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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

तृतीया शतरुद्रसंहितायां

षट्त्रिंशोऽध्यायः

अश्वत्थामशिवावतारवर्णनम् -
अश्वत्थामाके रूपमें शिवके अवतारका वर्णन -


नन्दीश्वर उवाच -
सनत्कुमार सर्वज्ञ शिवस्य परमात्मनः ।
अवतारं शृणु विभोरश्वत्थामाह्वयं परम् ॥ १ ॥
नन्दीश्वर बोले-हे सनत्कुमार ! हे सर्वज्ञ ! अब आप सर्वव्यापी परमात्मा शिवके अश्वत्थामा नामक श्रेष्ठ अवतारको सुनें ॥ १ ॥

बृहस्पतेर्महाबुद्धेर्देवर्षेरंशतो मुने ।
भरद्वाजात्समुत्पन्नो द्रोणोऽयोनिज आत्मवान् ॥ २ ॥
धनुर्भृतां वरः शूरो विप्रर्षिः सर्वशास्त्रवित् ।
बृहत्कीर्तिर्महातेजा यः सर्वास्त्रविदुत्तमः ॥ ३ ॥
धनुर्वेदे च वेदे च निष्णातं यं विदुर्बुधाः ।
वरिष्ठं चित्रकर्माणं द्रोणं स्वकुलवर्धनम् ॥ ४ ॥
हे मुने ! महाबुद्धिमान् देवर्षि बृहस्पतिके अंशसे महर्षि भरद्वाजसे अयोनिज पुत्रके रूपमें आत्मवेत्ता द्रोण उत्पन्न हुए, जो धनुषधारियोंमें श्रेष्ठ, पराक्रमी, विप्रोंमें श्रेष्ठ, सम्पूर्ण शास्त्रोंके जाननेवाले, विशाल कीर्तिवाले, महातेजस्वी एवं सभी अस्त्रोंके ज्ञाताओंमें श्रेष्ठ थे, जिन द्रोणको विद्वान् लोग धनुर्विद्यामें तथा वेदमें पारंगत, वरिष्ठ, आश्चर्यजनक कार्य करनेवाला और अपने कुलको बढ़ानेवाला कहते हैं ॥ २-४ ॥

कौरवाणां स आचर्यं आसीत्स्वबलतो द्विज ।
महारथिषु विख्यातः षट्सु कौरवमध्यतः ॥ ५ ॥
हे द्विज ! वे अपने पराक्रमके प्रभावसे कौरवोंके आचार्य थे एवं उन कौरवोंके छ: महारथियोंमें प्रसिद्ध थे ॥ ५ ॥

साहाय्यार्थं कौरवाणां स तेपे विपुलं तपः ।
शिवमुद्दिश्य पुत्रार्थं द्रोणाचार्यो द्विजोत्तमः ॥ ६ ॥
ततः प्रसन्नो भगवाच्छंकरो भक्तवत्सलः ।
आविर्बभूव पुरतो द्रोणस्य मुनिसत्तम ॥ ७ ॥
उन द्विजोत्तम द्रोणाचार्यने कौरवोंकी सहायताके लिये पुत्रकी इच्छासे शिवजीको लक्ष्य करके बहुत बड़ा तप किया । उसके बाद हे मुनिसत्तम ! [उनके तपसे] प्रसन्न होकर भक्तवत्सल शिवजी द्रोणाचार्यके समक्ष प्रकट हुए ॥ ६-७ ॥

तन्दृष्ट्‍वा स द्विजो द्रोणस्तुष्टावाशु प्रणम्य तम् ।
महाप्रसन्नहृदयो नतकः सुकृताञ्जलिः ॥ ८ ॥
उन्हें देखकर उन ब्राह्मण द्रोणने उन्हें शीघ्रतासे प्रणाम करके हाथ जोड़कर विनम्र हो अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर उनकी स्तुति की ॥ ८ ॥

तस्य स्तुत्या च तपसा सन्तुष्टः शङ्‌कर प्रभुः ।
वरं ब्रूहीति चोवाच द्रोणं तं भक्तवत्सलः ॥ ९ ॥
उनकी स्तुति तथा तपस्यासे सन्तुष्ट हुए भक्तवत्सल प्रभु शंकरने द्रोणाचार्यसे वर माँगो'-ऐसा कहा ॥ ९ ॥

तच्छ्रुत्वा शम्भुवचनं द्रोणः प्राहाथ सन्नतः ।
स्वांशजं तनयं देहि सर्वाजेयं महाबलम् ॥ १० ॥
शिवजीके इस वचनको सुनकर अति विनम्र द्रोणाचार्यने कहा कि मुझे महाबली, सबसे अजेय तथा अपने अंशसे उत्पन्न एक पुत्र दीजिये ॥ १० ॥

तच्छ्रुत्वा द्रोणवचनं शम्भुः प्रोचे तथास्त्विति ।
अभूदन्तर्हितस्तात कौतुकी सुखकृन्मुने ॥ ११ ॥
हे तात ! हे मुने ! द्रोणाचार्यका वचन सुनकर कौतुक करनेवाले परम सुखकारी शिवजीने 'ऐसा ही होगा'-यह कहा और वे अन्तर्धान हो गये ॥ ११ ॥

द्रोणोऽपगच्छत्स्वं धाम महाहृष्टो गतभ्रमः ।
स्वपत्न्यै कथयामास तद्वृतं सकलं मुदा ॥ १२ ॥
अथावसरमासाद्य रुद्रः सर्वान्तकः प्रभुः ।
स्वांशेन तनयो जज्ञे द्रोणस्य स महाबलः ॥ । १३ ॥
द्रोणाचार्य भी निःशंक हो प्रसन्नतापूर्वक अपने घर लौट गये और उन्होंने वह सारा वृत्तान्त अपनी स्त्रीसे प्रेमपूर्वक कहा । इसके बाद अवसर पाकर वे सर्वान्तक प्रभु रुद्र अपने अंशसे द्रोणके महाबलवान् पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुए ॥ १२-१३ ॥

अश्वत्थामेति विख्यातस्तस्य बभूव क्षितौ मुने ।
प्रवीरः कञ्जपत्राक्षः शत्रुपक्षक्षयङ्‌करः ॥ १४ ॥
हे मुने ! वे पृथ्वीपर अश्वत्थामा नामसे विख्यात हुए, वे महान् वीर थे, उनकी आँखें कमलपत्रके समान थीं और वे शत्रुपक्षका विनाश करनेवाले थे ॥ १४ ॥

यो भारते रणे ख्यातः पितुराज्ञामवाप्य च ।
सहायकृद् बभूवाथ कौरवाणां महाबलः ॥ १५ ॥
यमाश्रित्य महावीरं कौरवाः सुमहाबलाः ।
भीष्मादयो बभूवुस्तेऽजेया अपि दिवौकसाम् ॥ १६ ॥
ये महाबली अश्वत्थामा महाभारतके संग्राममें पिताकी आज्ञासे कौरवोंके सहायकके रूपमें प्रसिद्ध हुए । उन महाबली अश्वत्थामाका आश्रय लेनेके कारण ही महाबलवान् भीष्म आदि कौरवगण देवताओंके लिये भी अजेय हो गये ॥ १५-१६ ॥

यद्भयात्पाण्डवाः सर्वे कौरवाञ्जेतुमक्षमाः ।
आसन्नष्टामहावीरा अपि सर्वे च कोविदाः ॥ १७ ॥
कृष्णोपदेशतः शम्भोस्तपः कृत्वातिदारुणम् ।
प्राप्य चास्त्रं शम्भुवराज्जिग्ये तानर्जुनस्ततः ॥ १८ ॥
उन्होंसे भयभीत होनेके कारण पाण्डवलोग कौरवोंको जीतनेमें अपनेको असमर्थ पा रहे थे और परम बुद्धिमान् तथा महान् वीर होकर भी अश्वत्थामाके भयसे असमर्थ हो गये । तब श्रीकृष्णके उपदेशसे महाबली अर्जुनने शिवकी कठोर तपस्याकर उनसे अस्त्र प्राप्त करके उन कौरवॉपर विजय प्राप्त की ॥ १७-१८ ॥

अश्वत्थामा महावीरो महादेवांशजो मुने ।
तदापि तद्भक्तिवशः स्वप्रतापमदर्शयत् ॥ १९ ॥
विनाश्य पाण्डवसुतान् शिक्षितानपि यत्नतः ।
कृष्णादिभिर्महावीरैरनिवार्यबलः परैः ॥ २० ॥
हे मुने ! उस समय महादेवके अंशसे उत्पन्न हुए उन अश्वत्थामाने कौरवोंकी भक्तिसे प्रसन्न होकर उनके वशीभूत होकर युद्धमें यलपूर्वक शिक्षित पाण्डवपुत्रोंका विनाश करके अपना प्रताप दिखाया, श्रीकृष्ण आदि महावीर बलवान् शत्रु भी उनके बलको रोक नहीं सके । १९-२० ॥

पुत्रशोकेन विकलमापतन्तं तमर्जुनम् ।
रथेनाच्युतवन्तं हि दृष्ट्‍वा स च पराद्रवत् ॥ २१ ॥
पुत्रके शोकसे सन्तप्त अर्जुनको श्रीकृष्णके साथ रथसे अपनी ओर आता हुआ देखकर वे भाग खड़े हुए ॥ २१ ॥

अस्त्रं ब्रह्मशिरो नाम तदुपर्यसृजत्स हि ।
ततः प्रादुरभूत्तेजः प्रचण्डं सर्वतो दिशम् ॥ २२ ॥
प्राणापदमभिप्रेक्ष्य सोऽर्जुनः क्लेशसंयुतः ।
उवाच कृष्णं विक्लान्तो नष्टतेजा महाभयः ॥ २३ ॥
अश्वत्थामाने अर्जुनपर ब्रह्मशिर नामक अस्वका प्रहार किया, उससे सभी दिशाओंमें प्रचण्ड तेज उत्पन्न हो गया । अपने प्राणोंपर आयी हुई आपत्तिको देखकर अर्जुन दुखी हुए और उनका तेज नष्ट हो गया, तब उन्होंने क्लेशक्रान्त तथा भयभीत होकर श्रीकृष्णसे कहा- ॥ २२-२३ ॥

अर्जुन उवाच -
किमिदं स्वित्कुतो वेति कृष्ण कृष्ण न वेद्म्यहम् ।
सर्वतोमुखमायाति तेजश्चेदं सुदुःसहम् । २४ ॥
अर्जुन बोले-हे कृष्ण ! हे कृष्ण ! यह क्या है, यह दुःसह तेज चारों ओरसे घेरे हुए कहाँसे आ रहा है, मैं इसे नहीं जान पा रहा हूँ ॥ २४ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
श्रुत्वार्जुनवचश्चेदं स कृष्णः शैवसत्तमः ।
दध्यौ शिवं सदारं च प्रत्याहार्जुनमादरात् । २५ ॥
नन्दीश्वर बोले-अर्जुनका यह वचन सुनकर महाशैव उन श्रीकृष्णने पार्वतीसहित शिवका ध्यान करते हुए आदरपूर्वक अर्जुनसे कहा- ॥ २५ ॥

कृष्ण उवाच -
वेत्थेदं द्रोणपुत्रस्य ब्राह्ममस्त्रं महोल्बणम् ।
न ह्यस्यान्यतमं किञ्चिदस्त्रं प्रत्यवकर्शनम् । २६ ॥
शिवं स्मर द्रुतं शम्भुं स्वप्रभुं भक्तरक्षकम् ।
येन दत्तं हि ते स्वास्त्रं सर्वकार्यकरं परम् । २७ ॥
जह्यस्त्रतेज उन्नद्धं त्वं तच्छैवास्त्रतेजसा ।
इत्युक्त्वा च स्वयं कृष्णः शिवन्दध्यौ तदर्थकः ॥ २८ ॥
श्रीकृष्ण बोले-यह द्रोणाचार्यके पुत्रका महातेजस्वी ब्रह्मास्त्र है, इसके समान शत्रुओंका घातक कोई दूसरा अस्त्र नहीं है, ऐसा जानना चाहिये । आप शीघ्र ही भक्तोंकी रक्षा करनेवाले अपने प्रभु शंकरका ध्यान कीजिये, जिन्होंने आपका सारा कार्य सम्पादन करनेवाला अपना सर्वोत्कृष्ट अस्त्र आपको प्रदान किया है । आप इस अस्वके परमतेजको अपने शैवास्त्रके तेजसे नष्ट कीजिये, इतना कहकर स्वयं श्रीकृष्ण अर्जुनकी रक्षाके लिये शिवका ध्यान करने लगे ॥ २६-२८ ॥

तच्छ्रुत्वा कृष्णवचनं पार्थः स्मृत्वा शिवं हृदि ।
स्पृष्ट्‍वापस्तं प्रणम्याशु चिक्षेपास्त्रं ततो मुने ॥ २९ ॥
हे मुने ! श्रीकृष्णकी बात सुनकर अर्जुनने अपने मनमें शिवजीका ध्यान किया और इसके बाद जलसे आचमनकर शिवको प्रणाम करके उस अस्त्रको शीघ्र ही [अश्वत्थामापर] छोड़ा ॥ २९ ॥

यद्यप्यस्त्रं ब्रह्मशिरस्त्वमोघं चाप्रतिक्रियम् ।
शैवास्त्रतेजसा सद्यः समशाम्यन्महामुने ॥ ३० ॥
हे महामुने ! यद्यपि वह ब्रह्मशिर नामक अस्त्र अमोघ है तथा इसकी प्रतिक्रिया करनेवाला कोई अन्य अस्त्र नहीं है, फिर भी वह शिवजीके अस्त्रके तेजसे उसी क्षण शान्त हो गया ॥ ३० ॥

मा मंस्था ह्येतदाश्चर्यं सर्वचित्रमये शिवे ।
यः स्वशक्त्याखिलं विश्वं सृजत्यवति हन्त्यजः ॥ ३१ ॥
अद्‌भुत चरित्रवाले उन शिवके सम्बन्धमें इसे आश्चर्य मत समझिये, जो अजन्मा शिव अपनी शक्तिसे सारे संसारको उत्पन्न करते हैं, उसका पालन करते हैं तथा संहार करते हैं ॥ ३१ ॥

अश्वत्थामा ततो ज्ञात्वा वृत्तमेतच्छिवांशजः ।
शैवं न विव्यथे किञ्चिच्छिवेच्छातुष्टधीर्मुने ॥ ३२ ॥
हे मुने ! इसके बाद शिवके अंशसे उत्पन्न हुए तथा शिवजीकी इच्छासे तुष्ट बुद्धिवाले अश्वत्थामा इस शैववृत्तान्तको जानकर कुछ भी व्यथित नहीं हुए ॥ ३२ ॥

अथ द्रौणिरिदं विश्वं कृत्स्नं कर्तुमपाण्डवम् ।
उत्तरागर्भगं बालं नाशितुं मन आदधे ॥ ३३ ॥
- इसके बाद अश्वत्थामाने इस सम्पूर्ण संसारको पाण्डवोंसे रहित करनेके लिये उत्तराके गर्भमें स्थित बालकको विनष्ट करनेका निश्चय किया ॥ ३३ ॥

ब्रह्मास्त्रमनिवार्यं तदन्यैरस्त्रैर्महाप्रभम् ।
उत्तरागर्भमुद्दिश्य चिक्षेप स महाप्रभुः ॥ ३४ ॥
ततश्च सोत्तरा जिष्णुवधूर्विकलमानसा ।
कृष्णं तुष्टाव लक्ष्मीशं दह्यमाना तदस्त्रतः ॥ ३५ ॥
तब उस महाप्रभावशालीने महातेजस्वी तथा अन्य अस्बोंद्वारा रोके न जा सकनेवाले ब्रह्मास्त्रको उत्तराके गर्भपर चलाया । तब उस अस्त्रसे जलती हुई अर्जुनकी पुत्रवधू उत्तरा व्याकुलचित्त होकर लक्ष्मीपति श्रीकृष्णकी स्तुति करने लगी ॥ ३४-३५ ॥

ततः कृष्णः शिवं ध्यात्वा हृदा नुत्वा प्रणम्य च ।
अपाण्डवमिदं कर्तुं द्रौणेरस्त्रमबुध्यत ॥ ३६ ॥
स्वरक्षार्थेन्द्रदत्तेन तदस्त्रेण सुवर्चसा ।
सुदर्शनेन तस्याश्च व्यधाद्रक्षां शिवाज्ञया ॥ ३७ ॥
इसके बाद श्रीकृष्णने हृदयसे सदाशिवका ध्यानकर उनकी स्तुति की तथा उन्हें प्रणामकर जान लिया कि पाण्डवोंके विनाशके लिये यह अश्वत्थामाका अस्त्र है । उन्होंने शिवजीकी आज्ञासे अपनी रक्षाके लिये इन्द्रद्वारा प्रदत्त अपने महातेजस्वी सुदर्शन चक्रसे उसकी रक्षा की ॥ ३६-३७ ॥

स्वरूपं शंकरादेशात्कृतं शैववरेण ह ।
कृष्णेन चरितं ज्ञात्वा विमनस्कः शनैरभूत् ॥ ३८ ॥
शंकरकी आज्ञासे उन महाशैव श्रीकृष्णाने गर्भमें अपना स्वरूप भी धारण किया, यह चरित्र जानकर अश्वत्थामा उदास हो गये ॥ ३८ ॥

ततः स कृष्णः प्रीतात्मा पाण्डवान्सकलानपि ।
अपातयत्तदंघ्र्योस्तु तुष्टये तस्य शैवराट् ॥ ३९ ॥
उसके बाद प्रसन्नचित्त महाशैव श्रीकृष्णने अश्वत्थामाको प्रसन्न करनेके लिये सभी पाण्डवोंको उनके चरणोंमें गिराया ॥ ३९ ॥

अथ द्रौणिः प्रसन्नात्मा पाण्डवान्कृष्णमेव च ।
नानावरान्ददौ प्रीत्या सोऽश्वत्थामानुगृह्य च ॥ ४० ॥
तदनन्तर प्रसन्नचित्त द्रोणाचार्यके पुत्र अश्वत्थामाने श्रीकृष्ण एवं समस्त पाण्डवोंपर अनुग्रह करके प्रेमपूर्वक उन्हें अनेक प्रकारके वर दिये ॥ ४० ॥

इत्थं महेश्वरस्तात चक्रे लीलां परां प्रभुः ।
अवतीर्य क्षितौ द्रौणिरूपेण मुनिसत्तम ॥ ४१ ॥
हे तात ! हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार अश्वत्थामाके रूपमें पृथ्वीपर अवतार लेकर प्रभु शिवजीने अत्यन्त उत्तम लीला की ॥ ४१ ॥

शिवावतारोऽश्वत्थामा महाबलपराक्रमः ।
त्रैलोक्यमुखदोऽद्यापि वर्तते जाह्नवीतटे ॥ ४२ ॥
त्रैलोक्यको सुख देनेवाले महापराक्रमशाली, शिवावतार अश्वत्थामा आज भी गंगातटपर विद्यमान हैं ॥ ४२ ॥

अश्वत्थामावतारस्ते वर्णितः शंकरप्रभोः ।
सर्वसिद्धिकरश्चापि भक्ताभीष्टफलप्रदः ॥ ४३ ॥
हे मुने ! इस प्रकार मैंने आपसे अश्वत्थामाके रूपमें प्रभु शिवजीके अवतारका वर्णन किया, जो सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनेवाला तथा भक्तोंको अभीष्ट फल प्रदान करनेवाला है ॥ ४ ॥

य इदं शृणुयाद्भक्त्या कीर्तयेद्वा समाहितः ।
स सिद्धिं प्राप्नुयादिष्टामन्ते शिवपुरं व्रजेत् ॥ ४४ ॥
जो [मनुष्य] भक्तिपूर्वक इस चरित्रको सुनता है अथवा सावधान होकर इसका कीर्तन करता है, वह अभीष्ट सिद्धि प्राप्त करता है और अन्तमें शिवलोकको जाता है ॥ ४४ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां
अश्वत्थामशिवावतारवर्णनं नाम षट्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३६ ॥
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें अश्वत्थामाशिवावतारवर्णन नामक छत्तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३६ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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