूपी महेशने विष्णु आदि देवगणोंको देखकर अत्यन्त गर्वयुक्त मनसे उनसे कहा- ॥ १९ ॥ किमर्थं संस्थिता यूयमत्र सर्वे सुरा मिथः । किमु काष्ठाखिलम्ब्रूत कारणं मेऽनु पृच्छते ॥ २० ॥ यक्षेश्वर बोले-हे देवताओ ! आप सभी यहाँ एकत्र होकर किसलिये खड़े हैं ? मैं इसका कारण पूछ रहा हूँ, आपलोग बतायें ॥ २० ॥ अभूदत्र महान्देव रणः परमदारुणः । असुरा नाशिताः सर्वेऽवशिष्टा विद्रुता गताः ॥ २१ ॥ देवता बोले-हे देव ! यहाँ [देव-दानवोंमें] भयंकर विकट संग्राम छिड़ा हुआ था, जिसमें समस्त असुर विनष्ट हो गये और जो बचे थे, वे भागकर चले गये ॥ २१ ॥ अग्रेस्माकं कियन्तस्ते दैत्य क्षुद्रबलाः सदा ॥ २२ ॥ हम सब बड़े पराक्रमी, दैत्योंको मारनेवाले तथा बड़े बलशाली हैं । हमारे समक्ष तुच्छ बलवाले वे क्षुद्र दैत्य भला किस प्रकार टिक सकते हैं ? ॥ २२ ॥ इति श्रुत्वा वचस्तेषां सुराणां गर्वगर्भितम् । गर्वहासौ महादेवो यक्षरूपो वचोऽब्रवीत् ॥ २३ ॥ नन्दीश्वर बोले-देवताओंकी गर्वभरी यह बात सुनकर गर्वका नाश करनेवाले यक्षरूपी महादेवने यह वचन कहा- ॥ २३ ॥ हे सुरा निखिला यूयं मद्वचः शृणुतादरात् । यथार्थं वच्मि नासत्यं सर्वगर्वापहारकम् ॥ २४ ॥ गर्वमेनं न कुरुत कर्ता हर्ताऽपरः प्रभुः । विस्मृताश्च महेशानं कथयध्वं वृथा बलाः ॥ २५ ॥ यक्षेश्वर बोले-हे देवगणो ! आप सभी लोग आदरपूर्वक मेरी बात सुनिये, मैं [आप] सबके गर्वका नाश करनेवाला यथार्थ वचन कह रहा हूँ, असत्य नहीं । आपलोग इस प्रकारका अहंकार मत कीजिये, सबका रचयिता और संहारकर्ता स्वामी तो कोई दूसरा ही है । आपलोग उन महादेवको भूल गये और निर्बल होकर भी अपने बलका वृथा घमण्ड करते हैं ॥ २४-२५ ॥ मत्स्थापितं तृणमिदं छिन्त स्वास्त्रैश्च तैः सुराः ॥ २६ ॥ हे देवगण ! अपने महान् बलको जानते हुए आपलोगोंको यदि घमण्ड है, तो आपलोग मेरे द्वारा रखे गये इस तिनकेको अपने उन शस्त्रोंसे काटें ॥ २६ ॥ इत्युक्त्वैकं तृणं तेषां निचिक्षेप पुरस्ततः । जह्रे सर्वमदं यक्षरूप ईशः सतां गतिः ॥ २७ ॥ नन्दीश्वर बोले-ऐसा कहकर सत्पुरुषोंको गति देनेवाले यक्षरूपी महादेवजीने उन देवताओंके आगे एक तिनका फेंक दिया, जिसके द्वारा उन्होंने सभी देवताओंका मद दूर कर दिया ॥ २७ ॥ - कृत्वा स्वपौरुषं तत्र स्वायुधानि विचिक्षिपुः ॥ २८ ॥ तत्रासन् विफलान्याशु तान्यस्त्राणि दिवौकसाम् । शिवप्रभावतस्तेषां मूढगर्वापहारिणः ॥ २९ ॥ [इस तिनकेको काटनेके लिये] अपनेको वीर माननेवाले विष्णु आदि सभी देवताओंने अपने पुरुषार्थका प्रयोग करके उसके ऊपर अपने-अपने अस्त्रको चलाया । किंतु मूढोंके गर्वका नाश करनेवाले [भगवान्] शिवके प्रभावसे उन देवताओंके वे अस्त्र शीघ्र ही बेकार हो गये ॥ २८-२९ ॥ यक्षोऽयं शंकरो देवाः सर्वगर्वापहारकः ॥ ३० ॥ तब देवताओंके आश्चर्यको दूर करनेवाली आकाशवाणी हुई कि हे देवताओ ! ये यक्ष [-रूपमें] सबके अहंकारका अपहरण करनेवाले सदाशिव ही हैं ॥ ३० ॥ एतद्बलेन बलिनो जीवाः सर्वेऽन्यथा न हि ॥ ३१ ॥ ये परमेश्वर ही सबके कर्ता, भर्ता और संहर्ता हैं । इन्हींके बलसे सभी जीव बलवान् हैं, अन्यथा नहीं ॥ ३१ ॥ मदतो बुबुधुर्नैवाद्यापि बोधतनुं प्रभुम् ॥ ३२ ॥ हे देवताओ ! इनकी मायाके प्रभावसे मोहित होकर तथा अहंकारवश आपलोग अपने ज्ञानमूर्ति स्वामी भगवान् शिवको अभीतक पहचान नहीं सके ! ॥ ३२ ॥ इति श्रुत्वा नभोवाणीं बुबुधुस्ते गतस्मयाः । यक्षेश्वरं प्रणेमुश्च तुष्टुवुश्च तमीश्वरम् ॥ ३३ ॥ नन्दीश्वर बोले-इस प्रकारकी आकाशवाणीको सुनकर देवताओंका सारा गर्व दूर हो गया और वे अपने ईश्वरको पहचान गये । उन्होंने यक्षेश्वरको प्रणाम किया तथा उनकी स्तुति की ॥ ३३ ॥ देवदेव महादेव सर्वगर्वापहारक । यक्षेश्वरमहालील माया तेत्यद्भुता प्रभो ॥ ३४ ॥ देवता बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! सबके अभिमानको दूर करनेवाले हे यक्षेश्वर ! महालीला करनेवाले हे प्रभो ! आपकी माया अत्यन्त अद्भुत है ॥ ३४ ॥ सगर्वमभिभाषन्तस्त्वत्पुरो हि पृथङ्मयाः ॥ ३५ ॥ हे प्रभो ! यक्षरूप धारण करनेवाले आपकी मायासे मोहित हुए हमलोग इस समय अपनेको [आपसे] पृथक् समझकर आपके सामने ही गर्वपूर्वक बोल रहे हैं ॥ ३५ ॥ कर्ता हर्ता च भर्ता च त्वमेवान्यो न शंकर ॥ ३६ ॥ त्वमेव सर्वशक्तीनां सर्वेषां हि प्रवर्तकः । निवर्तकश्च सर्वेशः परमात्माव्ययोऽद्वयः ॥ ३७ ॥ हे प्रभो ! हे शंकर ! अब आपकी ही कृपासे हमें इस समय ज्ञान हो गया कि आप ही कर्ता, हर्ता एवं भर्ता हैं, दूसरा नहीं । आप ही सभी जीवोंकी समस्त शक्तियों के प्रवर्तक एवं निवर्तक हैं, आप ही सर्वेश, परमात्मा, अव्यय एवं अद्वितीय हैं ॥ ३६-३७ ॥ इतो मन्यामहे तत्तेनुग्रहो हि कृपालुना ॥ ३८ ॥ आपने यक्षेश्वरका रूप धारणकर जो हमलोगोंके मदको दूर कर दिया है, उसे हमलोग आप कृपालुके द्वारा किया गया परम अनुग्रह मानते हैं ॥ ३८ ॥ विबोध्य विविधैर्वाक्यैस्तत्रैवान्तरधीयत ॥ ३९ ॥ उसके पश्चात् वे यक्षेश्वर सम्पूर्ण देवताओंपर कृपा करते हुए उन्हें अनेक वचनोंसे समझाकर वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ ३९ ॥ यक्षेश्वराख्यः सुखदः सतां तुष्टोऽभयंकरः ॥ ४० ॥ [हे मुनीश्वर !] इस प्रकार शिवजीके यक्षेश्वर नामक अवतारका वर्णन कर दिया गया, जो सबको आनन्द देनेवाला तथा सुख प्रदान करनेवाला है । यह यक्षरूप प्रसन्न होनेपर सज्जनोंको अभय प्रदान करनेवाला है ॥ ४० ॥ सतां सुशान्तिदं नित्यं भुक्तिमुक्तिप्रदं नृणाम् ॥ ४१ ॥ य इदं शृणुयाद्भक्त्या श्रावयेद्वा सुधीः पुमान् । सर्वकामानवाप्नोति ततश्च लभते गतिम् ॥ ४२ ॥ यह आख्यान अत्यन्त निर्मल तथा सबके अभिमानको नष्ट करनेवाला है । यह सत्पुरुषोंको सर्वदा शान्तिदायक एवं मनुष्योंको भोग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाला है । जो बुद्धिमान् मनुष्य भक्तिसे युक्त हो इसको सुनता अथवा सुनाता है, वह इस लोकमें समस्त कामनाओंको प्राप्त कर लेता है और इसके बाद परमगतिको प्राप्त करता है ॥ ४१-४२ ॥ यक्षेश्वरावतारवर्णनं नाम षोडशोध्यायः ॥ १६ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामै प्रक्षेश्वरावतार वर्णन नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १६ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |