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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

तृतीया शतरुद्रसंहितायां

एकोनविंशोऽध्यायः

दुर्वासश्चरित्रवर्णनम् -
शिवजीके दुर्वासावतारकी कथा -


नन्दीश्वर उवाच -
अथान्यच्चरितं शम्भो शृणु प्रीत्या महामुने ।
यथा बभूव दुर्वासाः शंकरो धर्महेतवे ॥ १ ॥
नन्दीश्वर बोले-हे महामुने ! अब आप शम्भुके एक और चरित्रको प्रेमपूर्वक सुनिये, जिसमें शंकरजी धर्म [की स्थापना]-के लिये दुर्वासा होकर प्रकट हुए थे ॥ १ ॥

ब्रह्मपुत्रो बभूवातितपस्वी ब्रह्मवित्प्रभुः ।
अनसूयापति र्धीमान्ब्रह्माज्ञाप्रतिपालकः ॥ २ ॥
ब्रह्माके परम तपस्वी एवं ब्रह्मवेत्ता अत्रि नामक पुत्र हुए; वे बड़े बुद्धिमान, ब्रह्माजीकी आज्ञाका पालन करनेवाले एवं अनसूयाके पति थे ॥ २ ॥

सुनिर्देशाद् ब्रह्मणो हि सस्त्रीकः पुत्रकाम्यया ।
स त्र्यक्षकुलनामानं ययौ च तपसे गिरिम् ॥ ३ ॥
वे किसी समय ब्रह्माजीके निर्देशानुसार पुत्रकी इच्छासे पत्नीसहित तप करनेके लिये यक्षकुल नामक पर्वतपर गये ॥ ३ ॥

प्राणानायम्य विधिवन्निर्विन्ध्यातटिनीतटे ।
तपश्चचार सुमहद् अद्वन्द्वोऽब्दशतं मुनिः ॥ ४ ॥
उन मुनिने निर्विन्ध्या नदीके तटपर अपने प्राणोंको रोककर निर्द्वन्द्व हो सौ वर्षपर्यन्त विधिपूर्वक महामोर तप किया ॥ ४ ॥

य एक ईश्वरः कश्चिदविकारो महाप्रभुः ।
स मे पुत्रवरं दद्यादिति निश्चितमानसः ॥ ५ ॥
उन्होंने अपने मनमें निश्चय किया कि जो एकमात्र अविकारी अनिर्वचनीय महाप्रभु ईश्वर हैं, वे मुझे श्रेष्ठ पुत्र प्रदान करेंगे ॥ ५ ॥

बहुकालो व्यतीयाय तस्मिंस्तपति सत्तपः ।
आविर्बभूव तत्कात्तु शुचिर्ज्वाला महीयसी ॥ ६ ॥
इस प्रकार उत्कृष्ट तपमें प्रवृत्त हुए उन महर्षिका बहुत समय व्यतीत हो गया । तब उनके शरीरसे अत्यन्त पवित्र और बहुत बड़ी अग्निचाला प्रकट हुई ॥ ६ ॥

तयासन्निखिला लोका दग्धप्राया मुनीश्वराः ।
तथा सुरर्षयः सर्वे पीडिता वासवादयः ॥ ७ ॥
उस ज्वालासे सम्पूर्ण लोक प्रायः जलने लगा और इन्द्रादि सभी देवता, श्रेष्ठ मुनिगण तथा समस्त सुरर्षिगण भी पीड़ित हो उठे ॥ ७ ॥

अथ सर्वे वासवाद्या सुराश्च मुनयो मुने ।
ब्रह्मस्थानं ययुः शीघ्रं तज्ज्वालातिप्रपीडिताः ॥ ८ ॥
हे मुने ! इसके बाद इन्द्र आदि सभी देवता एवं मुनिगण उस ज्वालासे अतीव पीड़ित होकर शीघ्र ही ब्रह्मलोक गये ॥ ८ ॥

नत्वा नुत्वा विधिं देवाः तत्स्वदुःखं न्यवेदयन् ।
ब्रह्मा सह सुरैस्तात विष्णुलोकं ययावरम् ॥ ९ ॥
हे तात ! देवताओंने नमस्कार एवं स्तुतिकर ब्रह्मदेवके समक्ष अपना दुःख प्रकट किया । तब ब्रह्माजी उन देवताओंको लेकर शीघ्रतासे विष्णुलोकको गये ॥ ९ ॥

तत्र गत्वा रमानाथं नत्वा नुत्वा विधिः सुरैः ।
स्वदुःखं तत्समाचख्यौ विष्णवेऽनन्तकं मुने ॥ १० ॥
हे मुने ! वहाँ देवताओंके साथ जाकर लक्ष्मीपतिको नमस्कार करके तथा उनकी स्तुतिकर अनन्त भगवान् विष्णुसे ब्रह्माजीने दुःख निवेदन किया ॥ १० ॥

विष्णुश्च विधिना देवै रुद्रस्थानं ययौ द्रुतम् ।
हरं प्रणम्य तत्रेत्य तुष्टाव परमेश्वरम् ॥ १ १ ॥
तदनन्तर भगवान् विष्णु भी ब्रह्मा एवं देवताओंको लेकर शीघ्र रुद्रलोक गये और वहाँ पहुँचकर परमेश्वर शिवजीको प्रणाम करके उनकी स्तुति की ॥ ११ ॥

स्तुत्वा बहुतया विष्णुं स्वदुःखं च न्यवेदयत् ।
शर्वं ज्वालासमुद्भूतमत्रेश्च तपसः परम् ॥ १२ ॥
बहुत स्तुति करनेके बाद भगवान् विष्णुने शिवजीसे अपना सारा दुःख निवेदन किया कि अत्रिके तपसे एक ज्वाला उत्पन्न हुई है ॥ १२ ॥

अथ तत्र समेस्तास्तु ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।
मुने संमन्त्रयाञ्चक्रुरन्योऽन्यं जगतां हितम् ॥ १३ ॥
हे मुने ! तदुपरान्त उस स्थानपर एकत्रित हुए ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वरने मिलकर संसारके हितसाधनके लिये आपसमें मन्त्रणा की ॥ १३ ॥

तदा ब्रह्मादयो देवास्त्रयस्ते वरदर्षभाः ।
जग्मुस्तदाश्रमं शीघ्रं वरन्दातुन्तदर्षये ॥ १४ ॥
इसके बाद ब्रह्मा आदि वरदश्रेष्ठ वे तीनों देवता उन मुनिको वर देनेके लिये शीघ्र ही उनके आश्रमपर पहुँचे ॥ १४ ॥

स्वचिह्नचिह्नितांस्तान्स दृष्ट्‍वात्रिर्मुनिसत्तमः ।
प्रणनाम च तुष्टाव वाग्भिरिष्टाभिरादरात् ॥ १५ ॥
अपने-अपने [हंसादि वाहनोंके] चिह्नोंसे चिह्नित उन देवगणोंको देखकर मुनिश्रेष्ठ अत्रिने उन्हें प्रणाम किया और प्रिय वाणीसे आदरपूर्वक उनकी स्तुति की ॥ १५ ॥

ततः स विस्मितो विप्रस्तानुवाच कृताञ्जलिः ।
ब्रह्मपुत्रो विनीतात्मा ब्रह्मविष्णुहराभिधान् ॥ १६ ॥
तत्पश्चात् हाथ जोड़े हुए वे विनीतात्मा ब्रह्मपुत्र अत्रि उन ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवसे विस्मित होकर कहने लगे- ॥ १६ ॥

अत्रिरुवाच -
हे ब्रह्मन् हे हरे रुद्र पूज्यास्त्रिजगतां मताः ।
प्रभवश्चेश्वराः सृष्टिरक्षासंहारकारकाः ॥ १७ ॥
अत्रि बोले-हे ब्रह्मन् ! हे विष्णो ! हे शिव ! आप सब तीनों लोकोंके पूज्य, प्रभु, ईश्वर और उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय करनेवाले माने गये हैं ॥ १७ ॥

एक एव मया ध्यात ईश्वरः पुत्रहेतवे ।
यः कश्चिदीश्वरः ख्यातो जगतां स्वस्त्रिया सह ॥ १८ ॥
यूयं त्रयस्सुराः कस्मादागता वरदर्षभाः ।
एतन्मे संशयं छित्त्वा ततो दत्तेप्सितं वरम् ॥ १९ ॥
मैंने तो सपत्नीक [तपोनिरत होकर] पुत्रकी कामनासे केवल एकमात्र जो इस सारे जगत्के ईश्वर हैं, उन्हींका ध्यान किया था । किंतु वरदाताओंमें श्रेष्ठ आप तीनों देवता यहाँ कैसे उपस्थित हुए हैं । मेरे इस संशयको दूरकर मुझे अभीष्ट वर दीजिये ॥ १८-१९ ॥

इति श्रुत्वा वचस्तस्य प्रत्यूचुस्ते सुरास्त्रयः ।
यादृक्कृतस्ते संकल्पस्तथैवाभून्मुनीश्वर ॥ २० ॥
वयं त्रयो भवेशानाः समाना वरदर्षभाः ।
अस्मदंशभवास्तस्माद्भविष्यन्ति सुतास्त्रयः ॥ २१ ॥
विदिता भुवने सर्वे पित्रोः कीर्तिविवर्द्धनाः ।
इत्युक्तास्ते त्रयो देवाः स्वधामानि ययुर्मुदा ॥ २२ ॥
उनकी यह बात सुनकर उन तीनों देवताओंने कहा-हे मुनिराज ! जैसा आपने संकल्प किया था, वैसा ही हुआ है, हम ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश तीनों ही समानरूपसे इस जगत्के ईश्वर हैं, इसलिये वर देनेके लिये उपस्थित हुए हैं, अतः हमलोगोंके अंशसे आपके तीन पुत्र उत्पन्न होंगे । वे सभी जगत्में प्रसिद्ध होकर माता एवं पिताको कीर्तिको बढ़ानेवाले होंगे । ऐसा कहकर वे तीनों देवता प्रसन्न हो अपने-अपने धामको चले गये ॥ २०-२२ ॥

वरं लब्ध्वा मुनिः सोऽथ जगाम स्वाश्रमं मुदा ।
युतोऽनुसूयया प्रीतो ब्रह्मानंदप्रदो मुने ॥ २३ ॥
हे मुने । ब्रह्मानन्दके प्रदाता अत्रि मुनि भी वर प्राप्तकर हर्षित हो अनसूयाके साथ प्रसन्नतापूर्वक अपने स्थानपर चले आये ॥ २३ ॥

अथ ब्रह्मा हरिः शम्भुरवतेरुः स्त्रियां ततः ।
पुत्ररूपैः प्रसन्नास्ते नानालीलाप्रकाशकाः ॥ २४ ॥
विधेरंशाद्विधुर्जज्ञेऽनसूयायां मुनीश्वरात् ।
आविर्बभूवोदधितः क्षिप्तो देवेः स एव हि ॥ २५ ॥
तब अनेक लीलाओंको करनेवाले वे ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव प्रसन्न हो पुत्ररूपसे अनसूयाके गर्भसे उत्पन्न हुए । समय पूर्ण होनेपर मुनीश्वरके द्वारा अनसूयासे ब्रह्माके अंशसे चन्द्रमा उत्पन्न हुए, किंतु देवताओंके द्वारा समुद्र में डाल देनेके कारण वे पुनः समुद्रसे उत्पन्न हुए ॥ २४-२५ ॥

विष्णोरंशात् स्त्रियां तस्यामत्रेर्दत्तो व्यजायत ।
संन्यासपद्धतिर्येन वर्द्धिता परमा मुने ॥ २६ ॥
हे मुने ! विष्णुके अंशसे अत्रिके द्वारा उन अनसूयासे दत्तात्रेय उत्पन्न हुए, जिन्होंने सर्वोत्तम संन्यासपद्धतिका संवर्धन किया ॥ २६ ॥

दुर्वासा मुनिशार्दूलः शिवांशान्मुनिसत्तमः ।
जज्ञे तस्यां स्त्रियामत्रेर्वरधर्मप्रवर्तकः ॥ २७ ॥
भूत्वा रुद्रश्च दुर्वासा ब्रह्मतेजोविवर्द्धनः ।
चक्रे धर्मपरीक्षां च बहूनां स दयापरः ॥ २८ ॥
हे मुनिसत्तम ! अत्रिके द्वारा उन अनसूयासे शिवके अंशसे श्रेष्ठ धर्मका प्रचार करनेवाले मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा उत्पन्न हुए । रुद्रने दुर्वासाके रूपमें प्रकट होकर ब्रह्मतेजको बढ़ाया और दयापूर्वक बहुतोंके धर्मकी परीक्षा भी ली ॥ २७-२८ ॥

सूर्यवंशे समुत्पन्नो योऽम्बरीषो नृपोऽभवत् ।
तत्परीक्षामकार्षीत्स तां शृणु त्वं मुनीश्वर ॥ २९ ॥
हे मुनीश्वर ! सूर्यवंशमें उत्पन्न जो अम्बरीष नामक राजा थे, उनकी परीक्षा दुर्वासाने ली थी; उस आख्यानको आप सुनिये ॥ २९ ॥

सोऽम्बरीषो नृपवरः सप्तद्वीपरसापतिः ।
नियमं हि चकारासावेकादश्यां व्रते दृढम् ॥ ३० ॥
एकादश्या व्रतं कृत्वा द्वादश्यां चैव पारणाम् ।
करिष्यामीति सुदृढसंकल्पस्तु नराधिपः ॥ ३१ ॥
वे नृपश्रेष्ठ अम्बरीष सात द्वीपोंवाली पृथ्वीके स्वामी थे । एकादशीके व्रतमें स्थित होकर वे दृढ़ नियमका पालन करते थे । उन राजाका यह दृढ़ संकल्प था कि मैं एकादशीव्रतकर द्वादशीको पारण करूँगा ॥ ३०-३१ ॥

ज्ञात्वा तन्नियमन्तस्य दुर्वासा मुनिसत्तमः ।
तदन्तिकं गतः शिष्यैर्बहुभिः शंकरांशजः ॥ ३२ ॥
शंकरजीके अंशसे उत्पन्न हुए मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा उनके उस नियमको जानकर अपने अनेक शिष्योंको साथ ले उनके समीप गये ॥ ३२ ॥

पारणे द्वादशीं स्वल्पां ज्ञात्वा यावत्स भोजनम् ।
कर्तुं व्यवसितस्तावदागतं स न्यमन्त्रयत् ॥ ३३ ॥
उस दिन स्वल्प द्वादशी जानकर राजाने [पारण करनेके लिये] ज्यों ही भोजन करनेका विचार किया, उसी समय शिष्याँसहित दुर्वासा वहाँ आ पहुंचे, तब राजाने उन्हें भोजनके लिये निमन्त्रित किया ॥ ३३ ॥

ततः स्नानार्थमगमद्दुर्वासाः शिष्यसंयुतः ।
विलम्बं कृतवांस्तत्र परीक्षार्थं मुनिर्बहु ॥ ३४ ॥
इसके बाद मुनि दुर्वासा शिष्योंके साथ स्नान करनेके लिये चले गये और राजाकी परीक्षा लेनेके लिये उन्होंने वहाँ बहुत विलम्ब कर दिया ॥ ३४ ॥

धर्मविघ्नं तदा ज्ञात्वा स नृपः शास्त्रशासनात् ।
जलं प्राश्यास्थितस्तत्र तदागमनकांक्षया ॥ ३५ ॥
तव धर्ममें विघ्न जानकर राजा शास्त्रकी आज्ञासे जलका प्राशन करके दुर्वासाके आगमनकी प्रतीक्षा करने लगे ॥ ३५ ॥

एतस्मिन्नन्तरे तत्र दुर्वासा मुनिरागतः ।
कृताशनं नृपं ज्ञात्वा परीक्षार्थं धृताकृतिः ॥ ३६ ॥
चुक्रोधाति नृपे तस्मिन्परीक्षार्थं वृषस्य सः ।
प्रोवाच वचनं तूग्रं स मुनिः शंकरांशजः ॥ ३७ ॥
इसी बीच महर्षि दुर्वासा वहाँ आ पहुँचे और राजाको जलप्राशन किया जानकर उनकी परीक्षा लेनेके लिये [महर्षिने भयानक] आकृति धारण कर ली और अत्यन्त क्रुद्ध हो गये । शिवके अंशसे उत्पन्न हुए वे दुर्वासा धर्मकी परीक्षा करनेके उद्देश्यसे राजासे कठोर वचन कहने लगे । ३६-३७ ॥

दुर्वासा उवाच -
मां निमन्त्र्य नृपाभोज्य जलं पीतं त्वयाधम ।
दर्शयामि फलं तस्य दुष्टदण्डधरो ह्यहम् ॥ ३८ ॥
दुर्वासा बोले-हे अधम नृप ! तुमने मुझे निमन्त्रण देकर बिना भोजन कराये ही जल पी लिया । मैं तुम्हें उसका फल दिखाता हूँ; क्योंकि मैं दुष्टोंको दण्ड देनेवाला हूँ ॥ ३८ ॥

इत्युक्त्वा क्रोधताम्राक्षो नृपं दग्धुं समुद्यतः ।
समुत्तस्थौ द्रुतं चक्रं तत्स्थं रक्षार्थमैश्वरम् ॥ ३९ ॥
इतना कहकर क्रोधसे लाल नेत्रोंवाले वे ज्यों ही राजाको भस्म करनेके लिये उद्यत हुए, इतनेमें ही राजाके भीतर रहनेवाला ईश्वरका चक्र उनकी रक्षाके लिये शीघ्रतासे प्रकट हो गया ॥ ३९ ॥

प्रजज्वालाति तं चक्रं मुनिं दग्धुं सुदर्शनम् ।
शिवरूपं तमज्ञात्वा शिवमायाविमोहितम् ॥ ४० ॥
एतस्मिन्नन्तरे व्योमवाण्युवाचाशरीरिणी ।
अम्बरीषं महात्मानं ब्रह्मभक्तं च वैष्णवम् ॥ ४१ ॥
वह सुदर्शन चक्र शिवमायासे विमोहित शिवस्वरूप मुनि दुर्वासाको न जानकर उन्हें जलानेके लिये भयंकर रूपमें जल उठा । इसी समय अशरीरी आकाशवाणीने विष्णुप्रिय ब्राह्मणभक्त महात्मा अम्बरीषसे कहा- ॥ ४०-४१ ॥

व्योमवाण्युवाच -
सुदर्शनमिदं चक्रं हरये शम्भुनार्पितम् ।
शांतं कुरु प्रज्वलितमद्य दुर्वाससे नृप ॥ ४२ ॥
आकाशवाणी बोली-हे राजन् ! शिवजीने ही यह सुदर्शन चक्र विष्णुको प्रदान किया है । दुर्वासाको जलानेके लिये प्रज्वलित चक्रको इस समय शीघ्र शान्त कीजिये ॥ ४२ ॥

दुर्वासायं शिवः साक्षात्स चक्रं हरयेऽर्पितम् ।
एवं साधारणमुनिं न जानीहि नृपोत्तम ॥ ४३ ॥
तव धर्मपरीक्षार्थमागतोऽयं मुनीश्वरः ।
शरणं याहि तस्याशु भविष्यत्यन्यथा लयः ॥ ४४ ॥
ये दुर्वासा साक्षात् शिव हैं; इन्होंने ही विष्णुको यह चक्र प्रदान किया है । हे नपत्रेष्ठ ! इन्हें सामान्य मुनि मत समझिये । ये मुनीश्वर आपके धर्मकी परीक्षाके लिये आये हैं, अतः शीघ्र ही इनकी शरणमें जाइये, नहीं तो प्रलय हो जायगा ॥ ४३-४४ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इत्युक्त्वा च नभोवाणी विरराम मुनीश्वर ।
अस्तावीत्स हरांशं तमम्बरीषोऽपि चादरात् ॥ ४५ ॥
नन्दीश्वर बोले-हे मुनीश्वर ! ऐसा कहकर आकाशवाणी शान्त हो गयी, तब वे अम्बरीष भी शिवके अंशस्वरूप उन मुनिकी स्तुति आदरसे करने लगे ॥ ४५ ॥

अम्बरीष उवाच -
यद्यस्ति दत्तमिष्टं च स्वधर्मो वा स्वनुष्ठितः ।
कुलं नो विप्रदैवं चेद्धरेरस्त्रं प्रशाम्यतु ॥ ४६ ॥
अम्बरीषजी बोले-यदि मैंने दान किया है, इष्टापूर्त किया है, अपने धर्मका भलीभाँति अनुष्ठान किया है और हमारा कुल ब्रह्मण्य है, तो विष्णुका यह अस्त्र शान्त हो जाय ॥ ४६ ॥

यदि नो भगवान्प्रीतो मद्भक्तो भक्तवत्सलः ।
सुदर्शनमिदं चास्त्रं प्रशाम्यतु विशेषतः ॥ ४७ ॥
यदि मेरे द्वारा सेवित भक्तवत्सल भगवान् मुझपर प्रसन्न हैं तो यह सुदर्शनचक्र विशेष रूपसे शान्त हो जाय ॥ ४७ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इति स्तुवति रुद्राग्रे शैवं चक्रं सुदर्शनम् ।
अशाम्यत्सर्वथा ज्ञात्वा तं शिवांशं सुलब्धधीः ॥ ४८ ॥
नन्दीश्वर बोले-हे मुनीश्वर ! इस प्रकार रुद्रांशभूत दुर्वासाके आगे अम्बरीषके स्तुति करनेपर [आकाशवाणीसे] प्रेरित बुद्धिवाला वह शैव सुदर्शन चक्र उन्हें शिवांश जानकर पूर्ण रूपसे शान्त हो गया ॥ ४८ ॥

अथाम्बरीषः स नृपः प्रणनाम च तं मुनिम् ।
शिवावतारं सञ्ज्ञाय स्वपरीक्षार्थमागतम् ॥ ४९ ॥
इसके बाद उन राजा अम्बरीषने अपनी परीक्षाके निमित्त आये हुए उन मुनिको शिवावतार जानकर उन्हें प्रणाम किया ॥ ४९ ॥

सुप्रसन्नो बभूवाथ स मुनिः शंकरांशजः ।
भुक्त्वा तस्मै वरं दत्त्वा स्वाभीष्टं स्वालयं ययौ ॥ ५० ॥
अम्बरीषपरीक्षायां दुर्वासश्चरितं मुने ।
प्रोक्तामन्यच्चरित्रं त्वं शृणु तस्य मुनीश्वर ॥ ५१ ॥
तदनन्तर शिवजीके अंशसे उत्पन्न वे मुनि अत्यन्त प्रसन्न हो गये और भोजन करके अभीष्ट वर प्रदानकर अपने स्थानको चले गये । हे मुने ! मैंने अम्बरीषकी परीक्षामें दुर्वासाका चरित्र कह दिया । हे मुनीश्वर ! अब आप उनका दूसरा चरित्र सुनिये ॥ ५०-५१ ॥

पुनर्दाशरथेश्चक्रे परीक्षां नियमेन वै ।
मुनिरूपेण कालेन यः कृतो नियमो मुने ॥ ५२ ॥
तदैव मुनिना तेन सौमित्रिः प्रेषितो हठात् ।
तं तत्याज द्रुतं रामो बन्धुं प्रणवशान्मुने ॥ ५३ ॥
तत्पश्चात् उन्होंने दशरथपुत्र रामकी नियमसे परीक्षा ली । काल जब मुनिका रूप धारणकर श्रीरामचन्द्रजीसे भेंट करनेके लिये पहुँचा, तब उसने रामसे एक अनुबन्ध किया [और कहा-मैं आपसे कुछ बात करूँगा । किंतु यदि उस समय कोई तीसरा पहुंचा तो वह आपका वध्य होगा । रामचन्द्रजीने तथास्तु कहकर लक्ष्मणको पहरेपर नियुक्त कर दिया और कालसे एकान्तमें बातचीत करने लगे । इसी बीच वहाँ दुर्वासा पहुंचे । उन्होंने लक्ष्मणसे कहा-मैं आवश्यक कार्यसे रामचन्द्रसे मिलना चाहता हूँ । क्ष्मणजीने इधर रामकी प्रतिज्ञा, उधर दुर्वासाका शाप-इस प्रकार दोनों ओरसे असमंजसमें पड़कर विचार किया कि ब्रह्मशापसे दग्ध होना अच्छा नहीं, अत: उन्होंने दुर्वासाके आनेका समाचार श्रीरामको दे दिया । हे मुने ! इस प्रकार दुर्वासाके द्वारा हठपूर्वक भेजे जानेपर श्रीरामने अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार तत्क्षण लक्ष्मणको त्याग दिया ॥ ५२-५३ ॥

सा कथा विहिता लोके मुनिभिर्बहुधोदिता ।
नातो मे विस्तरात्प्रोक्ता ज्ञाता यत्सर्वधा बुधैः ॥ ५४ ॥
महर्षियोंने यह कथा बहुधा कही है, जिसके कारण यह लोकमें प्रसिद्ध है । अत: इसे विस्तारसे नहीं कहा; क्योंकि बुद्धिमान् लोग तो इस कथाको जानते ही हैं ॥ ५४ ॥

नियमं सुदृढं दृष्ट्‍वा सुप्रसन्नोऽभवन्मुनिः ।
दुर्वासाः सुप्रसन्नात्मा वरन्तस्मै प्रदत्तवान् ॥ ५५ ॥
महर्षि दुर्वासा उनके इस अत्यन्त दृढ़ नियमको देखकर सन्तुष्ट हुए और प्रसन्नचित्त हो उन्हें वर प्रदान किया ॥ ५५ ॥

श्रीकृष्णनियमस्यापि परीक्षां स चकार ह ।
तां शृणु त्वं मुनिश्रेष्ठ कथयामि कथां च ताम् ॥ ५६ ॥
ब्रह्मप्रार्थनया विष्णुर्वसुदेवसुतोऽभवत् ।
धराभारावतारार्थं साधूनां रक्षणाय च ॥ ५७ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! उन्होंने श्रीकृष्णके नियमकी भी परीक्षा ली थी; मैं उस कथाको कह रहा हूँ, आप उसे सुनिये । ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे पृथ्वीका भार उतारनेके लिये एवं साधुओंकी रक्षा करनेके लिये भगवान् विष्णु वसुदेवके पुत्ररूपमें अवतरित हुए । ५६-५७ ॥

हत्वा दुष्टान्महापापान् ब्रह्मद्रोहकरान्खलान् ।
ररक्ष निखिलान्साधून्ब्राह्मणान्कृष्णनामभाक् ॥ ५८ ॥
श्रीकृष्ण नामवाले विष्णुने ब्रह्मद्रोही खलों, दुष्टों एवं महापापियोंका संहार करके समस्त साधुओं एवं ब्राह्मणों की रक्षा की ॥ ५८ ॥

ब्रह्मभक्तिं चकाराति स कृष्णो वसुदेवजः ।
नित्यं हि भोजयामास सुरसान्ब्राह्मणान्बहून् ॥ ५९ ॥
वे वसुदेवपुत्र श्रीकृष्ण ब्राह्मणों के प्रति अत्यधिक भक्ति रखते थे और प्रतिदिन बहुत-से ब्राह्मणोंको सरस भोजन कराते थे ॥ ५९ ॥

ब्रह्मभक्तो विशेषेण कृष्णश्चेति प्रथामगात् ।
संद्रष्टुकामः स मुनिः कृष्णान्तिकमगान्मुने ॥ ६० ॥
'श्रीकृष्ण ब्राह्मणोंके विशेषरूपसे भक्त हैं' जब वे इस प्रसिद्धिको प्राप्त हुए, तब हे मुने ! उन्हें देखनेकी इच्छासे वे (दुर्वासा) मुनि कृष्णके पास पहुंचे ॥ ६० ॥

रुक्मणीसहितं कृष्णं सन्नं कृत्वा रथे स्वयम् ।
संयोज्य संस्थितो वाहं सुप्रसन्न उवाह तम् ॥ ६१ ॥
उन्होंने श्रीकृष्ण एवं रुक्मिणीको रथमें जोत दिया और उस रथपर स्वयं सवार होकर [उन्हें] हाँकने लगे । श्रीकृष्ण [एवं रुक्मिणी]-ने बड़ी प्रसन्नताके साथ उस रथका वहन किया ॥ ६१ ॥

मुनी रथात्समुत्तीर्य दृष्ट्‍वा तां दृढतां पराम् ।
तस्मै भूत्वा सुप्रसन्नो वज्राङ्गत्ववरन्ददौ ॥ ६२ ॥
[ब्राह्मणके विषयमें] उन दोनोंकी इतनी बड़ी दृढ़ता देखकर रथसे उतरकर मुनिने प्रसन्न हो उन्हें वज्रके समान अंगवाला होनेका वर दिया ॥ ६२ ॥

द्युनद्यामेकदा स्नानं कुर्वन्नग्नो बभूव ह ।
लज्जितोभून्मुनिश्रेष्ठो दुर्वासाः कौतुकी मुने ॥ ६३ ॥
हे मुने ! एक समय गंगाजीमें स्नान करते हुए मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा नग्न हो गये थे; उस समय वे कौतुकी मुनि लज्जाका अनुभव करने लगे ॥ ६३ ॥

तज्ज्ञात्वा द्रौपदी स्नानं कुर्वती तत्र चादरात् ।
तल्लज्जां छादयामास भिन्नस्वाञ्चलदानतः ॥ ६४ ॥
उस समय वहाँ स्नान कर रही द्रौपदीने यह जानकर अपना आँचल फाड़कर तथा उसे आदरपूर्वक प्रदान करके उनकी लज्जाको ढंक दिया था ॥ ६४ ॥

तदादाय प्रवाहेनागतं स्वनिकटं मुनिः ।
तेनाच्छाद्य स्वगुह्यं च तस्यै तुष्टो बभूव सः ॥ ६५ ॥
द्रौपद्यै च वरं प्रादात्तदञ्चलविवर्द्धनम् ।
पाण्डवान्सुखिनश्चक्रे द्रौपदी तद्वरात्पुनः ॥ ६६ ॥
इस प्रकार प्रवाहके द्वारा अपने समीप आये उस वस्त्रको लेकर वे मुनि अपने गुहा अंगको उससे ढंककर उस [द्रौपदी]-पर प्रसन्न हुए और उन्होंने द्रौपदीको उसके आँचलके बढ़नेका वर दिया । समय आनेपर उसी वरदानके प्रभावसे द्रौपदीने पाण्डवोंको सुखी बनाया ॥ ६५-६६ ॥

हंसडिम्भौ नृपौ कौचित्सावमानकरौ खलौ ।
दत्त्वा निदेशं च हरेर्नाशयामास स प्रभुः ॥ ६७ ॥
हंस एवं डिम्भ नामक महाखल कोई दो राजा थे । उन्होंने दुर्वासाका अनादर किया । तब इन्हीं दुर्वासाने श्रीकृष्णको सन्देश देकर उनका नाश करवाया ॥ ६७ ॥

ब्रह्मतेजोविशेषेण स्थापयामास भूतले ।
संन्यासपद्धतिं चैव यथाशास्त्रविधिक्रमम् ॥ ६८ ॥
उन्होंने पृथ्वीपर विशेषरूपसे ब्रह्मतेज और शास्त्रकी रीतिके अनुसार संन्यासपद्धतिकी स्थापना की ॥ ६८ ॥

बहूनुद्धारयामास सूपदेशं विबोध्य च ।
ज्ञानं दत्त्वा विशेषेण बहून्मुक्तांश्चकार सः ॥ ६९ ॥
उन्होंने अत्यन्त सुन्दर उपदेश देकर बहुतोंका उद्धार किया और विशेष रूपसे ज्ञान देकर बहुतोंको मुक्त भी कर दिया । ६९ ॥

इत्थं चक्रे स दुर्वासा विचित्रं चरितं बहु ।
धन्यं यशस्यमायुष्यं शृण्वतः सर्वकामदम् ॥ ७० ॥
इस प्रकार उन दुर्वासाने अनेक विचित्र चरित्र किये । [दुर्वासाका] यह चरित्र श्रवण करनेवालेको धन, यश तथा आयु प्रदान करनेवाला और सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाला है । ७० ॥

य इदं शृणुयाद्भक्त्या दुर्वासश्चरितम्मुदा ।
श्रावयेद्वा परां यश्च स सुखीह परत्र च ॥ ७१ ॥
जो दुर्वासाके इस चरित्रको प्रीतिपूर्वक सुनता है अथवा जो प्रसन्नतापूर्वक दूसरोंको सुनाता है, वह इस लोकमें एवं परलोकमें सुखी रहता है ॥ ७१ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां
दुर्वासश्चरित्रवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें दुर्वासाचरित वर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १९ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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