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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ तृतीया शतरुद्रसंहितायां
अष्टादशोऽध्यायः एकादशावतारवर्णनम् -
शिवजीके एकादश रुद्रावतारोंका वर्णन - नन्दीश्वर उवाच - एकादशवतारान्वै शृण्वथो शांकरान्वरान् । याञ्छ्रुत्वा न हि बाध्येत बाधासत्यादिसम्भवा ॥ १ ॥ नन्दीश्वर बोले-[हे सनत्कुमार !] अब शिवजीके उत्तम ग्यारह अवतारोंको सुनिये, जिन्हें सुनकर मनुष्यको असत्य आदिसे उत्पन्न होनेवाला पाप पीड़ित नहीं करता है ॥ १ ॥ पुरा सर्वे सुराः शक्रमुखा दैत्यपराजिताः । त्यक्त्वामरावतीं भीत्यापलायन्त निजां पुरीम् ॥ २ ॥ दैत्यप्रपीडिता देवा जग्मुस्ते कश्यपान्तिकम् । बद्ध्वा करान्नतस्कन्धाः प्रणेमुस्तं सुविह्वलम् ॥ ३ ॥ पूर्वकालकी बात है, दैत्योंसे पराजित होकर इन्द्र आदि देवता भयसे अपनी अमरावतीपुरी छोड़कर भाग गये थे । दैत्योंसे पीड़ित वे देवता कश्यपके समीप गये और अत्यन्त विनम्रताके साथ हाथ जोड़कर व्याकुलचित्त हो उन्हें प्रणाम किया ॥ २-३ ॥ सुनुत्वा तं सुराः सर्वे कृत्वा विज्ञप्तिमादरात् । सर्वं निवेदयामासुः स्वदुःखं तत्पराजयम् ॥ ४ ॥ ततः स कश्यपस्तात तत्पिता शिवसक्तधीः । तदाकर्ण्यामराकं वै दुखितोभून्न चाधिकम् ॥ ५ ॥ भलीभाँति उनकी स्तुति करके सभी देवताओंने आदरपूर्वक प्रार्थनाकर अपने पराजयजन्य दुःखको निवेदन किया । हे तात ! उसके बाद शिवमें आसक्त मनवाले उनके पिता कश्यप देवताओंका दुःख सुनकर कुछ दुखी तो हुए. पर अधिक नहीं; [क्योंकि उनकी बुद्धि शिवमें निरत थी] ॥ ४-५ ॥ तानाश्वास्य मुनिः सोऽथ धैर्यमाधाय शान्तधीः । काशीं जगाम सुप्रीत्या विश्वेश्वरपुरीं मुने ॥ ६ ॥ हे मुने ! शान्त बुद्धिवाले उन मुनिने देवताओंको आश्वस्त करके तथा धैर्य धारण करके अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक विश्वेश्वरपुरी काशीकी ओर प्रस्थान किया ॥ ६ ॥ गंगाम्भसि ततः स्नात्वा कृत्वा तं विधिमादरात् । विश्वेश्वरं समानर्च साम्बं सर्वेश्वरं प्रभुम् ॥ ७ ॥ शिवलिङ्गं सुसंस्थाप्य चकार विपुलं तपः । शम्भुमुद्दिश्य सुप्रीत्या देवानां हितकाम्यया ॥ ८ ॥ वहाँ गंगाके जलमें स्नान करके श्रद्धासे नित्यक्रियाकर उन्होंने पार्वतीसहित सर्वेश्वर प्रभु विश्वेश्वरका पूजन किया और देवगणोंके कल्याणकी कामनासे शिवकी प्रसन्नताहेतु श्रद्धायुक्त हो लिंगकी स्थापनाकर कठोर तप करने लगे ॥ ७-८ ॥ महान्कालो व्यतीयाय तपतस्तस्य वै मुनेः । शिवपादाम्बुजासक्तमनसो धैर्यशालिनः ॥ ९ ॥ हे मुने ! इस प्रकार शिवके चरणकमलोंमें आसक्त मनवाले उन धैर्यवान् महर्षिको तप करते हुए बहुत समय बीत गया ॥ ९ ॥ अथ प्रादुरभूच्छम्भुर्वरं दातुं तदर्षये । स्वपदासक्तमनसे दीनबन्धुः सतां गतिः ॥ १० ॥ तब सज्जनोंके एकमात्र शरण दीनबन्धु भगवान् शिव अपने चरणकमलोंमें आसक्त मनवाले उन ऋषिको वर देनेके लिये प्रकट हुए ॥ १० ॥ वरम्ब्रूहीति चोवाच सुप्रसन्नो महेश्वरः । कश्यपं मुनिशार्दूलं स्वभक्तं भक्तवत्सलः ॥ १ १ ॥ भक्तवत्सल शिवजीने अति प्रसन्न होकर अपने भक्त मुनिश्रेष्ठ कश्यपसे वर माँगिये'-ऐसा कहा ॥ ११ ॥ दृष्ट्वाथ तं महेशानं स प्रणम्य कृताञ्जलिः । तुष्टाव कश्यपो हृष्टो देवतातः प्रस न्नधीः ॥ १२ ॥ उन महेश्वरको देखकर देवगणके पिता कश्यपने हर्षित हो उन्हें प्रणाम किया और हाथ जोड़कर प्रसन्नचित्त होकर उनकी स्तुति की ॥ १२ ॥ कश्यप उवाच - देवदेव महेशान शरणागतवत्सल । सर्वेश्वरः परामात्मा त्वं ध्यानगम्योऽद्वयोऽव्ययः ॥ १३ ॥ कश्यपजी बोले-हे देवदेव ! हे महेशान ! हे शरणागतवत्सल ! आप सर्वेश्वर, परमात्मा, ध्यानगम्य, अद्वितीय तथा अविनाशी हैं ॥ १३ ॥ बलनिग्रह कर्ता त्वं महेश्वर सतां गतिः । दीनबन्धुर्दयासिन्धुर्भक्तरक्षणदक्षधीः ॥ १४ ॥ हे महेश्वर ! आप बलवानोंका निग्रह करनेवाले, सजनोंको शरण देनेवाले, दीनबन्धु, दयासागर एवं भक्तोंकी रक्षा करनेमें दक्ष बुद्धिवाले हैं ॥ १४ ॥ एते सुरास्त्वदीया हि त्वद्भक्ताश्च विशेषतः । दैत्यैः पराजिताश्चाद्य पाहि तान्दुःखितान् प्रभो ॥ १५ ॥ ये सभी देवता आपके हैं और विशेषरूपसे आपके भक्त हैं । हे प्रभो ! इस समय ये दैत्योंसे पराजित हो गये हैं, अतः आप इन दुःखियोंकी रक्षा कीजिये ॥ १५ ॥ असमर्थो रमेशोऽपि दुःखदस्ते मुहुर्मुहुः । अतः सुरा मच्छरणा वेदयन्तोऽसुखं च तत् ॥ १६ ॥ विष्णु भी असमर्थ हो जानेपर आपको ही बारम्बार कष्ट देते हैं । इसलिये देवता भी [मानो असहायसे होकर] अपना दुःख प्रकट करते हुए मेरी शरणमें आये हुए हैं ॥ १६ ॥ तदर्थं देवदेवेश देवदुःखविनाशकः । तत्पूरितुं तपोनिष्ठां प्रसन्नार्थं तवासदम् ॥ १७ ॥ हे देवदेवेश ! हे देवगणके दुःखका निवारण करनेवाले ! मैं आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ । [अतएव देवताओंके] अभीष्टको पूर्ण करनेके लिये काशीपुरीमें आकर आपके लिये तपस्या कर रहा हूँ ॥ १७ ॥ शरणं ते प्रपन्नोऽस्मि सर्वथाहं महेश्वर । कामं मे पूरय स्वामिन्देवदुःखं विनाशय ॥ १८ ॥ हे महेश्वर ! मैं सब प्रकारसे आपकी शरणमें प्राप्त हुआ हूँ । हे स्वामिन् ! मेरी कामनाको पूर्ण कीजिये और देवताओंके दुःखको दूर कीजिये ॥ १८ ॥ पुत्रदुःखैश्च देवेश दुःखितोऽहं विशेषतः । सुखिनं कुरु मामीश सहाय स्त्वन्दिवौकसाम् ॥ १९ ॥ भूत्वा मम सुतो नाथ देवा यक्षाः पराजिताः । दैत्यैर्महाबलैः शम्भो सुरानन्दप्रदो भव ॥ २० ॥ हे देवेश ! मैं अपने पुत्रोंके दु:खोंसे विशेषरूपसे दुखी हूँ । हे ईश ! मुझे सुखी कीजिये; आप ही देवताओंके सहायक हैं । हे नाथ ! देवता तथा यक्ष महाबली दैत्योंसे पराभवको प्राप्त हुए हैं, अतः हे शम्भो ! आप मेरे पुत्रके रूपमें अवतीर्ण होकर देवताओंको आनन्द प्रदान कीजिये ॥ १९-२० ॥ सदैवास्तु महेशान सर्वलेखसहायकः । यथा दैत्यकृता बाधा न बाधेत सुरान्प्रभो ॥ २१ ॥ हे महेश्वर ! हे प्रभो ! जिस प्रकार इन देवताओंको दैत्योंके द्वारा की जानेवाली बाधा पीड़ित न करे, उस प्रकार आप सदा सभी देवताओंके सहायक बनें ॥ २१ ॥ नंदीश्वर उवाच - इत्युक्तः स तु सर्वेशस्तथेति प्रोच्य शंकरः । पश्यतस्तस्य भगवांस्तत्रैवांतर्दधे हरः ॥ २२ ॥ नन्दीश्वर बोले-कश्यपके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर सर्वेश्वर हर भगवान् शंकरजी 'तथास्तु' कहकर उनके देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ २२ ॥ कश्यपोऽपि महाहृष्टः स्वस्थानमगमद् द्रुतम् । देवेभ्यः कथयामास सर्ववृत्तान्तमादरात् ॥ २३ ॥ कश्यपजी भी अत्यन्त प्रसन्न होकर शीघ्र अपने स्थानपर चले गये और उन्होंने आदरपूर्वक देवताओंसे समस्त वृत्तान्त कह सुनाया ॥ २३ ॥ ततः स शंकरः शर्वः सत्यं कर्तुं स्वकं वचः । सुरभ्यां कश्यपाज्जज्ञे एकादशस्वरूपवान् ॥ २४ ॥ उसके बाद संहर्ता शंकरजीने अपना वचन सत्य करनेके निमित्त ग्यारह रूप धारणकर कश्यपसे उनकी सुरभि नामक पत्नीके गर्भसे अवतार ग्रहण किया ॥ २४ ॥ महोत्सवस्तदासीद्वे सर्वं शिवमयं त्वभूत् । आसन्हृष्टाः सुराश्चाथ मुनिना कश्यपेन च ॥ २५ ॥ उस समय महान् उत्सव हुआ और सब कुछ शिवमय हो गया । कश्यपमुनिसहित सभी देवता भी बहुत प्रसन्न हुए ॥ २५ ॥ कपाली पिंगलो भीमो विरूपाक्षो विलोहितः । शास्ताजपाद हिर्बुध्न्यः शंभुश्चण्डो भवस्तथा ॥ २६ ॥ एकादशैते रुद्रास्तु सुरभतिनयाः स्मृताः । देवकार्यार्थमुत्पन्नाः शिवरूपाः सुखास्पदम् ॥ २७ ॥ ते रुद्राः काश्यपा वीरा महाबलपराक्रमाः । दैत्यान् जघ्नुश्च संग्रामे देवसाहाय्यकारिणः ॥ २८ ॥ कपाली, पिंगल, भीम, विरूपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद्, अहिर्बुध्य, शम्भु, चण्ड तथा भव-ये ग्यारहों रुद्र सुरभिके पुत्र कहे गये हैं । ये सुखके आवासस्थान [रुद्रगण] देवताओंकी कार्यसिद्धिके लिये उत्पन्न हुए थे । वे कश्यपपुत्र रुद्रगण वीर तथा महान् बल एवं पराक्रमवाले थे । इन्होंने संग्राममें देवताओंके सहायक बनकर दैत्योंका संहार कर डाला ॥ २६-२८ ॥ तद् रुद्रकृपया देवा दैत्याञ्जित्वा च निर्भयाः । चक्रु स्वराज्यं सर्वे ते शक्राद्याः स्वस्थमानसाः ॥ २९ ॥ उन रुद्रोंकी कृपासे इन्द्र आदि सभी देवता दैत्योंको जीतकर निर्भय हो गये और स्वस्थचित्त होकर अपनाअपना राजकार्य संभालने लगे ॥ २९ ॥ अद्यापि ते महारुद्राः सर्वे शिवस्वरूपकाः । देवानां रक्षणार्थाय विराजन्ते सदा दिवि ॥ ३० ॥ आज भी शिवस्वरूप वे सभी महारुद्र देवताओंकी रक्षाके लिये सदा स्वर्गमें विराजमान हैं ॥ ३० ॥ ऐशान्यां पुरि ते वासं चक्रिरे भक्तवत्सलाः । विरमन्ते सदा तत्र नानालीलाविशारदाः ॥ ३१ ॥ भक्तवत्सल एवं नाना प्रकारकी लीला करने में निपुण वे सब ईशानपुरीमें निवास करते हैं तथा वहाँ सदा रमण करते हैं ॥ ३१ ॥ तेषामनुचरा रुद्राः कोटिशः परिकीर्तिताः । सर्वत्र संस्थितास्तत्र त्रिलोकेष्वभिभागशः ॥ ३२ ॥ उनके अनुचर करोड़ों रुद्र कहे गये हैं, जो तीनों लोकोंमें विभक्त होकर चारों ओर सर्वत्र स्थित हैं ॥ ३२ ॥ इति ते वर्णितास्तातावताराः शंकरस्य वै । एकादशमिता रुद्राः सर्वलोकसुखावहाः ॥ ३३ ॥ हे तात ! इस प्रकार मैंने आपसे शंकरजीके अवतारोंका वर्णन किया; ये एकादश रुद्र सबको सुख प्रदान करनेवाले हैं ॥ ३३ ॥ इदमाख्यानममलं सर्वपापप्रणाशकम् । धन्यं यशस्यमायुष्यं सर्वकामप्रदायकम् ॥ ३४ ॥ यह आख्यान निर्मल, सभी पापोंको दूर करनेवाला, धन तथा यश प्रदान करनेवाला, आयुकी वृद्धि करनेवाला तथा सम्पूर्ण मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला है ॥ ३४ ॥ य इदं शृणुयात्तात श्रावयेद्वै समाहितः । इह सर्वसुखं भुक्त्वा ततो मुक्तिं लभेत सः ॥ ३५ ॥ हे तात ! जो सावधान होकर इसको सुनता है अथवा सुनाता है, वह इस लोकमें सब प्रकारका सुख भोगकर अन्तमें मुक्ति प्राप्त कर लेता है ॥ ३५ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां एकादशावतारवर्णनं नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुजसंहितामें एकादशावतार वर्णन नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |