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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

तृतीया शतरुद्रसंहितायां

विंशोऽध्यायः

हनुमदवतारचरित्रवर्णनम् -
शिवजीका हनुमानके रूपमें अवतार तथा उनके चरितका वर्णन -


नन्दीश्वर उवाच -
अतः परं श्रुणु प्रीत्या हनुमच्चरितं मुने ।
यथा चकाराशु हरो लीलास्तद्‌रूपतो वराः ॥ १ ॥
नन्दीश्वर बोले-हे मुने ! अब इसके पश्चात् शिवजीने जिस प्रकार हनुमानजीके रूपमें अवतार लेकर मनोहर लीलाएँ की, उस हनुमच्चरित्रको प्रेमपूर्वक सुनिये ॥ १ ॥

चकार सुहितं प्रीत्या रामस्य परमेश्वरः ।
तत्सर्वं चरितं विप्र शृणु सर्वसुखावहम् ॥ २ ॥
उन परमेश्वरने प्रेमपूर्वक [हनुमद्‌रूपसे] श्रीरामका परम हित किया, हे विप्र ! सर्वसुखकारी उस सम्पूर्ण चरित्रका श्रवण कीजिये ॥ २ ॥

एकस्मिन्समये शम्भुरद्भुतोतिकरः प्रभुः ।
ददर्श मोहिनीरूपं विष्णोः स हि वसद्गुणः ॥ ३ ॥
एक बार अत्यन्त अद्‌भुत लीला करनेवाले तथा सर्वगुणसम्पन्न उन भगवान् शिवने विष्णुके मोहिनी रूपको देखा ॥ ३ ॥

चक्रे स्वं क्षुभितं शम्भुः कामबाणहतो यथा ।
स्वं वीर्यं पातयामास रामकार्यार्थमीश्वरः ॥ ४ ॥
[उस मोहिनी रूपको देखते ही] कामबाणसे आहतकी भाँति शम्भुने अपनेको विक्षुब्ध कर दिया और उन ईश्वरने श्रीरामके कार्यके लिये अपने तेजका उत्सर्ग कर दिया ॥ ४ ॥

तद्वीर्यं स्थापयामासुः पत्रे सप्तर्षयश्च ते ।
प्रेरिता मनसा तेन रामकार्यार्थमादरात ॥ ५ ॥
शिवजीके मनकी प्रेरणासे प्रेरित हुए सप्तर्षियोंने उनके तेजको रामकार्यके लिये आदरपूर्वक पत्तेपर स्थापित कर दिया ॥ ५ ॥

तैर्गौतमसुतायां तद्वीर्यं शम्भोर्महर्षिभिः ।
कर्णद्वारा तथाञ्जन्यां रामकार्यार्थमाहितम् ॥ ६ ॥
तत्पश्चात् उन महर्षियोंने शम्भुके उस तेजको श्रीरामके कार्यके लिये गौतमकी कन्या अंजनीमें कानके माध्यमसे स्थापित कर दिया ॥ ६ ॥

ततश्च समये तस्माद्धनूमानिति नामभाक् ।
शम्भुर्जज्ञे कपितनुर्महाबलपराक्रमः ॥ ७ ॥
समय आनेपर वह शम्भुतेज महान् बल तथा पराक्रमवाला और वानर शरीरवाला होकर हनुमान्के नामसे प्रकट हुआ ॥ ७ ॥

हनूमान्स कपीशानः शिशुरेव महाबलः ।
रविबिम्बं बभक्षाशु ज्ञात्वा लघुफलं प्रगे ॥ ८ ॥
वे महाबलवान् कपीश्वर हनुमान् जब शिशु ही थे, उसी समय प्रातःकाल उदय होते हुए सूर्यबिम्बको छोटा फल जानकर निगल गये थे ॥ ८ ॥

देवप्रार्थनया तं सोऽत्यजज्ज्ञात्वा महाबलम् ।
शिवावतारं च प्राप वरान्दत्तान् सुरर्षिभिः ॥ ९ ॥
तब देवताओंकी प्रार्थनासे उन्होंने सूर्यको उगल दिया । उन्हें महाबली शिवावतार जानकर देवताओं तथा ऋषियोंके द्वारा प्रदत्त वरोंको उन्होंने प्राप्त किया ॥ ९ ॥

स्वजनन्यन्तिकं प्रागादथ सोतिप्रहर्षितः ।
हनूमान्सर्वमाचख्यौ तस्यै तद्वृत्तमादरात् ॥ १० ॥
तत्पश्चात् अत्यन्त प्रसन्न हनुमान्जी अपनी माताके निकट गये और आदरपूर्वक उनसे वह वृत्तान्त कह सुनाया ॥ १० ॥

तदाज्ञया ततो धीरः सर्वविद्यामयत्नतः ।
सूर्यात्पपाठ स कपिर्गत्वा नित्यं तदान्तिकम् ॥ ११ ॥
इसके बाद माताकी आज्ञासे नित्यप्रति सूर्यके पास जाकर धैर्यशाली हनुमानजीने बिना यत्नके ही उनसे सारी विद्याएँ पढ़ लीं ॥ ११ ॥

सूर्याज्ञया तदंशस्य सुग्रीवस्यान्तिकं ययौ ।
मातुराज्ञामनुप्राप्य रुद्रांशः कपिसत्तमः ॥ १२ ॥
ज्येष्ठभ्रात्रा वालिना हि स्वस्त्रीभोक्त्रा तिरस्कृतः ।
ऋष्यमृकगिरौ तेन न्यवसत्स हनूमता ॥ १३ ॥
उसके बाद माताकी आज्ञा प्राप्तकर रुद्रके अंशभूत कपिश्रेष्ठ हनुमानजी सूर्यकी आज्ञासे [प्रेरित हो] सूर्यके अंशसे उत्पन्न हुए सुग्रीवके पास गये । वे सुग्रीव अपने ज्येष्ठ भ्राता वालि, जिसने उनकी स्त्रीका बलात् हरण कर लिया था, तिरस्कृत हो ऋष्यमूक पर्वतपर हनुमान्जीके साथ निवास करने लगे । १२-१३ ॥

ततोऽभूत्स सुकण्ठस्य मन्त्री कपिवरः सुधीः ।
सर्वथा सुहितं चक्रे सुग्रीवस्य हरांशजः ॥ १४ ॥
तत्रागतेन सभ्रात्रा हृतभार्येण दुःखिना ।
कारयामास रामेण तस्य सख्यं सुखावहम् ॥ १५ ॥
तब वे सुग्रीवके मन्त्री हो गये । शिवजीके अंशसे उत्पन्न परम बुद्धिमान् कपिश्रेष्ठ हनुमान्जीने सब प्रकारसे सुग्रीवका हित किया । उन्होंने भाई [लक्ष्मण]-के साथ वहाँ आये हुए अपहत पत्नीवाले दुखी रामके साथ उनकी सुखदायी मित्रता करवायी ॥ १४-१५ ॥

घातयामास रामश्च वालिनं कपिकुञ्जरम् ।
भ्रातृपत्न्याश्च भोक्तारं पापिनं वीरमानिनम् ॥ १६ ॥
रामचन्द्रजीने भाईकी स्त्रीके साथ रमण करनेवाले, महापापी एवं अपनेको वीर माननेवाले कपिराज वालिका वध कर दिया ॥ १६ ॥

ततो रामाऽऽज्ञया तात हनूमान्वानरेश्वरः ।
स सीतान्वेषणं चक्रे बहुभिर्वानरैः सुधीः ॥ १७ ॥
हे तात ! तदनन्तर वे महाबुद्धिमान् वानरेश्वर हनुमान् रामचन्द्रजीकी आज्ञासे बहुतसे वानरोंके साथ सीताकी खोजमें लग गये ॥ १७ ॥

ज्ञात्वा लङ्कागतां सीतां गतस्तत्र कपीश्वरः ।
द्रुतमुल्लंघ्य सिंधुं तमनिस्तीर्यं परैः स वै ॥ १८ ॥
सीताको लंकामें विद्यमान जानकर वे कपीश्वर दूसरोंके द्वारा न लाँधे जा सकनेवाले उस समुद्रको बड़ी शीघ्रतासे लांघकर वहाँ गये ॥ १८ ॥

चक्रेऽद्भुतचरित्रं स तत्र विक्रमसंयुतम् ।
अभिज्ञानं ददौ प्रीत्या सीतायै स्वप्रभोर्वरम् ॥ १९ ॥
सीताशोकं जहाराशु स वीरः कपिनायकः ।
श्रावयित्वा रामवृत्तं तत्प्राणावनकारकम् ॥ २० ॥
वहाँ उन्होंने पराक्रमयुक्त अद्‌भुत कार्य किया और जानकीको प्रीतिपूर्वक अपने प्रभुका उत्तम [मुद्रिकारूप] चिह्न प्रदान किया । जानकीके प्राणोंकी रक्षा करनेवाला रामवृत्त सुनाकर उन वीर वानरनायकने शीघ्र ही उनके शोकको दूर कर दिया ॥ १९-२० ॥

तदभिज्ञानमादाय निवृत्तो रामसन्निधिम् ।
रावणाराममाहत्य जघान बहुराक्षसान् ॥ २१ ॥
उन्होंने रावणकी अशोकवाटिका उजाड़कर बहुतसे राक्षसोंका वध कर दिया; फिर सीतासे स्मरणचिह्न लेकर रामचन्द्रके पास लौटने लगे ॥ २१ ॥

तदेव रावणसुतं हत्वा सबहुराक्षसम् ।
स महोपद्रवं चक्रे महोतिस्तत्र निर्भयः ॥ २२ ॥
उस समय महालीला करनेवाले उन्होंने अत्यन्त निर्भय होकर रावणके पुत्र तथा अनेक राक्षसोंको मारकर वहाँ लंकामें महान् उपद्रव किया ॥ २२ ॥

यदा दग्धो रावणेनावगुंठ्य वसनानि च ।
तैलाभ्यक्तानि सुदृढं महाबलवता मुने ॥ २३ ॥
उत्प्लुत्योत्प्लुत्य च तदा महादेवांशजः कपिः ।
ददाह लंकां निखिलां कृत्वा व्याजन्तमेव हि ॥ २४ ॥
हे मुने ! जब महाबलशाली रावणने तैलसे सने हुए वस्त्रोंको उनकी पूँछमें दृढ़तापूर्वक लपेटकर उसमें आग लगा दी, तब महादेवके अंशसे उत्पन हनुमान्जीने इसी बहानेसे कूद-कूदकर समस्त लंकाको जला दिया ॥ २३-२४ ॥

दग्ध्वा लंकां वञ्चयित्वा विभीषणगृहं ततः ।
अपतद्वारिधौ वीरस्ततः स कपिकुञ्जरः ॥ २५ ॥
तदनन्तर वे कपिश्रेष्ठ वीर हनुमान् [केवल] विभीषणके घरको छोड़कर सारी लंकाको जला करके समुद्र में कूद पड़े ॥ २५ ॥

स्वपुच्छ तत्र निर्वाप्य प्राप तस्य परं तटम् ।
अखिन्नः स ययौ रामसन्निधिं गिरिशांशजः ॥ २६ ॥
वहाँ अपनी पूंछ बुझाकर शिवके अंशसे उत्पन्न वे समुद्रके दूसरे किनारेपर आये और प्रसन्न होकर श्रीरामजीके पास गये ॥ २६ ॥

अविलंबेन सुजवो हनूमान् कपिसत्तमः ।
रामोपकण्ठमागत्य ददौ सीताशिरोमणिम् ॥ २७ ॥
सुन्दर वेगवाले कपिश्रेष्ठ हनुमान्जीने शीघ्रतापूर्वक श्रीरामके निकट जाकर उन्हें सीताजीकी चूड़ामणि प्रदान की ॥ २७ ॥

ततस्तदाज्ञया वीरः सिन्धौ सेतुमबन्धयत् ।
वानरः स समानीय बहून् गिरिवरान्बली ॥ २८ ॥
तत्पश्चात् उनकी आज्ञासे वानरोंके साथ उन बलवान् तथा वीर हनुमान्जीने अनेक विशाल पर्वतोंको लाकर समुद्रपर पुल बाँधा ॥ २८ ॥

गत्वा तत्र ततो रामस्तर्तुकामो यथा ततः ।
शिवलिंगं समानर्च प्रतिष्ठाप्य जयेप्सया ॥ २९ ॥
तब पार जानेकी कामनावाले श्रीरामचन्द्रजीने विजय प्राप्त करनेकी इच्छासे शिवलिंगको यथाविधि प्रतिष्ठितकर तदुपरान्त उसका पूजन किया ॥ २९ ॥

तद्वरात्स जयं प्राप्य वरं तीर्त्वोदधिं ततः ।
लंकामावृत्य कपिभी रणं चक्रे स राक्षसैः ॥ ३० ॥
तत्पश्चात् उन्होंने पूज्यतम शिवजीसे विजयका वरदान प्राप्त करके समुद्र पारकर वानरोंके साथ लंकाको घेरकर राक्षसोंसे युद्ध किया ॥ ३० ॥

जघानाथासुरान्वीरो रामसैन्यं ररक्ष सः ।
शक्ति क्षतं लक्ष्मणं च सञ्जीविन्या ह्यजीवयत् ॥ ३१ ॥
उन वीर हनुमान्ने राक्षसोंका वध किया, श्रीरामचन्द्रजीकी सेनाकी रक्षा की तथा शक्तिसे घायल लक्ष्मणको संजीवनी बूटीके द्वारा पुनः जीवित कर दिया ॥ ३१ ॥

सर्वथा सुखिनं चक्रे सरामं लक्ष्मणं हि सः ।
सर्वसैन्यं ररक्षासौ महादेवात्मजः प्रभुः ॥ ३२ ॥
इस प्रकार महादेवके पुत्र प्रभु उन हनुमान्जीने लक्ष्मणसहित श्रीरामजीको सब प्रकारसे सुखी बनाया और सम्पूर्ण सेनाकी रक्षा की ॥ ३२ ॥

रावणं परिवाराढ्यं नाशयामास विश्रमः ।
सुखीचकार देवान्स महाबलग्रहः कपि ॥ ३३ ॥
महान् बल धारण करनेवाले उन कपिने बिना बमके परिवारसहित रावणका विनाश किया और देवताओंको सुखी बनाया ॥ ३३ ॥

महीरावणसञ्ज्ञं स हत्वा रामं सलक्ष्मणम् ।
तत्स्थानादानयामास स्वस्थानं परिपाल्य च ॥ ३४ ॥
उन्होंने महिरावण नामक राक्षसको मारकर लक्ष्मणसहित रामकी रक्षा करके उसके स्थानसे उन्हें अपने स्थानपर ला दिया ॥ ३४ ॥

रामकार्यं चकाराशु सर्वथा कपिपुङ्‌गवः ।
असुरान्नमयामास नानालीलां चकार च ॥ ३५ ॥
इस प्रकार उन कपिपुंगवने सब प्रकारसे श्रीरामका कार्य शीघ्र ही सम्पन्न किया, असुरोंका वध किया एवं नाना प्रकारकी लीलाएँ की ॥ ३५ ॥

स्थापयामास भूलोके रामभक्तिं कपीश्वरः ।
स्वयं भक्तवरो भूत्वा सीतारामसुखप्रदः ॥ ३६ ॥
सीतारामको सुख देनेवाले वानरराजने स्वयं श्रेष्ठ भक्त होकर भूलोकमें रामभक्तिकी स्थापना की । ३६ ॥

लक्ष्मणप्राणदाता च सर्वदेवमदापहः ।
रुद्रावतारो भगवान्भक्तोद्धारकरः स वै ॥ ३७ ॥
वे लक्ष्मणके प्राणोंके रक्षक, सभी देवताओंका गर्व चूर करनेवाले, रुद्रके अवतार, भगवत्स्वरूप और भक्तोंका उद्धार करनेवाले थे ॥ ३७ ॥

हनुमान्स महावीरो रामकार्यकरः सदा ।
रामदूताभिधो लोके दैत्यघ्नो भक्तवत्सलः ॥ ३८ ॥
वे हनुमान्जी महावीर, सदा रामका कार्य सिद्ध करनेवाले, लोकमें रामदूतके रूपमें विख्यात, दैत्योंका संहार करनेवाले तथा भक्तवत्सल थे ॥ ३८ ॥

इति ते कथितं तात हनुमच्चरितं वरम् ।
धन्यं यशस्यमायुष्यं सर्वकामफलप्रदम् ॥ ३९ ॥
हे तात ! इस प्रकार मैंने हनुमान्जीका श्रेष्ठ चरित्र कहा, जो धन, यश, आयु तथा सम्पूर्ण कामनाओंका फल देनेवाला है ॥ ३९ ॥

य इदं शृणुयाद्भक्त्या श्रावयेद्वा समाहितः ।
स भुक्त्वेहाखिलान्कामान् अन्ते मोक्षं लभेत्परम् ॥ ४० ॥
जो सावधान होकर भक्तिपूर्वक इसे सुनता है अथवा सुनाता है, वह इस लोकमें सभी सुखोंको भोगकर अन्तमें परम मोक्षको प्राप्त करता है । ४० ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां
हनुमदवतारचरित्रवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरूबसंहितामें हनुमदवतारचरित्र वर्णन नामक बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २० ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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