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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ तृतीया शतरुद्रसंहितायां
त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ब्रह्मचारिशिवावतारवर्णनम् -
पार्वतीके मनोभावकी परीक्षा लेनेवाले ब्रह्मचारीस्वरूप शिवावतारका वर्णन - नन्दीश्वर उवाच - सनत्कुमार सुप्रीत्या शिवस्य परमात्मनः । अवतारं शृणु विभोर्जटिलाह्वं सुपावनम् ॥ १ ॥ नन्दीश्वर बोले-हे सनत्कुमार ! अब विभु परमात्मा शिवजीके परमपवित्र जटिल नामक अवतारको अत्यन्त प्रेमपूर्वक सुनिये ॥ १ ॥ पुरा सती दक्षकन्या त्यक्त्वा देहं पितुर्मखे । स्वपित्रानादृता जज्ञे मेनायां हिमभूधरात् ॥ २ ॥ पूर्व समयमें दक्षकी कन्या सती अपने पितासे अनादर प्राप्तकर उनके यज्ञमें अपना शरीर त्यागकर हिमालयद्वारा मेनाके गर्भसे पार्वती नामसे उत्पन्न हुई ॥ २ ॥ सा गत्वा गहनेऽरण्ये तेपे सुवि मलं तपः । शङ्करं पतिमिच्छन्ती सखीभ्यां संयुता शिवा ॥ वे पार्वती अपनी सखियोसमेत घोर वनमें जाकर शिवको अपना पति बनानेकी इच्छा करती हुई अत्यन्त निर्दोष तप करने लगीं ॥ ३ ॥ तत्तपः सुपरीक्षार्थं सप्तर्षीन्प्रैषयच्छिवः । तपःस्थानं तु पार्वत्या नानालीलाविशारदः ॥ ४ ॥ तब नाना प्रकारकी लीलामें प्रवीण शिवजीने उनके तपकी भलीभांति परीक्षाके लिये पार्वतीके तपःस्थानपर सप्तर्षियोंको भेजा ॥ ४ ॥ ते गत्वा तत्र मुनयः परीक्षां चक्रुरादरात् । तस्याः सुयत्नतो नैव समर्था ह्यभवंश्च ते ॥ ५ ॥ उन मुनियोंने वहाँ जाकर यत्नपूर्वक आदरके साथ उनके तपकी परीक्षा की, किंतु वे सफल नहीं हुए ॥ ५ ॥ तत्रागत्य शिवं नत्वा वृत्तान्तं च निवेद्य तत् । तदाज्ञां समनुप्राप्य स्वर्लोकं जग्मुरादरात् ॥ ६ ॥ तब वे पुनः लौटकर शिवजीके पास आये और उनको प्रणामकर आदरपूर्वक सारा वृत्तान्त निवेदन किया तथा उनकी आज्ञा लेकर स्वर्गलोक चले गये ॥ ६ ॥ गतेषु तेषु मुनिषु स्वस्थानं शङ्करः स्वयम् । परीक्षितुं शिवावृत्तमैच्छत्सूतिकरः प्रभुः ॥ ७ ॥ उन मुनियोंके अपने-अपने स्थानको चले जानेपर सुन्दर लीला करनेवाले भगवान् शंकरने पार्वतीके भावकी परीक्षा करनेका विचार किया ॥ ७ ॥ सुप्रसन्नस्तपस्वीच्छाशमनादयमीश्वरः । ब्रह्मचर्यस्वरूपोऽभूत्तदाद्भुततरः प्रभुः ॥ ८ ॥ उस समय शिवजीने अपनी इच्छाओंका दमन करनेके कारण साक्षात ईश्वर ही प्रतीत होनेवाले, तपोनिष्ठ तथा आश्चर्यसम्पन्न, प्रसन्नतासे परिपूर्ण ब्रह्मचारीका स्वरूप धारण किया ॥ ८ ॥ अतीव स्थविरो विप्रदेहधारी स्वतेजसा । प्रज्वलन्मनसा हृष्टो दण्डी छत्री महोज्जलः॥ ९ ॥ धृत्वैवं जटिलं रूपं जगाम गिरिजावनम् । अतिप्रीतियुतः शम्भुः शङ्करो भक्तवत्सलः ॥ १० ॥ वे भक्तवत्सल सदाशिव शम्भु छत्र-दण्डसे युक्त तथा जटाधारी, वृद्ध ब्राह्मणके जैसा उज्ज्वल वेष धारण किये हुए, मनसे हष्ट तथा अपने तेजसे दीप्त होते हुए अत्यन्त प्रीतियुक्त होकर गिरिजाके वनमें गये ॥ ९-१० ॥ तत्रापश्यस् त्थितां देवीं सखीभिः परिवारिताम् । वेदिकोपरि शुद्धान्तां शिवामिव विधोः कलाम् ॥ ११ ॥ वहाँ उन्होंने सखियोंसे घिरी हुई तथा वेदीके ऊपर विराजमान, चन्द्रकलाके समान शोभित होती हुई और विशुद्ध स्वरूपवाली उन पार्वतीको देखा ॥ ११ ॥ शंभुर्निरीक्ष्य तां देवीं ब्रह्मचारिस्वरूपवान् । उपकण्ठं ययौ प्रीत्या चोत्सुकी भक्तवत्सलः ॥ १२ ॥ तब ब्रह्मचारीवेषधारी भक्तवत्सल शिवजी उन देवीको देखकर प्रीतिपूर्वक बड़ी उत्सुकतासे उनके समीप पहुँचे ॥ १२ ॥ आगतं सा तदा दृष्ट्वा ब्राह्मणं तेजसाद्भुतम् । अंगेषु लोमशं शान्तं दण्डचर्मसमन्वितम् ॥ १३ ॥ ब्रह्मचर्यधरं वृद्धं जटिलं सकमण्डलुम् । अपूजयत्परप्रीत्या सर्वपूजोपहारकैः ॥ १४ ॥ ततस्ता पार्वतीदेवी पूजितं परया मुदा । कुशलं पर्यपृच्छत्तं ब्रह्मचारिणमादरात् ॥ १५ ॥ ब्रह्मचारिस्वरूपेण कस्त्वं हि कुत आगतः । इद्ं वनं भासयसि वद वेदविदां वर ॥ १६ ॥ तब पार्वतीने भी अद्भुत तेजस्वी, रोमबहुल अंगोंवाले, शान्ति प्रकट करते हुए, दण्ड तथा [मृग]-चर्मसे युक्त, कमण्डलु धारण किये हुए उन जटाधारी बूढ़े ब्राह्मणको आया देखकर पूजोपचार सामग्रीसे परम प्रेमपूर्वक उनका पूजन किया और पूजन करनेके पश्चात् आनन्दपूर्वक सादर उन ब्रह्मचारीसे कुशलक्षेम पूछा कि आप ब्रह्मचारीका रूप धारण किये हुए कौन हैं, कहाँसे आये हैं, जो अपने तेजसे इस वनप्रदेशको प्रकाशित कर रहे हैं, हे वेदविदोंमें श्रेष्ठ ! बताइये ? ॥ १३-१६ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इति पृष्टस्तु पार्वत्या ब्रह्मचारी स वै द्विजः । प्रत्युवाच द्रुतं प्रीत्या शिवाभावपरीक्षया ॥ १७ ॥ नन्दीश्वर बोले-पार्वतीके इस प्रकार पूछनेपर उन ब्रह्मचारी द्विजने पार्वतीके भावकी परीक्षा करनेकी दृष्टिसे प्रसन्न हो शीघ्रतासे कहा- ॥ १७ ॥ ब्रह्मचार्युवाच - अहमिच्छाभिगामी च ब्रह्मचारी द्विजोऽस्मि वै । तपस्वी सुखदोऽन्येषामुपकारी न संशयः ॥ १८ ॥ ब्रह्मचारी बोले-मैं अपने इच्छानुसार इधर-उधर भ्रमण करनेवाला ब्रह्मचारी, द्विज तपस्वी तथा सबको सुख पहुँचानेवाला और दूसरोंका उपकार करनेवाला हूँ, इसमें संशय नहीं ॥ १८ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्त्वा ब्रह्मचारी स शंङ्करो भक्तवत्सलः । । तस्थिवानुपकण्ठं स गोपायन् रूपमात्मनः ॥ १९ ॥ नन्दीश्वर बोले-ऐसा कहकर वे भक्तवत्सल ब्रह्मचारीरूप शंकर अपना स्वरूप छिपाते हुए पार्वतीके सन्निकट स्थित हो गये ॥ १९ ॥ ब्रह्मचार्युवाच - किं ब्रवीमि महादेवि कथनीयं न विद्यते । महानर्थकरं वृत्तं दृश्यते विकृतं महत् ॥ २० ॥ ब्रह्मचारी बोले-हे महादेवि ! मैं तुमसे क्या बताऊँ, कुछ कहनेयोग्य नहीं है, मुझे जो कि अनर्थकारी और अत्यन्त अशोभनीय कार्य दिखायी पड़ रहा है ॥ २० ॥ नवे वयसि सद्भोगसाधने सुखकारणे । महोपचारसद्भोगैर्वृथैव त्वं तपस्यसि ॥ २१॥ तुम्हें समस्त सुखोंकी साधनभूत भोगसामग्री प्राप्त है, किंतु इन सभी प्रकारके भोगोंके रहते हुए भी तुम इस नवीन युवावस्थामें व्यर्थ कष्ट सहती हुई तप कर रही हो ॥ २१ ॥ का त्वं कस्यासि तनया किमर्थं विजने वने । तपश्चरसि दुर्धर्षं मुनिभिः प्रयतात्मभिः ॥ २२ ॥ तुम कौन हो, किसकी कन्या हो और इस निर्जन वनमें प्रयतात्मा मुनियोंके लिये भी कठिन यह तप क्यों कर रही हो ? ॥ २२ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इति तद्वचनं श्रुत्वा प्रहस्य परमेश्वरी । उवाच वचनं प्रीत्या ब्रह्मचारिणमुत्तमम् ॥ २३ ॥ नन्दीश्वर बोले-इस प्रकारकी उनकी बात सुनकर परमेश्वरी पार्वती हँसकर प्रेमपूर्वक उन श्रेष्ठ ब्रह्मचारीसे कहने लगीं- ॥ २३ ॥ पार्वत्युवाच - शृणु विप्र ब्रह्मचारिन् मदवृत्तमखिलं मुने । जन्म मे भारते वर्षे साम्प्रतं हिमवद्गृहे ॥ २४ ॥ पार्वतीजी बोलीं-हे ब्रह्मचारिन् । हे विप्र ! हे मुने ! आप मेरा सारा वृत्तान्त सुनिये । इस समय मेरा जन्म भारतवर्षमें हिमालयके घरमें हुआ है ॥ २४ ॥ पूर्वं दक्षगृहे जन्म सती शङ्करकामिनी । योगेन त्यक्तदेहाहं तातेन पतिनिन्दिना ॥ २५ ॥ मैं इसके पूर्व प्रजापति दक्षके घरमें जन्म लेकर सती नामसे शंकरजीकी पत्नी थी । पतिकी निन्दा करनेवाले पिता दक्षके द्वारा किये गये अपमानके कारण मैंने योगके द्वारा अपना शरीर त्याग दिया था ॥ २५ ॥ अत्र जन्मनि संप्राप्तः सुपुण्येन शिवो द्विज । मां त्यक्त्वा भस्मसात्कृत्वा मन्मथं स जगाम ह ॥ २६ ॥ हे द्विज ! इस जन्ममें मैंने अपने पुण्यसे शिवजीको प्राप्त किया था, किंतु वे कामदेवको भस्मकर मुझे त्याग करके चले गये हैं ॥ २६ ॥ प्रयाते शङ्करे तापाद् व्रीडिताहं पितुर्गृहात् । आगच्छमत्र तपसे गुरुवाक्येन संयता ॥ २७ ॥ शिवजीके चले जानेपर दुःखान्वित तथा लज्जित होकर मैं पिताके घरसे निकलकर गुरुके वचनानुसार संयत होकर तप करनेके लिये यहाँ आयी हूँ ॥ २७ ॥ मनसा वचसा साक्षात्कर्मणा पतिभावतः । सत्यम्ब्रवीमि नोऽसत्यं संवृतः शङ्करो मया ॥ २८ ॥ हे ब्रह्मचारिन् ! मैंने मन-वाणी तथा कर्मसे साक्षात् शिवको पतिरूपमें भलीभाँति वरण किया है । मैं सत्य कहती हूँ, इसमें किंचिन्मात्र भी असत्य नहीं है ॥ २८ ॥ जानामि दुर्लभं वस्तु कथं प्राप्यं मया भवेत् । तथापि मनसौत्सुक्यात्तप्यते मे तपोऽधुना ॥ २९ ॥ मैं जानती हूँ कि यह मेरे लिये दुर्लभ है और दुर्लभ वस्तुकी प्राप्ति किस प्रकार होगी ? फिर भी मैं अपने मनकी उत्सुकतासे इस समय तपमें प्रवृत्त हूँ ॥ २९ ॥ हित्वेन्द्रप्रमुखान्देवान्विष्णुं ब्रह्माणमप्यहम् । पतिं पिनाकपाणिं वै प्राप्तुमिच्छामि सत्यतः ॥ ३० ॥ मैं इन्द्रादि प्रमुख देवताओं, विष्णु तथा ब्रह्माको भी छोड़कर केवल पिनाकपाणि भगवान् शिवको वस्तुतः पतिरूपमें प्राप्त करना चाहती हूँ ॥ ३० ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्येवं वचनं श्रुत्वा पार्वत्या हि सुनिश्चितम् । मुने स जटिलो रुद्रो विहसन्वाक्यमब्रवीत् ॥ ३१ ॥ नन्दीश्वर बोले-हे मुने ! पार्वतीके इस निश्चययुक्त वचनको सुनकर उन जटाधारी रुद्रने हँसते हुए यह वचन कहा- ॥ ३१ ॥ जटिल उवाच - हिमाचलसुते देवि का बुद्धिः स्वीकृता त्वया । रुद्रार्थं विबुधान्हित्वा करोषि विपुलं तपः ॥ ३२ ॥ जटिल बोले-हे हिमाचलपुत्रि ! हे देवि ! तुमने इस प्रकारका विचार क्यों किया है, जो कि अन्य देवोंको छोड़कर शिवके निमित्त अत्यधिक कठोर तप कर रही हो ? ॥ ३२ ॥ जानाम्यहं च तं रुद्रं शृणु त्वं प्रवदामि ते । वृषध्वजः स रुद्रो हि विकृतात्मा जटाधरः ॥ ३३ ॥ एकाकी च सदा नित्यं विरागी च विशेषतः । तस्मात्त्वं तेन रुद्रेण मनो योक्तुं न चार्हसि ॥ ३४ ॥ मैं उन रुद्रको जानता हूँ, सुनो, मैं तुमको बता रहा हूँ । वे रुद्र बैलपर सवारी करनेवाले, विकृत मनवाले तथा जटाजूट धारण करनेवाले, सदा अकेले रहनेवाले और विशेषरूपसे विरागी हैं, इसलिये उन रुद्रमें मन लगाना तुम्हारे लिये उचित नहीं है ॥ ३३-३४ ॥ सर्वं विरुद्धं रूपादि तव देवि हरस्य च। मह्यं न रोचते ह्येतद्यदीच्छसि तथा कुरु ॥ ३५ ॥ हे देवि ! तुम्हारा और शिवका रूप आदि परस्पर एक-दूसरेके विरुद्ध है, मुझे तो यह अच्छा नहीं लग रहा है, अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करो ॥ ३५ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्त्वा च पुना रुद्रो ब्रह्मचारिस्वरूपवान् । निनिन्द बहुधात्मानं तदग्रे तां परीक्षितुम् ॥ ३६ ॥ नन्दीश्वर बोले-ऐसा कहकर ब्रह्मचारीस्वरूपधारी शिवने उनकी परीक्षा करनेके लिये उनके आगे पुनः अनेक प्रकारसे अपनी निन्दा की ॥ ३६ ॥ तच्छ्रुत्वा पार्वती देवी विप्रवाक्यं दुरासदम् । प्रत्युवाच महाक्रुद्धा शिवनिन्दापरं च तम् ॥ ३७ ॥ एतावद्धि मया ज्ञातं कश्चिद् हन्यो भविष्यति । परन्तु सकलं ज्ञातमवध्यो दृश्यतेऽधुना ॥ ३८ ॥ विप्रके उस असा वचनको सुनकर देवी पार्वतीको बड़ा क्रोध उत्पन्न हो गया और उन्होंने शिवनिन्दापरायण ब्रह्मचारीसे कहा-अभीतक तो मैंने यही समझा था कि आप कोई महात्मा होंगे, किंतु मैंने इस समय आपको जान लिया, फिर भी अवध्य होनेके कारण आपका वध नहीं कर रही हूँ ॥ ३७-३८ ॥ ब्रह्मचारिस्वरूपेण कश्चित्त्वं धूर्त आगतः । शिवनिन्दा कृता मूढ त्वया मन्युरभून्मम ॥ ३९ ॥ हे मूढ़ ! तुम ब्रह्मचारीके स्वरूपमें आये हुए कोई धूर्त हो, तुमने शिवको निन्दा की है, उससे मुझे महान् क्रोध उत्पन्न हुआ है ॥ ३९ ॥ शिवं त्वं च न जानासि शिवात्त्वं हि बहिर्मुखः । त्वत्पूजा च कृता यन्मे तस्मात्तापयुताभवम् ॥ ४० ॥ तुम शिवसे बहिर्मुख हो, इसलिये शिवको नहीं जानते । मैंने तुम्हारी जो पूजा की, उसके कारण मुझे परिताप हो रहा है ॥ ४० ॥ शिवनिन्दां करोतीह तत्त्वमज्ञाय यः पुमान् । आजन्मसञ्चितं पुण्यं तस्य भस्मीभवत्युत ॥ ४१ ॥ शिवविद्वेषिणं स्पृष्ट्वा प्रायश्चित्तं समाचरेत् ॥ ४२ ॥ जो मनुष्य तत्त्वको बिना जाने ही शिवकी निन्दा करता है, उसका जन्मभरका संचित पुण्य नष्ट हो जाता है । शिवद्रोहीका स्पर्शकर मनुष्यको प्रायश्चित्त करना चाहिये ॥ ४१-४२ ॥ रे रे दुष्ट त्वया प्रोक्तमहं जानामि शङ्करम् । निश्चयेन न विज्ञातः शिव एव परः प्रभुः ॥ ४३ ॥ यथा तथा भवेद्रुद्रो मायया बहुरूपवान् । ममाभीष्टप्रदोऽत्यन्तं निर्विकारः सतां प्रियः ॥ ४४ ॥ रे दुष्ट ! तुमने कहा कि मैं शंकरको जानता हूँ, किंतु निश्चितरूपसे तुम शिवको नहीं जानते । वास्तवमें वे परमात्मा हैं । रुद्र जैसे-तैसे सब कुछ हो सकते हैं; क्योंकि वे मायासे बहुत रूप धारण करनेमें समर्थ हैं । सज्जनोंके प्रिय वे सर्वथा निर्विकार होनेपर भी मेरे मनोरथको पूर्ण करेंगे ॥ ४३-४४ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्त्वा तं शिवा देवी शिवतत्त्वं जगाद सा । यत्र ब्रह्मतया रुद्रः कथ्यते निर्गुणोऽव्ययः ॥ ४५ ॥ नन्दीश्वर बोले-ऐसा कहकर उन देवी पार्वतीने उन ब्रह्मचारीसे [उस] शिवतत्त्वका वर्णन किया, जिसमें शिव ब्रह्मके रूपमें निर्गुण एवं अव्यय कहे जाते हैं ॥ ४५ ॥ तदाकर्ण्य वचो देव्या ब्रह्मचारी स वै द्विजः । पुनर्वचनमादातुं यावदेव प्रचक्रमे ॥ ४६ ॥ प्रोवाच गिरिजा तावत्स्वसखीं विजयां द्रुतम् । शिवासक्तमनोवृत्तिः शिवनिन्दापराङ्मुखी ॥ ४७ ॥ देवीके वचनको सुनकर वे ब्राह्मण ब्रह्मचारी ज्यों ही पुन: कुछ कहनेको उद्यत हुए, उसी समय शिवमें संसक्त चित्तवाली तथा शिवनिन्दासे विमुख पार्वतीने अपनी सखी विजयासे शीघ्रतासे कहा- ॥ ४६-४७ ॥ गिरिजोवाच - वारणीयः प्रयत्नेन सख्ययं हि द्विजाधमः । पुनर्वक्तुमनाश्चायं शिवनिन्दां करिष्यति ॥ ४८ ॥ न केवलं भवेत्पापं निन्दाकर्तुः शिवस्य हि । यो वै शृणोति तन्निन्दां पापभाक्स भवेदिह ॥ ४९ ॥ गिरिजा बोलीं-हे सखि ! बोलनेकी इच्छावाला यह नीच ब्राह्मण अभी भी पुनः शिवकी निन्दा करेगा, अतः प्रयत्नपूर्वक इसे रोको, क्योंकि केवल शिवजीकी निन्दा करनेवालेको ही पाप नहीं लगता, वरन् जो उस निन्दाको सुनता है, इस संसारमें वह भी पापका भागी होता है ॥ ४८-४९ ॥ शिवनिन्दाकरो वध्यः सर्वथा शिवकिंकरैः । ब्राह्मणश्चेत्स वै त्याज्यो गन्तव्यं तत्स्थलाद्द्रुतम् ॥ ५० ॥ शिवभक्तोंको चाहिये कि शिवनिन्दकका सर्वथा प्रतिकार कर दे, किंतु यदि वह ब्राह्मण हो तो उसे त्याग देना चाहिये और उस स्थानसे शीघ्र चले जाना चाहिये ॥ ५० ॥ अयं दुष्टः पुनर्निंदां करिष्यति शिवस्य हि । ब्राह्मणत्वादवध्यश्च त्याज्योऽदृश्यश्च सर्वथा ॥ ५१ ॥ स्थलमेतद् द्रुतं हित्वा यास्यामोऽन्यत्र मा चिरम् । यथा संभाषणं न स्यादनेनाविदुषा पुनः ॥ ५२ ॥ निश्चय ही यह दुष्ट पुनः शिवकी निन्दा करेगा, किंतु ब्राह्मण होनेके कारण यह अवध्य है, अत: इसे छोड़ देना चाहिये और फिर इसे कभी नहीं देखना चाहिये । अब देर मत करो, शीघ्रतासे इस स्थानको त्यागकर हम अन्यत्र चलेंगे, जिससे इस मूर्ख ब्राह्मणके साथ पुनः सम्भाषण न हो सके ॥ ५१-५२ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्त्वा चोमया यावत्पदमुत्क्षिप्यते मुने । असौ तावच्छिवः साक्षादाललम्बे पटं स्वयम् ॥ ५३ ॥ कृत्वा स्वरूपं दिव्यं च शिवाध्यानं यथा तथा । दर्शयित्वा शिवायै तामुवाचावाङ्मुखीं शिवः ॥ ५४ ॥ नन्दीश्वर बोले-हे मुने ! इस प्रकार कहकर ज्यों ही पार्वतीने जानेहेतु पैर उठाया, त्यों ही साक्षात् शिवजीने स्वयं उनका वस्त्र पकड़ लिया । पार्वती शिवजीके जिस स्वरूपका ध्यान करती थीं, शिवजीने वैसा ही दिव्य स्वरूप धारणकर शिवाको दिखाया और नीचेकी ओर मुख की हुई उनसे कहा- ॥ ५३-५४ ॥ शिव उवाच - कुत्र त्वं यासि मां हित्वा न त्वं त्याज्या मया शिवे । मया परीक्षितासि त्वं दृढभक्तासि मेऽनघे ॥ ५५ ॥ ब्रह्मचारिस्वरूपेण भावमिच्छुस्त्वदीयकम् । तवोपकण्ठमागत्य प्रावोचं विविधं वचः ॥ ५६ ॥ शिवजी बोले-हे शिवे ! तुम मुझे छोड़कर कहाँ जा रही हो, मैं किसी प्रकार तुम्हारा त्याग नहीं करूँगा । हे अनधे ! मैंने तुम्हारी परीक्षा कर ली है, तुम मेरी दृढ़ भक्त हो । हे देवि ! मैंने तुम्हारे भावको जाननेकी इच्छासे ब्रह्मचारीके स्वरूपमें तुम्हारे पास आकर अनेक प्रकारके वचन कहे- ॥ ५५-५६ ॥ प्रसन्नोस्मि दृढं भक्त्या शिवे तव विशेषतः । चित्तेप्सितं वरं ब्रूहि नादेयं विद्यते तव ॥ ५७ ॥ हे शिवे ! मैं तुम्हारी इस दृढ भक्तिसे विशेष प्रसन्न हूँ, अब तुम अपना मनोवांछित वर माँगो, तुम्हारे लिये कोई भी वस्तु [मुझे] अदेय नहीं है ॥ ५७ ॥ अद्यप्रभृति ते दासस्तपोभिः प्रेमनिर्भरे । कृतोऽस्मि तव सौन्दर्यात्क्षण एको युगायते ॥ ५८ ॥ हे प्रेमनिर्भरे ! तुमने अपनी इस तपस्यासे आजसे मुझे अपना दास बना लिया है । तुम्हारे सौन्दर्यको बिना देखे मेरा एक-एक क्षण युगके समान बीत रहा है ॥ ५८ ॥ त्यज्यतां च त्वया लज्जा मम पत्नी सनातनी । एहि प्रिये त्वया साकं द्रुतं यामि स्वकं गिरिम् ॥ ५९ ॥ अब तुम लज्जाको त्यागो; क्योंकि तुम मेरी सनातन पत्नी हो । हे प्रिये ! आओ, मैं तुम्हारे साथ शीघ्र ही कैलासपर्वतपर चलता हूँ ॥ ५९ ॥ इत्युक्तवति देवेशे शिवाति मुदमाप सा । तपोदुःखन्तु यत्सर्वं तज्जहौ द्रुतमेव हि ॥ ६० ॥ देवेशके इस प्रकार कहनेपर वे पार्वती अत्यन्त प्रसन्न हो उठीं और उनके तप करनेका जो क्लेश था, वह सब दूर हो गया ॥ ६० ॥ ततः प्रहृष्टा सा दृष्ट्वा दिव्यरूपं शिवस्य तत् । प्रत्युवाच प्रभुं प्रीत्या लज्जयाधो मुखी शिवा ॥ ६१ ॥ उसके बाद शिवके उस दिव्य रूपको देखकर प्रसन्न हुई पार्वतीने लज्जासे नीचेकी ओर मुख कर लिया और वे प्रीतिपूर्वक कहने लगीं- ॥ ६१ ॥ शिवोवाच - यदि प्रसन्नो देवेश करोषि च कृपां मयि । पतिर्मे भव देवेश इत्युक्तः शिवया शिवः ॥६२ ॥ शिवा बोलीं-हे देवेश ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं और मेरे ऊपर कृपा करना चाहते हैं तो हे देवेश ! आप मेरे पति हों-ऐसा पार्वतीने शिवसे कहा ॥ ६२ ॥ गृहीत्वा विधिवत्पाणिं कैलासं स तया ययौ । पतिं तं गिरिजा प्राप्य देवकार्यं चकार सा ॥६३॥ नन्दीश्वर बोले-उसके बाद वे शिवजी विधिविधानसे पाणिग्रहणकर उनके साथ कैलासपर चले गये और उन पार्वतीने उन्हें पतिरूपमें प्राप्तकर देवताओंका कार्य सम्पन्न किया ॥ ६३ ॥ इति प्रोक्तस्तु ते तात ब्रह्मचारिस्वरूपकः । शिवावतारो हि मया शिवाभावपरीक्षकः ॥६४ ॥ इदमाख्यानमनघं परमं व्याहृतं मया । य एतच्छृणुयात्प्रीत्या सुखी गतिमाप्नुयात् ॥ ६५ ॥ हे तात ! इस प्रकार मैंने पार्वतीके भावकी परीक्षा लेनेवाले ब्रह्मचारीस्वरूप शिवावतारका वर्णन आपसे किया । मेरे द्वारा कहा गया यह आख्यान पवित्र तथा उत्तम है । जो इसे प्रेमपूर्वक सुनेगा, वह सुखी होकर सद्गति प्राप्त करेगा ॥ ६४-६५ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां ब्रह्मचारिशिवावतारवर्णनं नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥३३॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसहितामें ब्रह्मचारीशिवावतारवर्णन नामक तैतीसवां अध्याय पूरा हुआ ॥ ३३ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |