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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

तृतीया शतरुद्रसंहितायां

चतुर्विंशोऽध्यायः

पिप्पलादावतारवर्णनम् -
भगवान् शिवके पिप्पलादावतारका वर्णन -


नन्दीश्वर उवाच -
पिप्पलादाख्यपरममवतारं महेशितुः ।
शृणु प्राज्ञ महाप्रीत्या भक्तिवर्धनमुत्तमम् ॥ १ ॥
नन्दीश्वर बोले-हे प्राज्ञ ! अब आप महेश्वरके पिप्पलाद नामक भक्तिवर्धक अन्य अवतारको अत्यन्त प्रसन्नतासे सुनिये ॥ १ ॥

यः पुरा गदितो विप्रो दधीचिर्मुनिसत्तमः ।
महाशैवः सुप्रतापी च्यावनिर्भृगुवंशजः ॥ २ ॥
क्षुवेण सह संग्रामे येन विष्णुः पराजितः ।
सनिर्जरोऽथ संशप्तो महेश्वरसहायिना ॥ ३ ॥
तस्य पत्नी महाभागा सुवर्चा नामनामतः ।
महापतिव्रता साध्वी यया शप्ता दिवौकसः ॥ ४ ॥
तस्मात्तस्यां महादेवो नानालीलाविशारदः ।
प्रादुर्बभूव तेजस्वी पिप्पलादेति नामतः ॥ ५ ॥
महाप्रतापी, भृगुवंशमें उत्पन्न, महान् शिवभक्त तथा मुनिश्रेष्ठ जिन च्यवनपुत्र विप्र दधीचिके विषयमें मैं पहले कह चुका हूँ और जिन्होंने क्षुवके साथ युद्धमें विष्णुको पराजित किया तथा महेश्वरकी कृपा प्राप्तकर देवताओंसहित विष्णुको शाप दिया था; उनकी सुवर्चा नामक महाभाग्यक्ती, महापतिव्रता एवं साध्वी पत्नी थीं, जिन्होंने देवताओंको शाप दिया था । उन मुनिसे उन्हीं सुवर्चाके गर्भसे अनेक लीलाएँ करने में प्रवीण तेजस्वी महादेव पिप्पलाद-इस नामसे उत्पन्न हुए ॥ २-५ ॥

सूत उवाच -
इत्याकर्ण्य मुनिश्रेष्ठो नन्दीश्वरवचोऽद्भुतम् ।
सनत्कुमारः प्रोवाच नतस्कन्धः कृताञ्जलिः ॥ ६ ॥
सूतजी बोले-नन्दीश्वरके इस अद्‌भुत वचनको सुनकर हाथ जोड़कर तथा सिर झुकाकर मुनिश्रेष्ठ सनत्कुमार कहने लगे- ॥ ६ ॥

सनत्कुमार उवाच -
नन्दीश्वर महाप्राज्ञ साक्षाद्‌रुद्रस्वरूपधृक् ।
धन्यस्त्वं सद्गुरुस्तात श्रावितेयं कथाद्भुता ॥ ७ ॥
सनत्कुमार बोले-हे महाप्राज्ञ ! हे नन्दीश्वर ! हे तात ! आप साक्षात् शिवस्वरूप हैं, आप धन्य हैं तथा आप ही सद्‌गुरु हैं, जो कि आपने यह अद्‌भुत कथा सुनायी है ॥ ७ ॥

क्षुवेण सह संग्रामे श्रुतो विष्णुपराजयः ।
ब्रह्मणा मे पुरा तात तच्छापश्च शिलादज ॥ ८ ॥
हे शिलादपुत्र ! हे तात ! क्षुवके साथ संग्राममें विष्णुको जिस प्रकार शिवभक्त दधीचिने पराजित किया था तथा उन्हें शाप दिया था, उस कथाको मैंने पहले ब्रह्माजीसे सुना था ॥ ८ ॥

अधुना श्रोतुमिच्छामि देवशापं सुवर्चया ।
दत्तं पश्चात् पिप्पलादचरितं म‌ङ्‌गलायनम् ॥ ९ ॥
अब मैं [पहले] सुवर्चाके द्वारा देवताओंको दिये गये शाप [के वृत्तान्तको] तथा बादमें कल्याणके निवासभूत पिप्पलादचरित्रको सुनना चाहता हूँ ॥ ९ ॥

सूत उवाच -
इति श्रुत्वाथ शैलादिर्विधिपुत्रव‍चः शुभम् ।
प्रत्युवाच प्रसन्नात्मा स्मृत्वा शिवपदाम्बुजम् ॥ १० ॥
सूतजी बोले-तत्पश्चात् ब्रह्मपुत्र सनत्कुमारका यह शुभ वचन सुनकर शिवजीके चरणकमलका ध्यानकर शिलादपुत्र प्रसन्नचित्त होकर कहने लगे- ॥ १० ॥

नन्दीश्वर उवाच -
एकदा निर्जराः सर्वे वासवाद्या मुनीश्वर ।
वृत्रासुरसहायैश्च दैत्यैरासन्पराजिताः ॥ ११ ॥
नन्दीश्वर बोले-हे मुनीश्वर ! किसी समय इन्द्रादि सभी देवताओंको वृत्रासुरकी सहायतासे दैत्योंने पराजित कर दिया ॥ ११ ॥

स्वानि स्वानि वरास्त्राणि दधीचस्याश्रमेऽखिलाः ।
निक्षिप्य सहसा सद्योऽभवन् देवाः पराजिताः ॥ १२ ॥
तदा सर्वे सुराः सेन्द्रा वध्यमानास्तथर्षयः ।
ब्रह्मलोकं गताः शीघ्रं प्रोचुः स्वं व्यसनं च तत् ॥ १३ ॥
तब उन सभी देवताओंने सहसा दधीचि मुनिके आश्रममें अपने श्रेष्ठ अस्त्रोंको फेंक दिया और तत्काल पराजय स्वीकार कर ली । इसके बाद शीघ्र ही इन्द्र आदि सभी पीड़ित देवता एवं ऋषिगण ब्रह्मलोक गये तथा अपना वह दुःख निवेदित किया ॥ १२-१३ ॥

तच्छ्रुत्वा देववचनं ब्रह्मा लोकपितामहः ।
सर्वं शशंस तत्त्वेन त्वष्टुश्चैव चिकीर्षितम् ॥ १४ ॥
देवताओंके वचनको सुनकर लोकपितामह ब्रह्माने उनसे त्वष्टाका सारा मन्तव्य यथार्थ रूपसे कह दिया ॥ १४ ॥

भवद्वधार्थं जनितस्त्वष्ट्रायं तपसा सुराः ।
वृत्रो नाम महातेजाः सर्वदैत्याधिपो महान् ॥ १५ ॥
[ब्रह्माजी बोले-] हे देवताओ ! त्वष्टाने अपनी तपस्याके प्रभावसे आपलोगोंका वध करनेके लिये इसे उत्पन्न किया है; सम्पूर्ण दैत्योंका स्वामी यह वृत्र महान् तेजस्वी है ॥ १५ ॥

अथ प्रयत्नः क्रियतां भवेदस्य वधो यथा ।
तत्रोपायं शृणु प्राज्ञ धर्महेतोर्वदामि ते ॥ १६ ॥
अत: आप लोग वैसा प्रयत्न कीजिये, जिस प्रकार इसका वध हो सके । हे प्राज्ञ ! मैं धर्मकी रक्षाके लिये वह उपाय आपको बता रहा हूँ आप उसे सुनें ॥ १६ ॥

महामुनिर्दधीचिर्यः स तपस्वी जितेन्द्रियः ।
लेभे शिवं समाराध्य वज्रास्थित्ववरं पुरा ॥ १७ ॥
जो जितेन्द्रिय तथा तपस्वी दधीचि नामक महामुनि हैं, उन्होंने पूर्वकालमें शिवजीकी आराधनाकर वज्रके समान हडियोंवाला होनेका वरदान पाया था ॥ १७ ॥

तस्यास्थीन्येव याचध्वं स दास्यति न संशय ।
निर्माय तैर्दण्डवज्रं वृत्रं जहि न संशयः ॥ १८ ॥
आपलोग [उनके पास जाकर अस्थियोंके लिये याचना कौजिये, वे अवश्य दे देंगे । इसमें संशय नहीं है । इसके बाद उन अस्थियोंसे दण्डवतका निर्माणकर निःसन्देह वृत्रासुरका वध कीजिये ॥ १८ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
तच्छ्रुत्वा ब्रह्मवचनं शक्रो गुरुसमन्वितः ।
आगच्छत्सामरः सद्यो दधीच्याश्रममुत्तमम् ॥ १९ ॥
नन्दीश्वर बोले-[हे मुने !] ब्रह्माका यह वचन सुनकर देवगुरु बृहस्पति तथा देवताओंको साथ लेकर इन्द्र शीघ्र ही दधीचि ऋषिके उत्तम आश्रमपर आये ॥ १९ ॥

दृष्ट्‍वा तत्र मुनिं शक्रः सुवर्चान्वितमादरात् ।
ननाम साञ्जलिर्नम्रः सगुरुः सामरश्च तम् ॥ २० ॥
वहाँ सुवर्चासहित मुनिको बैठे देखकर गुरु एवं देवताओंसहित इन्द्रने हाथ जोड़कर विनम्र हो आदरपूर्वक उन्हें प्रणाम किया ॥ २० ॥

तदभिप्रायमाज्ञाय स मुनिर्बुधसत्तमः ।
स्वपत्नीं प्रेषयामास सुवर्चां स्वाश्रमान्तरम् ॥ २१ ॥
तब बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ उन मुनिने उनका अभिप्राय जानकर पत्नी सुवर्चाको आक्रमके भीतर भेज दिया ॥ २१ ॥

ततः स देवराजश्च सामरः स्वार्थसाधकः ।
अर्थशास्त्रपरो भूत्वा मुनीशं वाक्यमब्रवीत् ॥ २२ ॥
तत्पश्चात् देवताओंसहित देवराज इन्द्रने, जो स्वार्थसाधनमें बड़े दक्ष थे, अपने प्रयोजनमें तत्पर हो करके मुनीश्वरसे यह वाक्य कहा- ॥ २२ ॥

शक्र उवाच -
त्वष्ट्रा विप्रकृताः सर्वे वयन्देवास्तथर्षयः ।
शरण्यं त्वां महाशैवं दातारं शरणं गताः ॥ २३ ॥
शक्र बोले-[हे मुने !] हम देवताओं तथा ऋषियोंको यह त्वष्टा बड़ा दुःख दे रहा है । इसलिये हमलोग महाशिवभक्त, शरणागतवत्सल तथा महादानी आपकी शरणमें आये हुए हैं ॥ २३ ॥

स्वास्थीनि देहि नो विप्र महावज्रमयानि हि ।
अस्थ्ना ते स्वपविं कृत्वा हनिष्यामि सुरद्रुहम् ॥ २४ ॥
विप्र ! आप अपनी वज्रमयी अस्थियाँ हमें प्रदान कीजिये; क्योंकि हमलोग आपकी हड्डियोंसे वनका निर्माणकर देवद्रोही वृत्रासुरका वध करना चाहते हैं ॥ २४ ॥

इत्युक्तस्तेन स मुनिः परोपकरणे रतः ।
ध्यात्वा शिवं स्वनाथं हि विससर्ज कलेवरम् ॥ २५ ॥
इन्द्रके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर परोपकारपरायण उन मुनिने अपने स्वामी शिवका ध्यान करके [अपना] शरीर छोड़ दिया ॥ २५ ॥

ब्रह्मलोकं गतः सद्यः स मुनिर्ध्वस्तबन्धनः ।
पुष्पवृष्टिरभूत्तत्र सर्वे विस्मयमागताः ॥ २६ ॥
वे मुनि कर्मबन्धनसे छुटकारा पाकर शीघ्र ही ब्रह्मलोक चले गये । उस समय वहाँ फूलोंकी वर्षा होने लगी और सभी लोग आश्चर्यचकित हो गये ॥ २६ ॥

अथ गां सुरभिं शक्र आहूयाशु ह्यलेहयत् ।
अस्त्रनिर्मितये त्वाष्ट्रं निदि देश तदस्थिभिः ॥ २७ ॥
तदनन्तर इन्द्रने शीघ्र ही सुरभि गौको बुलाकर उसके द्वारा उन्हें चटवाया और उनकी अस्थियोंसे अस्त्र-निर्माण करनेके निमित्त विश्वकर्माको आज्ञा प्रदान की ॥ २७ ॥

विश्वकर्मा तदाज्ञप्तश्चक्लृपेऽस्त्राणि कृत्स्नशः ।
तदस्थिभिर्वज्रमयैः सुदृढैः शिववर्चसा ॥ २८ ॥
उनकी आज्ञा प्राप्त करके विश्वकर्माने शिवजीके तेजसे अत्यन्त दृढ़ बज्रमयी उन अस्थियोंसे सम्पूर्ण अस्त्रोंका निर्माण कर दिया ॥ २८ ॥

तस्य वंशोद्भवैर्वज्रं शरो ब्रह्मशिरस्तथा ।
अन्यास्थिभिर्बहूनि स्वपराण्यस्त्राणि निर्ममे ॥ २९ ॥
उन्होंने उनकी रीढ़की हड्डियोंसे वज्र तथा ब्रह्मशिर नामक बाणका निर्माण किया और अन्य अस्थियोंसे अपने तथा दूसरोंके लिये अनेक अस्त्रोंका निर्माण किया ॥ २९ ॥

तमिन्द्रो वज्रमुद्यम्य वर्द्धितः शिववर्चसा ।
वृत्रमभ्यद्रवत्क्रुद्धो मुने रुद्र इवान्तकम् ॥ ३० ॥
हे मुने ! तदनन्तर शिवजीके तेजसे वृद्धिको प्राप्त | इन्द्र उस वज्रको उठाकर बड़े वेगसे वृत्रासुरपर क्रोध करके इस प्रकार दौड़े, मानो रुद्र यमकी ओर दौड़ रहे हों ॥ ३० ॥

ततः शक्रः सुसन्नद्धस्तेन वज्रेण स द्रुतम् ।
उच्चकर्त शिरो वार्त्रं गिरिशृंगमिवौजसा ॥ ३१ ॥
इसके बाद उन इन्द्रने भलीभाँति सन्नद्ध होकर शीघ्रतासे उस वनके द्वारा उत्साहपूर्वक पर्वतशिखरके समान वृत्रासुरका सिर काट दिया ॥ ३१ ॥

तदा समुत्सवस्तात बभूव त्रिदिवौकसाम् ।
तुष्टुवुर्निर्जराः शक्रं पेतुः कुसुमवृष्टयः ॥ ३२ ॥
हे तात ! उस समय देवताओंको महान् प्रसन्नता हुई । देवता लोग इन्द्रकी स्तुति करने लगे और उनके ऊपर फूलोंकी वर्षा होने लगी ॥ ३२ ॥

इति ते कथितं तात प्रसंगाच्चरितं त्विदम् ।
पिप्पलादावतारं मे शृणु शम्भोर्महादरात् ॥ ३३ ॥
हे तात ! मैंने प्रसंगवश आपसे इस चरित्रका वर्णन किया । अब आप मुझसे शिवजीके पिप्पलाद-अवतारको आदरपूर्वक सुनिये ॥ ३३ ॥

सुवर्चा सा मुनेः पत्नी दधीचस्य महात्मनः ।
ययौ स्वमाश्रमाभ्यन्तस्तदाज्ञप्ता पतिव्रता ॥ ३४ ॥
आगत्य तत्र सा दृष्ट्‍वा न पतिं स्वं तपस्विनी ।
गृहकार्यं च सा कृत्वाखिलं पतिनिदेशतः ॥ ३५ ॥
आजगाम पुनस्तत्र पश्यन्ती बह्वशोभनम् ।
देवांश्च तान्मुनिश्रेष्ठ सुवर्चा विस्मिताभवत् ॥ ३६ ॥
महात्मा मुनि दधीचिकी पतिव्रता पत्नी सुवर्चा पतिकी आज्ञासे अपने आश्रमके भीतर चली गयी थीं । हे मुनिश्रेष्ठ ! पतिकी आज्ञासे [घरमें] जाकर सम्पूर्ण गृहकार्य करके जब वे तपस्विनी पुनः लौटीं, तो अपने पतिको वहाँ न देखकर और उन देवताओंको तथा उनके अत्यन्त अशोभनीय कर्मको देखती हुई वे सुवर्चा विस्मित हो गयीं ॥ ३४-३६ ॥

ज्ञात्वा च तत्सर्वमिदं सुराणां
    कृत्यं तदानीञ्च चुकोप साध्वी ।
ददौ तदा शापमतीव रुष्टा
    तेषां सुवर्चा ऋषिवर्यभार्या ॥ ३७ ॥
देवताओंके उस सम्पूर्ण कृत्यको जानकर उस साध्वीने उस समय महान् कोप किया । इसके बाद ऋषिवरकी पत्नी सुवर्चाने अत्यधिक रुष्ट होकर उन्हें शाप दे दिया ॥ ३७ ॥

सुवर्चोवाच -
अहो सुरा द्रुष्टतराश्च सर्वे
    स्वकार्यदक्षा ह्यबुधाश्च लुब्धाः ।
तस्माच्च सर्वे पशवो भवन्तु
    सेन्द्राश्च मेऽद्यप्रभृतीत्युवाच ॥ ३८ ॥
सुवर्चा बोलीं-हे देवगणो ! तुमलोग अत्यन्त दुष्ट, अपना कार्य साधनेमें दक्ष, अज्ञानी और लोभी हो, इसलिये इन्द्रसहित सभी देवता आजसे पशु हो जायेंऐसा उन्होंने कहा ॥ ३८ ॥

एवं शापं ददौ तेषां सुराणां सः तपस्विनी ।
सशक्राणां च सर्वेषां सुवर्चा मुनिकामिनी ॥ ३९ ॥
इस प्रकार उन तपस्विनी मुनिपत्नी सुवचनि इन्द्रसहित उन सभी देवताओंको शाप दे दिया ॥ ३९ ॥

अनुगन्तुं पतेर्लोकमथेच्छत्सा पतिव्रता ।
चितां चक्र समेधोभिः सुपवित्रैर्मनस्विनी ॥ ४० ॥
उसके बाद उन मनस्विनी पतिव्रताने अपने पतिके लोकमें जानेकी इच्छा की और अत्यन्त पवित्र काष्ठोंकी चिता बनायो ॥ ४० ॥

ततो नभोगिरा प्राह सुवर्चां तां मुनिप्रियाम् ।
आश्वासयन्ती गिरिशप्रेरिता सुखदायिनी ॥ ४१ ॥
उसी समय उन्हें आश्वस्त करती हुई शिवप्रेरित तथा सुखदायिनी आकाशवाणीने मुनिपत्नी उन सुवर्चासे कहा- ॥ ४१ ॥

आकाशवाण्युवाच -
साहसं न कुरु प्राज्ञे शृणु मे परमं वचः ।
मुनितेजस्त्वदुदरे तदुत्पादय यत्नतः ॥ ४२ ॥
ततः स्वाभीष्टचरणं देवि कर्तुं त्वमर्हसि ।
सगर्भा न दहेद् गात्रमिति ब्रह्मनिदेशनम् ॥ ४३ ॥
आकाशवाणी बोली-हे प्राज्ञे ! तुम दुःसाहस मत करो, मेरे उत्तम वचनको सुनो । तुम्हारे उदरमें [गर्भरूपसे] मुनिका तेज विद्यमान है; तुम उसे प्रयत्नपूर्वक उत्पन्न करो । हे देवि ! उसके बाद तुम अपना अभीष्ट कार्य कर सकती हो; क्योंकि सगाको सती नहीं होना चाहिये-ऐसी वेदकी आज्ञा है । ४२-४३ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इत्युक्त्वा सा नभोवाणी विरराम मुनीश्वर ।
तां श्रुत्वा सा मुनेः पत्नी विस्मिताभूत्क्षणं च सा ॥ ४४ ॥
नन्दीश्वर बोले-हे मुनीश्वर ! ऐसा कहकर आकाशवाणी शान्त हो गयी । तब उसे सुनकर वे मुनिकी पत्नी क्षणभरके लिये विस्मित हो गयीं ॥ ४४ ॥

सुवर्चा सा महासाध्वी पतिलोकमभीप्सती ।
उपविश्याश्मना भूयः सोदरं विददार ह ॥ ४५ ॥
तदनन्तर पतिलोक जानेकी इच्छा करती हुई महासाध्वी सुवर्चाने बैठकर पत्थरसे अपने पेटको फाड़ दिया ॥ ४५ ॥

निर्गतो जठरात्तस्या गर्भो मुनिवरस्य सः ।
महादिव्यतनुर्दीप्तो भासयंश्च दिशोदश ॥ ४६ ॥
साक्षाद् रुद्रावतारोऽसौ दधीचिवरतेजसः ।
प्रादुर्भूतः स्वयन्तात स्वलीलाकरणे क्षमः ॥ ४७।
उनके उदरसे परम दिव्य शरीरवाला तथा कान्तिमान् वह मुनिपुत्र दशों दिशाओंको प्रकाशित करता हुआ निकला । हे तात ! दधीचिके उत्तम तेजसे प्रादुर्भूत हुआ वह पुत्र अपनी लीला करनेमें समर्थ साक्षात् रुद्रका अवतार था ॥ ४६-४७ ॥

तं दृष्ट्‍वा स्वसुतं दिव्यं स्वरूपं मुनिकामिनी ।
सुवर्चाज्ञाय मनसा साक्षाद् रुद्रावतारकम् ॥ ४८ ॥
प्रहृष्टाभून्महासाध्वी प्रणम्याशु नुनाव सा ।
स्वहृदि स्थापयामास तत्स्वरूपं मुनीश्वर ॥ ४९ ॥
मुनिपत्‍नी सुवर्चा अपने उस दिव्य रूपवान् पुत्रको देखकर और मनमें उसे साक्षात् रुद्रका अवतार समझकर बहुत प्रसन्न हुई । हे मुनीश्वर ! उन महासाध्वीने शीघ्र ही प्रणामकर उसकी स्तुति की और उसके स्वरूपको अपने हृदयमें स्थापित कर लिया ॥ ४८-४९ ॥

सुवर्चा तनयं तं च प्रहस्य विमलेक्षणा ।
जननी प्राह सुप्रीत्या पतिलोकमभीप्सती ॥ ५० ॥
तत्पश्चात् पतिलोक जानेकी इच्छावाली विमलेक्षणा माता सुवर्चा हँसकर अपने उस पुत्रसे अत्यन्त प्रेमपूर्वक कहने लगी- ॥ ५० ॥

सुवर्चोवाच -
हे तात परमेशान चिरं तिष्ठास्य सन्निधौ ।
अश्वत्थस्य महाभाग सर्वेषां सुखदो भवेः ॥ ५१ ॥
मामाज्ञापय सुप्रीत्या पतिलोकाय चाधुना ।
तत्रस्थाहं च पतिना त्वां ध्याये रुद्ररूपिणम् ॥ ५२ ॥
सुवर्चा बोली-हे तात ! हे परमेशान ! हे महाभाग ! तुम बहुत समयतक इस पीपलवृक्षके समीप रहो और सबको सुखी बनाओ; अब मुझे पतिलोक जानेके लिये अति प्रसन्नतापूर्वक आज्ञा प्रदान करो, वहाँ रहती हुई मैं [अपने] पतिके साथ तुझ रुद्रस्वरूपका ध्यान करती रहूँगी ॥ ५१-५२ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इत्येवं सा बभाषेऽथ सुवर्चा तनयं प्रति ।
पतिमन्वगमत्साध्वी परमेण समाधिना ॥ ५३ ॥
नन्दीश्वर बोले-इस प्रकार साध्वी सुवर्चाने अपने पुत्रसे ऐसा कहकर परम समाधिद्वारा पतिका ही अनुगमन किया ॥ ५३ ॥

एवन्दधीचपत्नी सा पतिना संगता मुने ।
शिवलोकं समासाद्य सिषेवे शङ्‌करं मुदा ॥ ५४ ॥
हे मुने ! इस प्रकार वे दधीचिपत्नी [सुवा ] शिवलोकमें जाकर अपने पतिके साथ निवास करने लगी और आनन्दपूर्वक शिवजीकी सेवा करने लगीं ॥ ५४ ॥

एतस्मिन्नन्तरे देवाः सेन्द्राश्च मुनिभिः सह ।
तत्राजग्मुस्त्वरा तात आहूता इव हर्षिताः ॥ ५५ ॥
इसी अवसरपर इन्द्रसहित देवगण मुनियोंके साथ आमन्त्रित हुएके समान प्रसन्न होकर बड़ी शीघ्रतासे वहाँ आये ॥ ५५ ॥

हरिर्ब्रह्मा च सुप्रीत्यावतीर्णं शंकरं भुवि ।
सुवर्चायां दधीचाद्वा ययतुः स्वगणैः सह ॥ ५६ ॥
तत्र दृष्ट्‍वावतीर्णं तं मुनिपुत्रत्वमागतम् ।
रुद्रं सर्वे प्रणेमुश्च तुष्टुवुर्बद्धपाणयः ॥ ५७ ॥
दधीचिके द्वारा सुवचकि गर्भसे [पुत्ररूपमें] पृथ्वीपर शिवजीको अवतरित हुआ जानकर हर्षित हो ब्रह्मा तथा विष्णु भी अपने गणोंके साथ अति प्रसन्नतापूर्वक वहाँ पहुँचे और मुनिपुत्ररूपमें अवतरित हुए उन शिवजीको देखकर सबने प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की ॥ ५६-५७ ॥

तदोत्सवो महानासीद्देवानां मुनिसत्तम ।
नेदुर्दुन्दुभयस्तत्र नर्तक्यो ननृतुर्मुदा ॥ ५८ ॥
जगुर्गन्धर्वपुत्राश्च किन्नरा वाद्यवादकाः ।
वादयामासुरमराः पुष्पवृष्टिं च चक्रिरे ॥ ५९ ॥
हे मुनिसत्तम ! उस समय देवताओंने बड़ा उत्सव किया, आकाशमें भेरियाँ बजने लगीं, नर्तकियाँ प्रसन्नतासे नृत्य करने लगी, गन्धर्वपुत्र गान करने लगे, किन्नर बाजा बजाने लगे और देवता फूलोंकी वर्षा करने लगे ॥ ५८-५९ ॥

दधीचेः पिप्पलपितुर्विलसन्तं सुतं च तम् ।
संस्कृत्य विधिवत्सर्वे विष्ण्वाद्यास्तुष्टुवुः पुनः ॥ ६० ॥
विष्णु आदि सभी देवताओंने पीपलवृक्षके द्वारा संरक्षित दधीचिके उस शोभासम्पन्न पुत्रका विधिवत् [जातकर्मादि] संस्कार करके पुनः उसकी स्तुति की ॥ ६० ॥

पिप्पलादेति तन्नाम चक्रे ब्रह्मा प्रसन्नधीः ।
प्रसन्नो भव देवेश इत्यूचे हरिणा सुरैः ॥ ६१ ॥
ब्रह्मदेवने प्रसन्नचित्त होकर उसका नाम 'पिप्पलाद' रखा और देवताओंके साथ विष्णुने 'हे देवेश ! प्रसन्न होइये-ऐसा कहा ॥ ६१ ॥

इत्युक्त्वा तमनुज्ञाय ब्रह्मा विष्णुः सुरास्तथा ।
स्वं स्वं धाम ययुः सर्वे विधाय च महोत्सवम् ॥ ६२ ॥
इस प्रकार कहकर तथा उनसे आज्ञा लेकर ब्रा, विष्णु तथा समस्त देवगण महोत्सव मनाकर अपनेअपने स्थानको चले गये ॥ ६२ ॥

अथ रुद्रः पिप्पलादोऽश्वत्थमूले महाप्रभुः ।
तताप सुचिरं कालं लोकानां हितकाम्यया ॥ ६३ ॥
उसके बाद रुद्रावतार महाप्रभु पिप्पलाद पीपल वृक्षके नीचे संसारहितकी इच्छासे बहुत कालतक तप करते रहे ॥ ६३ ॥

इत्थं सुतपतस्तस्य पिप्पलादस्य सम्मुखे ।
महाकालो व्यतीयाय लोकचर्यानुसारिणः ॥ ६४ ॥
इस प्रकार लोकचर्याका अनुसरण करनेवाले उन पिप्पलादका भलीभाँति तपस्या करते हुए बहुत-सा समय व्यतीत हो गया ॥ ६४ ॥

इति श्रीः शिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां
पिप्पलादावतारवर्णनं नाम चतुर्विशोऽध्यायः ॥ २४ ॥
इस् प्रकार श्रीशिवपुराणके अन्तर्गत शतरुद्रसंहितामें पिप्पलादावतारवर्णन नामक चौबीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २४ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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