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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

तृतीया शतरुद्रसंहितायां

पञ्चविंशोऽध्यायः

पिप्पलादावतारचरितवर्णनम् -
राजा अनरण्यकी पुत्री पद्माके साथ पिप्पलादका विवाह एवं उनके वैवाहिक जीवनका वर्णन -


नन्दीश्वर उवाच -
अथ लोके व्यवस्थाय धर्मस्य स्थापनेच्छया ।
महालीलां चकारेशस्तामहो सन्मुने शृणु ॥ १ ॥
नन्दीश्वरजी बोले-इसके बाद धर्मकी स्थापनाकी इच्छासे लोकमें रहकर उन महेश्वरने महान् लीला की; हे सन्मुने ! उसे आप सुनें ॥ १ ॥

एकदा पुष्पभद्रायां स्नातुं गच्छन्मुनीश्वरः ।
ददर्श पद्मां युवतीं शिवांशां सुमनोहराम् ॥ २ ॥
एक बार पुष्पभद्रा नदीमें स्नान करनेके लिये जाते हुए उन मुनीश्वर [पिप्पलाद]-ने शिवाके अंशसे उत्पन्न हुई पद्या नामक अति मनोहर युवतीको देखा ॥ २ ॥

तल्लिप्सुस्तत्पितुः स्थानमनरण्यस्य भूपतेः ।
जगाम भुवनाचारी लोकतत्त्वविचक्षणः ॥ ३ ॥
लोकतत्त्वमें प्रवीण एवं समस्त भुवनोंमें संचरण करनेवाले वे उसे प्राप्त करनेकी इच्छासे उसके पिता राजा अनरण्यके पास गये ॥ ३ ॥

राजा नराणां तं दृष्ट्‍वा प्रणम्य च भयाकुलः ।
मधुपर्कादिकं दत्त्वा पूजयामास भक्तितः ॥ ४ ॥
उन्हें देखकर भयभीत हुए राजाने प्रणाम करके मधुपर्क आदि प्रदानकर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा की ॥ ४ ॥

स्नेहात्सर्वं गृहीत्वा स ययाचे कन्यकां मुनिः ।
मौनी बभूव नृपतिः किञ्चिन्निर्वक्तुमक्षमः ॥ ५ ॥
उन मुनिने स्नेहपूर्वक [मधुपर्क आदि] सबकुछ ग्रहण करके उस कन्याकी याचना की । [यह सुनकर] राजा मौन हो गये और कुछ बोल न सके ॥ ५ ॥

मुनिः प्रोवाच नृपतिं कन्यां मे देहि भक्तितः ।
अन्यथा भस्मसात्सर्वं करिष्येहं त्वया सह ॥ ६ ॥
मुनिने राजासे कहा कि मुझे भक्तिपूर्वक अपनी कन्या प्रदान कीजिये, अन्यथा आपसहित सब कुछ भस्म कर दूंगा ॥ ६ ॥

अथो बभूवुराच्छन्नाः सर्वे राजजनास्तदा ।
तेजसा पिप्पलादस्य दाधीचस्य महामुने ॥ ७ ॥
हे महामुने ! उस समय समस्त राजपुरुष दधीचिपुत्र पिप्पलादके तेजसे आच्छन्न हो गये ॥ ७ ॥

अथ राजा महाभीतो विलप्य च मुहुर्मुहुः ।
कन्यामलंकृतां पद्मां वृद्धाय मुनये ददौ ॥ ८ ॥
तब अत्यन्त डरे हुए राजाने बारंबार विलाप करके कन्या पद्माको अलंकृतकर वृद्ध मुनिको समर्पित कर दिया ॥ ८ ॥

पद्मां विवाह्य स मुनिः शिवांशाम्भूपतेः सुताम् ।
पिप्पलादो गृहीत्वा तां मुदितः स्वाश्रमं ययौ ॥ ९ ॥
पार्वतीके अंशसे समुद्‌भूत उस राजपुत्री पद्माके साथ विवाहकर वे मुनि पिप्पलाद उसे लेकर प्रसन्न होकर अपने आश्रममें चले गये ॥ ९ ॥

तत्र गत्वा मुनिवरो वयसा जर्जरोऽधिकः ।
उवाच नार्या स तया तपस्वी नातिलम्पटः ॥ १० ॥
वहाँ जाकर वृद्धावस्थाकै कारण अत्यधिक जर्जर हुए तथा लम्पट स्वभाव न रखनेवाले वे तपस्वी मुनिवर उस नारीके साथ निवास करने लगे ॥ १० ॥

अथोऽनरण्यकन्या सा सिषेवे भक्तितो मुनिम् ।
कर्मणा मनसा वाचा लक्ष्मीर्नारायणं यथा ॥ ११ ॥
जिस प्रकार लक्ष्मीजी नारायणकी सेवा करती हैं, उसी प्रकार अनरण्यकी वह कन्या मन, वचन तथा कर्मसे भक्तिपूर्वक मुनिकी सेवा करने लगी ॥ ११ ॥

इत्थं स पिप्पलादो हि शिवांशो मुनिसत्तमः ।
रेमे तया युवत्या च युवाभूय स्वलीलया ॥ १२ ॥
तब शिवके अंशरूप मुनिश्रेष्ठ पिप्पलाद अपनी लीलासे युवा होकर उस युवतीके साथ रमण करने लगे ॥ १२ ॥

दश पुत्रा महात्मानो बभूवुः सुतपस्विनः ।
मुनेः पितुः समाः सर्वे पद्मायाः सुखवर्द्धनाः ॥ १३ ॥
उन मुनिके परम तपस्वी दस महात्मा पुत्र उत्पन्न हुए । वे सब अपने पिताके समान [महातेजस्वी] तथा पाके सुखको बढ़ानेवाले थे ॥ १३ ॥

एवं लीलावतारो हि शंकरस्य महाप्रभोः ।
पिप्पलादो मुनिवरो नानालीलाकरः प्रभुः ॥ १४ ॥
इस प्रकार महाप्रभु शंकरके लीलावतार मुनिवर पिप्पलादने अनेक प्रकारकी लीलाएँ कीं ॥ १४ ॥

येन दत्तो वरः प्रीत्या लोकेभ्यो हि दयालुना ।
दृष्ट्‍वा लोके शनेः पीडां सर्वेषामनिवारिणीम् ॥ १५ ॥
षोडशाब्दावधि नृणां जन्मतो न भवेच्च सा ।
तथा च शिवभक्तानां सत्यमेतद्धि मे वचः ॥ १६ ॥
अथानादृत्य मद्वाक्यं कुर्यात्पीडां शनिः क्वचित् ।
तेषां नृणां तदा स स्याद्भस्मसान्न हि संशयः ॥ १७ ॥
लोकमें सभीके द्वारा अनिवारणीय शनि-पौड़ाको देखकर उन दयालु पिप्पलादने प्राणियोंको प्रीतिपूर्वक वर प्रदान किया था कि जन्मसे लेकर सोलह वर्षतककी आयुवाले मनुष्यों तथा शिवभक्तोंको शनिकी पीड़ा नहीं होगी; यह मेरा वचन सत्य होगा । मेरे इस वचनका निरादरकर यदि शनिने उन मनुष्योंको पीड़ा पहुँचायी तो वह उसी समय भस्म हो जायगा; इसमें सन्देह नहीं ॥ १५-१७ ॥

इति तद्भयतस्तात विकृतोपि शनैश्चरः ।
तेषां न कुरुते पीडां कदाचिद् ग्रहसत्तमः ॥ १८ ॥
हे तात ! इसीलिये ग्रहोंमें श्रेष्ठ शनैश्चर विकारयुक्त होनेपर भी उनके भयसे उन [वैसे मनुष्यों]-को कभी पीड़ित नहीं करता ॥ १८ ॥

इति लीलामनुष्यस्य पिप्पलादस्य सन्मुने ।
कथितं सुचरित्रन्ते सर्वकामफलप्रदम् ॥ १९ ॥
गाधिश्च कौशिकश्चैव पिप्पलादो महामुनिः ।
शनैश्चरकृतां पीडां नाशयन्ति स्मृतास्त्रयः ॥ २० ॥
हे सन्मुने ! इस प्रकार लीलापूर्वक मनुष्यरूप धारण करनेवाले पिप्पलादका उत्तम चरित मैंने आपसे कहा, जो सभी प्रकारको कामनाओंको प्रदान करनेवाला है । गाधि, कौशिक एवं महामुनि पिप्पलाद-ये तीनों [महानुभाव) स्मरण किये जानेपर शनैश्चरजनित पीडाको नष्ट करते हैं ॥ १९-२० ॥

पिप्पलादस्य चरितं पद्माचरितसंयुतम् ।
यः पठेच्छृणुयाद्वापि सुभक्त्या भुवि मानवः ॥ २१ ॥
शनिपीडाविनाशार्थमेतच्चरितमुत्तमम् ।
यः पठेच्छृणुयाद्वापि सर्वान्कामानवाप्नुयात् ॥ २२ ॥
भूलोकमें जो मनुष्य पद्माके चरित्रसे युक्त पिप्पलादके चरित्रको भक्तिपूर्वक पढ़ता या सुनता है और जो शनिकी पीड़ाके नाशके लिये इस उत्तम चरितको पढ़ता या सुनता है, उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं ॥ २१-२२ ॥

धन्यो मुनिवरो ज्ञानी महाशैवः सतां प्रियः ।
अस्य पुत्रो महेशानः पिप्पलादाख्य आत्मवान् ॥ २३ ॥
महाज्ञानी, महाशिवभक्त एवं सज्जनोंके लिये प्रिय वे मुनिवर दधीचि धन्य हैं, जिनके पुत्र आत्मवेत्ता पिप्पलादके रूपमें साक्षात् शिवजी अवतरित हुए ॥ २३ ॥

इदमाख्यानमनघं स्वर्ग्यं कुग्रहपोषहृत् ।
सर्वकामप्रदन्तात शिवभक्तिविवर्द्धनम् ॥ २४ ॥
हे तात ! यह आख्यान निष्पाप, स्वर्गको देनेवाला, क्रूर ग्रहोंक दोषको नष्ट करनेवाला, सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाला तथा शिवभक्तिको बढ़ानेवाला है ॥ २४ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां
पिप्पलादावतारचरितवर्णनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें पिप्पलादावतारचरितवर्णन नामक पच्चीसवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २५ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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