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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ तृतीया शतरुद्रसंहितायां
एकोनत्रिंशोऽध्यायः कृष्णदर्शनशिवावतारवर्णनंम् -
भगवान् शिवके कृष्णदर्शन नामक अवतारकी कथा - नन्दीश्वर उवाच - सनत्कुमार शम्भोस्त्ववतारं परमं शृणु । नभगज्ञानदं कृष्णदर्शनाह्वयमुत्तमम् ॥ १ ॥ नन्दीश्वर बोले-हे सनत्कुमार ! अब आप नभगको ज्ञान प्रदान करनेवाले कृष्णदर्शन नामक उत्तम शिवावतारका श्रवण कीजिये ॥ १ ॥ इक्ष्वाकुप्रमुखा आसन् श्राद्धदेवसुताश्च ये । नभगस्तत्र नवमो नाभगस्तत्सुतः स्मृतः ॥ २ ॥ श्राद्धदेवके इक्ष्वाकु आदि जो प्रमुख पुत्र हुए, उनमें नभग नौवें पुत्र थे, उन्हींके पुत्र नाभाग कहे गये हैं ॥ २ ॥ अम्बरीषः सुतस्तस्य विष्णुभक्तो बभूव सः । यस्योपरि प्रसन्नोभूद्दुर्वासा ब्रह्मभक्तितः ॥ ३ ॥ उनके पुत्र अम्बरीष थे । वे विष्णुजीके भक्त हुए, जिनकी ब्राह्मणभक्तिसे दुर्वासाजी उनपर प्रसन्न हुए थे ॥ ३ ॥ पितामहोऽम्बरीषस्य नभगो यः प्रकीर्तितः । तच्चरितं शृणु मुने यस्मै ज्ञानमदाच्छिवः ॥ ४ ॥ हे मुने ! अम्बरीषके पितामह जो नभग कहे गये हैं, आप उनका चरित्र सुनिये । जिनको सदाशिवजीने ज्ञान दिया था ॥ ४ ॥ नभगो मनुपुत्रस्तु पठनार्थं सुबुद्धिमान् । चक्रे गुरुकुले वासं बहुकालं जितेन्द्रियः ॥ ५ ॥ एतस्मिन्समये ते वै इक्ष्वाकुप्रमुखाः सुताः । तस्मै भागमकल्प्यैव भेजुर्भागान्निजान्क्रमात् ॥ ६ ॥ मनुके अति बुद्धिमान् तथा जितेन्द्रिय पुत्र नभग जब पढ़नेके लिये गुरुकुलमें निवास करने लगे, उसी समय मनुके इक्ष्वाकु आदि पुत्रोंने उनको भाग दिये बिना ही अपनेअपने भागोंको क्रमसे विभाजित कर लिया ॥ ५-६ ॥ स्वं स्वं भागं गृहीत्वा ते बुभुजू राज्यमुत्तमम् । अविषादं महाभागा पित्रादेशात्सुबुद्धयः ॥ ७ ॥ वे महाबुद्धिमान् और भाग्यवान् पुत्र अपने पिताकी आज्ञासे अपने-अपने भागको लेकर सुखपूर्वक उत्तम राज्यका भोग करने लगे ॥ ७ ॥ स पश्चादागतस्तत्र ब्रह्मचारी गुरुस्थलात् । नभगोऽधीत्य सर्वाश्च सांगोपांगाः श्रुतीः क्रमात् ॥ ८ ॥ भ्रातृन्विलोक्य नभगो विभक्तान्सकलान्निजान् । दायार्थी प्राह तान्स्नेहादिक्ष्वाकुप्रमुखान्मुने ॥ ९ ॥ उसके बाद ब्रह्मचारी नभग क्रमसे सांगोपांग सभी वेदोंका अध्ययन करके गुरुकुलसे वहाँ लौटे । तब हे मुने ! इक्ष्वाकु आदि अपने सभी भाइयोंको राज्य विभक्त किये हुए देखकर अपना भाग प्राप्त करनेकी इच्छासे नभगने उनसे स्नेहपूर्वक कहा- ॥ ८-९ ॥ नभग उवाच - भ्रातरोभक्तकं मह्यं दायं कृत्वा यथातथम् । सर्वे विभक्ताः सुप्रीत्या स्वदायार्थागताय च ॥ १० ॥ नभग बोले-हे भाइयो ! आपलोगोंने मेरा हिस्सा ना दिये ही पिताको सम्पत्ति जैसे-तैसे आपसमें बाँट लो, अब मैं अपने दायभागके लिये आपलोगोंके पास आया हूँ ॥ १० ॥ तदा विस्मृतमस्माभिरिदानीं पितरं तव । विभजामो वयं भागं तं गृहाण न संशयः ॥ ११ ॥ [उनके भाइयोंने कहा-] दायका विभाग करते समय हमलोग तुम्हें भूल गये, अब हमलोगोंने तुम्हारे हिस्सेमें पिताजीको नियत किया है, अतः तुम उन्हींको ग्रहण करो, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ११ ॥ तच्छ्रुत्वा भ्रातृवचनं नभगः परविस्मृतः । तदोपकण्ठमागत्य पितरं समभाषत ॥ १२ ॥ ाइयोंकी वह बात सुनकर नभग अत्यन्त विस्मित हो गये और अपने पिताके पास आकर कहने लगे ॥ १२ ॥ नभग उवाच - हे तात भ्रातरः सर्वे त्यक्त्वा मां न्यभजंश्च ते । पठनार्थं गतश्चाहं ब्रह्मचारी गुरोः कुले ॥ १३ ॥ नभग बोले-हे तात ! जब मैं ब्रह्मचारी होकर गुरुकुलमें पढ़नेके लिये चला गया था, तभी उन सभी भाइयोंने मुझे छोड़कर सारा राज्य बाँट लिया ॥ १३ ॥ तत आगत्य मे पृष्टा दायदानार्थमादरात् । ते त्वामूचुर्विभागं मे तदर्थमहमागतः ॥ १४ ॥ वहाँसे लौटकर जब मैं अपने हिस्सेके लिये उनसे आदरपूर्वक पूछने लगा । तो उन्होंने आपको ही मेरे भागके रूपमें दिया, इसलिये मैं [आपके पास] आया हूँ ॥ १४ ॥ नन्दीश्वर उवाच - तदाकर्ण्य वचस्तस्य पिता तं प्राह विस्मितः । आश्वास्य श्राद्धदेवः स सत्यधर्मरतं मुने ॥ १५ ॥ नन्दीश्वर बोले-हे मुने ! उनका वचन सुनकर विस्मित हुए पिता श्राद्धदेवने सत्यधर्ममें निरत अपने पुत्रको धीरज बंधाते हुए कहा- ॥ १५ ॥ मनुरुवाच - तदुक्तं मादृथास्तात प्रतारणकरं हि तत् । न ह्यहं परमं दायं सर्वथा भोगसाधनम् ॥ १६ ॥ मनु बोले-हे तात ! तुम भाइयोंकी बातमें विश्वास मत करो । उनका यह वचन तुम्हें धोखा देनेके लिये है । मैं तुम्हारे भोगका साधनभूत परम दाय नहीं हूँ ॥ १६ ॥ तथापि दायभावेन दत्तोऽहं तैः प्रतारिभिः । तव वै जीवनोपाय वदामि शृणु तत्त्वतः ॥ १७ ॥ किंतु उन धोखेबाजोंने तुम्हारे लिये मुझे दायभागके रूपमें दिया है, अत: मैं तुम्हारे जीवन-निर्वाहका ठीकठीक उपाय बताता हूँ, तुम श्रवण करो ॥ १७ ॥ सत्रमांगिरसा विप्राः कुर्वंत्यद्य सुमेधसः । तत्र कर्मणि मुह्यन्ति षष्ठं षष्ठमहः प्रति ॥ १८ ॥ इस समय आंगिरसगोत्रीय विद्वान् ब्राह्मण यज्ञ कर रहे हैं, उस यज्ञमें वे अपने छठे दिनके कर्ममें भूल कर जाते हैं ॥ १८ ॥ तत्र त्वं गच्छ नभग तान् सुशंस महाकवे । सूक्ते द्वे वैश्वदेवे हि सत्रं शुद्धं हि तद्भवेत् ॥ १९ ॥ अतः हे नभग ! हे महाकवे ! तुम वहाँ जाओ और जाकर विश्वेदेवसम्बन्धी दो सूक्तोंको उन्हें बतलाओ, जिससे वह यज्ञ शुद्ध हो सके ॥ १९ ॥ तत्कर्मणि समाप्ते हि स्वयान्तो ब्राह्मणाश्च ते । धनं दास्यन्ति ते तुष्टाः स्वसत्रपरिशेषितम् ॥ २० ॥ उस यज्ञकर्मके समाप्त हो जानेपर जब वे ब्राह्मण स्वर्ग जाने लगेंगे तो वे प्रसन्न होकर यज्ञसे बचा हुआ धन तुम्हें दे देंगे ॥ २० ॥ नन्दीश्वर उवाच - तदाकर्ण्य पितुर्वाक्यं नभगः सत्यसारवान् । जगाम तत्र सुप्रीत्या यत्र तत्सत्रमुत्तमम् ॥ २१ ॥ तदाहः कर्मणि मुने सत्रे तस्मिन्स मानवः । सूक्ते द्वे वैश्वदेवे हि प्रोवाच स्पष्टतः सुधीः ॥ २२ ॥ नन्दीश्वर बोले-पिताकी यह बात सुनकर सत्य बोलनेवाले नभग बड़ी प्रसन्नताके साथ वहाँ गये, जहाँ वह उत्तम यज्ञ हो रहा था और हे मुने ! उस दिनके यज्ञकर्ममें उन परम बुद्धिमान् नभगने विश्वेदेवके दोनों सूक्तोंको स्पष्ट रूपसे कहा ॥ २१-२२ ॥ समाप्ते कर्मणि ततो विप्रा आंगिरसाश्च ते । तस्मै दत्त्वा ययुः स्वर्गं स्वंस्वं सत्रावशेषितम् ॥ २३ ॥ यज्ञकर्मके समाप्त हो जानेपर वे आंगिरस विप्र यज्ञसे बचा हुआ सारा धन उन्हें देकर स्वर्ग चले गये ॥ २३ ॥ तत्तदा स्वीकरिष्यन्तं सुसत्रपरिशेषितम् । विज्ञाय गिरिशः सद्य आविर्भूत सदूतिकृत् ॥ २४ ॥ सर्वांगसुन्दरः श्रीमान्पुरुषः कृष्णदर्शनः । भावं समीक्षितुं भागं दातुं ज्ञानं परं च तत् ॥ २५ ॥ उस श्रेष्ठ यज्ञके शेष धनको ज्यों ही नभगने लेना चाहा, उसी समय यह जानकर उत्तम लीला करनेवाले शिवजी शीघ्र ही प्रकट हो गये । वे कृष्णदर्शन शिवजी सर्वांगसुन्दर तथा श्रीमान् थे । यज्ञशेष धन किसका भाग होता है-इस बातकी परीक्षा करनेके लिये तथा नभगको भाग और उत्तम ज्ञान देनेके लिये वे प्रकट हुए थे ॥ २४-२५ ॥ अथो स शंकरः शम्भुः परीक्षाकर ईश्वरः । उवाचोत्तरतोऽभ्येत्य नभगं तं हि मानवम् ॥ २६ ॥ इसके बाद परीक्षा करनेवाले ऐश्वर्यशाली उन कल्याणकारी शंकरने उन मनुपुत्र नभगके पास उत्तरकी ओरसे जाकर [उनका अभिप्राय जाननेके लिये] उनसे कहा- ॥ २६ ॥ ईश्वर उवाच - कस्त्वं गृह्णासि पुरुष ममेदं वास्तुकं वसु । प्रेषितः केन तत्सर्वं सत्यं वद ममाग्रतः ॥ २७ ॥ ईश्वर बोले-हे पुरुष ! तुम कौन हो ? तुम्हें यहाँ किसने भेजा है ? यह यज्ञमण्डपसम्बन्धी धन तो मेरा है, तुम इसे क्यों ग्रहण करते हो, मेरे सामने सत्य-सत्य बताओ ॥ २७ ॥ नन्दीश्वर उवाच - तच्छ्रुत्वा तद्वचस्तात मानवो नभगः कवि । प्रत्युवाच विनीतात्मा पुरुषं कृष्णदर्शनम् ॥ २८ ॥ नन्दीश्वर बोले-हे तात ! मनुपुत्र कवि नभगने उनका वचन सुनकर अत्यन्त विनम्र होकर उन कृष्णदर्शन पुरुषसे कहा- ॥ २८ ॥ नभगः उवाच - ममेदमृषिभिर्दत्तं वसु यज्ञगतं खलु । कथं वारयसे मां त्वं गृह्णतं कृष्णदर्शनम् ॥ २९ ॥ नभग बोले-यज्ञसे (अवशिष्ट) प्राप्त हुए इस धनको ऋषियोंने मुझे दिया है । हे कृष्णदर्शन ! तब आप इसे लेनेसे मुझे क्यों मना करते हैं ? ॥ २९ ॥ नन्दीश्वर उवाच - आकर्ण्य नाभगं वाक्यमिदं सत्यमुदीरितम् । प्रत्युवाच प्रसन्नात्मा पुरुषः कृष्णदर्शनः ॥ ३० ॥ नन्दीश्वर बोले-नभगद्वारा कहे गये सत्य वचनको सुनकर प्रसन्नचित्त कृष्णदर्शन पुरुषने कहा- ॥ ३० ॥ कृष्णदर्शन उवाच - विवादेऽस्मिन्हि नौ तात प्रमाणं जनकस्तव । याहि तं पृच्छ स ब्रूयात्तत्प्रमाणन्तु सत्यतः ॥ ३१ ॥ कृष्णदर्शन बोला-हे तात ! हम दोनोंके इस विवादमें तुम्हारे पिता प्रमाण हैं, जाओ और उनसे पूछो, वे जो कुछ भी कहेंगे, वही सत्यरूपमें प्रमाण होगा ॥ ३१ ॥ नन्दीश्वर उवाच - तदाकर्ण्य वचस्तस्य नभगो मानवः कविः । आगच्छत्पितरं प्रीत्या तदुक्तं पृष्टवान्मुने ॥ ३२ ॥ नन्दीश्वर बोले-हे मुने ! उनका यह वचन सुनकर मनुपुत्र कवि नभग अपने पिताके पास आये और प्रसन्नतासे उनके द्वारा कही गयी बातके विषयमें पूछने लगे ॥ ३२ ॥ पुत्रोदितं समाकर्ण्य श्राद्धदेवः स वै मनुः । स्मृत्वा शिवपदाम्भोजं प्राप्तस्मृतिरुवाच तम् ॥ ३३ ॥ तब उन श्राद्धदेव मनुने पुत्रकी बात सुनकर शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण किया और वस्तुस्थितिको समझकर उससे कहा- ॥ ३३ ॥ मनुरुवाच - हे तात शृणु मद्वाक्यं स देवः पुरुषः शिवः । तस्यैव सकलं वस्तु यज्ञप्राप्तं विशेषतः ॥ ३४ ॥ अध्वरोर्वरितं वस्तु रुद्रभागः प्रकीर्तितः । इत्यपि प्राज्ञवादो हि क्वचिज्जातस्तदिच्छया ॥ ३५ ॥ मनु बोले-हे तात ! मेरी बात सुनो, वे कृष्णदर्शन पुरुष साक्षात् शिव हैं । सब वस्तु उन्हींकी है और विशेषकर यज्ञसे प्राप्त वस्तु उन्हींकी है । यज्ञसे बचा हुआ भाग रुद्रभाग कहा गया है । उनकी प्रेरणासे कहींकहीं बुद्धिमान् लोग ऐसा कहा करते हैं ॥ ३४-३५ ॥ स देव ईश्वरः सर्वं वस्त्वर्हति न संशयः । यज्ञावशिष्टं किमुत परे तस्येच्छया विभोः ॥ ३६ ॥ वे देव ईश्वर ही यज्ञसे बची हुई सारी वस्तुके अधिकारी हैं, इसमें सन्देह नहीं है । उन विभुकी इच्छाके परे है ही क्या ! ॥ ३६ ॥ अनुग्रहार्थमायातस्तव तद्रूपतः प्रभुः । तत्र त्वं गच्छ नभग प्रसन्नं कुरु सत्यतः ॥ ३७ ॥ क्षमापय स्वापराधं सुप्रणम्य स्तुतिं कुरु । सर्वप्रभुः स एवेशो यज्ञाधीशोऽखिलेश्वरः ॥ ३८ ॥ विष्णुब्रह्मादयो देवाः सिद्धाः सर्वर्षयोऽपि हि । तदनुग्रहतस्तात समर्थः सर्वकर्मणि ॥ ३९ ॥ किम्बहूक्त्यात्मजश्रेष्ठ गच्छ तत्राशु माचिरम् । प्रसादय महादेवं सर्वथा सकलेश्वरम् ॥ ४० ॥ हे नभग ! तुम्हारे ऊपर कृपा करनेके लिये ही वे प्रभु उस रूपमें आये हुए हैं, तुम वहाँ जाओ और अपने सत्यसे उन्हें प्रसन्न करो, अपने अपराधके लिये क्षमा माँगो और भलीभाँति प्रणाम करके उनकी स्तुति करो । वे शिव ही सर्वप्रभु, यज्ञके स्वामी एवं अखिलेश्वर हैं । हे तात ! ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता, सिद्धगण एवं सभी ऋषि भी उनके अनुग्रहसे सभी कर्मोको करने में समर्थ होते हैं । हे पुत्रश्रेष्ठअधिक कहनेसे क्या लाभ, तुम वहाँ शीघ्र जाओ, विलम्ब मत करो और सर्वेश्वर महादेवको सब प्रकारसे प्रसन्न करो ॥ ३७-४० ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्त्वा स मनुः श्राद्धदेवश्च तनयं द्रुतम् । प्रेषयामास निकटं शम्भोः सोऽपि समेत्य तम् ॥ ४१ ॥ नभगश्च प्रणम्याशु साञ्जलिर्नतमस्तकः । प्रोवाच सुप्रसन्नात्मा विनयेन महामतिः ॥ ४२ ॥ नन्दीश्वर बोले-इतना कहकर श्राद्धदेव मनुने पुत्रको शीघ्र ही शिवजीके समीप भेजा । वे महाबुद्धिमान् नभग भी शिवजीके पास शीघ्र जाकर हाथ जोड़कर सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम करके अति प्रसन्नचित्त होकर विनयपूर्वक कहने लगे- ॥ ४१-४२ ॥ नभग उवाच - इदं तवेश सर्वं हि वस्तु त्रिभुवने हि यत् । इत्याह मे पिता नूनं किमुताध्वरशेषितम् ॥ ४३ ॥ नभग बोले-हे ईश ! इन तीनों लोकोंमें जो भी वस्तु है, सब आपकी ही वस्तु है, फिर यज्ञशेष वस्तुके विषयमें कहना ही क्या-ऐसा मेरे पिताने कहा है ॥ ४३ ॥ अजानता मया नाथ यदुक्तं तद्वचो भ्रमात् । अपराधं त्वं क्षमस्व शिरसा त्वां प्रसादये ॥ ४४ ॥ हे नाथ ! मैंने अज्ञानवश भ्रमसे जो वचन कहा है, मेरे उस अपराधको आप क्षमा करें, मैं सिर झुकाकर आपको प्रसन्न करता हूँ ॥ ४४ ॥ इत्युक्त्वा नभगः सोतिदीनधीस्तु कृताञ्जलिः । तुष्टाव तं महेशानं कृष्णदर्शनमानतः ॥ ४५ ॥ ऐसा कहकर वे नभग अत्यन्त दीनबुद्धि होकर हाथ जोड़कर विनम्र हो उन कृष्णदर्शन महेश्वरकी स्तुति करने लगे ॥ ४५ ॥ श्राद्धदेवोऽपि शुद्धात्मा नतकः साञ्जलिः सुधीः । तुष्टाव तं प्रभुं नत्वा स्वापराधं क्षमापयत् ॥ ४६ ॥ शुद्धात्मा महाबुद्धिमान् श्राद्धदेव भी अपने अपराधके लिये क्षमायाचना करते हुए विनम्र हो हाथ जोड़कर उन शिवजीको नमस्कार करके उनकी स्तुति करने लगे ॥ ४६ ॥ एतस्मिन्नन्तरे तत्र विष्णुब्रह्मादयः सुराः । वासवाद्याः समाजग्मुः सिद्धाश्च मुनयोऽपि हि ॥ ४७ ॥ महोत्सवं प्रकुर्वन्तः सुकृताञ्जलयोऽखिलाः । तुष्टुवुर्नतका भक्त्या सुप्रणम्य पृथक्पृथक् ॥ ४८ ॥ [हे मुने !] इसी बीच ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र आदि देवता, सिद्ध एवं मुनिगण भी वहाँ आ गये और महोत्सव करते हुए वे सब भक्तिसे हाथ जोड़कर पृथक्-पृथक् भलीभाँति प्रणामकर विनम्र हो उनकी स्तुति करने लगे ॥ ४७-४८ ॥ अथ रुद्रः प्रसन्नात्मा कृपादृष्ट्या विलोक्य तान् । उवाच नभगं प्रीत्या सस्मितं कृष्णदर्शनः ॥ ४९ ॥ इसके बाद कृष्णदर्शनरूपधारी सदाशिवने उन [देवताओं तथा मुनियों]-को कृपादृष्टिसे देखकर प्रेमपूर्वक हँसते हुए नभगसे कहा- ॥ ४९ ॥ कृष्णदर्शन उवाच - यत्ते पितावदद्धर्म्यं वाक्यन्तत्तु तथैव हि । त्वयापि सत्यमुक्तं तत् साधुस्त्वन्नात्र संशयः ॥ ५० ॥ अतोऽहं सुप्रसन्नोऽस्मि सर्वथा सुव्रतेन ते । ददामि कृपया ते हि ज्ञानं ब्रह्म सनातनम् ॥ ५१ ॥ कृष्णदर्शन बोले-तुम्हारे पिताने जो धर्मयुक्त वचन कहा है, बात भी वैसी ही है और तुमने भी सारी बात सत्य-सत्य कही, इसलिये तुम साधु हो, इसमें संशय नहीं है । अतः मैं तुम्हारे इस सत्य आचरणसे सर्वथा प्रसन्न हूँ और कृपापूर्वक तुम्हें सनातन ब्रह्मका उपदेश करता हूँ ॥ ५०-५१ ॥ महाज्ञानी भव त्वं हि सविप्रो नभग द्रुतम् । गृहाण वस्त्विदं सर्वं मद्दत्तं कृपयाधुना ॥ ५२ ॥ हे नभग ! तुम [यज्ञकर्ता] ब्राह्मणोसहित शीघ्र ही महाज्ञानी हो जाओ, अब मेरे द्वारा प्रदत्त इस समस्त [यज्ञशेष] सामग्रीको तुम मेरी कृपासे ग्रहण करो ॥ ५२ ॥ इह सर्वसुखं भुङ्क्ष्व निर्विकारं महामते । सुगतिं प्राप्स्यसि त्वं हि सविप्रः कृपया मम ॥ ५३ ॥ हे महामते ! तुम निर्विकार होकर इस संसारमें सभी प्रकारका सुख भोगो, मेरी कृपासे तुम [यज्ञकर्ता] ब्राह्मणोंके सहित सद्गति प्राप्त करोगे ॥ ५३ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्त्वा तात भगवान्स रुद्रः सत्यवत्सलः । सर्वेषां पश्यतां तेषां तत्रैवान्तर्दधे हरः ॥ ५४ ॥ नन्दीश्वर बोले-हे तात ! सत्यसे प्रेम करनेवाले वे भगवान् रुद्र ऐसा कहकर उन सबके देखते-देखते वहींपर अन्तर्धान हो गये ॥ ५४ ॥ विष्णुर्ब्रह्मापि देवाद्याः सर्वे ते मुनिसत्तम । स्वं स्वं धाम ययुः प्रीत्या तस्यै नत्वा दिशे मुदा ॥ ५५ ॥ हे मुनिसत्तम ! ब्रह्मा, विष्णु आदि वे समस्त देवगण आनन्दसे उस दिशाको नमस्कारकर प्रसन्नतापूर्वक अपनेअपने धामको चले गये ॥ ५५ ॥ सपुत्रः श्राद्धदेवोऽपि स्वस्थानमगमन्मुदा । भुक्त्वा भोगान्सुविपुलान्सोऽन्ते शिवपुरं ययौ ॥ ५६ ॥ अपने पुत्र नभगको साथ लेकर श्राद्धदेव भी प्रसन्नतापूर्वक अपने स्थानको चले गये और वहाँ अनेक सुखोंको भोगकर अन्तमें वे शिवलोकको चले गये ॥ ५६ ॥ इत्थं ते कीर्तितो ब्रह्मन्नवतारः शिवस्य हि । कृष्णदर्शननामा वै नभगानन्ददायकः ॥ ५७ ॥ हे ब्रह्मन् ! इस प्रकार मैंने नभगको आनन्द देनेवाले कृष्णदर्शन नामक शिवावतारका वर्णन आपसे किया ॥ ५७ ॥ इदमाख्यानमनघं भुक्तिमुक्तिप्रदं सताम् । पठतां शृण्वतां वापि सर्व कामफलप्रदम् ॥ ५८ ॥ यह पवित्र आख्यान सज्जनोंको भोग एवं मोक्ष प्रदान करता है, पढ़ने और सुननेवालोंको भी यह समस्त कामनाओंका फल प्रदान करता है ॥ ५८ ॥ य एतच्चरितं प्रातः सायं च स्मरते सुधीः । कविर्भवति मन्त्रज्ञो गतिमन्ते लभेत्पराम् ॥ ५९ ॥ जो बुद्धिमान् प्रातःकाल तथा सार्यकाल इस चरित्रका स्मरण करता है, वह कवि तथा मन्त्रवेत्ता हो जाता है और अन्तमें परमगति प्राप्त करता है ॥ ५९ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां नन्दीश्वरसनत्कुमारसंवादे कृष्णदर्शनशिवावतारवर्णनं नामैकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें नन्दीश्वर-सनत्कुमार-संवादमें कृष्णदर्शन शिवावतारवर्णन नामक उनतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २९ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |