![]() |
॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ तृतीया शतरुद्रसंहितायां
त्रिंशोऽध्यायः अवधूतेश्वरशिवावतारचरित्रवर्णनम् -
भगवान् शिवके अवधूतेश्वरावतारका वर्णन - नन्दीश्वर उवाच - शृणु त्वं ब्रह्मपुत्राद्यावतारं परमेशितुः । अवधूतेश्वराह्वं वै शक्रगर्वापहारकम् ॥ १ ॥ नन्दीश्वरजी बोले-हे ब्रह्मपुत्र ! अब आप शिवजीके अवधूतेश्वर नामक अवतारका वर्णन सुनिये, जो इन्द्रके घमण्डको नष्ट करनेवाला है ॥ १ ॥ शक्रः पुरा हि सगुरुः सर्वदेवसमन्वितः । दर्शनं कर्तुमीशस्य कैलासमगमन्मुने ॥ २ ॥ हे मुने ! पूर्व समयमें बृहस्पति एवं देवताओंके सहित इन्द्र शिवजीका दर्शन करनेके लिये कैलास पर्वतपर जा रहे थे ॥ २ ॥ अथ गुर्विन्द्रयोर्ज्ञात्वागमनं शंकरस्तयोः । परीक्षितुं च तद्भावं स्वदर्शनरतात्मनोः ॥ ३ ॥ अवधूतस्वरूपोऽभून्नानालीलाकरः प्रभुः । दिगंबरो महाभीमो ज्वलदग्निसमप्रभः ॥ .४ ॥ सोऽवधूतस्वरूपो हि मार्गमारुद्ध्य सद्गतिः । लंबमानपटः शंभुरतिष्ठच्छोभिताकृतिः ॥ ५ ॥ अपने दर्शन के लिये निरत चित्तवाले बृहस्पति तथा इन्द्रको आते जानकर उनके भावकी परीक्षा करनेके लिये नाना प्रकारकी लीला करनेवाले प्रभु शिवजी दिगम्बर, महाभीमरूप तथा जलती हुई अग्निके समान प्रभावाले अवधूतके रूपमें स्थित हो गये । सज्जनोंको गति प्रदान करनेवाले तथा सुन्दर आकृतिवाले वे अवधूतस्वरूप शिवजी लटकते हुए वस्त्र धारण किये उनका मार्ग रोककर खड़े हो गये ॥ ३-५ ॥ अथ तौ गुरुशक्रौ च गच्छन्तौ शिव सन्निधिम् । अद्राष्टां पुरुषं भीमं मार्गमध्येऽद्भुताकृतिम् ॥ ६ ॥ उसके बाद शिवजीके समीप जाते हुए उन बृहस्पति तथा इन्द्रने [अपने] मार्गके मध्यमें अद्भुत आकारवाले एक भयंकर पुरुषको देखा ॥ ६ ॥ अथ शक्रो मुनेऽपृच्छत्स्वाधिकारेण दुर्मदः । पुरुषं तं स्वमार्गान्तः स्थितमज्ञाय शंकरम् ॥ ७ ॥ हे मुने ! यह देखकर अधिकारमदमें चूर हुए इन्द्रने अपने मार्गके बीचमें खड़े पुरुषको उसे शंकर न जानकर उससे पूछा ॥ ७ ॥ शक्र उवाच - कस्त्वं दिगंबराकारावधूतः कुत आगतः । किन्नाम तव विख्यातं तत्त्वतो वद मेऽचिरम् ॥ ८ ॥ शक्र बोले-दिगम्बर अवधूत वेष धारण किये हुए तुम कौन हो, कहाँसे आये हो और तुम्हारा क्या नाम है ? तुम मुझे ठीक-ठीक शीघ्र बताओ ॥ ८ ॥ स्वस्थाने संस्थितः शंभुः किं वान्यत्र गतोऽधुना । दर्शनार्थं हि तस्याहं गच्छामि सगुरुः सुरैः ॥ ९ ॥ इस समय शिवजी अपने स्थान पर हैं अथवा कहाँ गये हुए हैं ? मैं देवताओं और गुरु बृहस्पतिको साथ लेकर उनके दर्शनहेतु जा रहा हूँ ॥ ९ ॥ नन्दीश्वर उवाच - शक्रेणेत्थं स पृष्टश्च किञ्चिन्नोवाच पूरुषः । लीलागृहीतदेहः स शङ्करो मदहा प्रभुः ॥ १० ॥ नन्दीश्वर बोले-[हे सनत्कुमार !] इन्द्रके द्वारा इस प्रकार पूछे जानेपर लीलासे [अवधूत] देहधारी तथा अहंकारको चूर्ण करनेवाले उन पुरुषरूप प्रभु शिवने कुछ भी उत्तर नहीं दिया ॥ १० ॥ शक्रः पुनरपृच्छत्तं नोवाच स दिगंबरः । अविज्ञातगतिः शम्भुर्महाकौतुककारकः ॥ ११ ॥ इन्द्रने उनसे पुनः पूछा, किंतु अलक्षित गतिवाले महाकौतुकी वे दिगम्बर शिव फिर भी कुछ नहीं बोले ॥ ११ ॥ पुनः पुरन्दरोऽपृच्छ्त्त् रैलोक्याधिपतिः स्वराट् । तूष्णीमास महायोगी महालीलाकरः स वै ॥ १२ ॥ इत्थं पुनः पुनः पृष्टः शक्रेण स दिगम्बरः । नोवाच किञ्चिद्भगवान् शक्रदर्पजिघांसया ॥ १३ ॥ जव त्रैलोक्याधिपति स्वराट् इन्द्रने पुनः पूछा, तो भी महान् लीला करनेवाले वे महायोगी मौन ही रहे । इस प्रकार बारंबार इन्द्रके द्वारा पूछे जानेपर भी दिगम्बर भगवान् शिवजी इन्द्रका गर्व नष्ट करनेकी इच्छासे कुछ नहीं बोले ॥ १२-१३ ॥ अथ चुक्रोध देवेशस्त्रैलोक्यैश्वर्यगर्वितः । उवाच वचनं क्रोधात्तं निर्भर्त्स्य जटाधरम् ॥ १४ ॥ तब तीनों लोकोंके ऐश्वर्यसे गर्वित इन्द्रको बड़ा क्रोध उत्पन्न हुआ और उन्होंने क्रोधसे उन जटाधारीको धमकाते हुए कहा- ॥ १४ ॥ इन्द्र उवाच - पृच्छमानोऽपि रे मूढ नोत्तरं दत्तवानसि । अतस्त्वां हन्मि वज्रेण कस्ते त्रातास्ति दुर्मते ॥ १५ ॥ इत्युदीर्य ततो वज्री संनिरीक्ष्य क्रुधा हि तम् । हन्तुन्दिगम्बरं वज्रमुद्यतं स चकार ह ॥ १६ ॥ इन्द्र बोले-रे मूढ ! रे दुर्मते ! तुमने मेरे पूछनेपर भी कुछ भी उत्तर नहीं दिया, इसलिये मैं इस वज्रसे तुम्हारा वध करता हूँ, देखें, कौन तुम्हारी रक्षा करता है । ऐसा कहकर इन्द्रने क्रोधपूर्वक उनकी ओर देखकर उन दिगम्बरको मारनेके लिये वज्र उठाया ॥ १५-१६ ॥ वज्रहस्तं च तं दृष्ट्वा शक्रं शीघ्रं सदाशिवः । चकार स्तम्भनं तस्य वज्रपातस्य शंकरः ॥ १७ ॥ सदाशिव शंकरने हाथमें वज्र उठाये हुए इन्द्रको देखकर शीघ्र ही उनका स्तम्भन कर दिया ॥ १७ ॥ ततः स पुरुषः कुद्धः करालाक्षो भयंकरः । द्रुतमेव प्रजज्वाल तेजसा प्रदहन्निव ॥ १८ ॥ तदनन्तर भयंकर तथा विकराल नेत्रोंवाले वे पुरुष कुपित होकर अपने तेजसे [मानो इन्द्रको] जलाते हुए शीघ्र ही प्रज्वलित हो उठे ॥ १८ ॥ बाहुप्रतिष्टम्भभुवा मन्युनान्तः शचीपतिः । समदह्यत भोगीव मंत्ररुद्धपराक्रमः ॥ १९ ॥ उस समय अपनी बाहुके स्तम्भित हो जानेके कारण उत्पन्न हुए क्रोधसे इन्द्र भीतर-ही-भीतर इस तरह जल रहे थे, जिस प्रकार मन्त्रके द्वारा अपने पराक्रमके रुक जानेसे सर्प मन-ही-मन जलता है ॥ १९ ॥ दृष्ट्वा बृहस्पतिस्त्वेनं प्रज्वलन्तं स्वतेजसा । पुरुषं तं धियामास प्रणनाम हरं द्रुतम् ॥ २० ॥ बृहस्पतिने तेजसे प्रज्वलित होते हुए उन पुरुषको देखकर अपनी बुद्धिसे उन्हें शिव जान लिया और शीघ्रतासे उन्हें प्रणाम किया ॥ २० ॥ कृताञ्जलिपुटो भूत्वा ततो गुरुरुदारधीः । दण्डवत्कौ पुनर्नत्वा प्रभुं तुष्टाव भक्तितः ॥ २१ ॥ इसके बाद उदार बुद्धिवाले वे गुरु बृहस्पति हाथ जोड़कर पुनः पृथ्वीमें [लेटकर] दण्डवत् प्रणाम करके भक्तिपूर्वक शिवजीकी स्तुति करने लगे ॥ २१ ॥ गुरुरुवाच - देवदेव महादेव शरणागतवत्सल । प्रसन्नो भव गौरीश सर्वेश्वर नमोऽस्तु ते ॥ २२ ॥ मायया मोहिताः सर्वे ब्रह्मविष्ण्वादयोपि ते । त्वां न जानन्ति तत्त्वेन जानन्ति त्वदनुग्रहात् ॥ २३ ॥ गुरु बोले-हे देवदेव ! हे महादेव हे शरणागतवत्सल ! प्रसन्न होइये । हे गौरीश ! हे सर्वेश्वर ! आपको नमस्कार है । ब्रह्मा, विष्णु आदि समस्त देवता भी आपकी मायासे मोहित होकर आपको यथार्थ रूपमें नहीं जान पाते हैं, केवल आपकी कृपासे ही जान सकते हैं ॥ २२-२३ ॥ नन्दीश्वर उवाच - बृहस्पतिरिति स्तुत्वा स तदा शंकरं प्रभुम् । पादयोः पातयामास तस्येशस्य पुरन्दरम् ॥ २४ ॥ ततस्तात सुराचार्यः कृताञ्जलिरुदारधीः । बृहस्पतिरुवाचेदं प्रश्रयावनतः सुधीः ॥ २५ ॥ नन्दीश्वर बोले-बृहस्पतिने इस प्रकार प्रभु शिवजीकी स्तुति करके इन्द्रको उन ईश्वरके चरणों में गिरा दिया । तदनन्तर हे तात ! उदार बुद्धिवाले विद्वान् देवगुरु बृहस्पतिने हाथ जोड़कर विनम्रतासे कहा- ॥ २४-२५ ॥ बृहस्पतिरुवाच - दीननाथ महादेव प्रणतं तव पादयोः । समुद्धर च मां तत्त्वं क्रोधं न प्रणयं कुरु ॥ २६ ॥ बृहस्पति बोले-हे दीननाथ ! हे महादेव ! मैं आपके चरणों में पड़ा हूँ, आप मेरा और इनका उद्धार कीजिये क्रोध नहीं, बल्कि प्रेम कीजिये ॥ २६ ॥ तुष्टो भव महादेव पाहीन्द्रं शरणागतम् । वह्निरेष समायाति भालनेत्रसमुद्भवः ॥ २७ ॥ हे महादेव ! आप प्रसन्न होइये और अपने शरणमें आये हुए इन्द्रकी रक्षा कीजिये; क्योंकि आपके भालस्थ नेत्रसे उत्पन्न हुई यह अग्नि [इन्द्रको जलानेके लिये] आ रही है ॥ २७ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्याकर्ण्य गुरोर्वाक्यमवधूताकृतिः प्रभुः । उवाच करुणासिंधुर्विहसन् स सदूतिकृत् ॥ २८ ॥ नन्दीश्वर बोले-देवगुस्का यह वचन सुनकर अवधूत आकृतिवाले, करुणासिन्धु, उत्तम लीला करनेवाले उन प्रभुने हंसते हुए कहा- ॥ २८ ॥ अवधूत उवाच - क्रोधाच्च निःसृतं तेजो धारयामि स्वनेत्रतः । कथं हि कञ्चुकीं सर्पः संधत्ते चोज्ज्ञितां पुनः ॥ २९ ॥ अवधूत बोले-मैं क्रोधके कारण अपने नेत्रसे निकले हुए तेजको किस प्रकार धारण करूं ? क्या सर्प कंचुकीका त्याग करनेके उपरान्त पुनः उसे धारण कर सकता है ॥ २९ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इति श्रुत्वा वचस्तस्य शंकरस्य बृहस्पतिः । उवाच साञ्जलिर्भूयो भयव्याकुलमानसः ॥ ३० ॥ नन्दीश्वर बोले-उन शंकरके इस वचनको सुनकर भयसे व्याकुल मनवाले बृहस्पतिने हाथ जोड़कर पुनः कहा- ॥ ३० ॥ बृहस्पतिरुवाच - हे देव भगवन्भक्ता अनुकम्प्याः सदैव हि ॥ भक्तवत्सलनामेति स्वं सत्यं कुरु शंकर । ३१ ॥ बृहस्पति बोले-हे देव ! हे भगवन् ! भक्त सर्वदा अनुकम्पाके योग्य होते हैं । हे शंकर ! अपने भक्तवत्सल नामको सार्थक कीजिये ॥ ३१ ॥ क्षेप्तुमन्यत्र देवेश स्वतेजोऽत्युग्रमर्हसि । उद्धर्ता सर्वभक्तानां समुद्धर पुरन्दरम् ॥ ३२ ॥ हे देवेश ! आप अपने इस अत्यन्त उग्र तेजको किसी अन्य स्थानपर रख सकते हैं; आप सभी भक्तोंका उद्धार करनेवाले हैं, अतः इन्द्रका उद्धार कीजिये ॥ ३२ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्तो गुरुणा रुद्रो भक्तवत्सलनामभाक् । प्रत्युवाच प्रसन्नात्मा सुरेज्यं प्रणतार्तिहा ॥ ३३ ॥ नन्दीश्वर बोले-इस प्रकार बृहस्पतिके कहनेपर भक्तवत्सल नामसे पुकारे जानेवाले तथा भक्तोंका कष्ट दूर करनेवाले भगवान् रुद्रने प्रसन्नचित्त होकर देवगुरुसे कहा- ॥ ३३ ॥ रुद्र उवाच - प्रीतस्तेहं सुराचार्य ददामि वरमुत्तमम् । इन्द्रस्य जीवदानेन जीवेति त्वं प्रथां व्रज ॥ ३४ ॥ समुद्भूतोऽनलो योयं भालनेत्रात्सुरासहः । एनं त्यक्ष्याम्यहं दूरे यथेन्द्रं नैव पीडयेत् ॥ ३५ ॥ रुद्र बोले-हे सुराचार्य ! मैं आपपर प्रसन्न हूँ, इसलिये आपको उत्तम वर देता हूँ कि इन्द्रको जीवनदान देनेके कारण आप लोकमें जीव नामसे विख्यात होंगे । मेरे भालस्थ नेत्रसे जो देवताओंके लिये असह्य अग्नि उत्पन्न हुई है, उसे मैं दूर फेंक देता हूँ, जिससे कि यह इन्द्रको पीड़ित न कर सके ॥ ३४-३५ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्त्वा स करे धृत्वा स्वतेजोऽनलमद्भुतम् ॥ भालनेत्रसमुद्भूतं प्राक्षिपल्लवणाम्भसि । ३६ ॥ नन्दीश्वर बोले-ऐसा कहकर शिवजीने अपने भालस्थ नेत्रसे उत्पन्न हुई उस अद्धत अग्निको हाथमें लेकर लवणसमुद्र में फेंक दिया ॥ ३६ ॥ अथो शिवस्य तत्तेजो भालनेत्रसमुद्भवम् । क्षिप्तं च लवणाम्भोधौ सद्यो बालो बभूव ह ॥ ३७ ॥ त्पश्चात् शिवके भालनेत्रसे उत्पन्न वह तेज, जो लवणसमुद्र में फेंका गया था, शीघ्र ही बालकरूपमें परिणत हो गया ॥ ३७ ॥ स जलन्धरनामाभूत्सिन्धुपुत्रोऽसुरेश्वरः । तं जघान महेशानो देवप्रार्थनया प्रभुः ॥ ३८ ॥ वही बालक समुद्रका पुत्र तथा समस्त असुरोंका अधिपति होकर जलन्धर नामसे विख्यात हुआ, फिर देवताओंकी प्रार्थनासे प्रभु शिवजीने ही उसका वध किया ॥ ३८ ॥ इत्थं कृत्वा सुचरितं शङ्करो लोकशङ्करः । अवधूतस्वरूपेण ततश्चान्तर्हितोऽभवत् ॥ ३९ ॥ बभूवुः सकला देवाः सुखिनश्चातिनिर्भयाः । गुरुशक्रौ भयान्मुक्तौ जग्मतुः सुखमुत्तमम् ॥ ४० ॥ लोककल्याणकारी शिवजी अवधूतरूपसे इस प्रकारका सुन्दर चरित्रकर पुनः अन्तर्धान हो गये और सभी देवता सुखी तथा निर्भय हो गये । बृहस्पति और इन्द्र भी भयमुक्त होकर अत्यन्त सुखी हो गये ॥ ३९-४० ॥ यदर्थे गमनोद्युक्तौ दर्शनं प्राप्य तस्य तौ । कृतार्थौ गुरुशक्रौ हि स्वस्थानं जग्मतुर्मुदा ॥ ४१ ॥ जिनका दर्शन करनेहेतु इन्द्र और बृहस्पति जा रहे थे, उनका दर्शन प्राप्तकर वे कृतार्थ हो गये और प्रसन्नतापूर्वक अपने स्थानको चले गये ॥ ४१ ॥ अवधूतेश्वराह्वोऽवतारस्ते कथितो मया । परमेशस्य परमानन्ददः खलदण्डदः ॥ ४२ ॥ [हे सनत्कुमार !] मैंने दुष्टोंको दण्ड देनेवाले तथा परमानन्ददायक परमेश्वर शिवजीके अवधूतेश्वर नामक अवतारका वर्णन आपसे कर दिया ॥ ४२ ॥ इदमाख्यानमनघं यशस्यं स्वर्ग्यमेव च । भुक्तिमुक्तिप्रदं दिव्यं सर्वकामफलप्रदम् ॥ ४३ ॥ य इदं शृणुयान्नित्यं श्रावयेद्वा समाहितः । इह सर्वसुखं भुक्त्वा सोन्ते शिवगतिं लभेत् ॥ ४४ ॥ यह आख्यान पवित्र, दिव्य, यशको बढ़ानेवाला, स्वर्ग, भोग और मोक्ष देनेवाला तथा सम्पूर्ण मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला है । जो स्थिरचित्त हो प्रतिदिन इसे सुनता अथवा सुनाता है, वह इस लोकमें सभी सुखोंको भोगकर अन्तमें शिवकी गतिको प्राप्त कर लेता है ॥ ४३-४४ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां नन्दीश्वरसनत्कुमारसंवादे अवधूतेश्वरशिवावतारचरित्रवर्णनं नाम त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहिताके नन्दीश्वर-सनत्कुमार-संवादमें अवधूतेश्वरशिवावतारचरित्रवर्णन नामक तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३० ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |