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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ तृतीया शतरुद्रसंहितायां
एकत्रिंशोऽध्यायः भिक्षुवर्याह्वशिवावतारचरित्रवर्णनम् -
शिवजीके भिक्षुवर्यावतारका वर्णन - नन्दीश्वर उवाच - अथ वक्ष्ये मुनिश्रेष्ठ शम्भोः शृण्ववतारकम् । स्वभक्तदयया विप्र नारीसन्देहभञ्जकम् ॥ १ ॥ नन्दीश्वर बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! हे विप्र ! अब मैं शिवजीके उस अवतारका वर्णन करूँगा, जिसे [किसी] नारीके सन्देहका निवारण करनेके लिये उन्होंने अपने भक्तपर दया करके ग्रहण किया था, उसे आप सुनिये ॥ १ ॥ आसीत्सत्यरथो नाम्ना विदर्भविषये नृपः । धर्म्मात्मा सत्यशीलश्च महाशैवजनप्रियः ॥ २ ॥ विदर्भनगरमें धर्मात्मा, सत्यशील तथा शिवभक्तोंसे प्रेम करनेवाला सत्यरथ नामक एक राजा था ॥ २ ॥ तस्य राज्ञः सुधर्मेण महीं पालयतो मुने । महान्कालो व्यतीयाय सुखेन शिवधर्मतः ॥ ३ ॥ हे मुने ! धर्मपूर्वक पृथ्वीका पालन करते एवं शिवधर्मसे सुखपूर्वक निवास करते हुए उस राजाका बहुत समय बीत गया ॥ ३ ॥ कदाचित्तस्य राज्ञस्तु शाल्वैश्च पुररोधिभिः । महान्रणो बभूवाथ बहुसैन्यैर्बलोद्धतैः ॥ ४ ॥ किसी समय उसके नगरको अवरुद्ध करनेवाले, बहुत-सी सेनासे युक्त तथा बलसे उन्मत्त शाल्वसंज्ञक क्षत्रिय वीरोंके साथ उस राजाका घोर युद्ध हुआ ॥ ४ ॥ स विदर्भनृपः कृत्वा सार्धं तैर्दारुणं रणम् । प्रनष्टोरुबलः शाल्वैर्निहतो दैवयोगतः ॥ ५ ॥ तस्मिन्नृपे हते युद्धे शाल्वैस्तु भयविह्वलाः । सैनिका हतशेषाश्च मन्त्रिभिः सह दुद्रुवुः ॥ ६ ॥ उन शाल्ववीरोंके साथ भयानक युद्ध करके नष्ट हुए पराक्रमवाला वह विदर्भराज दैवयोगसे उनके द्वारा मार दिया गया । शाल्वोंके द्वारा रणभूमिमें उस राजाके मारे जानेपर उसके बचे हुए सैनिक भयसे व्याकुल होकर मन्त्रियोंके साथ भाग गये ॥ ५-६ ॥ अथ तस्य महाराज्ञी रात्रौ स्वपुरतो मुने । संरुद्धा रिपुभिर्यत्नादन्तर्वत्नी बहिर्ययौ ॥ ७ ॥ निर्गता शोकसंतप्ता सा राजमहिषी शनैः । प्राचीं दिशं ययौ दूरं स्मरन्तीशपदाम्बुजम् ॥ ८ ॥ हे मुने ! उसके बाद उस राजाकी गर्भवती रानी शत्रुओंके द्वारा घिरी होनेपर भी रात्रिके समय बड़े यत्नसे नगरसे बाहर चली गयी । शोकसे सन्तप्त वह रानी [राजधानीसे] निकलकर शिवके चरणकमलोंका ध्यान करती हुई पूर्व दिशाकी ओर बहुत दूर चली गयी ॥ ७-८ ॥ अथ प्रभाते सा राज्ञी ददर्श विमलं सरः । अतीता दूरमध्वानं दयया शङ्करस्य हि ॥ ९ ॥ इस प्रकार शिवजीकी दयासे [सुरक्षित हुई] वह रानी नगरसे बहुत दूर जा पहुँची और उसने प्रात:कालके समय [वहाँपर] एक स्वच्छ सरोवरको देखा ॥ ९ ॥ तत्रागत्य प्रिया राज्ञः संतप्ता सुकुमारिणी । निवासार्थं सरस्तीरे छायावृक्षमुपाश्रयत् ॥ १० ॥ तत्र दैववशाद्राज्ञी मुहूर्ते सद्गुणान्विते । असूत तनयं दिव्यं सर्वलक्षणलक्षितम् ॥ ११ ॥ वहाँ आकर राजाकी उस सुकुमार पत्नीने शोकसे व्याकुल हो विश्रामके लिये उस सरोवरके तट पर एक छायादार वृक्षका आश्रय लिया । वहाँपर रानीने दैववश शुभ ग्रहोंसे युक्त मुहूर्तमें सर्वलक्षणसम्पन्न दिव्य पुत्रको जन्म दिया ॥ १०-११ ॥ अथ तज्जननी दैवात्तृषिताति नृपाङ्गना । सरोवतीर्णा पानार्थं ग्रस्ता ग्राहेण पाथसि ॥ १२ ॥ स सुतो जातमात्रस्तु क्षुत्पिपासार्दितो भृशम् । रुरोद च सरस्तीरे विनष्ट पितृमातृकः ॥ १३ ॥ उसी समय भाग्यवश प्याससे व्याकुल हुई उस सद्योजात शिशुकी माता वह रानी ज्यों ही जल लेनेके लिये सरोवरमें उतरी कि जलमें स्थित ग्राहने उसे पकड़ लिया । भूख एवं प्याससे अत्यधिक व्याकुल तथा पिता एवं मातासे रहित वह नवजात बालक सरोवरके किनारे रोने लगा ॥ १२-१३ ॥ तस्मिन्वने क्रन्दमाने जातमात्रे सुते मुने । कृपान्वितो महेशोऽभूदन्तर्यामी स रक्षकः॥ १४ ॥ हे मुने ! [उत्पन्न होते ही भूख-प्याससे व्याकुल हो] रोते हुए उस नवजात शिशुपर सर्वान्तर्यामी तथा सर्वरक्षक वे महेश्वर दयाई हो उठे ॥ १४ ॥ प्रेरिता मनसा काचिदीशेन त्रासहारिणा । अकस्मादागता तत्र भ्रमन्ती भैक्ष्यजीविनी ॥ १५ ॥ सा त्वेकहायनं बालं वहन्ती विधवा निजम् । अनाथमेकं क्रंदन्तं शिशुं तत्र ददर्श ह ॥ १६ ॥ उसी समय कष्ट दूर करनेवाले भगवान्के द्वारा मनसे प्रेरित की गयी एक भिखारिन वहाँ अकस्मात् आ पहुँची । अपने एक वर्षके पुत्रको लिये हुए उस विधवाने उस रोते हुए अनाथ बच्चेको वहाँ देखा ॥ १५-१६ ॥ सा दृष्ट्वा तत्र तम्बालं वने निर्मनुजे मुने । विस्मिताति द्विजस्त्री सा चिचिन्तं हृदये बहु ॥ १७ ॥ हे मुने ! उस बालकको निर्जन वनमें देखकर वह ब्राह्मणी अत्यन्त आश्चर्यचकित हो अपने हृदयमें बहुत विचार करने लगी ॥ १७ ॥ अहो सुमहदाश्चर्यमिदं दृष्टं मयाधुना । असंभाव्यमकथ्यं च सर्वथा मनसा गिरा ॥ १८ ॥ अच्छिन्ननाभिनालोयं रसायां केवलं शिशुः । शेते मातृविहीनश्च क्रन्दंस्तेजस्विनां वरः ॥ १९ ॥ अहो ! मैंने इस समय बहुत बड़ा आश्चर्य देखा, जो असम्भव एवं मन तथा वाणीसे सर्वथा अकथनीय है । तेजस्वियोंमें श्रेष्ठ इस बालकका अभीतक नालच्छेदन नहीं हुआ है और यह मातृविहीन हो रोता हुआ अकेला ही पृथिवीपर लेटा हुआ है ॥ १८-१९ ॥ अस्य पित्रादयः केऽपि न सन्तीह सहायिनः। कारणं किं बभूवाथ ह्यहो दैवबलं महत् । २० ॥ यहाँ तो इसकी सहायता करनेवाले इसके मातापिता आदि कोई नहीं हैं, इसमें क्या कारण हो सकता है, अहो, दैवबल बड़ा प्रबल है ! ॥ २० ॥ न जाने कस्य पुत्रोऽयमस्य ज्ञातात्र कोपि न । यतः पृच्छाम्यस्य जन्य जाता च करुणा मयि ॥ २१ ॥ यह न जाने किसका पुत्र है, इसे जाननेवाला भी यहाँ कोई नहीं है, जिससे इसके जन्मके विषयमें मैं पूईं । मुझे तो इसपर बहुत ही दया आ रही है ॥ २१ ॥ इच्छाम्येनं पोषितुं हि बालमौरसपुत्रवत् । संप्रष्टुं नोत्सहेऽज्ञात्वा कुलजन्मादि चास्य वै ॥ २२ ॥ मैं अब इस बालकका अपने औरसपुत्रकी भाँति पालन करना चाहती हूँ, परंतु इसके कुल और जन्म आदिका ज्ञान न होनेसे इसे छुनेका साहस नहीं होता ॥ २२ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इति सञ्चिन्त्यमानायां तस्यां विप्रवरस्त्रियाम् । कृपां चकार महतीं शंकरो भक्तवत्सल ॥ २३ ॥ नन्दीश्वर बोले-जब वह श्रेष्ठ ब्राह्मणी अपने मनमें इस प्रकारका विचार कर रही थी, उसी समय भक्तवत्सल शिवजीने बड़ी दया की ॥ २३ ॥ दध्रे भिक्षुस्वरूपं हि महालीलो महेश्वरः । सर्वथा भक्तसुखदो निरुपाधिः स्वयं सदा ॥ २४ ॥ सदैव महान् लीलाएँ करनेवाले, स्वयं उपाधिरहित तथा भक्तोंको हर प्रकारका सुख देनेवाले उन महेश्वरने [उस समय] भिक्षुकका रूप धारण कर लिया ॥ २४ ॥ तत्राजगाम सहसा स भिक्षुः परमेश्वरः । यत्रास्ति संदेहवती द्विजस्त्री ज्ञातुमिच्छती ॥ २५ ॥ भिक्षुकरूपधारी वे परमेश्वर वहाँ सहसा आये, जहाँ उस बालकके विषयमें जाननेकी इच्छावाली सन्देहग्रस्त ब्राह्मणी विद्यमान थी ॥ २५ ॥ भिक्षुवर्यस्वरूपोऽसावविज्ञातगतिः प्रभुः । तामाह विप्रवनितां विहस्य करुणानिधिः ॥ २६ ॥ तब अविज्ञातगति तथा दयासागर उन भिक्षुकरूपधारी भगवान् शंकरने हँसकर उस ब्राह्मणपत्नीसे कहा- ॥ २६ ॥ भिक्षुवर्य उवाच - सन्देहं कुरु नो चित्ते विप्रभामिनि मा खिद । रक्षैनं बालकं प्रीत्या सुपवित्रं स्वपुत्रकम् ॥ २७ ॥ अनेन शिशुना श्रेयः प्राप्स्यसे न चिरात्परम् । पुष्णीहि सर्वथा ह्येनं महातेजस्विनं शिशुम् ॥ २८ ॥ भिक्षश्रेष्ठ बोले-हे ब्राह्मणी ! तुम अपने मनमें शंका मत करो और दुखी मत होओ, तुम अपने पुत्रतुल्य इस पवित्र बालककी प्रसन्नतापूर्वक रक्षा करो थोड़े ही समयके उपरान्त इस बालकसे तुम्हारा परम कल्याण होनेवाला है, अतः सब प्रकारसे इस महातेजस्वी शिशुका पालन-पोषण करो ॥ २७-२८ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्तवन्तं तं भिक्षुस्वरूपं करुणानिधिम् । सा विप्रवनिता शम्भुं प्रीत्या पप्रच्छ सादरम् ॥ २९ ॥ नन्दीश्वर बोले-भिक्षुरूप धारण करनेवाले करुणासागर शिवजीने जब इस प्रकार कहा, तब ब्राह्मणीने प्रेमके साथ आदरपूर्वक उनसे पूछा- ॥ २९ ॥ विप्रवनितोवाच - त्वदाज्ञयैनं बालं हि रक्षिष्यामि स्वपुत्रवत् । पौक्ष्यामि नात्र सन्देहो मद्भाग्यात्त्वमिहागतः ॥ ३० ॥ तथापि ज्ञातुमिच्छामि विशेषेण तु तत्त्वतः । कोयं कस्य सुतश्चायं कस्त्वमत्र समागतः ॥ ३१ ॥ ब्राह्मणी बोली-मैं आपकी आज्ञासे अपने पुत्रके समान इस बालककी रक्षा करूँगी तथा भरण-पोषण करूँगी, इसमें सन्देह नहीं है, आप मेरे भाग्यसे ही यहाँ पधारे हैं । फिर भी मैं आपसे सत्य-सत्य विशेष रूपसे जानना चाहती हूँ कि वह कौन है, यह किसका पुत्र है और यहाँ आये हुए आप कौन हैं ? ॥ ३०-३१ ॥ मुहुर्मम समायाति ज्ञानं भिक्षुवर प्रभो । त्वं शिवः करुणासिन्धुस्त्वद्भक्तोयं शिशुः पुरा ॥ ३२ ॥ हे भिक्षुवर ! हे प्रभो ! मुझे बारंबार ऐसा ज्ञात हो रहा है कि आप दयासागर भगवान् शिव हैं और यह शिशु पूर्वजन्ममें आपका भक्त था ॥ ३२ ॥ केनचित्कर्मदोषेण सम्प्राप्तोऽयं दशामिमाम् । तद्भुक्त्वा परमं श्रेयः प्राप्स्यते त्वदनुग्रहात् ॥ ३३ ॥ किसी कर्मके दोषसे यह इस अवस्थाको प्राप्त हुआ है, उसे भोगकर आपकी कृपासे यह पुनः परम कल्याणको प्राप्त करेगा ॥ ३३ ॥ त्वन्माययैव साहं वै मार्गभ्रष्टा विमोहिता । आगता प्रेषिता त्वत्तो ह्यस्य रक्षणहेतुतः ॥ ३४ ॥ आपकी मायासे मोहित हुई मैं अपना मार्ग भूलकर इधर आ गयी, [जिससे ज्ञात होता है कि इसके पालन करनेके लिये आपने ही मुझे यहाँ भेजा है ॥ ३४ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इति तद्दर्शनप्राप्तविज्ञानां विप्रकामिनीम् ॥ ज्ञातुकामां विशेषेण प्रोचे भिक्षुतनुः शिवः । ३५ ॥ नन्दीश्वर बोले-शिवजीके दर्शनसे ज्ञानको प्राप्त हुई तथा विशेषरूपसे जाननेकी इच्छावाली उस ब्राह्मणीसे भिक्षुरूपधारी शिवने कहा- ॥ ३५ ॥ भिक्षुवर्य उवाच - शृणु प्रीत्या विप्रपत्नि बालस्यास्य पुरेहितम् ॥ सर्वमन्यस्य सुप्रीत्या वक्ष्यते तत्त्वतोऽनघे । ३६ ॥ भिक्षुवर बोले-हे विप्रपत्लि ! इस सर्वमान्य बालकका पूर्वकालीन इतिहास तुमसे प्रसन्नतापूर्वक कह रहा हूँ । हे अनघे ! तुम प्रेमपूर्वक इसे सुनो ॥ ३६ ॥ सुतो विदर्भराजस्य शिवभक्तस्य धीमतः । अयं सत्यरथस्यैव स्वधर्मनिरतस्य हि ॥ ३७ ॥ यह [बालक] शिवभक्त, बुद्धिमान् तथा अपने धर्ममें निरत रहनेवाले विदर्भराज सत्यरथका पुत्र है ॥ ३७ ॥ शृणु सत्यरथो राजा हतः शाल्वे रणे परैः । तत्पत्नी निशि सुव्यग्रा निर्ययौ स्वगृहाद् द्रुतम् ॥ ३८ ॥ [हे ब्राह्मणी !] सुनो, राजा सत्यरथ शत्रु शाल्वोद्वारा युद्धमें मार डाले गये, जिससे अत्यन्त भयभीत हुई उनकी पत्नी रात्रिमें शीघ्रतासे अपने घरसे निकल गयों ॥ ३८ ॥ असूत तनयं चैनं समायाता प्रगेऽत्र हि । सरोवतीर्णा तृषया ग्रस्ता ग्राहेण दैवतः ॥ ३९ ॥ उन्होंने इस वनमें आकर प्रातःकाल होते-होते इस पुत्रको जन्म दिया, किंतु प्यास लगनेसे वह सरोवरमें उतरीं, तब दुर्भाग्यसे ग्राहने उन्हें अपना ग्रास बना लिया ॥ ३९ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इति तस्य समुत्पत्तिं तत्पितुः संगरे मृतिम् । तन्मातृमरणं ग्राहात्सर्वं तस्य न्यवेदयत् ॥ ४० ॥ नन्दीश्वर बोले-इस प्रकार उन्होंने बालककी उत्पत्ति, उसके पिताका संग्राममें मरण एवं ग्राहद्वारा उसकी माताको मृत्युके विषयमें उससे कहा ॥ ४० ॥ अथ सा ब्रह्माणी चैव विस्मिताति मुनीश्वर । पुनः पप्रच्छ तं भिक्षुं ज्ञानिनं सिद्धरूपकम् ॥ ४१ ॥ हे मुनीश्वर ! तब वह ब्राह्मणी अत्यन्त विस्मित हुई और उसने ज्ञानी तथा सिद्धस्वरूप उन भिक्षुकसे पुनः पूछा- ॥ ४१ ॥ ब्राह्मण्युवाच - स राजोऽस्य पिता भिक्षो वरभोगान्तरेव हि । कस्माच्छाल्वैः स्वरिपुभिः स्वल्पेहैश्च विघातितः ॥ ४२ ॥ कस्मादस्य शिशोर्माता ग्राहेणाशु सुभक्षिता । यस्मादनाथोयं जातो विबन्धुश्चैव जन्मतः ॥ ४३ ॥ ब्राह्मणी बोली-हे भिक्षो ! इस राजपुत्रका श्रेष्ठ पिता उत्तमोत्तम भोग करते हुए भी इन क्षुद्र शाल्वोंके द्वारा किस प्रकार मारा गया और ग्राहने इस शिशुकी माताको शीघ्र क्यों ग्रास बना लिया, जिसके कारण यह जन्मसे अनाथ एवं बन्धुरहित हो गया है ? ॥ ४२-४३ ॥ कस्मात्सुतो ममापीह सुदरिद्रो हि भिक्षुकः । भवेत्कथं सुखं भिक्षो पुत्रयोरनयोर्वद ॥ ४४ ॥ हे भिक्षो ! मेरा यह पुत्र भी परम दरिद्र तथा भिक्षुक क्यों हुआ ? किस उपायसे मेरे ये दोनों पुत्र सुखी होंगे, यह बताइये ॥ ४४ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इति तस्या वचः श्रुत्वा स भिक्षुः परमेश्वरः । विप्रपत्न्याः प्रसन्नात्मा प्रोवाच विहसंश्च ताम् ॥ ४५ ॥ नन्दीश्वर बोले-उस ब्राह्मणीका यह वचन सुनकर भिक्षुरूपधारी उन परमेश्वरने प्रसन्नचित्त होकर हँसते हुए उससे कहा- ॥ ४५ ॥ भिक्षुवर्य उवाच - विप्रपत्नि विशेषेण सर्वप्रश्नान्वदामि ते । शृणु त्वं सावधानेन चरित्रमिदमुत्तमम् ॥ ४६ ॥ भिक्षुवर्व बोले-हे विप्रपलि ! मैं तुम्हारे सभी प्रश्नोंका उत्तर विशेषरूपसे दे रहा हूँ, तुम सावधान होकर इस उत्तम चरित्रका श्रवण करो ॥ ४६ ॥ अमुष्य बालस्य पिता स विदर्भमहीपतिः । पूर्वजन्मनि पाण्ड्योऽसौ बभूव नृपसत्तमः ॥ ४७ ॥ विदर्भ देशका राजा, जो इस बालकका पिता था, वह पूर्वजन्ममें पाण्ड्य देशका श्रेष्ठ राजा था ॥ ४७ ॥ स शैवनृपतिर्धर्मात्पालयन्निखिला महीम् । स्वप्रजां रञ्जयामास सर्वोपद्रवनाशनः ॥ ४८ ॥ सम्पूर्ण उपद्रवोंका नाश करनेवाला वह शिवभक्त राजा सम्पूर्ण पृथ्वीका पालन करता हुआ अपनी प्रजाको प्रसन्न रखता था ॥ ४८ ॥ कदाचित्स हि सर्वेशं प्रदोषे पर्यपूजयत् । त्रयोदश्यां निराहारो दिवानक्तव्रती शिवम् ॥ ४९ ॥ तस्य पूजयतः शम्भुं प्रदोषे गिरिशं रते । महाञ्छब्दो बभूवाथ विकटः सर्वथा पुरे ॥ ५० ॥ किसी समय उसने दिनमें निराहार रहकर नक्तव्रत करते हुए त्रयोदशीके प्रदोषकालमें शिवकी पूजा की । जब वह प्रदोषकालमें शिवजीका पूजन कर रहा था, तभी नगरमें बड़ा भयानक शब्द हुआ ॥ ४९-५० ॥ तमाकर्ण्य रवं सोऽथ राजा त्यक्तशिवार्चनः । रिप्वागमनशङ्कातो निर्ययौ भवनाद्बहिः ॥ ५१ ॥ उस [भयावह] ध्वनिको सुनकर वह राजा शत्रुके आक्रमणकी आशंकासे शिवाचनका परित्यागकर घरसे बाहर निकल पड़ा ॥ ५१ ॥ एतस्मिन्नेव काले तु तस्यामात्यो महाबली । गृहीतशस्त्रसामन्तो राजान्तिकमुपाययौ ॥ ५२ ॥ इसी समय उसका महाबली मन्त्री भी शत्रुता करनेवाले सामन्तको साथ लेकर राजाके निकट आ गया ॥ ५२ ॥ तन्दृष्ट्वा शत्रुसामन्तं महाक्रोधेन विह्वलः । अविचार्य वृषन्तस्य शिरश्छेदमकारयत् ॥ ५३ ॥ अत्यधिक क्रोधसे व्याकुल राजाने उस शत्रु सामन्तको देखकर बिना धर्माधर्मका विचार किये निर्दयताके साथ उसका सिर कटवा दिया ॥ ५३ ॥ असमाप्येशपूजां तामशुचिर्नष्टधीर्नृपः । रात्रौ चकार सुप्रीत्या भोजनं नष्टमंगलः ॥ ५४ ॥ उस शिवपूजाको समाप्त किये बिना ही अपवित्र तथा नष्ट बुद्धिवाले राजाने रातमें प्रेमपूर्वक भोजन किया, जिससे वह मंगलहीन हो गया ॥ ५४ ॥ विदर्भे सोऽभवद्राजा जन्मनीह शिवव्रती । शिवार्चनान्तरायेण परैर्भोगांन्तरे हतः ॥ ९५ ॥ उसके पश्चात् इस जन्ममें वह विदर्भ देशका शिवभक्त राजा हुआ, किंतु [पूर्वजन्ममें] शिवार्चनमें होनेवाले पापके कारण शत्रुओंने राज्यसुखभोगके समय ही उसका वध कर दिया ॥ ५५ ॥ तत्पिता यः पूर्वभवे सोऽस्मिञ्जन्मनि तत्सुतः । अहमेव हतैश्वर्यः शिवपूजा व्यतिक्रमात् ॥ ५६ ॥ पूर्वजन्ममें जो उसका पुत्र था, वह ही इस जन्ममें भी हुआ है, किंतु शिवपूजाके व्यतिक्रमसे यह सारे ऐश्वर्यसे रहित है ॥ ५६ ॥ अस्य माता पूर्वभवे सपत्नीं छद्मनाहरत् । भक्षिता तेन पापेन ग्राहेणाऽस्मिन्भवे हि सा ॥ ५७ ॥ इसकी माताने पूर्वजन्ममें अपनी सौतको छलसे मरवा दिया था, उस पापसे इस जन्ममें उसे ग्राहने निगल लिया ॥ ५७ ॥ एषा प्रवृत्तिरेतेषां भवत्यै परिकीर्तिता । अनर्चिता शिवा भक्त्या प्राप्नुवन्ति दरिद्रताम् ॥ ५९ ॥ [हे ब्राह्मणी !] मैंने इन सबका सारा वृत्तान्त तुमसे कह दिया, भक्तिपूर्वक शिवकी अर्चना न करनेवाले मनुष्य दरिंद्र हो जाते हैं ॥ ५८ ॥ एष ते तनयः पूर्वजन्मनि ब्राह्मणोत्तमः । प्रतिग्रहैर्वयो निन्ये न यज्ञाद्यैः सुकर्मभिः ॥ ५९ ॥ अतो दारिद्र्यमापन्नः पुत्रस्ते द्विजभामिनि । तद्दोषपरिहारार्थं शरणं शंकरं व्रज ॥ ६० ॥ एताभ्यां खलु बालाभ्यां शिवपूजाविधीयताम् । उपवीतानन्तरं हि शिवः श्रेयः करिष्यति ॥ ६१ ॥ तुम्हारा यह पुत्र पूर्वजन्ममें श्रेष्ठ ब्राह्मण था, इसने यज्ञादि सुकर्म किये नहीं; केवल प्रतिग्रहोंको लेनेमें ही अपना जीवन बिता दिया । हे ब्राह्मणी ! इसीलिये तुम्हारा पुत्र दरिद्र हुआ है, उन दोषोंको दूर करनेके लिये तुम शंकरको शरणमें जाओ और इन दोनों बालकोंको लेकर शिवजीकी पूजा करो । इन दोनोंका यज्ञोपवीत हो जानेके पश्चात् शिवजी कल्याण करेंगे । ५९-६१ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इति तामुपदिश्याथ भिक्षुवर्ण्यतनुः शिवः । स्वरूपं दर्शयामास परमं भक्तवत्सलः ॥ ६२ ॥ नन्दीश्वर बोले-उसे ऐसा उपदेश देकर भिक्षुरूपधारी भक्तवत्सल भगवान् शिवने उसे अपना उत्कृष्ट स्वरूप दिखाया ॥ ६२ ॥ अथ सा विप्रवनिता ज्ञात्वा तं शंकरं प्रभुम् । सुप्रणम्य हि तुष्टाव प्रेम्णा गद्गदया गिरा ॥ ६३ ॥ इसके बाद वह ब्राह्मणी उन भिक्षुश्रेष्ठको शिव जानकर उन्हें भलीभाँति प्रणाम करके प्रेमपूर्वक गद्गद वाणीमें उन प्रभुकी स्तुति करने लगी ॥ ६३ ॥ ततः स भगवाञ्च्छम्भुर्धृतभिक्षुतनुर्द्रुतम् । पश्यन्त्या विप्रपन्त्यास्तु तत्रैवान्तरधीयत ॥ ६४ ॥ उसके बाद विप्रपत्नीके देखते-देखते भिक्षुरूपधारी वे भगवान शिव शीघ्र ही वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ ६४ ॥ अथ तस्मिन् गते भिक्षौ विश्रब्धा ब्राह्मणी च सा । तमर्भकं समादाय सस्वपुत्रा गृहं ययौ ॥ ६५ ॥ भिक्षुकके चले जानेपर ब्राह्मणीको विश्वास हो गया और उस लड़केको लेकर वह अपने पुत्रसहित घर चली गयी ॥ ६५ ॥ एकचक्राह्वये रम्ये ग्राम्ये कृत निकेतना । स्वपुत्रं राजपुत्रं च वरान्नैश्च व्यवर्द्धयत् ॥ ६६ ॥ एकचक्रा नामक रमणीय ग्राममें निवास करती हुई वह ब्राह्मणी उत्तम अन्नोंसे अपने पुत्र तथा राजपुत्रका पालन करने लगी ॥ ६६ ॥ ब्राह्मणै कृतसंस्कारौ कृतोपनयनौ च तौ । ववृधाते स्वगेहे च शिवपूजनतत्परौ ॥ ६७ ॥ पुनः ब्राह्मणोंने उन दोनोंका यज्ञोपवीत-संस्कार सम्पन्न किया, वे दोनों शिवपूजामें तत्पर हो अपने घरमें बढ़ने लगे ॥ ६७ ॥ तौ शाण्डिल्यमुनेस्तात निदेशान्नियमस्थितौ । प्रदोषे चक्रतुः शम्भोः पूजां कृत्वा व्रतं शुभम् ॥ ६८ ॥ हे तात ! वे दोनों ही शाण्डिल्य मुनिकी आज्ञासे नियममें तत्पर होकर शुभ व्रत करके प्रदोषकालमें शिवजीका पूजन करने लगे ॥ ६८ ॥ कदाचिद् द्विजपुत्रेण विनाऽसौ राजनन्दनः । नद्यां स्नातुं गतः प्राप निधानकलशं वरम् ॥ ६९ ॥ किसी समय ब्राह्मणपुत्रके बिना ही नदीमें स्नान करनेके लिये गये हुए राजपुत्रने धनसे परिपूर्ण एक सुन्दर कलश पाया ॥ ६९ ॥ एवं पूजयतोः शम्भुं राजद्विजकुमारयोः । सुखेनैव व्यतीयाय तयोर्मासचतुष्टयम् ॥ ७० ॥ इस प्रकार शिवजीकी पूजा करते हुए उन राजकुमार और ब्राह्मणकुमारके सुखपूर्वक चार महीने बीत गये ॥ ७० ॥ एवमर्चयतोः शम्भुं भूयोऽपि परया मुदा । संवत्सरो व्यतीयाय तस्मिन्नेव तयोर्गृहे ॥ ७१ ॥ इसी रीतिसे अत्यन्त प्रसन्नतासे पुनः शिवजीका पूजन करते हुए उन दोनोंका उस घरमें एक वर्ष व्यतीत हुआ ॥ ७१ ॥ सम्वत्सरे व्यतिक्रान्ते स राजतनयो मुने । गत्वा वनान्ते विप्रेण शिवस्यानुग्रहाद्विभोः ॥ ७२ ॥ अकस्मादागतां तत्र दत्तां तज्जनकेन ह । विवाह्य गन्धर्वसुतां चक्रे राज्यमकण्टकम् ॥ ७३ ॥ हे मुने ! एक वर्ष बीत जानेपर वह राजपुत्र एक दिन उस ब्राह्मणपुत्रके साथ सर्वव्यापक शिवकी कृपासे वनप्रान्तमें जा पहुँचा और अकस्मात् वहाँपर आयी हुई तथा उसके पिताद्वारा प्रदत्त गन्धर्वकन्यासे विवाह करके अकण्टक राज्य करने लगा ॥ ७२-७३ ॥ या विप्रवनिता पूर्वं तमपुष्णात्स्वपुत्रवत् । सैव माताभवत्तस्य स भ्राता द्विजनन्दनः ॥ ७४ ॥ जिस ब्राह्मणीने अपने पुत्रके समान उसका पालनपोषण किया था, वही उसकी माता हुई तथा वह ब्राह्मणपुत्र उसका भाई हुआ ॥ ७४ ॥ इत्थमाराध्य देवेशं धर्मगुप्ताह्वयः स वै । विदर्भ विषये राज्ञ्या तया भोगं चकार ह ॥ ७५ ॥ इस प्रकार शिवजीकी आराधना करके धर्मगुप्त नामक वह राजपुत्र विदर्भनगरमें उस रानीके साथ सुखोपभोग करने लगा ॥ ७५ ॥ भिक्षुवर्यावतारस्ते वर्णितश्च मयाधुना । शिवस्य धर्मगुप्ताह्व नृपबालसुखप्रदः ॥ ७६ ॥ [हे मुने !]इस समय मैंने शिवजीके भिक्षुवर्यावतारका वर्णन आपसे कर दिया, जो धर्मगुप्त नामक राजपुत्रको सुख देनेवाला था ॥ ७६ ॥ एतदाख्यानमनघं पवित्रं पावनं महत् । धर्मार्थकाममोक्षाणां साधनं सर्वकामदम् ॥ ७७ ॥ यह आख्यान निष्पाप, पवित्र, पवित्र करनेवाला, महान् धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्षका साधन एवं सम्पूर्ण मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला है ॥ ७७ ॥ य एतच्छ्रृणुयान्नित्यं श्रावयेद्वा समाहितः । स भुक्त्वेहाखिलान्कामान् सोऽन्ते शिवपुरम्व्रजेत् ॥ ७८ ॥ जो सावधान होकर इसे नित्य सुनता अथवा सुनाता है, वह समस्त इच्छित भोगोंको भोगकर अन्तमें शिवपुरको जाता है ॥ ७८ ॥ इति श्री शिवमहापुराणे तृती०शतरुद्रसंहितायां भिक्षुवर्याह्वशिवावतारचरित्रवर्णनंनामैकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें भिश्वर्यावशिवावतारचरित्रवर्णन नामक इकतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३१ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |