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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ तृतीया शतरुद्रसंहितायां
त्रयोविंशोऽध्यायः वृषेश्वरसञ्ज्ञकशिवावतारवर्णनम् -
विष्णद्वारा भगवान् शिवके वृषभेश्वरावतारका स्तवन - नन्दीश्वर उवाच - ततो वृषभरूपेण गर्जमानः पिनाकधृक् । प्रविष्टो विवरं तत्र निनदन्भैरवान् रवान् ॥ १ ॥ नन्दीश्वर बोले-तब वृषभका रूप धारणकर गर्जन तथा भीषण ध्वनि करते हुए पिनाकधारी शिवजीने उस [पातालके] विवरमें प्रवेश किया ॥ १ ॥ निपेतुस्तस्य निनदैः पुराणि नगराणि च । प्रकम्पो हि बभूवाथ सर्वेषां पुरवासिनाम् ॥ २ ॥ उनके निनादसे पुर और नगर सभी गिरने लगे एवं सभी नगरवासियोंको कँपकँपी होने लगी ॥ २ ॥ ततो वृषो हरेः पुत्रान्संग्रामोद्यतकार्मुकान् । शिवमायाविमूढात्ममहाबलपराक्रमान् ॥ ३ ॥ उसके बाद वृषभरूप धारण करनेवाले शिवजी महेश्वरको मायासे मोहित महान् बल तथा पराक्रमवाले और संग्रामके लिये धनुष उठाये हुए विष्णुपुत्रोंके सम्मुख पहुँचे ॥ ३ ॥ हरिपुत्रास्ततस्तेऽथ प्राकुप्यन्मुनिसत्तम । प्रदुद्रुवुः प्रगर्ज्योच्चैर्वीराः शंकरसन्मुखम् ॥ ४ ॥ हे मुनिसत्तम ! तब वे वीर विष्णुपुत्र कुपित हो उठे और जोर-जोरसे गर्जन करके शिवजीके सामने दौड़े ॥ ४ ॥ आयातांस्तान्हरेः पुत्रान् रुद्रो वृषभरूपधृक् । प्राकुप्यद्विष्णुपुत्रांश्च खुरैः शृंगैर्व्यदारयत् ॥ ५ ॥ वृषरूपधारी महादेव भी [अपने सामने] आये हुए विष्णुपुत्रोंपर कुपित हो उठे और खुरों तथा श्रृंगाँसे उन्हें विदीर्ण करने लगे ॥ ५ ॥ विदारितांगा रुद्रेण सर्वे हरिसुताश्च ते । नष्टा द्रुतं सन्बभूवुर्गतप्राणा विचेतसः ॥ ६ ॥ शिवजीके द्वारा क्षत-विक्षत किये गये शरीरवाले वे सभी मूढ़ विष्णुपुत्र शीघ्र ही प्राणरहित हो विनष्ट हो गये ॥ ६ ॥ हतेषु तेषु पुत्रेषु विष्णुर्बलवतां वरः । निष्क्रम्याथ प्रणम्योच्चैर्ययौ शीघ्रं हरान्तिकम् ॥ ७ ॥ उन पुत्रोंके मारे जानेपर बलवानोंमें श्रेष्ठ विष्णु [पाताल-विवरसे] शीघ्र बाहर निकलकर जोरसे गर्जना करके शिवजीके निकट जा पहुँचे ॥ ७ ॥ दृष्ट्वा रुद्रं प्रव्रजंतं हतविष्णुसुतं वृषम् । शरैः सन्ताडयामास दिव्यैरस्त्रैश्च केशवः ॥ ८ ॥ पुत्रोंको मारकर जाते हुए वृषभरूपधारी शिवजीको देखकर विष्णुने बाणों तथा दिव्यास्त्रोंसे उनपर प्रहार किया ॥ ८ ॥ ततः क्रुद्धो महादेवो वृषरूपी महाबलः । अस्त्राणि तानि विष्णोश्च जग्रास गिरिगोचरः ॥ ९ ॥ तब महाबलवान् कैलासनिवासी वृषभरूपधारी शिवने कुद्ध होकर विष्णुके उन अस्वोंको निगल लिया ॥ ९ ॥ अथ कृत्वा महाकोपं वृषात्मा स महेश्वरः । विननाद महाघोरं कम्पयंस्त्रिजगन्मुने ॥ १० ॥ हे मुने । इसके बाद वृषभरूपधारी उन महेश्वरने अत्यन्त क्रोधकर तीनों लोकोंको कपाते हुए महाघोर गर्जना को ॥ १० ॥ तत विष्णोश्च तरसा खुरैः शृंगैर्व्यदारयत् । विष्णुं क्रोधाकुलं मूढमजानन्तं निजं हरिम् ॥ ११ ॥ क्रोधमें उन्मत्त हुए और अज्ञानवश [शिवजीको] अपना ईश्वर न माननेवाले विष्णुको बड़े वेगसे कूदकूदकर अपने सींगों तथा खुरोंसे उन्होंने विदीर्ण कर दिया ॥ ११ ॥ ततः स शिथिलात्मा हि व्यथितांगो बभूव ह । तत्प्रहारमसह्याशु हरिर्मायाविमोहितः ॥ १२ ॥ तब मायासे विमोहित हुए विष्णु शिवजीके प्रहारको सहनेमें असमर्थ होकर शीघ्र ही शिथिल मनवाले तथा व्यथित शरीरवाले हो गये ॥ १२ ॥ गतगर्वो हरिश्चैव विचेता गतचेतनः । ज्ञातवान् परमेशानं विहरन्तं वृषात्मना ॥ १३ ॥ विष्णुका सारा गर्व चूर हो गया, वे चेतनाशून्य होकर मूर्चित हो गये, तब उन्होंने वृषभरूपधारी शिवजीको जाना ॥ १३ ॥ अथ विज्ञाय गौरीशमागतं वृषरूपतः । प्राह गम्भीरया वाचा नतस्कन्धः कृताञ्जलिः ॥ १४ ॥ इसके बाद वृषभरूपसे आये हुए शिवजीको पहचानकर विष्णुजी हाथ जोड़कर सिर झुकाकर गम्भीर वाणीमें कहने लगे- ॥ १४ ॥ हरिरुवाच - देवदेव महादेव करुणासागर प्रभो । मायया ते महेशान मोहितोहं विमूढधीः ॥ १५ ॥ कृतं युद्धं त्वयेशेन स्वनाथेन मया प्रभो । कृपां कृत्वा मयि स्वामिन्सोऽपराधो हि सह्यताम् ॥ १६ ॥ विष्णुजी बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे करुणासागर ! हे प्रभो ! हे महेशान ! आपकी मायासे मोहित होनेके कारण मेरी बुद्धि विकृत हो गयी थी । हे प्रभो ! हे स्वामिन् ! मैंने अपने स्वामी आप शिवसे जो युद्ध किया, आप मुझपर कृपा करके उस अपराधको क्षमा कीजिये ॥ १५-१६ ॥ नन्दीश्वर उवाच - तस्य तद्वचनं श्रुत्वा हरेर्दीनतया मुने । भगवान् शंकरः प्राह रमेशं भक्तवत्सलः ॥ १७ ॥ नन्दीश्वर बोले-हे मुने ! उन विष्णुकी दीनतापूर्ण यह बात सुनकर भक्तवत्सल भगवान् शंकरने विष्णुसे कहा- ॥ १७ ॥ हे विष्णो हे महाबुद्धे कथं मां ज्ञातवान्न हि । युद्धं कृतं कृतस्तेऽद्य ज्ञानं सर्वं च विस्मृतम् ॥ १८ ॥ हे विष्णो ! हे महाबुद्धे ! आपने मुझे क्यों नहीं पहचाना ? आपका सारा ज्ञान किस प्रकार विस्मृत हो गया, जिसके कारण आज आपने मेरे साथ युद्ध किया ? ॥ १८ ॥ आत्मानं किन्न जानासि मदधीनपराक्रमम् । त्वया नात्र रतिः कार्या निवर्तस्व कुचारतः ॥ १९ ॥ आपने अपनेको मेरे अधीन पराक्रमवाला क्यों नहीं समझा ? अब आप पुनः ऐसा न कीजिये और इस कृत्यसे विरत हो जाइये ॥ १९ ॥ कामाधीनं कथं ज्ञानं स्त्रीषु सक्तो विहारकृत् । नोचितं तव देवेश स्मरणं विश्वतारणम् ॥ २० ॥ आप इन स्त्रियोंमें आसक्त होकर विहार कर रहे हैं; भला कामी पुरुषको ज्ञान किस प्रकार रह सकता है ? हे देवेश ! यह आपके लिये उचित नहीं है, क्योंकि आपका स्मरण तो विश्वका तारण करनेवाला है ॥ २० ॥ तच्छुत्वा शम्भुवचनं विज्ञानप्रदमादरात् । व्रीड्यन्स्वमनसा विष्णुः प्राह वाचं महेश्वरम् ॥ २१ ॥ शिवजीके इस विज्ञानप्रद वचनको सुनकर मनही-मन लजित होते हुए विष्णु आदरपूर्वक शिवजीसे यह वचन कहने लगे- ॥ २१ ॥ विष्णुरुवाच - ममात्र विद्यते चक्रं तद् गृहीत्वेतदादरात् । गमिष्यामि स्वलोकं तं त्वदाज्ञापरिपालकः ॥ २२ ॥ विष्णुजी बोले-हे प्रभो ! यहाँ मेरा सुदर्शन चक्र है, इसे लेकर आपकी आज्ञाका आदरपूर्वक पालन करनेवाला मैं [अब] अपने लोकको जाऊँगा ॥ २२ ॥ नन्दीश्वर उवाच - तदाकर्ण्य महेशानो वचनं वैष्णवं हरः । प्रत्युवाच वृषात्मा हि वृषरक्षः पुनर्हरिम् ॥ २३ ॥ नन्दीश्वर बोले-तब वृषभरूपधारी धर्मरक्षक महेश्वर शिवने उस वचनको सुनकर विष्णुसे पुनः कहा- ॥ २३ ॥ न विलम्बः प्रकर्तव्यो गन्तव्यमित आशु ते । मच्छासनाद्धरे लोके चक्रमत्रैव तिष्ठताम् ॥ २४ ॥ हे हरे ! इस समय आप देर न कीजिये और मेरी आज्ञासे शीघ्र ही यहाँसे अपने लोक चले जाइये; चक्रको यहीं रहने दीजिये ॥ २४ ॥ सन्तानादित्यसंस्थानाच्छिवत्ववचनादपि । अहं घोरतरं तस्माच्चक्रमन्यद्ददामि ते ॥ २५ ॥ हे विष्णो ! मैं आपके कल्याणकारी वचनोंसे प्रसन्न होकर ज्योतिर्मय सान्तानिक लोकमें स्थित, इससे भिन्न एक दूसरा चक्र प्रदान करता हूँ, जो अत्यन्त भयंकर है ॥ २५ ॥ नन्दीश्वर उवाच - एतदुक्त्वा हरोऽलेखीद्दिव्यं कालानलप्रभम् । परं चक्रं प्रदीप्तं हि सर्वदुष्टविनाशनम् ॥ २६ ॥ विष्णवे प्रददौ चक्रं घोरार्कायुतसुप्रभम् । सर्वामरमुनीन्द्राणां रक्षकाय महात्मने ॥ २७ ॥ [नन्दीश्वर बोले- ऐसा कहकर शिवजीने दिव्य कालाग्निके समान देदीप्यमान, अत्यन्त प्रचलित एवं दुष्टोंका नाश करनेवाला चक्र प्रकट किया और दस हजार सूर्योकी-सी कान्तिवाले उस महाभयानक चक्रको सभी देवताओं एवं मुनियोंके रक्षक महात्मा विष्णुको प्रदान किया । २६-२७ ॥ लब्ध्वा सुदर्शनं चान्यञ्चक्रं परमदीप्तिमित् । उवाच विबुधांस्तत्र विष्णुर्बुद्धिमतां वरः ॥ २८ ॥ सर्वदेववरा यूयं मद्वाक्यं शृणुतादरात् । कर्तव्यं तत्तथा शीघ्रं ततः शं वो भविष्यति ॥ २९ ॥ तब बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ विष्णुने अत्यन्त दीप्तिमान् उस दूसरे सुदर्शनचक्रको प्राप्तकर वहाँ [स्थित] देवगणोंसे कहा-आप सभी श्रेष्ठ देवतागण आदरपूर्वक मेरी बात सुनिये और वैसा ही शीघ्र कीजिये; उसीसे आपलोगोंका कल्याण होगा ॥ २८-२९ ॥ दिव्या वरांगनाः सन्ति पाताले यौवनान्विताः । ताभिः सार्द्धं महाक्रीडां यः करोतु करोतु सः ॥ ३० ॥ पाताललोकमें स्थित उन दिव्य स्त्रियोंका वरण स्वेच्छासे आप लोग करें ॥ ३० ॥ तच्छुत्वा केशवाद्वाक्यं शूरास्त्रिदशयोनयः । प्रवेष्टुकामाः पातालं बभूवुर्विष्णुना सह ॥ ३१ ॥ विष्णुके उस वचनको सुनकर सभी शूर देवता उन विष्णुके साथ पातालमें प्रविष्ट होनेकी इच्छा करने लगे ॥ ३१ ॥ विचारमथ विज्ञाय तं तदा भगवान्हर । क्रोधाच्छापन्ददौ घोरं देवयोन्यष्टकस्य च ॥ ३२ ॥ तब भगवान् शिवने देवताओंके इस विचारको जानकर क्रोधपूर्वक अष्टविध देवयोनियोंको घोर शाप दे दिया ॥ ३२ ॥ हर उवाच - वर्जयित्वा मुनिं शान्तं दानवान्वा मदंशजम् । इदं यः प्रविशेत्स्थानं तस्य स्यान्निधनं क्षणात् ॥ ३३ ॥ हर बोले-मेरे अंशसे उत्पन्न हुए शान्त मुनि [कपिलजी] एवं दानवोंको छोड़कर जो इस स्थानमें प्रवेश करेगा, उसी समय उसकी मृत्यु हो जायगी ॥ ३३ ॥ श्रुत्वा वाक्यमिदं घोरं मनुष्यहितवर्धनम् । प्रत्याख्यातास्तु रुद्रेण देवाः स्वगृहमाययुः ॥ ३४ ॥ मनुष्योंके हितको बढ़ानेवाले शिवजीके इस घोर वाक्यको सुनकर तथा उनके द्वारा निषेध करनेपर देवतागण अपने-अपने स्थानको चले गये ॥ ३४ ॥ एवं स्त्रीलः परो विष्णुः शिवेन प्रतिशासितः । स्वर्लोकमगमद् व्यास स्वास्थ्यं प्राप जगच्च तत् ॥ ३५ ॥ हे व्यास ! इस प्रकार भगवान् शिवने अपनी मायाके प्रभावसे उनमें आसक्त हुए भगवान् विष्णुको अनुशासित किया और तब विष्णु देवलोकको चले गये तथा संसार सुखी हो गया ॥ ३५ ॥ वृषेश्वरोऽपि भगवान् शंकरो भक्तवत्सलः । इत्थं कृत्वा देवकार्यं जगाम स्वगिरीश्वरम् ॥ ३६ ॥ इस प्रकार देवताओंका कार्य करके वृषभरूपधारी भक्तवत्सल भगवान् शिव अपने स्थान कैलासपर्वतपर चले गये ॥ ३६ ॥ वृषेश्वरावतारस्तु वर्णितः शंकरस्य च । विष्णुमोहहरः शर्वस्त्रैलोक्यसुखकारकः ॥ ३७ ॥ पवित्रमिदमाख्यानं शत्रुबाधाहरं परम् । स्वर्ग्यं यशस्यमायुष्यं भुक्तिमुक्तिप्रदं सताम् ॥ ३८ ॥ य इदं शृणुयाद्भक्त्या श्रावयेद्वै समाहितः । तथा पठिति यो हीदं पाठयेत् सुधियो नरान् । स भुक्त्वा सकलान्कामान् अन्ते मोक्षमवाप्नुयात् ॥ ३९ ॥ हे सनत्कुमार !] मैंने शिवजीके वृषेश्वरावतारका वर्णन कर दिया, जो विष्णुके अज्ञानका हरण करनेवाला, कल्याणकारक तथा तीनों लोकोंको सुख प्रदान करनेवाला है । यह आख्यान परम पवित्र, श्रेष्ठ, शत्रुबाधाको दूर करनेवाला और सज्जनोंको स्वर्ग, यश, आयु, भोग तथा मोक्ष देनेवाला है । जो भक्तिके साथ सावधान होकर इसे सुनता है अथवा सुनाता है और जो इसे पढ़ता है तथा बुद्धिमान् मनुष्योंको पढ़ाता है, वह [इस लोकमें] समस्त सुखोंको भोगकर अन्तमें मोक्ष प्राप्त कर लेता है । ३७-३९ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसहितायां वृषेश्वरसञ्ज्ञकशिवावतारवर्णनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें वृषेश्वरसंज्ञक शिवावतारवर्णन नामक तेईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २३ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |