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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ तृतीया शतरुद्रसंहितायां
द्वात्रिंशोऽध्यायः सुरेश्वराख्यशिवावतारचरितवर्णनम् -
उपमन्युपर अनुग्रह करनेके लिये शिवके सुरेश्वरावतारका वर्णन - शृणु तात प्रवक्ष्यामि शिवस्य परमात्मनः । सुरेश्वरावतारस्ते धौम्याग्रज हितावहम् ॥ १ ॥ नन्दीश्वर बोले-हे तात ! परमेश्वर शिवका जो सुरेश्वरावतार हुआ, जिसने धौम्यके ज्येष्ठ भ्राता [उपमन्यु]-का हितसाधन किया था, मैं उसका वर्णन करूँगा, आप श्रवण कीजिये ॥ १ ॥ व्याघ्रपादसुतो धीमानुपमन्युः सतां प्रियः । जन्मान्तरेण संसिद्धः प्राप्तो मुनिकुमारताम् ॥ २ ॥ व्याघ्रपादका उपमन्यु नामवाला एक पुत्र था, जो परम बुद्धिमान् एवं सज्जनोंका प्रिय था, वह जन्मान्तरीय [तपस्यासे] सिद्ध था और मुनिके पुत्ररूपमें उत्पन्न हुआ था ॥ २ ॥ उवास मातुलगृहे स मात्रा शिशुरेव हि । उपमन्युर्व्याघ्रपादिः स्याद्दरिद्रश्च दैवतः ॥ ३ ॥ वह व्याघ्रपादपुत्र उपमन्यु जब बालक था, तभीसे अपनी माताके साथ मामाके घर निवास करने लगा, दैवयोगसे वह दरिद्र था ॥ ३ ॥ कदाचित्क्षीरमत्यल्पं पीतवान्मातुलाश्रमे । ययाचे मातरं प्रीत्या बहुशो दुग्धलालसः ॥ ४ ॥ उसने कभी अपने मामाके घरमें थोड़ा-सा दूध पी लिया था, फिर दूधके प्रति उसकी लालसा बढ़ गयी और मातासे बारंबार दूध माँगने लगा ॥ ४ ॥ तच्छ्रुत्वा पुत्रवचनं तन्माता च तपस्विनी । सांतः प्रविश्याथ तदा शुभोपायमरीरचत् ॥ ५ ॥ तब पुत्रका यह वचन सुनकर उस तपस्विनी माताने घरके भीतर प्रवेश करके एक उत्तम उपाय किया ॥ ५ ॥ उञ्छवृत्त्यर्जितान्बीजान्पिष्ट्वालोड्य जलेन तान् । उपलाल्य सुतन्तस्मै सा ददौ कृत्रिमं पयः ॥ ६ ॥ उसने उञ्छवृत्तिसे एकत्रित बीजोंको पीसकर उस [आटे]-को पानीमें घोलकर पुत्रको बहला-फुसलाकर वह कृत्रिम दूध उसे दे दिया ॥ ६ ॥ पीत्वा च कृत्रिमं दुग्धं मात्रा दत्तं स बालकः । नैतत्क्षीरमिति प्राह मातरं चारुदत्पुनः ॥ ७ ॥ माताके द्वारा दिये गये कृत्रिम दूधको पीकर वह बालक 'यह दूध नहीं है', इस प्रकार मातासे बोला और पुन: रोने लगा ॥ ७ ॥ श्रुत्वा सुतस्य रुदितं प्राह सा दुःखिता सुतम । संमार्ज्य नेत्रे पुत्रस्य कराभ्यां कमलाकृतिः ॥ ८ ॥ पुत्रका रुदन सुनकर कमलाके समान कोमलांगी माताने हाथोंसे पुत्रके नेत्रोंको पोछकर दुखी होकर उससे कहा- ॥ ८ ॥ मातोवाच - क्षीरमत्र कुतोऽस्माकं वने निवसतां सदा । प्रसादेन विना शम्भोः पयः प्राप्तिर्भवेन्नहि ॥ ९ ॥ माता बोली-हे पुत्र ! हम तो सदैव वनमें निवास करते हैं, अतः यहाँ दूधकी प्राप्ति कैसे सम्भव है ? शिवजीको प्रसन्न किये बिना तुम्हें धकी प्राप्ति नहीं हो सकती ॥ ९ ॥ पूर्वजन्मनि यत्कृत्यं शिवमुद्दिश्य हे सुत । तदेव लभ्यते नूनं नात्र कार्या विचारणा ॥ हे पुत्र ! पूर्वजन्ममें शिवजीको उद्देश्य करके जो कर्म किया जाता है, वह उसे अवश्य प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ १० ॥ इति मातृवचः श्रुन्वा व्याघ्रपादिः स बालकः ॥ १० ॥ प्रत्युवाच विशोकात्मा मातरं मातृवत्सलः ॥ ११ ॥ माताके इस प्रकारके वचनको सुनकर मातृवत्सल वह व्याघ्रपादपुत्र शोकरहित होकर अपनी मातासे बोला- ॥ ११ ॥ शोकेनालमिमं मातः शंभुर्यद्यस्ति शङ्करः । त्यज शोकं महाभागे सर्वं भद्रं भविष्यति ॥ १२ ॥ हे मातः ! यदि शिवजी कल्याण करनेवाले हैं, तो शोक करना व्यर्थ है, हे महाभागे ! शोकका त्याग करो, सब भला ही होगा ॥ १२ ॥ शृणु मातर्वचो मेऽद्य महादेवोऽस्ति चेत्क्वचित् । चिराद्वा ह्यचिराद्वापि क्षीरोदं साधयाम्यहम् ॥ १३ ॥ हे मातः ! अब मेरी बात सुनो, यदि कहीं भी वे महादेवजी होंगे, तो मैं थोड़े अथवा अधिक कालमें उनसे क्षीरका समुद्र प्राप्त कर लूँगा ॥ १३ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्त्वा स शिशुः प्रीत्या शिवं मेऽस्त्वित्युदीर्य च । विसृज्य तां सुप्रणम्य तपः कर्तुं प्रचक्रमे ॥ १४ ॥ नन्दीश्वर बोले-इस प्रकार [अपना निश्चय] बताकर तथा 'मेरा कल्याण हो' ऐसा प्रेमपूर्वक कहकर वह बालक माताको भलीभाँति प्रणामकर उससे विदा ले तप करनेके लिये चल पड़ा ॥ १४ ॥ हिमवत्पर्वतगतः वायुभक्षः समाहितः । अष्टेष्टकाभिः प्रासादं कृत्वा लिङ्गं च मृन्मयम् ॥ १५ ॥ तत्रावाह्य शिवं साम्बं भक्त्या पञ्चाक्षरेण ह । पत्रपुष्पादिभिर्वन्यैः समानर्च शिशुः स वै ॥ १६ ॥ वह बालक हिमालयपर्वतपर जाकर वायुका पान करते हुए सावधान मनसे आठ ईंटोंसे एक मन्दिर बनाकर उसमें मिट्टीका शिवलिंग स्थापित करके उस लिंगमें भक्तिपूर्वक पंचाक्षर मन्त्रके द्वारा पार्वतीसहित शिवका आवाहनकर बनमें उत्पन्न पत्र, पुष्प आदिसे उनका पूजन करने लगा ॥ १५-१६ ॥ ध्यात्वा शिवं च तं साम्बं जपन्पञ्चाक्षरं मनुम् । समभ्यर्च्य चिरं कालं चचार परमं तपः ॥ १७ ॥ इस प्रकार पार्वतीसहित उन शिवजीका ध्यान करके पंचाक्षर मन्त्रका जप तथा उनकी अर्चना करते हुए उसने बहुत कालपर्यन्त घोर तप किया ॥ १७ ॥ तपसा तस्य बालस्य ह्युपमन्योर्महात्मनः । चराचरं च भुवनं प्रदीपितमभून्मुने ॥ १८ ॥ हे मुने ! उस महात्मा बालक उपमन्युकी तपस्यासे सारा चराचर लोक प्रज्वलित हो उठा ॥ १८ ॥ एतस्मिन्नन्तरे शंभुर्विष्ण्वाद्यैः प्रार्थितः प्रभुः । परीक्षितुं च तद्भक्तिं शक्ररूपोऽभवत्तदा ॥ १९ ॥ शिवा शचीस्वरूपाभूद्गणाः सर्वेऽभवन्सुराः । ऐरावतगजो नन्दी सर्वमेव च तन्मयम् ॥ २० ॥ ततः साम्बः शिवः शक्रस्वरूपः सगणो द्रुतम् । जगामानुग्रहं कर्तुमुपमन्योस्तदाश्रमम् ॥ २१ ॥ इसी समय विष्णु आदि देवताओंके द्वारा प्रार्थित भगवान् शिवने उसकी भक्तिकी परीक्षा करनेके लिये इन्द्रका रूप धारण किया । पार्वती इन्द्राणीके रूपवाली हो गयीं, सभी गण देवता हो गये और नन्दीने ऐरावत गजका रूप धारण किया । इस प्रकार जब इन्द्ररूपकी सारी सामग्री उपस्थित हो गयी, तब गणों एवं पार्वतीसहित इन्द्ररूप शिवजी उपमन्युके ऊपर अनुग्रह करनेके लिये शीघ्र ही उसके आश्रमपर गये । १९-२१ ॥ परीक्षितुं च तद्भक्तिं शक्ररूपधरो हरः । प्राह गंभीरया वाचा बालकं तं मुनीश्वर ॥ २२ ॥ हे मुनीश्वर ! इन्द्ररूपधारी शिवजीने उसकी भक्तिकी परीक्षा करनेके लिये गम्भीर वाणीमें उस बालकसे कहा- ॥ २२ ॥ सुरेश्वर उवाच - तुष्टोऽस्मि ते वरं ब्रूहि तपसानेन सुव्रत । ददामि चेच्छितान्कामान् सर्वान्नात्रास्ति संशयः ॥ २३ ॥ सुरेश्वर बोले-हे सुव्रत ! मैं तुम्हारी इस तपस्यासे अत्यन्त प्रसन्न हूँ, तुम वर मांगो । मैं तुम्हारा सारा अभीष्ट प्रदान करूँगा, इसमें संशय नहीं है ॥ २३ ॥ एवमुक्तः स वै तेन शक्ररूपेण शम्भुना । वरयामि शिवे भक्तिमित्युवाच कृताञ्जलिः ॥ २४ ॥ इन्द्ररूपधारी उन शिवजीके इस प्रकार कहनेपर उसने हाथ जोड़कर कहा-मैं शिवमें भक्ति होनेका वरदान चाहता हूँ ॥ २४ ॥ तन्निशम्य हरिः प्राह मां न जानासि लेखपम् । त्रैलोक्याधिपतिं शक्रं सर्वदेवनमस्कृतम् ॥ २५ ॥ यह सुनकर इन्द्र बोले-क्या तुम त्रिलोकीके स्वामी, देवगणोंके रक्षक और सभी देवगणोंसे नमस्कृत मुझ इन्द्रको नहीं पहचानते हो ॥ २५ ॥ मद्भक्तो भव विप्रर्षे मामेवार्चय सर्वदा । ददामि सर्वं भद्रं ते त्यज रुद्रं च निर्गुणम् ॥ २६ ॥ हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! तुम मेरे भक्त हो जाओ और निरन्तर मेरी ही पूजा करो, मैं तुम्हारा सब प्रकारका कल्याण करूंगा । तुम गुणरहित शिवको छोड़ो ॥ २६ ॥ रुद्रेण निर्गुणेनालं किन्ते कार्यं भविष्यति । देवजातिबहिर्भूतो यः पिशाचत्वमागतः ॥ २७ ॥ उन निर्गुण रुद्रसे तुम्हारा क्या कार्य हो सकता है, जो देवजातिसे बाहर होकर पिशाचत्वको प्राप्त हो गये हैं ? ॥ २७ ॥ नन्दीश्वर उवाच - तच्छ्रुत्वा स मुनेः पुत्रो जपन्पञ्चाक्षरं मनुम् । मन्यमानो धर्मविघ्नं प्राह तं कर्तुमागतम् ॥ २८ ॥ नन्दीश्वर बोले-यह सुनकर पंचाक्षर मन्त्रका जप करता हुआ वह बालक अपने धर्ममें विघ्न उत्पन्न करनेके लिये उनको आया हुआ जानकर बोला- ॥ २८ ॥ उपमन्युरुवाच - त्वयैवं कथितं सर्वं भवनिन्दारतेन वैः । प्रसंगाद्देवदेवस्य निर्गुणत्वं पिशाचता ॥ २९ ॥ त्वं न जानासि वै रुद्रं सर्वदेवेश्वरेश्वरम् । ब्रह्मविष्णुमहेशानां जनकं प्रकृतेः परम् ॥ ३० ॥ उपमन्यु बोले-शिवनिन्दामें रत तुमने इस प्रकार प्रसंगवश उन देवाधिदेवको निर्गुण एवं पिशाच कहा है । तुम अवश्य ही प्रकृतिसे परे, ब्रह्मा-विष्णु तथा महेश्वरको उत्पन्न करनेवाले और सभी देवेश्वरोंके भी ईश्वर उन रुद्रको नहीं जानते ॥ २९-३० ॥ सदसद् व्यक्तमव्यक्तं यमाहुर्ब्रह्मवादिनः । नित्यमेकमनेकं च वरं तस्माद् वृणोम्यहम् ॥ ३१ ॥ ब्रह्मवादी लोग जिन्हें सत्, असत्, व्यक्त, अव्यक्त, नित्य, एक तथा अनेक बताते हैं, मैं उन्हींसे वर माँगूंगा ॥ ३१ ॥ हेतुवादविनिर्मुक्तं सांख्ययोगार्थदं परम् । यमुशन्ति हि तत्त्वज्ञा वरं तस्माद् वृणोम्यहम् ॥ ३२ ॥ तत्त्वज्ञ लोग जिन्हें तर्कसे परे तथा सांख्ययोगके तात्पर्यार्थको देनेवाला मानते हैं, मैं उन्हींसे वर माँगूंगा ॥ ३२ ॥ नास्ति शम्भोः परं तत्त्वं सर्वकारणकारणात् । ब्रह्मविष्ण्वादिदेवानां श्रेष्ठो गुणपराद्विभोः ॥ ३३ ॥ विभु शम्भुसे परे कोई तत्त्व नहीं है । वे सभी कारणोंके कारण और गुणोंसे सर्वथा परे हैं, अत: ब्रह्माविष्णु आदि देवोंसे श्रेष्ठ हैं ॥ ३३ ॥ नाहं वृणे वरं त्वत्तो न विष्णोर्ब्रह्मणोऽपि वा । नान्यस्मादमराद्वापि शङ्करो वरदोऽस्तु मे ॥ ३४ ॥ मैं न तो आपसे, न विष्णुजीसे, न ब्रह्माजीसे और न अन्य किसी देवतासे वर माँगता हूँ. शंकरजी ही मुझे वर प्रदान करेंगे ॥ ३४ ॥ बहुनात्र किमुक्तेन वच्मि तत्त्वं मतं स्वकम् । न प्रार्थये पशुपतेरन्यं देवादिकं स्फुटम् ॥ ३५ ॥ बहुत कहनेसे क्या लाभ ? मैं अपना निश्चय बता रहा हूँ कि मैं पशुपति शिवजीको छोड़कर किसी अन्य देवतासे वरदान नहीं माँगूंगा ॥ ३५ ॥ मद्भावं शृणु गोत्रारे मयाद्यानुमितं त्विदम् । भवान्तरे कृतं पापं श्रुता निन्दा भवस्य चेत् ॥ ३६ ॥ हे इन्द्र ! आप मेरा अभिप्राय सुनें । मैंने आज यह अनुमान कर लिया है कि मैंने जन्मान्तरमें अवश्य कोई पाप किया है, जिससे मुझे शिवजीकी निन्दा सुननी पड़ी ॥ ३६ ॥ श्रुत्वा निन्दां भवस्याथ तत्क्षणादेव संत्यजेत् । स्वदेहं तन्निहत्याशु शिवलोकं स गच्छति ॥ ३७ ॥ शिवकी निन्दाका श्रवण करते ही जो शीघ्र उस निन्दा करनेवालेका प्रतिकारकर उसी समय अपना शरीर छोड़ देता है, वह शिवलोकको जाता है ॥ ३७ ॥ आस्तां तावन्ममेच्छेयं क्षीरं प्रति सुराधम । निहत्य त्वां शिवास्त्रेण त्यजाम्येतत्कलेवरम् ॥ ३८ ॥ हे सुराधम ! अब दूधके विषयमें मेरी यह इच्छा नहीं रही, [अब तो मैं] शिवास्वसे तुम्हारा वधकर अपना यह शरीर त्याग दूंगा ॥ ३८ ॥ नन्दीश्वर उवाच - एवमुक्त्वोपमन्युस्तं मर्तुं व्यवसितः स्वयम् । क्षीरे वाच्छामपि त्यक्त्वा निहन्तुं शक्रमुद्यतः ॥ ३९ ॥ नन्दीश्वर बोले-इस प्रकार कहकर उपमन्यु मरनेके लिये तैयार हो गये और दूधके प्रति भी इच्छाका त्यागकर इन्द्रको मारनेके लिये उद्यत हो गये ॥ ३९ ॥ भस्मादाय तदाधारादघोस्त्राभिमन्त्रितम् । विसृज्य शक्रमुद्दिश्य ननाद स मुनिस्तदा ॥ ४० ॥ तव अग्निहोत्रसे भस्म लेकर उसे अघोरास्त्रसे अभिमन्त्रित करके इन्द्रके ऊपर उस भस्मको छोड़कर उन मुनिने घोर शब्द किया ॥ ४० ॥ स्मृत्वा स्वेष्टपदद्वन्द्वं स्वदेहं दग्धुमुद्यतः । आग्नेयीं धारणां बिभ्रदुपमन्युरवस्थितः ॥ ४१ ॥ उसके बाद अपने इष्टदेवके चरणयुगलका स्मरणकर अपने शरीरको जलानेहेतु अग्निकी धारणा करते हुए उपमन्यु स्थित हो गये ॥ ४१ ॥ एवं व्यवसिते विप्रे भगवान् शक्ररूपवान् । वारयामास सौम्येन धारणां तस्य योगिनः ॥ ४२ ॥ ब्राह्मण उपमन्युके इतना कर लेनेपर शक्ररूपधारी शिवजीने सौम्य [तेज]-के द्वारा उस महायोगीकी आग्नेयी धारणाको रोक दिया ॥ ४२ ॥ तद्विसृष्टमघोरास्त्रं नन्दीश्वरनियोगतः । जगृहे मन्यतः क्षिप्तं नन्दी शङ्करवल्लभम् ॥ ४३ ॥ उनके द्वारा फेंके गये उस शंकरप्रिय अघोरास्त्रको शिवजीके आदेशसे नन्दीने बीचमें ही पकड़ लिया ॥ ४३ ॥ स्वरूपमेव भगवानास्थाय परमेश्वरः । दर्शयामास विप्राय बालेन्दुकृतशेखरम् ॥ ४४ ॥ तदनन्तर भगवान् परमेश्वरने उन ब्राह्मणके समक्ष मस्तकपर द्वितीयाका चन्द्र धारण किया हुआ अपना स्वरूप प्रकट किया ॥ ४४ ॥ क्षीरार्णवसहस्रं च दध्यादेवरर्णवं तथा । भक्ष्यभोज्यार्णवं तस्मै दर्शयामास स प्रभुः ॥ ४५ ॥ एवं स ददृशे शम्भुर्देव्या सार्द्धं वृषोपरि । गणेश्वरैस्त्रिशूलाद्यैर्दिव्यास्त्रैरपि संवृतः ॥ ४६ ॥ सर्वसमर्थ उन प्रभुने हजारों दूधके, हजारों दही आदिके तथा हजारों अन्य भक्ष्य-भोज्य पदार्थोंके समुद्र उन्हें दिखाये । इसी प्रकार उन शम्भुने देवी पार्वतीके साथ बैलपर सवार हो त्रिशूल आदि आयुधोंको हाथमें धारण किये हुए गणोंके सहित अपना रूप भी उनके समक्ष प्रकट किया ॥ ४५-४६ ॥ दिवि दुन्दुभयो नेदु पुष्पवृष्टिः पपात ह । विष्णुब्रह्मेन्द्रप्रमुखैर्देवैश्छन्ना दिशो दश ॥ ४७ ॥ अथोपमन्युरानन्दसमुद्रोर्मिभिरावृतः । पपात दण्डवद्भूमौ भक्तिनम्रेण चेतसा ॥ ४८ ॥ उस समय स्वर्गलोकमें दुन्दुभियाँ बजने लगों, आकाशसे फूलोंकी वर्षा होने लगी तथा ब्रह्मा, विष्णु आदि देवगणों [की उपस्थिति]-से दसों दिशाएँ बँक गयीं । इसके बाद उपमन्यु आनन्दसागरसे उठी हुई लहरोंसे मानो मिर-से गये और भक्तिसे विनम्रचित्त हो शिवजीको दण्डवत् प्रणाम करने लगे ॥ ४७-४८ ॥ एतस्मिन्समये तत्र सस्मितो भगवान्भवः । एह्येहीति समाहूय मूर्ध्न्याघ्राय ददौ वरान् ॥ ४९ ॥ इसी समय भगवान् शिवजीने मुसकराकर उपमन्युको 'आओ आओ' इस प्रकार बुलाकर उनका मस्तक सूंघकर उन्हें वर प्रदान किये ॥ ४९ ॥ शिव उवाच - वत्सोपमन्यो तुष्टोऽस्मि त्वदाचरणतो वरात् । दृढभक्तोऽसि विप्रर्षे मया जिज्ञासितोऽधुना ॥ ५० ॥ शिवजी बोले-हे वत्स ! हे उपमन्यो ! मैं तुम्हारे इस श्रेष्ठ आचरणसे प्रसन्न हूँ । विप्रर्षे । अब मैंने परीक्षा कर ली कि तुम हमारे दृढ़ भक्त हो ॥ ५० ॥ भक्ष्यभोगान्यथाकामं बान्धवैर्भुङ्क्ष्व सर्वदा । सुखी भव सदा दुःखनिर्मुक्तो भक्तिमान्मम ॥ ५१ ॥ तुम्हारी मुझमें इसी प्रकारकी भक्ति बनी रहेगी । तुम्हारे सभी दुःख दूर हो जायेंगे और तुम सदा सुखी रहोगे । अब तुम सर्वदा अपने भाई-बन्धुओंसहित स्वेच्छापूर्वक भक्ष्यादि भोगोंका भोग करो ॥ ५१ ॥ उपमन्यो महाभाग तवाम्बैषा हि पार्वती । मया पुत्रीकृतो ह्यद्य कुमारत्वं सनातनम् ॥ ५२ ॥ हे महाभाग्यवान् उपमन्यो ! ये पार्वती तुम्हारी माता हैं, मैंने आजसे तुम्हें अपना पुत्र मान लिया । तुम सर्वदा कुमार बने रहोगे ॥ ५२ ॥ दुग्धदध्याज्यमधुनामर्णवाश्च सहस्रशः । भक्ष्यभोज्यादिवस्तूनामर्णवाश्चाखिला स्तथा ॥ ५३ ॥ तुभ्यं दत्ता मया प्रीत्या त्वं गृह्णीष्व महामुने । अमरत्वं तथा दकत्तं गाणपत्यं च शाश्वतम् ॥ ५४ ॥ हे महामुने ! मैंने प्रसन्न होकर दूध, दही, घी एवं मधुके हजारों समुद्र तथा भोज्य-भक्ष्यादि पदार्थोंसे पूर्ण हजारों समुद्र तुमको प्रदान किये, तुम उन्हें प्रेमपूर्वक ग्रहण करो । मैं तुम्हें अमरत्व तथा शाश्वत गाणपत्य भी प्रदान करता हूँ । ५३-५४ ॥ पिताहं ते महादेवो माता ते जगदम्बिका । वरान्वरय सुप्रीत्या मनोभिलषितान्परान् ॥ ५५ ॥ मैं महादेव तुम्हारा पिता हूँ तथा ये जगदम्बा तुम्हारी माता हैं । अब तुम अन्य मनोवांछित वरोंको भी प्रेमपूर्वक माँगो ॥ ५५ ॥ अजरश्चामरश्चैव भव त्वं दुःखवर्जितः । यशस्वी वरतेजस्वी दिव्यज्ञानी महाप्रभुः ॥ ५६ ॥ तुम अजर, अमर, दुःखसे रहित, यशस्वी, परम तेजस्वी, दिव्यज्ञानी तथा महाप्रभु हो जाओ ॥ ५६ ॥ अथ शम्भुः प्रसन्नात्मा स्मृत्वा तस्य तपो महत् । पुनर्दश वरान्दिव्यान्मुनये ह्यूपमन्यवे ॥ ५७ ॥ व्रतं पाशुपतं ज्ञानं व्रतयोगं च तत्त्वतः । ददौ तस्मै प्रवक्तृत्वं पाटवं च निजं पदम्ं ॥ ५८ ॥ इसके बाद प्रसन्नचित्त शिवजीने उनके घोर तपका स्मरणकर पुनः मुनि उपमन्युको दस दिव्य वरदान, पाशुपतव्रत, पाशुपत ज्ञान, व्रतयोग, भाषण-अभिक्षमता, दक्षता तथा अपना पद भी प्रदान किया ॥ ५७-५८ ॥ एवं दत्त्वा महादेवः कराभ्यामुपगृह्य तम् । मूर्ध्न्याघ्राय सुतस्तेऽयमिति देव्यै न्यवेदयत् ॥ ५९ ॥ देवी च शृण्वती प्रीत्या मूर्ध्निदेशे कराम्बुजम् । विन्यस्य प्रददौ तस्मै कुमारपदमक्षयम् ॥ ६० ॥ इस प्रकार वरदान देकर उन्हें अपने दोनों हाथोंसे पकड़कर उनका मस्तक सूंघकर 'यह तुम्हारा पुत्र है'ऐसा कहकर महादेवजीने उन्हें पार्वतीको समर्पित कर दिया । देवीने यह सुनकर उनके सिरपर प्रेमपूर्वक अपना करकमल रखकर उन्हें अक्षय कुमारपद प्रदान किया ॥ ५९-६० ॥ क्षीराब्धिमपि साकारं क्षीरस्वादुकरोदधिः । उपास्थाय ददौ तस्मै पिण्डीभूतमनश्वरम् ॥ ६१ ॥ दूधका स्वाद उत्पन्न करनेवाले समुद्रने स्वयं उठकर एकत्र पिण्डीभूत और अनश्वर क्षीरसमुद्र उसे प्रदान किया ॥ ६१ ॥ योगैश्वर्यं सदा तुष्टम्ब्रह्मविद्यामनश्वराम् । समृद्धिं परमां तस्मै ददौ सन्तुष्टमानसः ॥ ६२ ॥ सन्तुष्टचित्त महेश्वरने भोगैश्वर्य, सदा सन्तुष्टता, अनश्चर ब्रह्मविद्या तथा परम समृद्धि उन्हें प्रदान की ॥ ६२ ॥ सोऽपि लब्ध्वा वरान्दिव्यान्कुमारत्वं च सर्वदा । तस्माच्छिवाच्च तस्याश्च शिवाया मुदितोऽभवत् ॥ ६३ ॥ ततः प्रसन्नचेतस्कः सुप्रणम्य कृताञ्जलिः । ययाचे स वरं प्रीत्या देवदेवान्महेश्वरात् ॥ ६४ ॥ इस प्रकार वे उपमन्यु शिव और पार्वतीसे दिव्य वर और नित्यकुमारत्व प्राप्तकर परम प्रसन्न हुए । तदनन्तर प्रसन्नचित्त होकर हाथ जोड़कर प्रणाम करके उन्होंने देवाधिदेव महेश्वरसे प्रीतिपूर्वक वर माँगा ॥ ६३-६४ ॥ उपमन्युरुवाच - प्रसीद देवदेवेश प्रसीद परमेश्वर । स्वभक्तिं देहि परमां दिव्यामव्यभिचारिणीम् ॥ ६५ ॥ श्रद्धां देहि महादेव स्वसंबन्धिषु मे सदा । स्वदास्यं परमं स्नेहं स्वसान्निध्यं च सर्वदा ॥ ६६ ॥ उपमन्यु बोले-हे देवदेवेश ! प्रसन्न हों, हे परमेश्वर ! प्रसन्न हों और अपनी दिव्य परम तथा चिरस्थायिनी भक्ति प्रदान कीजिये । हे महादेव ! अपने सम्बन्धियोंके प्रति श्रद्धाभाव अपना दास्य, परम स्नेह तथा अपना नित्य सान्निध्य मुझे प्रदान कीजिये ॥ ६५-६६ ॥ नन्दीश्वर उवाच - एवमुक्त्वा प्रसन्नात्मा हर्षगद्गदया गिरा । तुष्टाव स महादेवमुपमन्युर्द्विजोत्तमः ॥ ६७ ॥ नन्दीश्वर बोले-ऐसा कहकर उन द्विजोत्तम उपमन्युने प्रसन्नचित्त होकर हर्षसे गद्गद वाणीसे महादेवकी स्तुति की ॥ ६७ ॥ एवमुक्तः शिवस्तेन सर्वेषां शृण्वतां प्रभुः । प्रत्युवाच प्रसन्नात्मोपमन्युं सकलेश्वरः ॥ ६८ ॥ इस प्रकार उनके द्वारा स्तुति किये जानेपर सकलेश्वर प्रभु शिवने प्रसन्नचित्त होकर सबके सुनते-सुनते ही उपमन्युसे कहा- ॥ ६८ ॥ शिव उवाच - वत्सोपमन्यो धन्यस्त्वं मम भक्तो विशेषतः । सर्वं दत्तं मया ते हि यद् वृत्तं भवतानघ ॥ ६९ ॥ शिवजी बोले-हे वत्स ! हे उपमन्यो ! तुम धन्य हो और विशेषरूपसे मेरे भक्त हो । हे अनघ ! तुमने मुझसे जो कुछ माँगा, वह सब मैंने तुम्हें प्रदान किया ॥ ६९ ॥ अजरश्चामरश्च त्वं सर्वदा दुःखवर्जित । सर्वपूज्यो निर्विकारी भक्तानां प्रवरो भव ॥ ७० ॥ अक्षया बान्धवाश्चैव कुलं गोत्रं च ते सदा । भविष्यति द्विजश्रेष्ठ मयि भक्तिश्च शाश्वती ॥ ७१ ॥ सान्निध्यं चाश्रये नित्यं करिष्यामि मुने तव । तिष्ठ वत्स यथाकामं नोत्कण्ठां च करिष्यसि ॥ ७२ ॥ तुम सर्वदा अजर, अमर, दुःखरहित, सर्वपूज्य, निर्विकार एवं भक्तोंमें श्रेष्ठ हो जाओ । हे द्विजोत्तम ! तुम्हारे बान्धव, तुम्हारा गोत्र एवं कुल अक्षय बना रहेगा और मुझमें तुम्हारी शाश्वत भक्ति बनी रहेगी । हे मुने । मैं तुम्हारे आश्रममें नित्य निवास करूंगा । हे वत्स ! तुम इच्छानुसार जबतक चाहो, तबतक इस लोकमें निवास करो, [किसी भी वस्तुके लिये] तुम्हें उत्कण्ठा नहीं रहेगी, अर्थात् तुम सर्वदा पूर्णकाम रहोगे ॥ ७०-७२ ॥ नन्दीश्वर उवाच - एवमुक्त्वा स भगवांस्तस्मै दत्त्वा वरान्वरान् । सांबश्च सगणः सद्यस्तत्रैवान्तर्दधे प्रभुः ॥ ७३ ॥ नन्दीश्वर बोले-ऐसा कहकर उन्हें श्रेष्ठ वरदान देकर पार्वती एवं गणोंके सहित वे भगवान् शिव वहींपर अन्तर्हित हो गये ॥ ७३ ॥ उपमन्युः प्रसन्नात्मा प्राप्य शम्भोर्वरान्वरान् । जगाम जननीस्थानं मात्रे सर्वमवर्णयत् ॥ ७४ ॥ इसके बाद प्रसन्नचित्त उपमन्यु शिवजीसे श्रेष्ठ वर प्राप्तकर अपनी माताके समीप गये और उन्होंने मातासे सारा वृत्तान्त निवेदन किया ॥ ७४ ॥ तच्छ्रुत्वा तस्य जननी महाहर्षमवाप सा । सर्वपूज्योऽभवत्सोऽपि सुखं प्रापाधिकं सदा ॥ ७५ ॥ उसे सुनकर उनकी माता परम हर्षित हुई । वे उपमन्यू भी सभीके पूज्य हुए और सदा अधिकाधिक सुख प्राप्त करने लगे ॥ ७५ ॥ इत्थं ते वर्णितस्तात शिवस्य परमात्मनः । सुरेश्वरावतारो हि सर्वदा सुखदः सताम् ॥ ७६ ॥ हे तात ! इस प्रकार मैंने परमात्मा शिवके सुरेश्वरावतारका वर्णन कर दिया, जो सजनोंको सदा सुख प्रदान करनेवाला है ॥ ७६ ॥ इदमाख्यानमनघं सर्वकामफलप्रदम् । स्वर्ग्यं यशस्यमायुष्यं भुक्तिमुक्तिप्रदं सताम् ॥ ७७ ॥ यह आख्यान [सर्वथा] निष्पाप, सभी मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला, स्वर्ग देनेवाला, यश बढ़ानेवाला, आयुकी वृद्धि करनेवाला तथा सजनोंको भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है ॥ ७७ ॥ य एतच्छृणुयाद्भक्त्या श्रावयेद्वा समाहितः । इह सर्वसुखं भुक्त्वा सोऽन्ते शिवगतिं लभेत् ॥ ७८ ॥ जो इसे भक्तिपूर्वक सुनता अथवा सुनाता है, वह इस लोकमें सब प्रकारका सुख भोगकर अन्तमें शिवसायुज्य प्राप्त कर लेता है ॥ ७८ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां सुरेश्वराख्यशिवावतारचरितवर्णनं नाम द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें सुरेश्वराख्य शिवावतारचरितवर्णन नामक बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३२ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |