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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

तृतीया शतरुद्रसंहितायां

सप्तविंशोऽध्यायः

द्विजेशनाम शिवावतारवर्णनम् -
भगवान् शिवके द्विजेश्वरावतारका वर्णन -


नन्दीश्वर उवाच -
शृणु तात प्रवक्ष्यामि शिवस्य परमात्मनः ।
द्विजेश्वरावतारं च सशिवं सुखदं सताम् ॥ १ ॥
नन्दीश्वर बोले-हे तात ! अब मैं सज्जनोंके लिये कल्याणकारी तथा उन्हें सुख देनेवाले परमात्मा शिवके द्विजेश्वरावतारका वर्णन करता हूँ, उसे सुनिये ॥ १ ॥

यः पूर्वं वर्णितस्तात भद्रायुर्नृपसत्तमः ।
यस्मिन्नृषभरूपेणानुग्रहं कृतवाञ्छिवः ॥ २ ॥
तद्धर्मस्य परीक्षार्थं पुनराविर्बभूव सः ।
द्विजेश्वरस्वरूपेण तदेव कथयाम्यहम् ॥ ३ ॥
हे तात ! मैंने पहले जिन नृपश्रेष्ठ भद्रायुका वर्णन किया था और जिनपर शिवजीने ऋषभरूप धारणकर अनुग्रह किया था, उन्हींके धर्मको परीक्षा लेनेके लिये वे पुनः द्विजेश्वरस्वरूपसे प्रकट हुए थे, उसी वृत्तान्तको मैं कह रहा हूँ ॥ २-३ ॥

ऋषभस्य प्रभावेण शत्रूञ्जित्वा रणे प्रभुः ।
प्राप्तसिंहासनस्तात भद्रायुः संबभूव ह ॥ ४ ॥
चन्द्रांगदस्य तनया सीमन्तिन्याः शुभाङ्‌गजा ।
पत्नी तस्याभवद् ब्रह्मन् सुसाध्वी कीर्तिमालिनी ॥ ५ ॥
हे तात । उन प्रभविष्णु राजा भद्रायुने ऋषभके प्रभावसे संग्राममें समस्त शत्रुओंको जीतकर राज्यसिंहासन प्राप्त किया । हे ब्रह्मन् ! राजा चन्द्रांगदकी सीमन्तिनी नामक पत्नीसे उत्पन्न सुन्दरी पुत्री तथा परम साध्वी कीर्तिमालिनी उनकी पत्नी हुई ॥ ४-५ ॥

स भद्रायुः कदाचित्स्वप्रियया गहनं वनम् ।
प्राविशत्संविहारार्थं वसन्तसमये मुने । ६ ॥
अथ तस्मिन्वने रम्ये विजहार स भूपतिः ।
शरणागतपालिन्या तमास्यप्रियया सह ॥ ७ ॥
हे मुने ! किसी समय उन भद्रायुने वसन्तकालमें अपनी पत्नीके साथ वनविहार करनेके लिये घने वनमें प्रवेश किया । इसके बाद वे राजा उस सुरम्य वनमें शरणागतोंका पालन करनेवाली अपनी प्रियाके साथ विहार करने लगे ॥ ६-७ ॥

अथ तद्धर्मदृढतां प्रतीक्षन्परमेश्वरः ।
लीलां चकार तत्रैव शिवया सह शङ्करः ॥ ८ ॥
तब उनके धर्मकी दृढ़ताकी परीक्षाके लिये पार्वतीसहित भगवान् शिवने वहींपर एक लीला की ॥ ८ ॥

शिवा शिवश्च भूत्वोभौ तद्वने द्विजदम्पती ।
व्याघ्रं मायामयं कृत्वाविर्भूतौ निजलीलया ॥ ९ ॥
शिवजी और पार्वतीजी द्विजदम्पती बनकर तथा अपनी लीलासे एक मायामय व्याघ्रको बनाकर उस वनमें प्रकट हुए ॥ ९ ॥

अथाविदूरे तस्यैव द्रवन्तौ भयविह्वलौ ।
अन्वीयमानौ व्याघ्रेण रुदन्तौ तौ बभूवतुः ॥ १० ॥
अथ विद्धौ च तौ तात भद्रायुः स महीपतिः ।
ददर्श क्रन्दमानौ हि शरण्यः क्षत्रियर्षभः ॥ ११ ॥
वे दोनों द्विजदम्पती जहाँ राजा विहार कर रहे थे, वहींसे थोड़ी दूरपर व्याघ्रद्वारा पीछा किये जानेपर भयसे व्याकुल होकर दौड़ते, रोते-चिल्लाते हुए राजाके समीप पहुँचे । शरणागतवत्सल एवं क्षत्रियोंमें श्रेष्ठ उन राजा भद्रायुने व्याघ्रसे आक्रान्त होकर 'हे तात !' चिल्लाते हुए उन दोनोंको देखा ॥ १०-११ ॥

अथ तौ मुनिशार्दूलः स्वमायाद्विजदम्पती ।
भद्रायुषं महाराजमूचतुर्भयविह्वलौ ॥ १२ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! अपनी मायासे द्विजदम्पती बने हुए उन दोनोंने भयसे व्याकुल होकर महाराज भद्रायुसे इस प्रकार कहा- ॥ १२ ॥

द्विजदम्पती ऊचतुः -
पाहि पाहि महाराज नावुभौ धर्मवित्तम ।
एष आयाति शार्दूलो जग्धुमावां महाप्रभो ॥ १३ ॥
एष हिंस्रः कालसमः सर्वप्राणिभयङ्करः ।
यावन्न खादति प्राप्य तावन्नौ रक्ष धर्मवित् ॥ १४ ॥
द्विजदम्पती बोले-हे महाराज ! हे धर्मवित्तम ! हम दोनोंकी रक्षा कीजिये । हे महाप्रभो ! हम दोनोंको खानेके लिये यह व्याघ्र आ रहा है । हे धर्मज्ञ ! यह हिंसक, कालसदृश तथा सभी प्राणियोंके लिये भयंकर व्याघ्र आकर जबतक हम दोनोंको खा न ले, उसके पहले ही आप इस व्याघ्रसे हमलोगोंको बचा लीजिये ॥ १३-१४ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इत्थमाक्रन्दितं श्रुत्वा तयोश्च नृपतीश्वरः ।
अति शीघ्रं महावीरः स यावद्धनुराददे ॥ १५ ॥
तावदभ्येत्य शार्दूलः त्वरमाणोतिमायिकः ।
स तस्य द्विजवर्यस्य मध्ये जग्राह तां वधूम् ॥ १६ ॥
हे नाथनाथ हे कान्त हा शम्भो हा जगद्गुरो ।
इति रोरूयमाणां तां व्याघ्रो जग्रास भीषणः ॥ १७ ॥
नन्दीश्वर बोले-उन महावीर राजाने उन दोनोंका करुण क्रन्दन सुनकर ज्यों ही अत्यन्त शीघ्रतापूर्वक धनुष धारण किया, इतनेमें अति मायावी उस व्याघ्रने बड़ी शीघ्रताके साथ पहुँचकर उस द्विजश्रेष्ठकी स्त्रीको पकड़ लिया, और 'हे नाथ ! हा कान्त ! हा शम्भो ! हे जगद्‌गुरो !'-इस प्रकार कहकर रोती हुई उस स्त्रीको भयंकर व्याघ्रने ग्रास बना लिया ॥ १५-१७ ॥

तावत्स राजा निशितैर्भल्लैर्व्याघ्रमताडयत् ।
न स तैर्विव्यथे किञ्चिद्‌गिरीन्द्र इव वृष्टिभिः ॥ १८ ॥
तबतक राजाने अपने तीक्ष्ण भालोंसे व्याघ्रपर प्रहार किया, किंतु उसे उन भालोंसे किसी प्रकारको व्यथा नहीं हुई, जैसे वृष्टिधाराओंसे पर्वतराजपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है ॥ १८ ॥

स शार्दूलो महासत्त्वो राज्ञः स्वैरकृतव्यथः ।
बलादाकृष्य तां नारीमपाक्रमत सत्वरः ॥ १९ ॥
राजाके द्वारा यथेच्छ आघात किये जानेपर भी व्यथारहित वह महाबलवान् व्याघ्र बलपूर्वक उस स्त्रीको लेकर बड़ी शीघ्रताके साथ वहाँसे भाग गया ॥ १९ ॥

व्याघ्रेणापहृतां नारीं वीक्ष्य विप्रोऽतिविस्मितः ।
लौकिकीं गतिमाश्रित्य रुरोदाति मुहुर्मुहुः ॥ २० ॥
इस प्रकार बाघके द्वारा अपहत अपनी स्त्रीको देखकर ब्राहाण अत्यन्त विस्मित हो गया और लौकिकी गतिका आश्रय लेकर बारंबार रोने लगा ॥ २० ॥

रुदित्वा चिरकालं च स विप्रो माययेश्वरः ।
भद्रायुषं महीपालं प्रोवाच मदहारकः ॥ २१ ॥
फिर देरतक रोनेके बाद अभिमान नष्ट करनेवाले तथा मायासे विप्ररूप धारण करनेवाले उन परमेश्वरने राजा भद्रायुसे कहा- ॥ २१ ॥

द्विजेश्वर उवाच -
राजन् क्व ते महास्त्राणि क्व ते त्राणं महद्धनुः ।
क्व ते द्वादशसाहस्रमहानागायुतं बलम् ॥ २२ ॥
द्विजेश्वर बोले-हे राजन् ! [इस समय] तुम्हारे महान् अस्त्र कहाँ हैं, रक्षा करनेवाला तुम्हारा महाधनुष कहाँ है और बारह हजार हाथियोंका तुम्हारा बल कहाँ है ? ॥ २२ ॥

किं ते खड्गेन शङ्खेन किं ते मंत्रास्त्रविद्यया ।
किं सत्त्वेन महास्त्राणां किं प्रभावेण भूयसा ॥ २३ ॥
तत्सर्वं विफलं जातं यच्चान्यत्त्वयि तिष्ठति ।
यस्त्वं वनौकसां घातं न निवारयितुं क्षमः ॥ २४ ॥
तुम्हारे शंख तथा खड्गसे क्या लाभ ? तुम्हारी समन्त्रक अस्त्रविद्यासे क्या लाभ ? तुम्हारे सत्त्वसे क्या लाभ और तुम्हारे महान् अस्त्रोंके उत्कृष्ट और अतिशय प्रभावसे क्या लाभ ? अन्य जो कुछ भी तुममें है, वह सब निष्फल हो गया; क्योंकि तुम वनमें रहनेवाले जन्तुओंके आक्रमणको भी रोकने में सक्षम न हो सके । २३-२४ ॥

क्षत्रस्यायं परो धर्मो क्षताच्च परिरक्षणम् ।
तस्मिन्कुलोचिते धर्मे नष्टे त्वज्जीवितेन किम् ॥ २५ ॥
[प्रजाजनोंको] क्षीण होनेसे बचाना क्षत्रियका परम धर्म है । उस कुलधर्मके नष्ट हो जानेपर तुम्हारे जीवित रहनेसे क्या लाभ है ? ॥ २५ ॥

आर्तानां शरणाप्तानां त्राणं कुर्वन्ति पार्थिवाः ।
प्राणैरर्थैश्च धर्मज्ञास्तद्विना च मृतोपमा ॥ २६ ॥
धर्मज्ञ राजा अपने प्राणों तथा धनसे अपने शरणमें आये हुए दीन-दुःखियोंकी रक्षा करते हैं, यदि वे ऐसा नहीं करते तो मृतकके समान हैं ॥ २६ ॥

आर्तत्राणविहीनानां जीवितान्मरणं वरम् ।
धनिनां दानहीनानां गार्हस्थ्याद्‌भिक्षुता वरम् ॥ २७ ॥
पीड़ितोंकी रक्षा करनेमें असमर्थ राजाओंके लिये जीवित रहनेकी अपेक्षा मर जाना ही श्रेयस्कर है, दानसे हीन धनी लोगोंके लिये गृहस्थ होनेकी अपेक्षा भिखारी होना कहीं अधिक श्रेष्ठ है ॥ २७ ॥

वरं विषाशनं प्राज्ञैर्वरमग्निप्रवेशनम् ।
कृपणानामनाथानां दीनानामपरक्षणात् ॥ २८ ॥
अनाथ, दीन एवं आर्तजनोंकी रक्षा करनेमें जो अक्षम हैं, उनके लिये विष खाना या अग्निमें प्रवेश कर जाना कहीं अच्छा है-ऐसा बुद्धिमान् लोग कहते हैं ॥ २८ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इत्थं विलपितं तस्य स्ववीर्यस्य च गर्हणम् ।
निशम्य नृपतिः शोकादात्मन्येवमचिन्तयत् ॥ २९ ॥
नन्दीश्वर बोले-इस प्रकार उस ब्राह्मणका विलाप तथा उसके मुखसे अपने पराक्रमकी निन्दा सुनकर राजा भद्रायु शोकसन्तप्त हो अपने मनमें इस प्रकार विचार करने लगे ॥ २९ ॥

अहो मे पौरुषं नष्टमद्य देवविपर्ययात् ।
अद्य कीर्तिश्च मे नष्टा पातकं प्राप्तमुत्कटम् ॥ ३० ॥
अहो ! आज भाग्यके उलट-फेरसे मेरा पराक्रम नष्ट हो गया, आज मेरी कीर्ति नष्ट हो गयी और मुझे भयंकर पापका भागी होना पड़ा ॥ ३० ॥

धर्मः कुलोचितो नष्टो मन्दभाग्यस्य दुर्मतेः ।
नूनं मे सम्पदो राज्यमायुष्यं क्षयमेष्यति ॥ ३१ ॥
मुझ अभागे तथा दुर्बुद्धिका कुलोचित धर्म नष्ट हो गया । निश्चय ही [इस प्रकारके पापके कारण] मेरी सम्पत्तियों, राज्य और आयुका भी नाश हो जायगा ॥ ३१ ॥

अद्य चैनं द्विजन्मानं हतदारं शुचार्दितम् ।
हतशोकं करिष्यामि दत्त्वा प्राणानतिप्रियान् ॥ ३२ ॥
अपनी पत्नीके मर जानेसे शोकसन्तप्त इस ब्राह्मणको मैं आज अतिप्रिय प्राणोंको देकर शोकरहित करूँगा ॥ ३२ ॥

इति निश्चित्य मनसा स भद्रायुर्नृपोत्तमः ।
पतित्वा पादयोस्तस्य बभाषे परिसान्त्वयन् ॥ ३३ ॥
इस प्रकार नृपश्रेष्ठ भद्रायुने अपने मनमें निश्चयकर उस ब्राह्मणके चरणों में गिरकर उसे सान्त्वना देते हुए कहा- ॥ ३३ ॥

भद्रायुरुवाच -
कृपां कृत्वा मयि ब्रह्मन् क्षत्रबन्धौ हतौजसि ।
शोकन्त्यज महाप्राज्ञ दास्याम्यद्य तु वाञ्छितम् ॥ ३४ ॥
इदं राज्यमियं राज्ञी ममेदञ्च कलेवरम् ।
त्वदधीनमिदं सर्वं किं तेऽभिलषितं वरम् ॥ ३५ ॥
भद्रायु बोले-हे ब्रह्मन् ! हे महाप्राज्ञ ! मुझ नष्ट तेजवाले क्षत्रियाधमपर कृपा करके अपने शोकका त्याग कीजिये, मैं आज आपका अभीष्ट पूरा करूंगा । यह राज्य, यह रानी और मेरा यह शरीर सब कुछ आपके अधीन है, इसके अतिरिक्त आप और क्या चाहते हैं ? ॥ ३४-३५ ॥

ब्राह्मण उवाच -
किमादर्शेन चान्धस्य किं गृहेर्भैक्ष्यजीविनः ।
किं पुस्तकेन मूढस्य निस्त्रीकस्य धनेन किम् ॥ ३६ ॥
अतोऽहं हतपत्नीको भुक्तभोगो न कर्हिचित् ।
इमां तवाग्रमहिषीं कामये दीयतामिति ॥ ३७ ॥
ब्राह्मण बोले-[हे राजन् !] अन्धेको दर्पणसे क्या लाभ, भिक्षासे जीवन-निर्वाह करनेवालेको घरकी क्या आवश्यकता, मूर्खको पुस्तकसे क्या लाभ और स्वीविहीन पुरुषको धनसे क्या प्रयोजन ! इस समय मेरी स्त्री मर चुकी है और मैंने कभी कामसुखका उपभोग नहीं किया, अतः मैं आपकी इस पटरानीको चाहता हूँ, इसे मुझे दे दीजिये ॥ ३६-३७ ॥

भद्रयुरुवाच
दाता रसान्तवित्तस्य राज्यस्य गजवाजिनाम् ।
आत्मदेहस्य यस्यापि कलत्रस्य न कर्हिचित् ॥ ३८ ॥
भद्रायु बोले-[हे ब्राह्मण !] पूरी पृथ्वीके धनका और राज्य, हाथी, घोड़े तथा अपने शरीरका भी दाता तो हुआ जा सकता है, किंतु अपनी स्त्रीका दान करनेवाला तो कहीं नहीं होता ॥ ३८ ॥

परदारोपभोगेन यत्पापं समुपार्जितम् ।
न तत्क्षालयितुं शक्यं प्रायश्चित्तशतैरपि ॥ ३९ ॥
दूसरेकी स्त्रीके साथ समागम करनेसे जो पाप अर्जित किया जाता है, उसे सैकड़ों प्रायश्चित्तोंसे भी दूर नहीं किया जा सकता है ॥ ३९ ॥

ब्राह्मण उवाच -
आस्तां ब्रह्मवधं घोरमपि मद्यनिषेवणम् ।
तपसा विधमिष्यामि किं पुनः पारदारिकम् ॥ ४० ॥
ब्राह्मण बोले-मुझे घोर ब्रह्महत्या तथा मद्य पीनेका महापाप ही क्यों न लगे, मैं उसे तपस्यासे नष्ट कर दूंगा, फिर परस्त्रीगमन कितना बड़ा पाप है ॥ ४० ॥

तस्मात्प्रयच्छ भार्यां स्वामियां कामो न मेऽपरः ।
अरक्षणाद्भयार्तानां गन्तासि निरयं ध्रुवम् ॥ ४१ ॥
अतः आप मुझे अपनी यह स्त्री प्रदान कीजिये, मैं दूसरा कुछ नहीं चाहता, अन्यथा भयभीतोंकी रक्षा करने में असमर्थ होनेके कारण आपको निश्चित रूपसे नरककी प्राप्ति होगी ॥ ४१ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इति विप्रगिरा भीतश्चिन्तयामास पार्थिवः ।
अरक्षणान्महापापं पत्नीदानन्ततो वरम् ॥ ४२ ॥
नन्दीश्वर बोले-ब्राह्मणकी इस बातसे भयभीत राजा विचार करने लगे कि भयभीतकी रक्षा न कर सकना महान् पाप है, उसकी अपेक्षा स्त्री दे देना ही श्रेयस्कर है ॥ ४२ ॥

अतः पत्नीं द्विजाग्र्याय दत्त्वा निर्मुक्तकिल्विषः ।
सद्यो वह्निं प्रवेक्ष्यामि कीर्तिश्च विदिता भवेत् ॥ ४३ ॥
अतः श्रेष्ठ ब्राह्मणको अपनी स्त्री प्रदानकर पापसे मुक्त हो शीघ्र ही अग्निमें प्रवेश कर जाऊँगा, ऐसा करनेसे मेरी कीर्ति भी बढ़ेगी ॥ ४३ ॥

इति निश्चित्य मनसा समुज्ज्वाल्य हुताशनम् ।
तमाहूय द्विजं चक्रे पत्नीदानं सहोदकम् ॥ ४४ ॥
मनमें ऐसा विचारकर राजाने अग्नि प्रज्वलित करके उस ब्राह्मणको बुलाकर जल लेकर [संकल्पके साथ] अपनी पत्नीका दान कर दिया ॥ ४४ ॥

स्वयं स्नातः शुचिर्भूत्वा प्रणम्य विबुधेश्वरान् ।
तमग्निं त्रिःपरिक्रम्य शिवं दध्यौ समाहितः ॥ ४५ ॥
इसके बाद स्वयं स्नान करके पवित्र हो देवेश्वरोंको प्रणामकर उस अग्निकी तीन बार प्रदक्षिणा करके समाहितचित्त हो, उन्होंने शिवजीका ध्यान किया ॥ ४५ ॥

तमथाग्निं पतिष्यन्तं स्वपदासक्तचेतसम् ।
प्रत्यषेधत विश्वेशः प्रादुर्भूतो द्विजेश्वरः ॥ ४६ ॥
तदनन्तर द्विजेश्वरने साक्षात् शिवरूपमें प्रकट होकर अपने चरणोंमें मन लगाकर [प्रचलित] अग्निमें गिरनेको उद्यत हुए उन राजाको रोक दिया ॥ ४६ ॥

तमीश्वरं पञ्चमुखं त्रिनेत्रं
    पिनाकिनं चन्द्रकलावतंसम् ।
प्रलम्बपिंगाशुजटाकलापं
    मध्याह्नसद्भास्करकोटितेजसम् ॥ ४७ ॥
मृणालगौरं गजचर्मवाससं
    गंगातरङ्‌गोक्षितमौलिदेशकम् ॥
नागेन्द्रहारावलिकण्ठभूषणं
    किरीटकाच्यंगदकंकणोज्ज्वलम् ॥ ४८ ॥
शूलासिखट्‍वांगकुठारचर्म-
    मृगाभयाष्टांगपिनाकहस्तम् ।
वृषोपरिस्थं शितिकण्ठभूषणं
    प्रोद्भूतमग्रे स नृपो ददर्श ॥ ४९ ॥
पाँच मुखोंवाले, तीन नेत्रोंवाले, पिनाकी, मस्तकपर चन्द्रकला धारण करनेवाले, लम्बी एवं पीली-पीली जटाओंसे युक्त, मध्याह्नकालीन करोड़ों सूर्योकी भाँति तेजवाले, मृणालके समान शुभ्र वर्णवाले, गजचर्म धारण किये हुए, गंगाकी तरंगोंसे सिंचित शिरःप्रदेशवाले, कण्ठमें नागेन्द्रहाररूप आभूषण धारण करनेवाले, मुकुटकरधनी-बाजूबन्द तथा कंकण धारण करनेसे उज्ज्वल प्रतीत होनेवाले, त्रिशूल-खड्ग-खट्वांग-कुठार-चर्ममृग-अभय मुद्रा तथा पिनाक नामक धनुषसे युक्त आठ हाथोंवाले, बैलपर बैठे हुए और कण्ठमें विषकी कालिमासे सुशोभित उन शिवजीको राजाने अपने सामने प्रकट हुआ देखा ॥ ४७-४९ ॥

ततोम्बराद् द्रुतं पेतुर्दिव्याः कुसुमवृष्टयः ।
प्रणेदुर्देवतूर्याणि देव्यश्च ननृतुर्जगुः ॥ ५० ॥
तब आकाशमण्डलसे शीघ्र ही दिव्य पुष्पवृष्टि होने लगी, देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजने लगी और अप्सराएँ नाचने तथा गाने लगीं ॥ ५० ॥

तत्राजग्मुः स्तूयमाना हरिर्ब्रह्मा तथासुराः ।
इन्द्रादयो नारदाद्या मुनयश्चापरेऽपि च ॥ ५१ ॥
ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्रादि देवता, नारदादि महर्षि तथा अन्य मुनिगण भी स्तुति करते हुए वहाँ आ पहुंचे ॥ ५१ ॥

तदोत्सवो महानासीत्तत्र भक्तिप्रवर्धनः ।
सति पश्यति भूपाले भक्तिनम्रीकृताञ्जलौ ॥ ५२ ॥
उस समय भक्तिसे विनम्र हो हाथ जोड़े हुए राजाके देखते-देखते ही भक्तिको बढ़ानेवाला महान् उत्सव होने लगा ॥ ५२ ॥

तद्दर्शनानन्दविजृम्भिताशयः
    प्रवृद्धवाष्पाम्बुविलिप्तगात्रः ।
प्रहृष्टरोमा स हि गद्गदाक्षर-
    स्तुष्टाव गीर्भिर्मुकुलीकृताञ्जलिः ॥ ५३ ॥
भगवान् सदाशिवके दर्शनमात्रसे राजाका अन्त:करण प्रसन्नतासे खिल उठा, अश्रुपातसे सारा शरीर आई हो गया, शरीर रोमांचित हो गया । तब वे हाथ जोड़े गद्‌गद वाणीसे शिवजीकी स्तुति करने लगे । ५३ ॥

ततः स भगवान् राज्ञा संस्तुतः परमेश्वरः ।
प्रसन्नः सह पार्वत्या तमुवाच दयानिधिः ॥ ५४ ॥
राजंस्ते परितुष्टोहं भक्त्या त्वद्धर्मतोऽधिकम् ।
वरं ब्रूहि सपत्नीकं प्रयच्छामि न संशयः ॥ ५५ ॥
तव भावपरीक्षार्थं द्विजो भूत्वाहमागतः ।
व्याघ्रेण या परिग्रस्ता साक्षाद्देवी शिवा हि सा ॥ ५६ ॥
व्याघ्रो मायामयो यस्ते शरैरक्षतविग्रहः ।
धीरतां द्रष्टुकामस्ते पत्नी याचितवानहम् ॥ ५७ ॥
इसके बाद राजाके द्वारा स्तुति किये जानेपर पार्वतीके साथ प्रसन्न हुए दयानिधि भगवान् महेश्वरने उनसे कहा-हे राजन् ! मैं आपकी भक्तिसे अत्यन्त प्रसन्न हो गया हूँ और आपके धर्मपालनसे तो और भी प्रसन्न हुआ हूँ । अब आप अपनी पत्नीसहित बर माँगये, मैं उसे दूँगा, इसमें संशय नहीं है । मैं आपके भक्तिभावकी परीक्षाके लिये ही ब्राह्मणवेष धारण करके आया था और व्याघ्रने जिसे पकड़ लिया था, वे साक्षात् देवी पार्वती थीं । तुम्हारे बाणोंसे आहत न होनेवाला जो व्याघ्र था, वह मायासे बनाया गया था और मैंने आपके धैर्यकी परीक्षाके लिये ही आपकी स्त्रीको माँगा था । ५४-५७ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इत्याकर्ण्य प्रभोर्वाक्यं स भद्रायुर्महीपतिः ।
पुनः प्रणम्य संस्तूय स्वामिनं नतकोऽब्रवीत् ॥ ५८ ॥
नन्दीश्वर बोले-प्रभुका यह वचन सुनकर उन्हें पुनः प्रणामकर तथा उनकी स्तुति करके विनम्र होकर वे राजा भद्रायु स्वामी [शिव]-से कहने लगे- ॥ ५८ ॥

भद्रायुरुवाच -
एक एव वरो नाथ यद्भवान्परमेश्वरः ।
भवतापप्रतप्तस्य मम प्रत्यक्षतां गतः ॥ ५९ ॥
यद्ददासि पुनर्नाथ वरं स्वकृपया प्रभो ।
वृणेहं परमं त्यक्तो वरं हि वरदर्षभात् ॥ ६० ॥
वज्रबाहुः पिता मे हि सपत्नीको महेश्वर ।
सपत्नीकस्त्वहं नाथ सदा त्वत्पादसेवकः ॥ ६१ ॥
वैश्यः पद्माकरो नाम तत्पुत्रः सनयाभिधः ।
सर्वानेतान्महेशान सदा त्वं पार्श्वगान्कुरु ॥ ६२ ॥
भद्रायु बोले-हे नाथ ! मेरा एक ही वर है जो कि आप परमेश्वरने सांसारिक तापसे सन्तप्त मुझको प्रत्यक्ष दर्शन दिया है । हे नाथ ! हे प्रभो ! फिर भी यदि आप अपनी कृपासे वर देना ही चाहते हैं, तो मैं वरदाताओंमें श्रेष्ठ आपसे यही परम वर माँगता हूँ कि हे महेश्वर ! हे नाथ ! माताके साथ मेरे पिता वज़बाहु तथा स्त्रीके सहित मैं आपके चरणोंका सदा सेवक बना रहूँ और हे महेशान ! जो पद्माकर नामक यह वैश्य है तथा सनय नामक उसका पुत्र है-इन सबको सदा अपना पार्श्ववर्ती बनायें ॥ ५९-६२ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
अथ राज्ञी च तत्पत्नी प्रमत्ता कीर्तिमालिनी ।
भक्त्या प्रसाद्य गिरिशं ययाचे वरमुत्तमम् ॥ ६३ ॥
नन्दीश्वर बोले-तदनन्तर उस राजाकी कीर्तिमालिनी नामक पत्नी भी आनन्दित होकर अपनी भक्तिसे शिवजीको प्रसन्नकर उत्तम वरदान माँगने लगी ॥ ६३ ॥

राज्ञ्युवाच -
चन्द्रांगदो मम पिता माता सीमन्तिनी च मे ।
तयोर्याचे महादेव त्वत्पाश्वे सन्निधिं मुदा ॥ ६४ ॥
रानी बोली-हे महादेव ! मेरे पिता चन्द्रांगद और मेरी माता सीमन्तिनी-इन दोनोंके लिये प्रसन्नतापूर्वक आपके समीप निवासकी याचना करती हूँ ॥ ६४ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
एवमस्त्विति गौरीशः प्रसन्नो भक्तवत्सलः ।
तयोः कामवरन्दत्त्वा क्षणादन्तर्हितोऽभवत् ॥ ६५ ॥
नन्दीश्वर बोले-भक्तवत्सल पार्वतीपति प्रसन्न होकर उन दोनोंसे 'ऐसा ही हो'-इस प्रकार कहकर उन्हें इच्छित वर देकर क्षणभरमें अन्तर्धान हो गये ॥ ६५ ॥

भद्रायुरपि सुप्रीत्या प्रसादं प्राप्य शूलिनः ।
सहितः कीर्तिमालिन्या बुभुजे विषयान्बहून् ॥ ६६ ॥
भद्रायुने भी प्रीतिपूर्वक शिवजीकी कृपा प्राप्तकर [अपनी पत्नी] कीर्तिमालिनीके साथ अनेक विषयोंका भोग किया ॥ ६६ ॥

कृत्वा वर्षायुतं राज्यमव्याहतपराक्रमः ।
राज्यं विक्षिप्य तनये जगाम शिवसन्निधिम् ॥ ६७ ॥
चन्द्रांगदोऽपि राजेन्द्रो राज्ञी सीमन्तिनी च सा ।
भक्त्या संपूज्य गिरिशं जग्मतुः शाम्भवं पदम् ॥ ६८ ॥
इस प्रकार अव्याहत पराक्रमवाले राजा दस हजार वर्षपर्यन्त राज्य करके पुत्रको राज्यका भार देकर शिवजीकी सन्निधिमें चले गये और राजर्षि चन्द्रांगद तथा उनकी रानी सीमन्तिनी भक्तिसे शिवजीका पूजनकर शिवपदको प्राप्त हुए । ६७-६८ ॥

द्विजेश्वरावतारस्ते वर्णितः परमो मया ।
महेश्वरस्य भद्रायुपरमानन्ददः प्रभो ॥ ६९ ॥
हे प्रभो [सनत्कुमार !] इस प्रकार मैंने आपसे शिवजीके श्रेष्ठ द्विजेश्वरावतारका वर्णन किया, जिससे राजा भद्रायुको परम सुख प्राप्त हुआ ॥ ६९ ॥

इदं चरित्रं परमं पवित्रं
    शिवावतारस्य पवित्रकीर्तेः ।
द्विजेशसंज्ञस्य महाद्भुतं हि
    शृण्वन्पठन् शम्भुपदं प्रयाति ॥ ७० ॥
पवित्र कीर्तिवाले द्विजेशसंज्ञक शिवावतारके इस परम पवित्र तथा अत्यन्त अद्‌भुत चरित्रको पढ़ने तथा सुननेवाला शिवपदको प्राप्त होता है ॥ ७० ॥

य इदं शृणुयान्नित्यं श्रावयेद्वा समाहितः ।
न श्चोतति स्वधर्मात्स परत्र लभते गतिम् ॥ ७१ ॥
जो एकाग्रचित्त होकर इसे प्रतिदिन सुनता अथवा सुनाता है, वह अपने धर्मसे विचलित नहीं होता है और परलोकमें उत्तम गति प्राप्त करता है ॥ ७१ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां
द्विजेशनाम शिवावतारवर्णनं नाम सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अनतर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें द्विजेशाध्यशिवावतारवर्णन नामक सत्ताईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २७ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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