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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

तृतीया शतरुद्रसंहितायां

अष्टत्रिंशोऽध्यायः

किरातावतारवर्णनप्रसंगेऽर्जुनतपोवर्णनम् -
इन्द्रका अर्जुनको वरदान देकर शिवपूजनका उपदेश देना -


नन्दीश्वर उवाच -
अर्जुनोपि तदा तत्र दीप्यमानो व्यदृश्यत ।
मन्त्रेण शिवरूपेण तेजश्चातुलमावहन् ॥ १ ॥
नन्दीश्वर बोले-[हे सनत्कुमार !] उस समय शिवस्वरूप मन्त्रके कारण अतुल तेज धारण किये हुए अर्जुन भी अत्यन्त दीप्तिमान् दिखायी पड़ने लगे ॥ १ ॥

ते सर्वे चार्जुनं दृष्ट्‍वा पाण्डवा निश्चयं गताः ।
जयोऽस्माकं धुवं जातं तेजश्च विपुलं यतः ॥ २ ॥
उस समय उन सभी पाण्डवोंने अर्जुनको देखकर यह निश्चय कर लिया कि हमलोग अवश्य विजयी होंगे; क्योंकि अर्जुनका तेज बढ़ा हुआ है ॥ २ ॥

इदं कार्यं त्वया साध्यं नान्येन च कदाचन ।
व्यासस्य वचनाद्भाति सफलं कुरु जीवितम् ॥ ३ ॥
[उन लोगोंने अर्जुनसे कहा-हे अर्जुन !] व्यासजीके कथनसे प्रतीत होता है कि इस कार्यको तुम्ही सिद्ध कर सकते हो, कोई दूसरा कभी नहीं; अत: जीवनको सफल करो ॥ ३ ॥

इति प्रोच्यार्जुनं ते वै विरहौत्सुक्यकातराः ।
अनिच्छन्तोपि तत्रैव प्रेषयामासुरादरात् ॥ ४ ॥
अर्जुनसे इस प्रकार कहकर उनके विरहसे व्याकुल हुए समस्त पाण्डवोंने न चाहते हुए भी उन्हें आदरपूर्वक वहाँ भेज दिया ॥ ४ ॥

द्रौपदी दुःखसंयुक्ता नेत्राश्रूणि निरुध्य च ।
प्रेषयन्ती शुभं वाक्यं तदोवाच पतिव्रता ॥ ५ ॥
अर्जुनको भेजते समय दुःखसे भरी हुई पतिव्रता द्रौपदीने नेत्रोंके आँसुओंको रोककर यह शुभ वचन कहा- ॥ ५ ॥

द्रौपद्युवाच -
व्यासोपदिष्टं यद्‌राजंस्त्वया कार्यं प्रयत्नतः ।
शुभप्रदोऽस्तु ते पन्थाः शंकरः शं करोस्तु वै ॥ ६ ॥
द्रौपदी बोली-हे राजन् ! व्यासजीने आपको जैसा उपदेश किया है, वैसा आपको प्रयत्नपूर्वक [कार्य] करना चाहिये । आपका मार्ग मंगलप्रद हो और भगवान् शंकरजी आपका कल्याण करें ॥ ६ ॥

ते सर्वे चावसंस्तत्र विसृज्यार्जुनमादरात् ।
अत्यन्तदुःखमापन्ना मिलित्वा पञ्च एव च ॥ ७ ॥
उसके अनन्तर पाँचों (द्रौपदीसहित) पाण्डव अर्जुनको आदरपूर्वक विदा करके अत्यन्त दुखी होते हुए परस्पर मिलकर वहाँ निवास करने लगे ॥ ७ ॥

स्थितास्तत्र वदन्ति स्म श्रूयतामृषिसत्तम ।
दुःखेपि प्रियसंगो वै न दुःखाय प्रजायते ॥ ८ ॥
वियोगे द्विगुणन्तस्य दुःखम्भवति नित्यशः ।
तत्र धैर्यधरस्यापि कथन्धैर्यम्भवेदिह ॥ ९ ॥
हे ऋषिसत्तम सनत्कुमार ! सुनिये, पाण्डवोंने वहाँ रहते हुए आपसमें कहा कि दुःख उपस्थित होनेपर भी प्रियजनका संयोग बना रहे तो दुःख नहीं जान पड़ता है । किंतु प्रियजनके वियोग रहनेपर दु:ख आ पड़े तो वह निरन्तर द्विगुणित होता जाता है, उस समय धैर्यवान्को भी धीरज कैसे रह सकता है ॥ ८-९ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
कुर्वतस्त्वेव तदा दुःखं पाण्डवेषु मुनीश्वरः ।
कृपासिंधुश्च स व्यास ऋषिवर्यः समागत ॥ १० ॥
तं तदा पाण्डवास्ते वै नत्वा सम्पूज्य चादरात् ।
दत्त्वासनं हि दुःखाढ्याः करौ बद्ध्वा वचोऽब्रुवन् ॥ ११ ॥
नन्दीश्वर बोले-हे मुनीश्वर ! इस प्रकार पाण्डवोंके दुःख प्रकट करनेपर करुणासागर ऋषिवर्य व्यासजी वहाँ आये । तब दुःखसे व्याकुल हुए वे पाण्डव व्यासजीको नमस्कार करके आसन देकर आदरपूर्वक उनकी पूजा करके हाथ जोड़कर यह वचन कहने लगे- ॥ १०-११ ॥

पाण्डवा ऊचुः ।
श्रूयतामृषभश्रेष्ठ दुःखदग्धा वयं प्रभो ॥
दर्शनं तेऽद्य सम्प्राप्य ह्यानन्दं प्राप्नुमो मुने । १२ ॥
पाण्डव बोले-हे श्रेष्ठोत्तम । हे प्रभो ! सुनिये, हम दुःखसे जल रहे थे, किंतु हे मुने ! आज आपका दर्शन प्राप्तकर हमलोग आनन्दित रहे हैं ॥ १२ ॥

कियत्कालं वसात्रैव दुःखनाशाय नः प्रभो ।
दर्शनात्तव विप्रर्षेः सर्वं दुःखं विलीयते ॥ १३ ॥
हे प्रभो ! आप हमलोगोंका दुःख दूर करनेके लिये कुछ कालपर्यन्त यहीं निवास कीजिये; क्योंकि हे विप्रर्षे ! आपके दर्शनमात्रसे सारा दुःख नष्ट हो जाता है ॥ १३ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इत्युक्तः स ऋषिश्रेष्ठो न्यवसत्तत्सुखाय वै ।
कथाभिर्विविधाभिश्च तद्दुःखं नोदयंस्तदा ॥ १४ ॥
वार्तायां क्रियमाणायां तेन व्यासेन सन्मुने ।
सुप्रणम्य विनीतात्मा धर्मराजोऽब्रवीदिदम् ॥ १५ ॥
नन्दीश्वर बोले-उन लोगोंके इस प्रकार कहनेपर उन ऋषिवरने उनके सुखके लिये वहाँ निवास किया और वे अनेक प्रकारकी कथाओंसे उस समय उनका कष्ट दूर करने लगे । हे सन्मुने ! व्यासजीके द्वारा की जाती हुई वार्ताके समय उन्हें प्रणाम करके विनीतात्मा धर्मराजने उनसे यह पूछा- ॥ १४-१५ ॥

धर्मराज उवाच -
शृणु त्वं हि ऋषिश्रेष्ठ दुःखशान्तिर्मता मम ।
पृच्छामि त्वां महाप्राज्ञ कथनीयं त्वया प्रभो ॥ १६ ॥
युधिष्ठिर बोले-हे ऋषिश्रेष्ठ ! हे महाप्राज्ञ ! [आपके वचनोंसे] मेरे दुःखकी शान्ति हो गयी, किंतु हे प्रभो ! मैं आपसे जो पूछता हूँ, उसे बताइये ॥ १६ ॥

ईदृशं चैव दुःखं च पुरा प्राप्तश्च कश्चन ।
वयमेव परं दुःखं प्राप्ता वै नैव कश्चन ॥ १७ ॥
क्या इस प्रकारका दुःख पहले और किसीको प्राप्त हुआ है अथवा यह महान् दुःख हमें ही मिला है, अन्य किसीको नहीं ? ॥ १७ ॥

व्यास उवाच -
राज्ञस्तु नलनाम्नो वै निषधाधिपतेः पुरा ।
भवद्दुःखाधिकं दुःखं जातं तस्य महात्मनः ॥ १८ ॥
व्यासजी बोले-[हे युधिष्ठिर !] पूर्व समयमें निषधदेशके अधिपति महात्मा नलको आपसे भी अधिक दुःख प्राप्त हुआ था ॥ १८ ॥

हरिश्चन्द्रस्य नृपतेर्जातं दुःखं महत्तरम् ।
अकथ्यं तद्विशेषेण परशोकावहं तथा ॥ १९ ॥
राजा हरिश्चन्द्रको भी अत्यधिक दुःख प्राप्त हुआ था, जो अनिर्वचनीय और सुननेमात्रसे दूसरोंको भी दुखित करनेवाला है ॥ १९ ॥

दुःखं तथैव विज्ञेयं रामस्याप्यथ पाण्डव ।
यच्छ्रुत्वा स्त्रीनराणां च भवेन्मोहो महत्तरः ॥ २० ॥
तस्माद्वर्णयितुं नैव शक्यते हि मया पुनः ।
शरीरं दुःखराशिं च मत्वा त्याज्यं त्वयाधुना ॥ २१ ॥
हे पाण्डव ! वैसा ही दुःख श्रीरामचन्द्रका भी जानना चाहिये, जिसे सुनकर स्त्री-पुरुषोंको अत्यधिक कष्ट होता है । मैं पुनः इसका वर्णन करनेमें असमर्थ हूँ, अतः शरीरको दुःखोंका समूह समझकर इस समय तुम्हें शोकका त्याग करना चाहिये ॥ २०-२१ ॥

येनेदं च धृतं तेन व्याप्तमेव न संशयः ।
प्रथमं मातृगर्भे वै जन्म दुःखस्य कारणम् ॥ २२ ॥
कौमारेऽपि महादुःखं बाललीलानुसारि यत् ।
ततोपि यौवने कामान्भुन्जानो दुःखरूपिणः ॥ २३ ॥
जिस किसीने यह शरीर धारण किया है, वह दुःखोंसे व्याप्त हुआ है, इसमें सन्देह नहीं है । सर्वप्रथम माताके गर्भसे जन्म लेना ही दुःखका कारण होता है । फिर कुमारावस्थामें भी बालकोंकी लीलाके अनुसार महान् दुःख होता है । इसके अनन्तर मनुष्य युवावस्थामें दुःखरूपी कामनाओंका भोग करता है ॥ २२-२३ ॥

गतागतैर्दिनानां हि कार्यभारैरनेकशः ।
आयुश्च क्षीयते नित्यं न जानाति ह तत्पुनः ॥ २४ ॥
[हे युधिष्ठिर !] अनेक प्रकारके कार्यभारोंसे तथा दिनोंके गमनागमनसे पुरुषकी सारी आयु इसी प्रकार नष्ट हो जाती है और मनुष्यको उसका ज्ञान नहीं रहता ॥ २४ ॥

अन्ते च मरणं चैव महादुःखमतः परम् ।
नानानरकपीडाश्च भुज्यन्तेऽज्ञैर्नरैस्तदा ॥ २५ ॥
अन्त समयमें जब पुरुषकी मृत्यु होती है, उस समय उसे इससे भी अधिक कष्ट उठाना पड़ता है । इसके बाद भी अज्ञानी मनुष्य अनेक प्रकारके नरकोंकी पौड़ा प्राप्त करते हैं ॥ २५ ॥

तस्मादिदमसत्यं च त्वन्तु सत्यं समाचर ।
येनैव तुष्यते शम्भुस्तथा कार्यं नरेण च ॥ २६ ॥
इसलिये यह सब असत्य है, आप सत्यका आचरण कीजिये । जिस प्रकार भी शिवजी सन्तुष्ट हों, उसी प्रकारका कार्य मनुष्यको करना चाहिये ॥ २६ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
एवं विविधवार्ताभिः कालनिर्यापणं तदा ।
चक्रुस्ते भ्रातरः सर्वे मनोरथपथैः पुनः ॥ २७ ॥
नंदीश्वर बोले-इस प्रकार उन सभी भाइयोंने अनेक प्रकारकी वार्ताओं तथा मनोरथोंसे समय बिताना प्रारम्भ किया ॥ २७ ॥

अर्जुनोपि स्वयं गच्छन्दुर्गाद्रिषु दृढव्रतः ।
यक्षं लब्ध्वा च तेनैव दस्यून्निघ्नन्ननेकशः ॥ २८ ॥
मनसा हर्षसंयुक्तो जगामाचलमुत्तमम् ।
तत्र गत्वा च गंगायाः समीपं सुन्दरं स्थलम् ॥ २९ ॥
अशोककाननं यत्र तिष्ठति स्वर्ग उत्तमः ।
तत्र तस्थौ स्वयं स्नात्वा नत्वा च गुरुमुत्तमम् ॥ ३० ॥
यथोपदिष्टं वेषादि तथा चैवाकरोत्स्वयम् ।
इन्द्रियाण्यपकृष्यादौ मनसा संस्थितोऽभवत् ॥ ३१ ॥
पुनश्च पार्थिवं कृत्वा सुन्दरं समसूत्रकम् ।
तदग्रे प्रणिदध्यौ स तेजोराशिमनुत्तमम् ॥ ३२ ॥
कठिन पहाड़ी मार्गोंसे जाते हुए दृढ़ व्रतवाले अर्जुन भी एक यक्षको प्राप्तकर उसीके साथ अनेक डाकुओंका संहार करते हुए मनमें हर्षित हो उत्तम [इन्द्रकील] पर्वतपर चले गये । वहाँ जाकर उन्होंने गंगाके समीप एक सुन्दर स्थानको प्राप्त किया, जो स्वर्गसे भी उत्तम तथा अशोकवनसे युक्त था, वहींपर वे बैठ गये । इसके बाद स्वयं स्नान करके श्रेष्ठ गुरुको नमस्कारकर उन्होंने यथोपदिष्ट वेश धारण किया और इन्द्रियोंको वशमें करके एकाग्रचित्त हो [तपस्याके लिये] स्थित हो गये । उस समय वे अत्यन्त सुन्दर समसूत्रयुक्त पार्थिव शिवलिंगका निर्माण करके उसके आगे [आसनस्थ होकर] उत्तम तेजोराशि [शिवजीका] ध्यान करने लगे ॥ २८-३२ ॥

त्रिकालं चैव सुस्नातः पूजनं विविधं तदा ।
चकारोपासनं तत्र हरस्य च पुनः पुनः ॥ ३३ ॥
इस प्रकार अर्जुन तीनों समय स्नान करके बारंबार अनेक प्रकारसे शिवजीकी पूजा करते हुए उपासनामें तत्पर हो गये ॥ ३३ ॥

तस्यैव शिरसस्तेजो निःसृतं तच्चरास्तदा ।
दृष्ट्‍वा भयं समापन्नाः प्रविष्टश्च कदा ह्ययम् ॥ ३४ ॥
इसके बाद उस समय उनके शिरोभागसे निकले हुए तेजको देखकर इन्द्रके अनुचर भयभीत हो गये और सोचने लगे कि यह इस स्थानपर कब आ गया ? ॥ ३४ ॥

पुनस्ते च विचार्यैवं कथनीयं बिडौजसे ।
इत्युक्त्वा तु गतास्ते वै शक्रस्यान्तिकमञ्जसा ॥ ३५ ॥
उन्होंने पुनः अपने मनमें विचार किया कि यह समाचार इन्द्रसे निवेदन करना चाहिये । परस्पर ऐसा कहकर वे शीघ्र ही इन्द्रके समीप गये ॥ ३५ ॥

चरा ऊचुः -
देवो वाऽथ ऋषिश्चैव सूर्यो वाथ विभावसुः ।
तपश्चरति देवेश न जानीमो वने च तम् ॥ ३६ ॥
तस्यैव तेजसा दग्धा आगतास्तव सन्निधौ ।
निवेदितञ्चरित्रं तत्क्रियतामुचितं तु यत् ॥ ३७ ॥
चर बोले-हे देवेश ! कोई देवता, ऋषि, सूर्य अथवा अग्निदेव इस वनमें घोर तप कर रहे हैं, हमलोग उन्हें नहीं जानते । उनके तेजसे सन्तप्त होकर हमलोग आपके पास आये हैं । हमने उस चरित्रको आपसे कह दिया, अब जैसा उचित हो, आप वैसा कीजिये ॥ ३६-३७ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इत्युक्तस्तैश्चरैः सर्वं ज्ञात्वा पुत्रचिकीर्षितम् ।
सगोत्रपान्विसृज्यैव तत्र गन्तुं मनो दधे ॥ ३८ ॥
नन्दीश्वर बोले-दूतोंके ऐसा कहनेपर इन्द्रने अपने पुत्र [अर्जुन]-का अभिप्राय जानकर पर्वतरक्षकोंको विदाकर स्वयं वहाँ जानेका विचार किया ॥ ३८ ॥

स वृद्धब्राह्मणो भूत्वा ब्रह्मचारी शचीपतिः ।
जगाम तत्र विप्रेन्द्र परीक्षार्थं हि तस्य वै ॥ ३९ ॥
तमागतं तदा दृष्ट्‍वाकार्षीत्पूजाश्च पाण्डवः ।
स्थितोग्रे च स्तुतिं कृत्वा क्वायातोऽसि वदाधुना ॥ ४० ॥
इत्युक्तस्तेन देवेशो धैर्यार्थन्तस्य प्रीतितः ।
परीक्षागर्वितं वाक्यं पाण्डवं तं ततोऽब्रवीत् ॥ ४१ ॥
हे विप्रेन्द्र ! वे शचीपति इन्द्र ब्रह्मचारी वृद्ध ब्राहाणका रूप धारणकर उनकी परीक्षाके लिये वहाँ पहुँचे । तब उन्हें आया हुआ देखकर अर्जुनने उनकी पूजा की और आगे खड़े होकर स्तुति करके उनसे पूछा कि इस समय आप कहाँसे आये हैं, [कृपया] यह बताइये ? तब उनके द्वारा प्रीतिपूर्वक इस प्रकार कहे जानेपर अर्जुनके धैर्यके परीक्षणार्थ देवराज इन्द्र प्रतिप्रश्न करने लगे ॥ ३९-४१ ॥

ब्राह्मण उवाच -
नवे वयसि वै तात किं तपस्यसि साम्प्रतम् ।
मुक्त्यर्थं वा जयार्थं किं सर्वथैतत्तपस्तव ॥ ४२ ॥
ब्राह्मण बोले-हे तात ! तुम इस समय युवावस्थामें तप क्यों कर रहे हो ? क्या तुम्हारी यह तपस्या सर्वथा मुक्तिके लिये है अथवा विजयके लिये है ? ॥ ४२ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इति पृष्टस्तदा तेन सर्वं संवेदितं पुनः ।
तच्छ्रुत्वा स पुनर्वाक्यमुवाच ब्राह्मणस्तदा ॥ ४३।
नन्दीश्वर बोले-इस प्रकार पूछे जानेपर अर्जुनने अपना सारा समाचार कह सुनाया । तब उन ब्राह्मणने पुन: यह वचन कहा- ॥ ४३ ॥

ब्राह्मण उवाच -
युक्तं न क्रियते वीर सुखं प्राप्तुं च यत्तपः ।
क्षात्रधर्मेण क्रियते मुक्त्यर्थं कुरुसत्तम ॥ ४४ ॥
इन्द्रस्तु सुखदाता वै मुक्तिदाता भवेन्न हि ।
तस्मात्त्वं सर्वथा श्रेष्ठ कर्तुमर्हसि सत्तपः ॥ ४५ ॥
ब्राह्मण बोले-हे वीर ! तुम क्षात्रधर्ममें स्थित होकर सुख पानेकी इच्छासे जो तप कर रहे हो, वह उचित नहीं है । हे कुरुश्रेष्ठ ! क्षत्रिय तो मुक्तिहेतु तप करता है । हे श्रेष्ठ । इन्द्र सुख देनेवाले [देवता] हैं, वे मुक्ति नहीं दे सकते; इसलिये तुम्हें [इस सकाम तपको छोड़कर] सर्वथा श्रेष्ठ तप करना चाहिये ॥ ४४-४५ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इदं तद्वचनं श्रुत्वा क्रोधं चक्रेऽर्जुनस्तदा ।
प्रत्युवाच विनीतात्मा तदनादृत्य सुव्रतः ॥ ४६ ॥
नन्दीश्वर बोले-उनके इस वचनको सुनकर दृढ़व्रत एवं विनयी अर्जुनने क्रोध किया और उनका निरादर करते हुए कहा- ॥ ४६ ॥

अर्जुन उवाच -
राज्यार्थं न च मुक्त्यर्थ किमर्थं भाषसे त्विदम् ।
व्यासस्य वचनेनैव क्रियते तप ईदृशम् ॥ ४७ ॥
इतो गच्छ ब्रह्मचारिन्मा पातयितुमिच्छसि ।
प्रयोजनं किमत्रास्ति तव वै ब्रह्मचारिणः ॥ ४८ ॥
अर्जुन बोले-मैं न तो राज्यके लिये और न तो मुक्तिके लिये तप कर रहा हूँ । तुम ऐसा क्यों बोल रहे हो ? मैं व्यासजीकी आज्ञासे इस प्रकारका तप कर रहा हूँ । हे ब्रह्मचारिन् ! अब यहाँसे [शीघ्र] चले जाओ, मुझे अपने संकल्पसे मत गिराओ । तुझ ब्रह्मचारीका यहाँ क्या प्रयोजन है ? ॥ ४७-४८ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इत्युक्तः स प्रसन्नोभूत्सुन्दरं रूपमद्भुतम् ।
स्वोपस्करणसंयुक्तं दर्शयामास वै निजम् ॥ ४९ ॥
नन्दीश्वर बोले-ऐसा कहे जानेपर वे [इन्द्रदेव] प्रसन्न हो उठे और [वन आदि] अपने उपस्करणोंसे युक्त अद्‌भुत तथा मनोहर अपना रूप उन्होंने दिखाया ॥ ४९ ॥

शक्ररूपं तदा दृष्ट्‍वा लज्जितश्चार्जुनस्तदा ।
स इन्द्रस्तं समाश्वास्य पुनरेव वचोब्रवीत् ॥ ५० ॥
तब इन्द्र के रूपको देखकर अर्जुन लज्जित हो उठे । इसके बाद उन्हें आश्वस्त करके इन्द्रने पुन: यह वचन कहा- ॥ ५० ॥

इंद्र उवाच -
वरं वृणीष्व हे तात धनञ्जय महामते ।
यदिच्छसि मनोभीष्टं नादेयं विद्यते तव ॥ ५१ ॥
तच्छ्रुत्वा शक्रवचनं प्रत्युवाचार्जुनस्तदा ।
विजयं देहि मे तात शत्रुक्लिष्टस्य सर्वथा ॥ ५२ ॥
इन्द्र बोले-हे तात ! हे धनंजय ! हे महामते ! तुम्हारा जो भी अभिलषित हो, वह वर मुझसे माँगो । तुम्हारे लिये कुछ भी अदेय नहीं है । तब इन्द्रके उस वचनको सुनकर अर्जुन बोले-हे तात ! हर प्रकारसे शत्रुओंसे पीड़ित मुझे विजय प्रदान करें । ५१-५२ ॥

शक्र उवाच -
बलिष्ठाः शत्रवस्ते च दुर्योधनपुरःसराः ।
द्रोणो भीमश्च कर्णश्च सर्वे ते दुर्जया ध्रुवम् ॥ ५३ ॥
शक्र बोले-[हे तात !] दुर्योधन आदि तुम्हारे शत्रु बड़े बलवान् हैं और द्रोण, भीष्म एवं कर्ण-ये सब निश्चय ही [युद्धमें] दुर्जय हैं ॥ ५३ ॥

अश्वत्थामा द्रोणपुत्रो रौद्रोंशो दुर्जयोऽति सः ।
मया साध्या भवेयुस्ते सर्वथा स्वहितं शृणु ॥ ५४ ॥
साक्षात् रुद्रका अंश द्रोणपुत्र अश्वत्थामा तो अत्यन्त दुर्जय है । वे सभी (भीष्म, द्रोण आदि) मुझसे भी असाध्य हैं; तो भी अपने हितकी बात सुनो ॥ ५४ ॥

एतद्वीर जपं कर्तुं न शक्तः कश्चनाधुना ।
वर्तते हि शिवोवर्यस्तस्माच्छम्भोर्जयोऽधुना ॥ ५५ ॥
हे वीर ! इस (अश्वत्थामा)-पर विजय प्राप्त करने में कोई भी समर्थ नहीं है । केवल शिव ही समर्थ हैं, इसलिये अब तुम शिव-मन्त्रका जप करो ॥ ५५ ॥

शंकरः सर्वलोकेशश्चराचरपतिः स्वराट् ।
सर्वं कर्तुं समर्थोऽस्ति भुक्तिमुक्तिफलप्रदः ॥ ५६ ॥
अहं मन्ये च ब्रह्माद्या विष्णुः सर्ववरप्रदः ।
अन्ये जिगीषवो ये च ते सर्वे शिवपूजकाः ॥ ५७ ॥
सभी लोकोंके स्वामी, चराचरपति, स्वराट् और भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले शंकर सब कुछ करने में समर्थ हैं । ब्रह्मा आदि [देवश्रेष्ठ], सबको वर देनेवाले विष्णु, मैं [स्वयं इन्द्र], अन्य [देवगण] तथा विजयकी अभिलाषावाले दूसरे लोग-ये सभी भगवान् शिवकी उपासना करते हैं ॥ ५६-५७ ॥

अद्यप्रभृति तन्मन्त्रं हित्वा भक्त्या शिवं भज ।
पार्थिवेन विधानेन ध्यानेनैव शिवस्य च ॥ ५८ ॥
उपचारैरनेकैश्च सर्वभावेन भारत ।
सिद्धिः स्यादचला तेद्य नात्र कार्या विचारणा ॥ ५९ ॥
हे भारत ! आजसे इस मन्त्रका जप छोड़कर पार्थिव-विधानसे नानाविध उपचारोंके द्वारा तन्मय होकर भक्तिभावसे शिवजीकी आराधना करो । इस प्रकार [पार्थिवार्चन तथा] ध्यानके द्वारा तुमको अचल सिद्धि इसी समय प्राप्त होगी, इसमें सन्देह न करो ॥ ५८-५९ ॥

नन्दीश्वर उवाच -
इत्युक्त्वा च चरान्सर्वान्समाहूयाब्रवीदिदम् ।
सावधानेन वै स्थेयमेतत्संरक्षणे सदा ॥ ६० ॥
प्रबोध्य स्वचरानिन्द्रोऽर्जुनसंरक्षणादिकम् ।
वात्सल्यपूर्णहृदयः पुनरूचे कपिध्वजम् ॥ ६१ ॥
नन्दीश्वर बोले-ऐसा कहकर इन्द्रने अपने सभी सेवकोंको बुलाकर कहा कि तुमलोग सावधान होकर इनकी रक्षा करनेके लिये सदा यहाँ रहो । इसके बाद इन्द्रने अपने अनुचरोंको अर्जुनकी रक्षा आदिका आदेश देकर वात्सल्यपूर्वक अर्जुनसे पुनः कहा- ॥ ६०-६१ ॥

इन्द्र उवाच -
राज्यं त्वया प्रमादाद्वै न कर्तव्यं कदाचन ।
श्रेयसे भद्र विद्येयं भवेत्तव परन्तप ॥ ६२ ॥
इन्द्र बोले-हे परन्तप ! हे भद्र ! तुम कभी भी प्रमादपूर्वक राज्य मत करना; यह विद्या तुम्हारे कल्याणके लिये होगी । साधकको सदा धैर्य धारण करना चाहिये । रक्षक तो शिवजी हैं ही । वे तुमको सम्पत्तियोंके साथ फल (मोक्ष) भी प्रदान करेंगे । इसमें सन्देह नहीं है ॥ ६२-६३ ॥

धैर्यं धार्यं साधकेन सर्वथा रक्षकः शिवः ।
संपत्तीश्च फलं तुभ्यं दास्यते नात्र संशयः ॥ ६३ ॥
नन्दीश्वर उवाच -
इति दत्त्वा वरं तस्य भारतस्य सुरेश्वरः ।
स्मरञ्छिवपदाम्भोजं जगाम भवनं स्वकम् ॥ ६४ ॥
नन्दीश्वर बोले-इस प्रकार अर्जुनको वरदान देकर इन्द्र शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण करते हुए अपने भवनको चले गये ॥ ६४ ॥

अर्जुनोपि महावीरः सुप्रणम्य सुरेश्वरम् ।
तपस्तेपे संयतात्मा शिवमुद्दिश्य तद्विधम् ॥ ६५ ॥
पराक्रमी अर्जुन भी सुरेश्वरको प्रणामकर संयतचित्त होकर शिवजीको उद्देश्य करके उसी प्रकारका तप करने लगे ॥ ६५ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां
किरातावतारवर्णनप्रसंगेऽर्जुनतपोवर्णनं
नामाष्टत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें किरातावतारवर्णन प्रसंगमें अर्जुनका तपवर्णन नामक अड़तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३८ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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