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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ तृतीया शतरुद्रसंहितायां
षड्विंशोऽध्यायः वैश्यनाथाह्वयशिवावतारवर्णनम् -
शिवके वैश्यनाथ नामक अवतारका वर्णन - नन्दीश्वर उवाच - शृणु तात प्रवक्ष्यामि शिवस्य परमात्मनः । अवतारं परानन्दं वैश्यनाथाह्वयं मुने ॥ १ ॥ नन्दीश्वर बोले-हे तात ! हे मुने ! अब मैं परमात्मा शिवजीके परम आनन्ददायक वैश्यनाथ नामक अवतारका वर्णन कर रहा हूँ आप सुनिये ॥ १ ॥ नन्दिग्रामे पुरा काचिन्महानन्देति विश्रुता । बभूव वारवनिता शिवभक्ता सुसुन्दरी ॥ २ ॥ पूर्व समयमें नन्दिग्राममें कोई महानन्दा नामसे प्रसिद्ध शिवभक्ता महासुन्दरी वेश्या रहती थी ॥ २ ॥ महाविभवसम्पन्ना सुधनाढ्या महोज्ज्वला । नानारत्नपरिच्छिन्नशृङ्गाररसनिर्भरा ॥ ३ ॥ सर्वसंगीत विद्यासु निपुणातिमनोहरा । तस्या गेयेन हृष्यन्ति राज्ञ्यो राजान एव च ॥ ४ ॥ वह ऐश्वर्यसम्पन्न, धनाढ्य, परम कान्तियुक्त, अनेक प्रकारके रलोंसे युक्त, शृंगाररससे परिपूर्ण, सब प्रकारकी संगीत विद्याओंमें कुशल तथा मनको अत्यन्त मोहित करनेवाली थी । उसके गानसे रानियाँ तथा राजा हर्षित हो जाते थे ॥ ३-४ ॥ समानर्च सदा साम्बं सा वेश्या शंकरं मुदा । शिवनामजपासक्ता भस्मरुद्राक्षभूषणा ॥ ५ ॥ वह वेश्या प्रसन्नतापूर्वक पार्वतीसहित शंकरकी सदा पूजा करती थी और शिवनामका जप करती थी तथा भस्म एवं रुद्राक्ष धारण करती थी ॥ ५ ॥ शिवं सम्पूज्य सा नित्यं सेवन्ती जगदीश्वरम् । ननर्त परया भक्त्या गायन्ती शिवसद्यशः ॥ ६ ॥ शिवजीका प्रतिदिन पूजनकर वह बड़ी भक्तिके साथ जगदीश्वरकी सेवा करती तथा शिवके उत्तम यशका गान करती हुई नृत्य करती थी ॥ ६ ॥ रुद्राक्षैर्भूषयित्वैकं मर्कटं चैव कुक्कुटम् । करतालैश्च गीतैश्च सदा नर्तयति स्म सा ॥ ७ ॥ वह एक बन्दर तथा मुर्गेको रुद्राक्षोंसे विभूषित करके ताली बजा-बजाकर गायन करती हुई उन्हें नचाती थी ॥ ७ ॥ नृत्यमानौ च तौ दृष्ट्वा शिवभक्तिरता च सा । वेश्या स्म विहसत्युच्चैः प्रेम्णा सर्वसखीयुता ॥ ८ ॥ उन दोनोंको नाचते हुए देखकर शिवजीकी भक्ति में तत्पर वह वेश्या अपनी सखियोंके सहित प्रेमपूर्वक उच्च स्वरमें हँसती थी ॥ ८ ॥ रुद्राक्षैः कृतकेयूरकर्णाभरणमण्डना । मर्कटः शिक्षया तस्याः पुरो नृत्यति बालवत् ॥ ९ ॥ रुद्राक्षका बाजूबन्द एवं कर्णाभूषण पहनी हुई उस महानन्दाके सामने उसके सिखानेसे वानर बालककी तरह नाचता था ॥ ९ ॥ शिखासंबद्धरुद्राक्षः कुक्कुटः कपिना सह । नित्यं ननर्त नृत्यज्ञः पश्यतां हितमावहन् ॥ १० ॥ शिखामें रुद्राक्ष धारण किया हुआ नृत्यकलामें विशारद वह मुर्गा देखनेवालोंको आनन्दित करता हुआ, उस वानरके साथ सदा नृत्य किया करता था ॥ १० ॥ एवं सा कुर्वती वेश्या कौतुकं परमादरात् । शिवभक्तिरता नित्यं महानन्दभराभवत् ॥ ११ ॥ इस प्रकार शिवभक्तिपरायणा वह वेश्या अत्यन्त आदरपूर्वक कौतुक करती हुई सदा आनन्दसे रहती थी ॥ ११ ॥ शिवभक्तिं प्रकुर्वन्त्या वेश्याया मुनिसत्तम । बहुकालो व्यतीयाय तस्याः परमसौख्यतः ॥ १२ ॥ हे मुनिसत्तम ! इस प्रकार शिवभक्ति करती हुई उस वेश्याका सुखपूर्वक बहुत समय व्यतीत हो गया ॥ १२ ॥ एकदा च गृहे तस्या वैश्यो भूत्वा शिवः स्वयम् । परीक्षितुं च तद्भावमाजगाम शुभो व्रती ॥ १३ ॥ एक बार स्वयं ही शुभस्वरूप शिवजी व्रत धारण किये हुए वैश्य बनकर उसके भावकी परीक्षा करनेके लिये उसके घर आये ॥ १३ ॥ त्रिपुण्ड्रविलसद्भालो रुद्राक्षाभरणः कृती । शिवनामजपासक्तो जटिलः शैववेषभृत् ॥ १४ ॥ वे कृती (वैश्यरूप शिव) त्रिपुण्ड्से शोभायमान मस्तकवाले, रुद्राक्षके आभरणवाले, शिवनाम जपने में आसक्त, जटायुक्त तथा शैव वेश धारण किये हुए थे ॥ १४ ॥ स बिभ्रद्भस्मनिचयं प्रकोष्ठे वरकंकणम् । महारत्नपरिस्तीर्णं राजते परकौतुकी ॥ १५ ॥ शरीरमें भस्म लगाये तथा हाथमें उत्तम रत्नोंसे युक्त श्रेष्ठ कंकण पहने वे परम कौतुकीकी तरह शोभित हो रहे थे ॥ १५ ॥ तमागतं सुसंपूज्य सा वेश्या परया मुदा । स्वस्थाने सादरं वैश्यं सुन्दरी हि न्यवेशयत् ॥ १६ ॥ उन आये हुए वैश्यकी भलीभाँति पूजा करके उस सुन्दरी वेश्याने बड़े आनन्दके साथ उनको आदरसहित अपने स्थानमें बैठाया ॥ १६ ॥ तत्प्रकोष्ठे वरं वीक्ष्य कंकणं सुमनोहरम् । तस्मिञ्जातस्पृहा सा च तं प्रोवाच सुविस्मिता ॥ १७ ॥ उनकी कलाईमें अति मनोहर सुन्दर कंकणको देखकर उसमें उसकी लालसा उत्पन्न हो गयी और वह वेश्या चकित होकर उनसे कहने लगी ॥ १७ ॥ महानन्दोवाच - महारत्नमयश्चायं कंकणस्त्वत्करे स्थितः । मनो हरति मे सद्यो दिव्यस्त्रीभूषणोचितः ॥ १८ ॥ महानन्दा बोली-आपके हाथमें स्थित यह महारत्नजटित कंकण शीघ्र ही मेरे मनको आकर्षित कर रहा है; यह तो दिव्य स्त्रियोंके योग्य आभूषण है ॥ १८ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इति तां नवरत्नाढ्ये सस्पृहां करभूषणे । वीक्ष्योदारमतिर्वैश्यः सस्मितं समभाषत ॥ १९ ॥ नन्दीश्वर बोले-इस प्रकार नवीन रत्नोंसे युक्त हाथके भूषणके प्रति उसे लालसायुक्त देखकर उदार बुद्धिवाले वैश्यने मुसकराकर कहा- ॥ १९ ॥ वैश्यनाथ उवाच - अस्मिन्रत्नवरे दिव्ये सस्पृहं यदि ते मनः । त्वमेवाधत्स्व सुप्रीत्या मौल्यमस्य ददासि किम् ॥ २० ॥ वैश्यनाथ बोले-यदि इस रत्नोपम दिव्य कंकणमें तुम्हारा मन लुभा गया है, तो तुम ही प्रीतिसे इसको धारण करो; किंतु इसका क्या मूल्य दोगी ? ॥ २० ॥ वेश्योवाच - वयं हि स्वैरचारिण्यो वेश्यास्तु न पतिव्रताः । अस्मत्कुलोचितो धर्मो व्यभिचारो न संशयः ॥ २१ ॥ वेश्या बोली-हम व्यभिचारी वेश्याएँ हैं, पतिव्रताएँ नहीं हैं । व्यभिचार ही हमारे कुलका धर्म है; इसमें संशय नहीं ॥ २१ ॥ यद्येतदखिलं चित्तं गृह्णाति करभूषणम् । दिनत्रयमहोरात्रं पत्नी तव भवाम्यहम् ॥ २२ ॥ निश्चय ही इस हस्ताभूषणने मेरे चित्तको आकृष्ट कर लिया है, इसलिये मैं तीन दिनोंतक दिन-रात आपकी पत्नी बनकर रहूँगी ॥ २२ ॥ वैश्य उवाच - तथास्तु यदि ते सत्यं वचनं वीरवल्लभे । ददामि रत्नवलयं त्रिरात्रं भव मे वधूः ॥ २३ ॥ वैश्य बोले-हे वीरवल्लभे ! 'बहुत अच्छा'; यदि तुम्हारा वचन सत्य है, तो मैं [यह] रत्नकंकण देता हूँ और तुम तीन राततकके लिये मेरी पत्नी बन जाओ ॥ २३ ॥ एतस्मिन्व्यवहारे तु प्रमाणं शशिभास्करौ । त्रिवारं सत्यमित्युक्त्वा हृदयं मे स्पृश प्रिये ॥ २४ ॥ हे प्रिये ! इस व्यवहारमें सूर्य तथा चन्द्रमा साक्षी हैं; यह सत्य है-ऐसा तीन बार कहकर तुम मेरे हृदयका स्पर्श करो ॥ २४ ॥ वेश्योवाच - दिनत्रयमहोरात्रं पत्नी भूत्वा तव प्रभो । सहधर्मं चरामीति सत्यंसत्यं न संशयः ॥ २५ ॥ वेश्या बोली-हे प्रभो ! तीन दिनतक दिन-रात आपकी पत्नी होकर मैं सहधर्मका पालन करूँगी, यह सत्य है-सत्य है । इसमें सन्देह नहीं है ॥ २५ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्त्वा हि महानन्दा त्रिवारं शशिभास्करौ । प्रमाणीकृत्य सुप्रीत्या सा तद् हृदयमस्पृशत् ॥ २६ ॥ अथ तस्यै स वैश्यस्तु प्रदत्त्वा रत्नकंकणम् । लिंगं रत्नमयं तस्य हस्ते दत्त्वेदमब्रवीत् ॥ २७ ॥ नन्दीश्वर बोले-उस महानन्दाने तीन बार ऐसा कहकर सूर्य और चन्द्रमाको साक्षी मानकर अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक उनके हृदयका स्पर्श किया । तब वे वैश्य उसे रत्नजटित कंकण देकर [पुन:] उसके हाथमें रत्नमय शिवलिंग देकर यह कहने लगे- ॥ २६-२७ ॥ वैश्यनाथ उवाच - इदं रत्नमयं लिंगं शैवं मत्प्राणदवल्लभम् । रक्षणीयं त्वया कान्ते गोपनीयं प्रयत्नतः ॥ २८ ॥ वैश्यनाथ बोले-हे कान्ते ! यह रत्नजटित शिवलिंग मुझे प्राणोंसे भी अधिक प्रिय है । तुम इसकी रक्षा करना और यत्नपूर्वक इसे छिपाकर रखना ॥ २८ ॥ नन्दीश्वर उवाच - एवमस्त्विति सा प्रोच्य लिंगमादाय रत्नजम् । नाट्यमण्डपिका मध्ये निधाय प्राविशद् गृहम् ॥ २९ ॥ नन्दीश्वर बोले-उस वेश्याने 'ऐसा ही होगा'इस प्रकार कहकर रत्नजटित लिंग लेकर और उसे नाट्यशालाके मध्यमें रखकर घरमें प्रवेश किया ॥ २९ ॥ सा तेन संगता रात्रौ वैश्येन विटधर्मिणा । सुखं सुष्वाप पर्यंके मृदुतल्पोपशोभिते ॥ ३० ॥ तब वह वेश्या उन विटधर्मी (विलासी) वैश्यके साथ रात्रिमें कोमल गद्दोंसे शोभायमान पलंगपर सुखपूर्वक सो गयी ॥ ३० ॥ ततो निशीथसमये मुने वैश्यपतीच्छया । अकस्मादुत्थिता वाणी नृत्यमण्डपिकान्तरे ॥ ३१ ॥ महाप्रज्वलितो वह्निः सुसमीरसहायवान् । नाट्यमण्डपिकां तात तामेव सहसावृणोत् ॥ ३२ ॥ हे मुने ! तब मध्य रात्रिके समय उन वैश्यपतिकी इच्छासे नृत्यमण्डपके मध्य अकस्मात् एक ध्वनि होने लगी । हे तात ! उसी समय तेज पवनकी सहायतासे अग्निने अत्यन्त प्रज्वलित होकर उस नाट्यशालाको चारों ओरसे आवृत कर लिया ॥ ३१-३२ ॥ मण्डपे दह्यमाने तु सहसोत्थाय संभ्रमात् । मर्कटं मोचयामास सा वेश्या तत्र बन्धनात् ॥ ३३ ॥ मण्डपके प्रज्वलित होनेपर उस वेश्याने सहसा व्याकुलतासे उठकर बन्दरको बन्धनमुक्त कर दिया ॥ ३३ ॥ स मर्कटो मुक्तबन्धः कुक्कुटेन सहामुना । भिया दूरं हि दुद्राव विधूयाग्निकणान्बहून् ॥ ३४ ॥ स्तम्भेन सह निर्दग्धं तल्लिंगं शकलीकृतम् । दृष्ट्वा वेश्या स वैश्यश्च दुरंतं दुःखमापतुः ॥ ३५ ॥ बन्धनसे मुक्त हुआ वह बन्दर उस मुर्गक साथ बहुत-से अग्निकणोंको हटा करके भयसे दूर भाग गया । खम्भेके साथ जलकर खण्ड-खण्ड हो गये उस लिंगको देखकर वह वैश्य तथा वेश्या दोनों महादुखी हो गये ॥ ३४-३५ ॥ दृष्ट्वा ह्यात्मसमं लिंगं दग्धं वैश्यपतिस्तदा । ज्ञातुं तद्भावमन्तःस्थं मरणाय मतिं दधे ॥ ३६ ॥ उस समय वैश्यपतिने प्राणोंके समान शिवलिंगको जला हुआ देखकर उस वेश्याके चित्तमें स्थित भावको जाननेके लिये मरनेका विचार किया ॥ ३६ ॥ निविश्येऽतितरां खेदाद्वैश्यस्तामाह दुःखिताम् । नानालीलो महेशानः कौतुकान्नरदेहवान् ॥ ३७ ॥ अनेक लीलाएँ करनेवाले तथा कौतुकवश मनुष्य शरीर धारण किये हुए महेश्वररूप वैश्यपत्तिने महादुखी होकर उस दुःखित वेश्यासे कहा कि अब मैं अग्निमें प्रविष्ट हो जाऊँगा ॥ ३७ ॥ वैश्यपतिरुवाच - शिवलिंगे तु निर्भिन्ने दग्धे महत्प्राणवल्लभे । सत्यं वच्मि न सन्देहो नाहं जीवितुमुत्सहे ॥ ३८ ॥ चितां कारय मे भद्रे स्वभृत्यैस्त्वं वरैर्लघु । शिवे मनः समावेश्य प्रवेक्ष्यामि हुताशनम् ॥ ३९ ॥ वैश्यपति बोले- मेरे प्राणोंसे भी प्रिय शिवलिंगके जलकर खण्डित हो जानेपर मैं जीनेकी इच्छा नहीं करता-यह सत्य सत्य कहता हूँ; इसमें संशय नहीं है । हे भन्ने ! तुम अपने श्रेष्ठ सेवकोंसे बहुत शीघ्र चिता बनवाओ; मैं शिवमें मन लगाकर अग्निमें प्रवेश करूंगा ॥ ३८-३९ ॥ यदि ब्रह्मेन्द्रविष्ण्वाद्या वारयेयुः समेत्य माम् । तथाप्यस्मिन् क्षणे भद्रे प्रविशामि त्यजाम्यसून् ॥ ४० ॥ हे भद्रे ! यदि ब्रह्मा, इन्द्र, विष्णु आदि भी आकर मुझे रोकेंगे, तो भी इस समय मैं अग्निमें प्रवेश करूँगा और प्राणोंको त्याग दूंगा ॥ ४० ॥ नन्दीश्वर उवाच - तमेवं दृढनिर्बन्धं सा विज्ञाय सुदुःखिता । स्वभृत्यैः कारयामास चितां स्वभवनाद् बहिः ॥ ४१ ॥ नन्दीश्वर बोले-[हे मुने !] उनका ऐसा दृढ संकल्प जानकर वह अत्यन्त दुःखित हुई और उसने अपने सेवकोंसे अपने भवनके बाहर चिता बनवायी ॥ ४१ ॥ ततः स वैश्यः शिव एक एव प्रदक्षिणीकृत्य समिद्धमग्निम् । विवेश पश्यत्सु नरेषु धीरः सुकौतुकी संगतिभावमिच्छुः ॥ ४२ ॥ तब सुन्दर कौतुक करनेवाले तथा वेश्याके संगतिभावकी परीक्षा करनेवाले वे वैश्यरूपधारी धौर शिव जलती हुई अग्निकी परिक्रमा करके मनुष्योंके देखते-देखते अग्निमें प्रवेश कर गये ॥ ४२ ॥ दृष्ट्वा सा तद्गतिं वेश्या महानन्दातिविस्मिता । अनुतापं च युवती प्रपेदे मुनिसत्तम ॥ ४३ ॥ अथ सा दुःखिता वेश्या स्मृत्वा धर्मं सुनिर्मलम् । सर्वान्बंधुजनान्वीक्ष्य बभाषे करुणं वचः ॥ ४४ ॥ हे मुनिसत्तम ! वह युवती वेश्या महानन्दा उस गतिको देखकर अत्यन्त विस्मित हो उठी और खिन्न हो गयी । इसके बाद वह दुखी वेश्या निर्मल धर्मका स्मरण करके सभी बन्धुजनोंको देखकर करुणासे युक्त वचन कहने लगी- ॥ ४३-४४ ॥ महानन्दोवाच - रत्नकंकणमादाय मया सत्यमुदाहृतम् । दिनत्रयमहं पत्नी वैश्यस्यामुष्य संमता ॥ ४५ ॥ महानन्दा बोली-मैंने इस वैश्यसे रलकंकण लेकर सत्य वचन कहा था कि मैं तीन दिनतक इस वैश्यकी धर्मसम्मत पत्नी रहूँगी ॥ ४५ ॥ कर्मणा मत्कृतेनायं मृतो वैश्यः शिवव्रती । तस्मादहं प्रवेक्ष्यामि सहानेन हुताशनम् ॥ ४६ ॥ मेरे द्वारा किये गये कर्मसे यह शिवव्रतधारी वैश्य मृत्युको प्राप्त हुआ है, अतः मैं भी इसके साथ अग्निमें प्रवेश करूंगी ॥ ४६ ॥ स्वधर्मचारिणीत्युक्तमाचार्यैः सत्यवादिभिः । एवं कृते मम प्रीत्या सत्यं मयि न नश्यतु ॥ ४७ ॥ सत्याश्रयः परो धर्म सत्येन परमा गतिः । सत्येन स्वर्ग मोक्षौ च सत्ये सर्वं प्रतिष्ठितम् ॥ ४८ ॥ सत्य बोलनेवाले आचार्योने '[नारी] स्वधर्मका आचरण करनेवाली हो'-ऐसा कहा है, अतः प्रसन्न होकर मेरे द्वारा ऐसा किये जानेपर मुझमें स्थित सत्य नष्ट नहीं होगा । सत्यका आश्रय ही परम धर्म है, सत्यसे परम गति होती है, सत्यसे ही स्वर्ग और मोक्ष मिलते हैं, अतः सत्यमें ही सब कुछ प्रतिष्ठित है ॥ ४७-४८ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इति सा दृढनिर्बन्धा वार्यमाणापि बन्धुभिः । सत्यलोकपरा नारी प्राणांस्त्यक्तुं मनो दधे ॥ ४९ ॥ सर्वस्वं द्विजमुख्येभ्यो दत्त्वा ध्यात्वा सदाशिवम् । तमग्निं त्रिःपरिक्रम्य प्रवेशाभिमुखी ह्यभूत् ॥ ५० ॥ नन्दीश्वर बोले-इस प्रकार दृढ़ संकल्पवाली उस नारीने अपने बन्धुओंद्वारा रोके जानेपर भी सत्यके लोपके भयसे प्राणोंको त्याग देनेका निश्चय किया और श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको अपनी सम्पत्ति देकर सदाशिवका ध्यानकर उस अग्निकी तीन बार परिक्रमा करके वह उसमें प्रवेश करनेको उद्यत हुई । ४९-५० ॥ तां पतन्तीं समिद्धेऽग्नौ स्वपदार्पितमानसाम् । वारयामास विश्वात्मा प्रादुर्भूतः स वै शिवः ॥ ५१ ॥ अपने चरणोंमें समर्पित मनवाली उस वेश्याको जलती अग्निमें गिरती देखकर प्रकट हुए उन विश्वात्मा शिवजीने रोक दिया ॥ ५१ ॥ सा तं विलोक्याखिलदेवदेवं त्रिलोचनं चन्द्रकलावतंसम् । शशांकसूर्यानलकोटिभासं स्तब्धेव भीतेव तथैव तस्थौ ॥ ५२ ॥ सब देवताओंके भी देव, तीन नेत्रोंवाले, चन्द्रमाकी कलासे शोभित, करोड़ों चन्द्रमा-सूर्य-अग्निके समान प्रकाशवाले उन शिवको देखकर वह स्तब्ध तथा डरी हुईके समान उसी प्रकार खड़ी रह गयी ॥ ५२ ॥ तां विह्वलां सुवित्रस्वां वेपमानां जडीकृताम् । समाश्वास्य गलद्बाष्पां करौ धृत्वाब्रवीद्वचः ॥ ५३ ॥ तब व्याकुल, संत्रस्त, काँपती हुई, जड़ीभूत तथा आँसू गिराती हुई उस वेश्याको आश्वस्त करके उसके हाथोंको पकड़कर शिवजी यह वचन कहने लगे- ॥ ५३ ॥ शिव उवाच - सत्यं धर्मं च धैर्यं च भक्तिं च मयि निश्चलाम् । परीक्षितुं त्वत्सकाशं वैश्यो भूत्वाहमागतः ॥ ५४ ॥ शिवजी बोले-तुम्हारे सत्य, धर्म, धैर्य तथा मुझमें तुम्हारी निश्चल भक्तिकी परीक्षा करनेके निमित्त मैं वैश्य बनकर तुम्हारे पास आया था ॥ ५४ ॥ मा ययाग्निं समुद्दीप्य दग्धन्ते नाट्यमण्डपम् । दग्धं कृत्वा रत्नलिंगं प्रविष्टोहं हुताशनम् ॥ ५५ ॥ मैंने अपनी मायासे अग्निको प्रदीप्तकर तुम्हारे नाट्यमण्डपको जलाया है और रत्नलिंगको दग्ध करके मैं अग्निमें प्रविष्ट हुआ हूँ ॥ ५५ ॥ सा त्वं सत्यमनुस्मृत्य प्रविष्टाग्निं मया सह । अतस्ते संप्रदास्यामि भोगांस्त्रिदशदुर्लभान् ॥ ५६ ॥ यद्यदिच्छसि सुश्रोणि तदेव हि ददामि ते । त्वद्भक्त्याहं प्रसन्नोऽस्मि तवादेयं न विद्यते ॥ ५७ ॥ तुम सत्यका अनुस्मरण करके मेरे साथ अग्निमें प्रविष्ट होने लगी, अत: मैं तुम्हें देवताओंके लिये भी दुर्लभ भोगोंको प्रदान करूँगा । हे सुश्रोणि ! तुम जो-जो चाहती हो, उसे मैं तुम्हें देता हूँ: मैं तुम्हारी भक्तिसे प्रसन्न हूँ, तुम्हारे लिये [मुझे कुछ भी अदेय नहीं है ॥ ५६-५७ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इति ब्रुवति गौरीशे शंकरे भक्तवत्सले । महानन्दा च सा वेश्या शंकरं प्रत्यभाषत ॥ ५८ ॥ नन्दीश्वर बोले-[हे मुने !] इस प्रकार भक्तवत्सल गौरीपति शिवजीके कहनेपर वह महानन्दा वेश्या शंकरजीसे कहने लगी- ॥ ५८ ॥ वेश्योवाच - न मे वाञ्छास्ति भोगेषु भूमौ स्वर्गे रसातले । तव पादाम्बुजस्पर्शादन्यत्किञ्चिन्न कामये ॥ ५९ ॥ वेश्या बोली-भूमि, स्वर्ग तथा पातालके भोगोंमें मेरी इच्छा नहीं है । मैं आपके चरणकमलोंके स्पर्शके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं चाहती हूँ ॥ ५९ ॥ ये मे भृत्याश्च दास्यश्च ये चान्ये मम बान्धवाः । सर्वे त्वद्दर्शनपरास्त्वयि सन्न्यस्तवृत्तयः ॥ ६० ॥ सर्वानेतान्मया सार्द्धं निनीयात्मपरं पदम् । पुनर्जन्मभयं घोरं विमोचय नमोऽस्तु ते ॥ ६१ ॥ जो मेरे भृत्य तथा दासियाँ हैं और जो अन्य बान्धव हैं, वे सब आपके दर्शनके लिये लालायित हैं और आपमें ही चित्तकी वृत्तियाँ लगाये हुए हैं । मेरे सहित इन सभीको अपने परम पदकी प्राप्ति कराके पुनर्जन्मके घोर भयसे छुड़ाइये, आपको नमस्कार है ॥ ६०-६१ ॥ नन्दीश्वर उवाच - ततः स तस्या वचनं प्रतिनन्द्य महेश्वरः । ताः सर्वाश्च तया सार्धं निनाय स्वं परं पदम् ॥ ६२ ॥ नन्दीश्वर बोले-[हे मुने !] इसके उपरान्त शिवजीने उसके वचनका आदरकर उसके सहित उन सबको अपने परम पदकी प्राप्ति करायी ॥ ६२ ॥ वैश्यनाथावतारस्ते वर्णितः परमो मया । महानन्दासुखकरो भक्तानन्दप्रदः सदा ॥ ६३ ॥ मैंने वैश्यनाथके परम अवतारका वर्णन आपसे कर दिया, जो महानन्दाको सुख देनेवाला तथा भक्तोंको सदा आनन्द देनेवाला है ॥ ६३ ॥ इदं चरित्रं परमं पवित्रं सतां च सर्वप्रदमाशु दिव्यम् । शिवावतारस्य विशाम्पतेर्महा- नन्दामहासौख्यकरं विचित्रम् ॥ ६४ ॥ शिवके अवताररूप वैश्यनाथका यह दिव्य चरित्र परम पवित्र, सत्पुरुषोंको शीघ्र सब कुछ देनेवाला, महानन्दाको परम सुख देनेवाला तथा अद्भुत है ॥ ६४ ॥ इदं यः शृणुयाद्भक्त्या श्रावयेद्वा समाहितः । च्यवते न स्वधर्मात्स परत्र लभते गतिम् ॥ ६५ ॥ जो भक्तिसहित सावधान होकर इसे सुनता है अथवा सुनाता है, वह अपने धर्मसे पतित नहीं होता, और परलोकमें [उत्तम] गति प्राप्त करता है ॥ ६५ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां वैश्यनाथाह्वयशिवावतारवर्णनं नाम षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरु संहिता में वैश्यनाथ नामवाले शिवावतारका वर्णन नामक छब्बीसवाँ अध्याय यूर्ण हुआ ॥ २६ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |