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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

तृतीया शतरुद्रसंहितायां

पञ्चत्रिंशोऽध्यायः

साधुद्विजशिवावतारवर्णनम् -
परमात्मा शिवके द्विजावतारका वर्णन -


नन्दीश्वर उवाच -
सनत्कुमार सर्वज्ञ शिवस्य परमात्मनः ।
अवतारं शृणु विभोः साधुवेषद्विजाह्वयम् ॥ १ ॥
नन्दीश्वर बोले-हे सर्वज्ञ ! सनत्कुमार ! अब साधुवेष धारण करनेवाले ब्राह्मणके रूपमें परमात्मा शिवका जिस प्रकार अवतार हुआ, उसे आप सुनें ॥ १ ॥

मेनाहिमालयोर्भक्तिं शिवे ज्ञात्वा महोत्तमाम् ।
चिन्तामापुः सुराः सर्वे मन्त्रयामासुरादरात् ॥ २ ॥
मेना और हिमालयकी शिवमें उत्कट भक्ति देख देवताओंको बड़ी चिन्ता हुई और उन लोगोंने आदरपूर्वक परस्पर मन्त्रणा की ॥ २ ॥

एकान्तभक्त्या शैलश्चेत्कन्यां दास्यति शम्भवे ।
ध्रुवं निर्वाणतां सद्यः सम्प्राप्स्यति शिवस्य वै ॥ ३ ॥
अनन्तरत्नाधारोऽसौ चेत्प्रयास्यति मोक्षताम् ।
रत्नगर्भाभिधा भूमिर्मिथ्यैव भविता ध्रुवम् ॥ ४ ॥
यदि शिवमें अनन्य भक्ति रखकर हिमालय उन्हें कन्या देंगे, तो निश्चित रूपसे ये शिवका निर्वाणपद प्राप्त कर लेंगे । अनन्त रत्नोंके आधारभूत ये हिमालय यदि मुक्त हो जायेंगे तो निश्चय ही पृथ्वीका रत्नगर्भायह नाम व्यर्थ हो जायगा ॥ ३-४ ॥

स्थावरत्वं परित्यज्य दिव्यरूपं विधाय सः ।
कन्यां शूलभृते दत्त्वा शिवालोकं गमिष्यति ॥ ५ ॥
महादेवस्य सारूप्यं प्राप्य शम्भोरनुग्रहात् ।
तत्र भुक्त्वा महाभोगांस्ततो मोक्षमवाप्स्यति ॥ ६ ॥
शिवजीको अपनी कन्याके दानके पुण्यसे वे अपने स्थावररूपको त्यागकर दिव्य शरीर धारण करके शिवलोकको प्राप्त करेंगे, फिर शिवजीके अनुग्रहसे शिवसारूप्य प्राप्त करके वहाँ सभी प्रकारके भोगोंको भोगकर बादमें मोक्ष प्राप्त कर लेंगे ॥ ५-६ ॥

इत्यालोच्य सुराः सर्वे जग्मुर्गुरुगृहं मुने ।
चक्रुर्निवेदनं गत्वा गुरवे स्वार्थसाधकाः ॥ ७ ॥
हे मुने ! इस प्रकार विचारकर अपने स्वार्थसाधनमें कुशल उन सभी देवताओंने गुरु बृहस्पतिके घरके लिये प्रस्थान किया । वहाँ जाकर उन लोगोंने गुरुसे निवेदन किया ॥ ७ ॥

देवा ऊचुः -
गुरो हिमालयगृहं गच्छास्मत्कार्यसिद्धये ।
कृत्वा निंदां महेशस्य गिरिभक्तिं निवारय ॥ ८ ॥
स्वश्रद्धया सुतां दत्त्वा शिवाय स गिरिर्गुरो ।
लभेत मुक्तिमत्रैव धरण्यां स हि तिष्ठतु ॥ ९ ॥
देवता बोले-हे गुरो ! आप हमलोगोंका कार्य सिद्ध करनेके लिये हिमालयके घर जाइये और शिवजीकी निन्दाकर हिमालयके चित्तसे शिवके प्रति आस्था दर कीजिये । हे गुरो ! वे हिमालय श्रद्धासे अपनी कन्या शिवको देकर मुक्ति प्राप्त कर लेंगे [किंतु हमलोग ऐसा नहीं चाहते, हमारी इच्छा है कि वे यहीं पृथ्वीपर रहें ॥ ८-९ ॥

इति देववचः श्रुत्वा प्रोवाच च विचार्य तान् ॥ १० ॥
देवताओंका यह वचन सुनकर बृहस्पतिने विचार करके उनसे कहा- ॥ १० ॥

गुरुरुवाच -
कश्चिन्मध्ये च युष्माकं गच्छेच्छैलान्तिकं सुराः ।
सम्पादयेत्स्वाभिमतमहं तत्कर्तुमक्षमः ॥ ११ ॥
अथवा गच्छत सुरा ब्रह्मलोकं सवासवाः ।
तस्मै वृत्तं कथय स्वं स वः कार्यं करिष्यति ॥ १२ ॥
बृहस्पतिजी बोले-हे देवताओ ! आपलोगोंके मध्यसे ही कोई एक पर्वतराजके पास जाय और अपना अभीष्ट सिद्ध करे, मैं इसे करनेमें [सर्वथा] असमर्थ हूँ अथवा हे देवताओ ! आपलोग इन्द्रको साथ लेकर ब्रह्मलोकको जाइये और उन ब्रह्मासे अपना सारा वृत्तान्त कहिये, वे आपलोगोंका कार्य करेंगे ॥ ११-१२ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
तच्छ्रुत्वा ते समालोच्य जग्मुर्विधिसभां सुराः ।
सर्वं निवेदयामासुस्तद्वृत्तं पुरतो विधेः ॥ १३ ॥
नन्दीश्वर बोले-[हे सनत्कुमार !] यह सुनकर विचार करके वे देवता ब्रह्माकी सभामें गये और उन लोगोंने ब्रह्माके आगे सारा वृत्तान्त निवेदन किया ॥ १३ ॥

अवोचत्तान्विधिः श्रुत्वा तद्वचः सुविचिंत्य वै ।
नाहं करिष्ये तन्निंदां दुःखदां कहरां सदा ॥ १४ ॥
सुरा गच्छत कैलासं संतोषयत शङ्‌करम् ।
प्रस्थापयत तं देवं हिमालयगृहं प्रति ॥ १५ ॥
स गच्छेदथ शैलेशमात्मनिन्दां करोतु वै ।
परनिन्दा विनाशाय स्वनिन्दा यशसे मता ॥ १६ ॥
उनका बचन सुनकर ब्रह्मदेवने भलीभाँति विचारकर उनसे कहा-मैं तो दुःख देनेवाली तथा सर्वदा सुखापहारिणी शिवनिन्दा नहीं कर सकता । अत: हे देवताओ । आपलोग कैलासको जाइये, शिवको सन्तुष्ट कीजिये और उन्हीं प्रभुको हिमालयके घर भेजिये । वे [शिव] ही पर्वतराज हिमालयके पास जायें और अपनी निन्दा करें क्योंकि दूसरेकी निन्दा विनाशके लिये और अपनी निन्दा यशके लिये मानी गयी है ॥ १४-१६ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
ततस्ते प्रययुः शीघ्रं कैलासं निखिलाः सुराः ।
सुप्रणम्य शिवं भक्त्या तद्द्रुतं निखिला जगुः ॥ १७ ॥
नन्दीश्वर बोले-उसके बाद वे सभी देवगण कैलासपर्वतपर गये और शिवजीको भक्तिपूर्वक प्रणामकर उन लोगोंने सारा वृत्तान्त निवेदन किया ॥ १७ ॥

तच्छ्रुत्वा देववचनं स्वीचकार महेश्वरः ।
देवान्सुयापयामास तानाश्वास्य विहस्य सः ॥ १८ ॥
देवताओंका वचन सुनकर शिवजीने हँसकर उसे स्वीकार कर लिया तथा उन देवताओंको आश्वस्तकर विदा किया ॥ १८ ॥

ततः स भगवाञ्छम्भुर्महेशो भक्तवत्सलः ।
गन्तुमैच्छच्छैलमूलं मायेशो न विकारवान् ॥ १९ ॥
उसके बाद भक्तवत्सल मायापति तथा अविकारी महेश्वर भगवान् शम्भुने हिमालयके समीप जानेका विचार किया ॥ १९ ॥

दण्डी छत्री दिव्यवासा बिभ्रत्तिलकमुज्ज्वलम् ।
करे स्फटिकमालां च शालग्रामं गले दधत् ॥ २० ॥
जपन्नाम हरेर्भक्त्या साधुवेषधरो द्विजः ।
हिमाचलं जगामाशु बन्धुवर्गैः समन्वितम् ॥ २१ ॥
दण्ड, छत्र, दिव्य वस्त्र तथा उज्ज्वल तिलकसे विभूषित हो, कण्ठमें शालग्रामशिला तथा हाथमें स्फटिकमाला धारणकर साधवेषधारी ब्राह्मणके वेषमें भक्तिभावसे वे श्रीविष्णुके नामका जप करते हुए बन्धुबान्धवोंसे युक्त हिमालयके यहाँ शीघ्र गये ॥ २०-२१ ॥

तं च दृष्ट्‍वा समुत्तस्थौ सगणोऽपि हिमालयः ।
ननाम दण्डवद्भूमौ साष्टाङ्गं विधिपूर्वकम् ॥ २२ ॥
उन्हें देखते ही हिमालय सपरिवार उठ खड़े हुए । उन्होंने विधिपूर्वक भूमिमें साष्टांग दण्डवत्कर उन्हें प्रणाम किया ॥ २२ ॥

ततः पप्रच्छ शैलेशस्तं द्विजं को भवानिति ।
उवाच शीघ्रं विप्रेन्द्रः स योग्यद्रिं महादरात् ॥ २३ ॥
उसके अनन्तर शैलराजने उन ब्राह्मणसे पूछा कि आप कौन हैं ? तब उन योगी विप्रेन्द्रने बड़े आदरके साथ शीघ्र हिमालयसे कहा- ॥ २३ ॥

साधुद्विज उवाच -
साधु द्विजाह्वः शैलाहं वैष्णवः परमार्थदृक् ।
परोपकारी सर्वज्ञः सर्वगामी गुरोर्बलात् ॥ २४ ॥
साधुद्विज बोले-हे शैलराज ! मेरा नाम साधु द्विज है । मैं मोक्षकी कामनासे युक्त परोपकारी वैष्णव हूँ और अपने गुरुके प्रसादसे सर्वज्ञ तथा सर्वत्र गमन करनेवाला हूँ ॥ २४ ॥

मया ज्ञातं स्वविज्ञानात्स्वस्थाने शैलसत्तम ।
तच्छृणु प्रीतितो वच्मि हित्वा दम्भन्तवान्तिकम् ॥ २५ ॥
हे शैलसत्तम ! मैंने विज्ञानके बलसे अपने स्थानपर ही जो ज्ञात किया है, उसे प्रीतिपूर्वक आपसे कह रहा हूँ, आप पाखण्ड त्यागकर उसे सुनें ॥ २५ ॥

शङ्‌कराय सुतां दातुं त्वमिच्छसि निजोद्भवाम् ।
इमां पद्मासमां रम्यामज्ञातकुलशीलिने ॥ २६ ॥
आप इस लक्ष्मीके समान परम सुन्दरी अपनी कन्याको अज्ञात कुल तथा शीलवाले शंकरको प्रदान करना चाहते हैं ॥ २६ ॥

इयं मतिस्ते शैलेन्द्र न युक्ता मङ्‌गलप्रदा ।
निबोध ज्ञानिनां श्रेष्ठ नारायणकुलोद्भव ॥ २७ ॥
हे शैलेन्द्र ! आपकी यह बुद्धि कल्याणकारिणी नहीं है । ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ ! हे नारायणकुलोद्‌भव ! इसपर विचार कीजिये ॥ २७ ॥

पश्य शैलाधिपत्वं च न तस्यैकोऽस्ति बान्धवः ।
बान्धवान्स्वान्प्रयत्नेन पृच्छ मेनां च स्वप्रियाम् ॥ २८ ॥
सर्वान्संपृच्छ यत्नेन मेनादीन्पार्वतीं विना ।
रोगिणे नौषधं शैल कुपथ्यं रोचते सदा ॥ २९ ॥
हे शैलराज ! आप ही विचार कीजिये, उनका कोई एक भी बन्धु-बान्धव नहीं है, आप इस विषयमें अपने बान्धवों तथा अपनी पत्नी मेनासे पूछिये । आप पार्वतीको छोड़कर यत्नपूर्वक मेना आदि सबसे पूछिये; क्योंकि हे शैल ! रोगीको औषधि अच्छी नहीं लगती, उसे तो सदैव कुपथ्य ही अच्छा लगता है ॥ २८-२९ ॥

न ते पात्रानुरूपश्च पार्वतीदानकर्मणि ।
महाजनः स्मेरमुखः श्रुति मात्राद्भविष्यति ॥ ३० ॥
मेरे विचारसे पार्वतीको देनेके लिये शंकर योग्य पात्र नहीं है । इसे सुननेमात्रसे बड़े लोग आपका उपहास ही करेंगे ॥ ३० ॥

निराश्रयः सदासङ्‌गो विरूपो निगुर्णोऽव्ययः ।
स्मशानवासी विकटो व्यालग्राही दिगम्बरः ॥ ३१ ॥
विभूतिभूषणो व्यालवरावेष्टितमस्तकः ।
सर्वाश्रमपरिभ्रष्टस्त्वविज्ञातगतिः सदा ॥ ३२ ॥
वे शिव तो निराश्रय, संगरहित, कुरूप, गुणरहित, अव्यय, श्मशानवासी, भयंकर आकारवाले, साँपोंको धारण करनेवाले, दिगम्बर, भस्म धारण करनेवाले, मस्तकपर सर्पमाला लपेटे हुए, सभी आश्रमोंसे परिभ्रष्ट तथा सदा अज्ञात गतिवाले हैं ॥ ३१-३२ ॥

ब्रह्मोवाच -
इत्याद्युक्त्वा वचस्तथ्यं शिवनिन्दापरं स हि ।
जगाम स्वालयं शीघ्रं नाना लीलाकरः शिवः ॥ ३३ ॥
ब्रह्माजी बोले-अनेक लीलाएँ करनेमें कुशल शिवजी इस प्रकार शिवनिन्दायुक्त सत्य-सत्य वचन कहकर शीघ्र ही अपने स्थानको चले गये ॥ ३३ ॥

तच्छ्रुत्वा विप्रवचनमभूतां च तनू तयोः ।
विपरीतानर्थपरे किं करिष्यावहे ध्रुवम् ॥ ३४ ॥
ब्राह्मणके कहे गये अप्रिय वचनको सुनकर दोनोंका स्वरूप विरुद्ध भावोंवाला एवं अनर्थसे परिपूर्ण हो गया और वे विचार करने लगे कि अब हमें क्या करना चाहिये ॥ ३४ ॥

ततो रुद्रो महोतिं च कृत्वा भक्तमुदावहाम् ।
विवाहयित्वा गिरिजां देवकार्यं चकार सः ॥ ३५ ॥
इस प्रकार उन रुद्रने भक्तोंको प्रसन्न करनेवाली महान् लीलाएँ की और पार्वतीके साथ विवाहकर देवकार्य सम्पन्न किया ॥ ३५ ॥

इति प्रोक्तस्तु ते तात साधुवेषो द्विजाह्वयः ।
शिवावतारो हि मया देवकार्यकरः प्रभो ॥ ३६ ॥
हे तात ! हे प्रभो ! इस प्रकार मैंने देवगणोंका हित करनेवाले साधुवेषधारी द्विज नामक शिवावतारका वर्णन आपसे किया ॥ ३६ ॥

इदमाख्यानमनघं स्वर्ग्यमायुष्यमुत्तमम् ।
यः पठेच्छृणुयाद्वापि स सुखी गतिमाप्नुयात् ॥ ३७ ॥
यह आख्यान पवित्र, स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला, आयुकी वृद्धि करनेवाला तथा उत्कृष्ट है । जो इसे पढ़ता अथवा सुनता है, वह सुखी रहकर उत्तम गतिको प्राप्त करता है ॥ ३७ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां
साधुद्विजशिवावतारवर्णनं नाम पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें साधुद्विजशिवावतारवर्णन नामक पैंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३५ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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