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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ तृतीया शतरुद्रसंहितायां
चतुस्त्रिंशोध्यायः सुनर्तकनटाह्वशिवावतारवर्णनम् -
भगवान् शिवके सुनर्तक नटावतारका वर्णन - नन्दीश्वर उवाच - सनत्कुमार सर्वज्ञ शिवस्य परमात्मनः । अवतारं शृणु विभोः सुनर्तकनटाह्वयम्॥१ ॥ नन्दीश्वर बोले-हे सर्वज्ञ ! सनत्कुमार ! अब सर्वव्यापी परमात्मा शिवजीके नर्तकनट नामक अवतारका श्रवण कीजिये ॥ १ ॥ यदा हि कालिका देवी पार्वती हिमवत्सुता । तेपे तपस्तुविमलं वनं गत्वा शिवाप्तये ॥ २ ॥ तदा शिवः प्रसन्नोऽभूत्तस्याः सुतपसो मुने । तद्वृत्तसुपरीक्षार्थं वरं दातुं मुदा ययौ ॥ ३ ॥ जब हिमालयसुता कालिका पार्वती शिवको प्राप्त करनेके लिये वनमें जाकर अत्यन्त निर्मल तप करने लगी, तब हे मुने ! उनके कठिन तपसे शिवजी प्रसन्न हो गये और उनके भावकी परीक्षाके लिये तथा उन्हें वर देनेके लिये प्रसन्नतापूर्वक वहाँ गये ॥ २-३ ॥ स्वरूपं दर्शयामास तस्यै सुप्रीतमानसः । वरं ब्रूहीति चोवाच तां शिवां शंकरो मुने ॥ ४॥ हे मुने ! अत्यन्त प्रसन्नचित्तवाले शिवने उन्हें अपना रूप दिखाया और उन शिवासे 'वर माँगो'-इस प्रकार कहा ॥ ४ ॥ तच्छ्रुत्वा शम्भुवचनं दृष्ट्वा तद्रूपमुत्तमम् । सुजहर्ष शिवातीव प्राह तं सुप्रणम्य सा ॥ ५ ॥ शिवजीके उस वचनको सुनकर तथा उनके उत्तम रूपको देखकर पार्वती बहुत प्रसन्न हुई और उन्हें भलीभाँति प्रणामकर वे कहने लगी- ॥ ५ ॥ पार्वत्युवाच - यदि प्रसन्नो देवेश मह्यं देयो वरो यदि । पतिर्भव ममेशान कृपां कुरु ममोपरि ॥ ६॥ पार्वती बोलीं-हे देवेश ! हे ईशान ! यदि आप [मुझपर] प्रसन्न हैं और यदि मुझे वर देना चाहते हैं, तो मेरे पति बनें और मेरे ऊपर कृपा करें ॥ ६ ॥ पितुर्गृहे मया सम्यग्गम्यते त्वदनुज्ञया । गन्तव्यं भवता नाथ मत्पितुः पार्श्वतः प्रभो ॥७ ॥ याचस्व मां ततो भिक्षुः ख्यापयंश्च यशः शुभम् । पितुर्मे सफलं सर्वं कुरु प्रीत्या गृहाश्रमम् ॥ ८ ॥ हे नाथ ! मैं आपकी समुचित आज्ञासे पिताके घर जा रही हूँ । हे प्रभो ! आपको भी मेरे पिताके पास जाना चाहिये, आप भिक्षुक बनकर अपना उत्तम यश प्रकट करते हुए मुझे माँगें और प्रेमपूर्वक मेरे पिताका गृहस्थाश्रम पूरी तरहसे सफल करें ॥ ७-८ ॥ ततो यथोक्तविधिना कर्तुमर्हसि भो प्रभो । विवाहं त्वं महेशान देवानां कार्यसिद्धये ॥ ९ ॥ उसके अनन्तर हे प्रभो ! हे महेशान ! आप शास्त्रोक्त विधिसे देवगणोंका कार्य सिद्ध करनेके लिये मेरा पाणिग्रहण करें ॥ ९ ॥ कामं मे पूरय विभो निर्विकारो भवान्सदा । भक्तवत्सलनामा हि तव भक्तास्म्यमहं सदा ॥ १० ॥ हे विभो ! आप मेरे इस मनोरथको पूर्ण कीजिये । आप सर्वथा निर्विकार हैं तथा भक्तवत्सल नामवाले हैं और मैं सर्वदा आपकी भक्त हूँ ॥ १० ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्तः स तया शंभुर्महेशो भक्तवत्सलः । तथास्त्विति वचः प्रोच्यान्तर्हितः स्वगिरिं ययौ ॥ ११ ॥ नन्दीश्वर बोले-पार्वतीके इस प्रकार कहनेपर भक्तवत्सल भगवान् शिव 'ऐसा ही हो'-यह वचन कहकर अन्तर्धान होकर अपने स्थान कैलासको चले गये ॥ ११ ॥ पार्वत्यपि ततः प्रीत्या स्वसखीभ्यां समन्विता । जगाम स्वपितुर्गेहं रूपं कृत्वा तु सार्थकम् ॥१ २ ॥ इसके बाद पार्वती भी प्रसन्न होकर अपनी दोनों सखियोंके साथ अपने रूपको सार्थक करके पिताके घर चली गयीं ॥ १२ ॥ पार्वत्यागमनं श्रुत्वा मेनया स हिमाचलः । परिवारयुतो द्रष्टुं स्वसुतां तां ययौ मुदा ॥ १ ३ ॥ पार्वतीके आगमनका समाचार सुनकर हिमालय भी मेना तथा परिवारको साथ लेकर अपनी पुत्रीको देखनेके लिये प्रसन्नतापूर्वक गये ॥ १३ ॥ दृष्ट्वा तां सुप्रसन्नास्यामानयामासतुर्गृहम् । कारयामासतुः प्रीत्या महानन्दौ महोत्सवम् ॥ १४ ॥ परम आनन्दित वे दोनों पार्वतीको प्रसन्नमुख देखकर उन्हें घर लिवा लाये और प्रीतिके साथ महोत्सव मनाया ॥ १४ ॥ धनं ददौ द्विजादिभ्यो मेनागिरिवरस्तथा । मङ्गलं कारयामास सवेदध्वनिमादरात् ॥ १५ ॥ मेना तथा हिमालयने ब्राह्मणादिकोंको [बहुत-सा] धन दिया और आदरके साथ वेदध्वनिपूर्वक मंगलाचार कराया ॥ १५ ॥ ततः स्वकन्यया सार्धमुवास प्रांगणे मुदा । मेना च हिमवाञ्छैलः स्नातुं गंगां जगाम सः ॥ १६ ॥ उसके बाद मेना अपनी कन्याके साथ आँगनमें| प्रसन्नतापूर्वक बैठ गयीं और वे हिमालय गंगास्नान करने चले गये ॥ १६ ॥ एतस्मिन्नन्तरे शम्भुः सुलीलो भक्तवत्सलः । सुनर्तकनटो भूत्वा मेनकासन्निधिं ययौ ॥ १७ ॥ इसी बीच सुन्दर लीलाओंवाले भक्तवत्सल शिव नाचनेवाले नटका रूप धारणकर मेनाके पास पहुँचे ॥ १७ ॥ शृंगं वामे करे धृत्वा दक्षिणे डमरुं तथा । पृष्ठे कन्थां रक्तवासा नृत्यगानविशारदः ॥ १८ ॥ ततस्तु नटरूपोऽसौ मेनकाप्रांगणे मुदा । चक्रे स नृत्यं विविधं गानं चाति मनोहराम् ॥ १९ ॥ रक्तवस्त्रधारी तथा नृत्य-गान-विशारद नटरूपधारी वे शिव अपने बायें हाथमें शृंग, दाहिने हाथमें डमरू और पीठपर कन्था धारण करके मेनाके आँगनमें प्रसन्नतापूर्वक अनेक प्रकारके नृत्य तथा अत्यन्त मनोहर गान करने लगे ॥ १८-१९ ॥ शृङ्गं च डमरुं तत्र वादयामास सुध्वनिम् । महोतिं विविधां प्रीत्या स चकार मनोहराम् ॥ २० ॥ तं द्रष्टुं नागराः सर्वे पुरुषाश्च स्त्रियस्तथा । आजग्मुः सहसा तत्र बाला वृद्धा अपि ध्रुवम् ॥ २१ ॥ उन्होंने बड़ी मनोहर ध्वनि करके डमरू तथा शृंग बजाया और प्रीतिपूर्वक विविध प्रकारकी मनोहर लीला प्रारम्भ की । उन्हें देखनेके लिये वहाँ नगरके सभी बालक, वृद्ध, पुरुष एवं स्त्रियाँ सहसा आ पहुँचे ॥ २०-२१ ॥ श्रुत्वा संगीतं तं दृष्ट्वा सुनृत्यं च मनोहरम् । सहसा मुमुहुः सर्वे मेनापि च तदा मुने ॥ २२ ॥ हे मुने ! उत्तम गीतको सुनकर तथा उस मनोहर नृत्यको देखकर सभी लोग उस समय सहसा मोहित हो गये और मेना भी मोहित हो उठीं ॥ २२ ॥ ततो मेनाशु रत्नानि स्वर्णपात्रस्थितानि च । तस्मै दातुं ययौ प्रीत्या तदूतिप्रीतमानसा ॥ २३ ॥ इसके बाद उनकी लीलासे प्रसन्न मनवाली मेना शीघ्र ही स्वर्णपात्रमें रखे हुए रत्नोंको उन्हें प्रीतिपूर्वक देनेके लिये गयीं ॥ २३ ॥ तानि न स्वीचकारासौ भिक्षां चेते शिवां च ताम् । पुनः सुनृत्यं गानं च कौतुकात्कर्तुमुद्यतः ॥ २४ ॥ उन्होंने उन रत्नोंको ग्रहण नहीं किया और उन पार्वतीको ही भिक्षाके रूपमें माँगा । वे पुनः कौतुकसे उत्तम नृत्य तथा गान करने लगे ॥ २४ ॥ मेना तद्वचनं श्रुत्वा चुकोपाति सुविस्मिता । भिक्षुकं भर्त्सयामास बहिष्कर्तुमियेष सा ॥ २५ ॥ उनका वचन सुनकर विस्मित हुई मेना बहुत क्रुद्ध हो गयीं । उन्होंने भिक्षुककी भर्त्सना की और उसे बाहर निकालनेकी इच्छा की ॥ २५ ॥ एतस्मिन्नन्तरे तत्र गंगातो गिरिराड् ययौ । ददर्श पुरतो भिक्षुं प्राङ्गणस्थं नराकृतिम् ॥ २६ ॥ इसी समय पर्वतराज हिमालय गंगा-स्नानकर वहाँ आ पहुँचे । उन्होंने मनुष्यरूप धारण किये हुए उस भिक्षुकको सामने आँगनमें स्थित देखा ॥ २६ ॥ श्रुत्वा मेनामुखाद् वृत्तं तत्सर्वं सुचुकोप सः । आज्ञां चकारानुचरान्बहिः कर्तुं च भिक्षुकम् ॥ २७ ॥ तब मेनाके मुखसे वह सारा वृत्तान्त सुनकर उन्होंने भी बड़ा क्रोध किया और उस भिक्षुकको बाहर निकालनेके लिये अपने सेवकोंको आज्ञा दी ॥ २७ ॥ महाग्निमिव दुःस्पर्शं प्रज्वलन्तं सुतेजसम् । न शशाक बहिः कर्तुं कोऽपि तं मुनिसत्तम ॥ २८ ॥ ततः स भिक्षुकस्तात नानालीलाविशारदः । दर्शयामास शैलाय स्वप्रभावमनन्तकम् ॥ २९ ॥ मुनिसत्तम ! प्रलयाग्निके समान जलते हुए तेजसे अत्यन्त दुस्सह उस भिक्षुकको बाहर निकालनेमें कोई भी समर्थ नहीं हुआ । उसके बाद हे तात ! अनेक प्रकारकी लीला करनेमें निष्णात उस भिक्षुकने शैलराजको अपना अनन्त प्रभाव दिखलाया ॥ २८-२९ ॥ शैलो ददर्श तं तत्र विष्णुरूपधरं द्रुतम् । ततो ब्रह्मस्वरूपं च सूर्यरूपं ततः क्षणात् ॥ ३० ॥ ततो ददर्श तं तात रुद्ररूपं महाद्भुतम् । पार्वती सहितं रम्यं विहसन्तं सुतेजसम् ॥ ३१ ॥ हिमालयने शीघ्रतासे उसे विष्णुरूपधारी, फिर ब्रह्मारूप और थोड़ी देरमें सूर्यरूप धारण किये हुए देखा । हे तात ! इसके थोड़ी ही देर बाद उसको अत्यन्त अद्भुत एवं परम तेजस्वी रुद्ररूप धारणकर पार्वतीके साथ मनोहर हास करते हुए देखा ॥ ३०-३१ ॥ एवं सुबहुरूपाणि तस्य तत्र ददर्श सः । सुविस्मितो बभूवाशु परमानन्दसंप्लुतः ॥ ३२ ॥ इस प्रकार उन्होंने वहाँ उसके अनेक सुन्दर रूपोंको देखा और वे आनन्दसे विभोर हो विस्मित हो उठे ॥ ३२ ॥ अथासौ भिक्षुवर्यो हि तस्मात्तस्याश्च सूतिकृत् । भिक्षां ययाचे दुर्गान्तान्नान्यज्जग्राह किञ्चन ॥ ३३ ॥ इसके बाद सुन्दर लीला करनेवाले उस भिक्षुने शैल एवं मेनासे केवल पार्वतीको ही भिक्षारूपमें माँगा और अन्य कुछ भी ग्रहण नहीं किया ॥ ३३ ॥ ततश्चान्तर्दधे भिक्षुस्वरूपः परमेश्वरः । स्वालयं स जगामाशु दुर्गावाक्यप्रणोदितः ॥ ३४ ॥ पार्वतीके वाक्योंसे प्रेरित होकर भिक्षुरूप धारण करनेवाले परमेश्वर इसके बाद अन्तर्धान हो गये और शीघ्र ही अपने स्थानको चले गये ॥ ३४ ॥ तदा बभूव सुज्ञानं मेनाशैलेशयोरपि । आवां शिवो वञ्चयित्वा गतवान्स्वालयं विभुः ॥ ३५ ॥ तब मेना एवं हिमालयको उत्तम ज्ञान हुआ कि सर्वव्यापी शिव हम दोनोंको ठगकर अपने स्थानको चले गये ॥ ३५ ॥ अस्मै देया स्वकन्येयं पार्वती सुतपस्विनी । एवं विचार्य च तयोः शिवेभक्तिरभूत्परा ॥ ३६ ॥ हमें अपनी इस तपस्विनी कन्या पार्वतीको उन्हें प्रदान कर देना चाहिये था-ऐसा विचार करके शिवजीमें उन दोनोंकी उत्कट भक्ति हो गयी ॥ ३६ ॥ अतो रुद्रो महोतीश्च कृत्वा भक्तमुदावहम् । विवाहं कृतवान्प्रीत्या पार्वत्या स विधानतः ॥ ३७ ॥ इस प्रकारकी महालीलाएँ करके शिवजीने पार्वतीसे भक्तोंको आनन्द देनेवाला विवाह प्रेमपूर्वक विधिविधानके साथ किया ॥ ३७ ॥ इति प्रोक्तस्तु ते तात सुनर्तकनटाह्वयः । शिवावतारो हि मया शिवावाक्यप्रपूरकः ॥ ३८ ॥ हे तात ! इस प्रकार मैंने पार्वतीके अनुरोधको पूर्ण करनेवाला शिवका सुनर्तक नट नामक अवतार आपसे कहा- ॥ ३८ ॥ इदमाख्यानमनघं परमं व्याहृतं मया । य एतच्छृणुयात्प्रीत्या स सुखी गतिमाप्नुयात् ॥ ३९ ॥ [हे सनत्कुमार !] मेरे द्वारा कहा गया यह आख्यान अत्यन्त श्रेष्ठ तथा पवित्र है, जो भी इसे प्रेमपूर्वक सुनता है, वह सुखी होकर सद्गति प्राप्त कर लेता है ॥ ३९ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां सुनर्तकनटाह्वशिवावतारवर्णनंनाम चतुस्त्रिंशोध्यायः ॥ ३४ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें सुनर्तकनटाशिवावतारवर्णन नामक चाँतीसवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३४ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |