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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ तृतीया शतरुद्रसंहितायां
एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः किरातावतारवर्णने मूकदैत्यवधः -
मूक नामक दैत्यके वधका वर्णन - नन्दीश्वर उवाच - स्नानं स विधिवत्कृत्वा न्यासादि विधिवत्तथा । ध्यानं शिवस्य सद्भक्त्या व्यासोक्तं यत्तथाऽकरोत् ॥ १ ॥ नन्दीश्वर बोले-इस प्रकार व्यासजीने जैसा कहा था, उसी प्रकार अर्जुन विधिवत् स्नान, न्यासादि करके उत्तम भक्तिसे शिवका ध्यान करने लगे ॥ १ ॥ एकपादतलेनैव तिष्ठन्मुनिवरो यथा । सूर्ये दृष्टिं निबध्यैकां मंत्रमावर्तयन् स्थितः ॥ २ ॥ वे एक श्रेष्ठ मुनिके समान एक पैरके तलवेपर स्थित होकर अपनी एकाग्र दृष्टि सूर्यमें लगाकर विधिपूर्वक शिवके मन्त्रका जप खड़े-खड़े करने लगे ॥ २ ॥ तपस्तेपेति सम्प्रीत्या संस्मरन्मनसा शिवम् । पञ्चाक्षरं मनुं शंभोर्जपन्सर्वोत्तमोत्तमम् ॥ ३ ॥ वे मनसे शिवका स्मरण करते हुए तथा शिवजीके सर्वोत्तम पंचाक्षरमन्त्रका जप करते हुए प्रीतिपूर्वक तप करने लगे ॥ ३ ॥ तपसस्तेज एवासीद्यथा देवा विसिस्मियुः । पुनश्चैव शिवं याताः प्रत्यूचुस्ते समाहिताः ॥ ४ ॥ उनके तपका तेज ऐसा था कि देवता भी आश्चर्यचकित हो गये, फिर वे शिवजीके समीप गये और सावधान होकर कहने लगे- ॥ ४ ॥ देवा ऊचुः - नरेणैकेन सर्वेश त्वदर्थे तप आहितम् । यदिच्छति नरः सोयं किन्न यच्छति तत्प्रभो ॥ ५ ॥ देवता बोले-हे सर्वेश ! एक मनुष्य आपको प्रसन्न करनेके लिये तप कर रहा है । अतः हे प्रभो ! यह मनुष्य जो कुछ चाहता है, उसे आप क्यों नहीं दे देते हैं ? ॥ ५ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्त्वा तु स्तुतिं चकुर्विविधां ते तदा सुराः । तत्पादयोर्दृशः कृत्वा तत्र तस्थुः स्थिराधयः ॥ ६ ॥ नन्दीश्वर बोले-तब ऐसा कहकर चिन्ताग्रस्त वे देवगण शिवजीकी अनेक प्रकारसे स्तुति करने लगे । वे उनके चरणोंपर दृष्टि लगाकर वहीं स्थित हो गये ॥ ६ ॥ शिवस्तु तद्वचः श्रुत्वा महाप्रभुरुदारधीः । सुविहस्य प्रसन्नात्मा सुरान्वचनमब्रवीत् ॥ ७ ॥ उदारबुद्धिवाले महाप्रभु शिव उनका वचन सुनकर हँस करके प्रसन्नचित्त होकर देवताओंसे यह वचन कहने लगे- ॥ ७ ॥ शिव उवाच - स्वस्थानं गच्छत सुराः सर्वे सत्यन्न संशयः सर्वथाहं करिष्यामि कार्यं वो नात्र संशय ॥ ८ ॥ शिवजी बोले-हे देवताओ ! आप लोगोंकी बात निःसन्देह सत्य है । अब आपलोग अपने-अपने स्थानको जाइये; मैं आपलोगोंका कार्य सर्वथा करूंगा; इसमें संशय नहीं है ॥ ८ ॥ नंदीश्वर उवाच - तच्छ्रुत्वा शंभुवचनं निश्चयं परमं गताः । परावृत्य गताः सर्वे स्वस्वथानं ते हि निर्जराः ॥ ९ ॥ नन्दीश्वर बोले-शिवजीका यह वचन सुनकर देवताओंको पूर्ण विश्वास हो गया और वहाँसे लौटकर वे अपने-अपने स्थानको चले गये ॥ ९ ॥ एतस्मिन्नन्तरे दैत्यो मूकनामागतस्तदा । सौकरं रूपमास्थाय प्रेषितश्च दुरात्मना ॥ १० ॥ दुर्योधनेन विप्रेंद्र मायिना चार्जुनं तदा । यत्रार्जुनस्थितश्चासीत्तेन मार्गेण वै तदा ॥ ११ ॥ शृङ्गाणि पर्वतस्यैव च्छिन्दन्वृक्षाननेकशः । शब्दं च विविधं कुर्वन्नतिवेगेन संयुतः ॥ १२ ॥ हे विप्रेन्द्र ! इसी बीच दुरात्मा तथा मायावी दुर्योधनके द्वारा अर्जुनके प्रति भेजा गया मूक नामक दैत्य शूकरका रूप धारणकर वहाँ आया, जहाँ अर्जुन स्थित थे । वह पर्वतोंके शिखरोंको तोड़ता हुआ, अनेक वृक्षोंको उखाड़ता हुआ तथा विविध प्रकारके शब्द करता हुआ बड़े वेगसे उसी मार्गसे जा रहा था ॥ १०-१२ ॥ अर्जुनोपि च तं दृष्ट्वा मूकनामासुरं तदा । स्मृत्वा शिवपदांभोजं विचारे तत्परोऽभवत् ॥ १३ ॥ उस समय अर्जुन भी मूक नामक दैत्यको देखकर शिवके चरणकमलोंका स्मरणकर [अपने मनमें] विचार करने लगे ॥ १३ ॥ अर्जुन उवाच - कोयं वा कुत आयाति क्रूरकर्मा च दृश्यते । ममानिष्टं ध्रुवं कर्तुं समागच्छत्यसंशयम् ॥ १४ ॥ अर्जुन बोले-यह कौन है ? कहाँसे आ रहा है ? यह तो बड़ा क्रूर कर्म करनेवाला दिखायी दे रहा है ! निश्चय ही यह मेरा अनिष्ट करनेके लिये मेरी ओर आ रहा है ॥ १४ ॥ ममैवं मन आयाति शत्रुरेव न संशयः । मया विनिहताः पूर्वमनेके दैत्यदानवाः ॥ १५ ॥ तदीयः कश्चिदायाति वैरं साधयितुं पुनः । अथवा च सखा कश्चिद् दुर्योधनहितावहः ॥ १६ ॥ मेरे मनमें तो यह आ रहा है कि यह शत्रु ही है; इसमें सन्देह नहीं है । मैंने इससे पूर्व अनेक दैत्यदानवोंका संहार किया है । उन्हींका कोई सम्बन्धी अपना वैर साधनेके लिये [मेरी ओर आ रहा है अथवा यह दुर्योधनका कोई हितकारी मित्र है ॥ १५-१६ ॥ यस्मिन्दृष्टे प्रसीदेत्स्वं मनः स हितकृद् ध्रुवम् । यस्मिन्दृष्टे तदेव स्यादाकुलं शत्रुरेव सः ॥ १७ ॥ आचारः कुलमाख्याति वपुराख्याति भोजनम् । वचनं श्रुतमाख्याति स्नेहमाख्याति लोचनम् ॥ १८ ॥ जिसके देखनेसे अपना मन प्रसन्न हो, वह निश्चय ही हितैषी होता है और जिसके देखनेसे मनमें व्याकुलता उत्पन्न हो, वह अवश्य ही शत्रु होता है । सदाचारसे शरीरसे भोजनका, वचनके द्वारा शास्त्रज्ञानका तथा नेत्रके द्वारा स्नेहका पता लग जाता है ॥ १७-१८ ॥ आकारेण तथा गत्या चेष्टया भाषितैरपि । नेत्रवक्त्रविकाराभ्यां ज्ञायतेऽन्तर्हितं मनः ॥ १९ ॥ उज्ज्वलं सरसं चैव वक्रमारक्तकं तथा ॥ नेत्रं चतुर्विधं प्रोक्तं तस्य भावं पृथग्बुधाः ॥ २० ॥ आकार, गति, चेष्टा, सम्भाषण एवं नेत्र तथा मुखके विकारसे मनुष्यके अन्त:करणकी बात ज्ञात हो जाती है । उज्ज्वल, सरस, टेढ़ा और लाल-ये चार प्रकारके नेत्र कहे गये हैं; विद्वानोंने उनका पृथक्-पृथक् भाव बताया है । १९-२० ॥ उज्ज्वलं मित्रसंयोगे सरसं पुत्रदर्शने । वक्रं च कामिनीयोगे आरक्तं शत्रुदर्शने ॥ २१ ॥ अस्मिन्मम तु सर्वाणि कलुषानीन्द्रियाणि च । अयं शत्रुर्भवेदेव मारणीयो न संशयः ॥ २२ ॥ मित्रके मिलनेपर उज्चल, पुत्रको देखनेपर सरस, स्त्रीके मिलनेपर वक्र तथा शत्रुके देखनेपर नेत्र लाल हो जाते हैं । किंतु इसे देखनेपर तो मेरी सारी इन्द्रियाँ कलुषित हो गयी हैं । अतः यह अवश्य ही मेरा शत्रु है, इसका वध कर देना चाहिये; इसमें सन्देह नहीं है ॥ २१-२२ ॥ गुरोश्च वचनं मेद्य वर्तते दुःखदस्त्वया । हन्तव्यः सर्वथा राजन्नात्र कार्या विचारणा ॥ २३ ॥ एतदर्थं त्वायुधानि मम चैव न संशयः । विचार्येति च तत्रैव बाणं संस्थाय संस्थितः ॥ २४ ॥ मेरे गुरुका यह कथन भी है-हे राजन् ! तुम दुःख देनेवालेका सर्वथा वध कर देना, इसमें विचार नहीं करना चाहिये । निस्सन्देह इसीलिये तो ये आयुध भी हैं । इस प्रकार विचारकर अर्जुन [धनुषपर] बाण चढ़ाकर खड़े हो गये ॥ २३-२४ ॥ एतस्मिन्नन्तरे तत्र रक्षार्थं ह्यर्जुनस्य वै । तद्भक्तेश्च परीक्षार्थं शङ्करो भक्तवत्सलः ॥ २५ ॥ विदग्धभिल्लरूपं हि गणैः सार्धं महाद्भुतम् । तस्य दैत्यस्य नाशार्थं द्रुतं कृत्वा समागतः ॥ २६ ॥ बद्धकच्छश्च वस्त्रीभिर्बद्धेशानध्वजस्तदा । शरीरे श्वेतरेखाश्च धनुर्बाणयुतः स्वयम् ॥ २७ ॥ बाणानां तूणकं पृष्ठे धृत्वा वै स जगाम ह । गणश्चैव तथा जातो भिल्लराजोऽभवच्छिवः ॥ २८ ॥ इसी बीच अर्जुनकी रक्षाके लिये एवं उनकी भक्तिकी परीक्षा करनेके लिये भक्तवत्सल भगवान् शंकर अपने गणोंके सहित अत्यन्त अद्भुत सुशिक्षित भीलका रूप धारणकर उस दैत्यका विनाश करनेके लिये शीघ्र ही वहाँ आ पहुँचे । कच्छ (लाँग-काछ) लगाये हुए, लताओंसे अपने केशोंको बाँधे हुए, शरीरपर श्वेत वर्णकी रेखा अंकित किये हुए, धनुष-बाण धारण किये हुए तथा पीठपर बाणोंका तरकस धारण किये हुए वे गणासहित वहाँ गये । वे शिवजी भीलराज बने हुए थे ॥ २५-२८ ॥ शब्दांश्च विविधान्कृत्वा निर्ययौ वाहिनीपतिः । सूकरस्य ससाराथ शब्दश्च प्रदिशो दश ॥ २९ ॥ वे शिवजी भील सेनाके अधिपति होकर कोलाहल करते हुए निकले, उसी समय शूकरके गरजनेकी ध्वनि दसों दिशाओंमें सुनायी पड़ी ॥ २९ ॥ वनेचरेण शब्देन व्याकुलश्चार्जुनस्तदा । पर्वताद्याश्च तैः शब्दैस्ते सर्वे व्याकुलास्तदा ॥ ३० ॥ तब उस वनचारी शूकरके [घोर घर्धर] शब्दसे अर्जुन व्याकुल हो गये, साथ ही जो पर्वत आदि थे, वे सभी उन शब्दोंसे व्याकुल हो उठे ॥ ३० ॥ अहो किन्नु भवेदेष शिवः शुभकरस्त्विह । मया चैव श्रुतं पूर्वं कृष्णेन कथितं पुनः ॥ ३१ ॥ व्यासेन कथितं चैवं स्मृत्वा देवैस्तथा पुनः । शिवः शुभकरः प्रोक्तः शिवः सुखकरस्तथा ॥ ३२ ॥ अहो ! यह क्या है ? कहीं ये कल्याणकारी शिवजी ही तो नहीं हैं, जो यहाँ पधारे हैं; क्योंकि मैंने ऐसा पूर्वमें सुना था, श्रीकृष्णने भी मुझसे कहा था, व्यासजीने भी ऐसा ही कहा था और देवगणोंने भी स्मरणकर यही बात कही थी कि शिवजी ही सभी प्रकारका मंगल करनेवाले तथा सुख देनेवाले कहे गये हैं ॥ ३१-३२ ॥ मुक्तिदश्च स्वयं प्रोक्तो मुक्तिदानान्न संशयः । तन्नामस्मरणात्पुंसां कल्याणं जायते धुवम् ॥ ३३ ॥ भजतां सर्वभावेन दुःखं स्वप्नेऽपि नो भवेत् । यदा कदाचिज्जायेत तदा कर्मसमुद्भवम् ॥ ३४ ॥ वे मुक्ति देनेके कारण मुक्तिदाता कहे गये हैं; इसमें सन्देह नहीं है । उनके नामस्मरणमात्रसे निश्चितरूपसे मनुष्योंका कल्याण होता है । सब प्रकारसे इनका भजन करनेवालोंको स्वप्नमें भी दुःख नहीं होता है । यदि कभी होता है, तो उसे कर्मजन्य समझना चाहिये ॥ ३३-३४ ॥ तदेतद्बह्वपि ज्ञेयं नूनमल्पं न संशयः । प्रारब्धस्याथ वा दोषो नूनं ज्ञेयो विशेषतः ॥ ३५ ॥ अथवा बहु चाल्पं हि भोग्यं निस्तीर्य शंकरः । कदाचिदिच्छया तस्य दूरीकुर्यान्न संशयः ॥ ३६ ॥ [शिवजीके अनुग्रहसे तो] प्रबल होनहार भी अवश्य कम हो जाता है-ऐसा जानना चाहिये; इसमें सन्देह नहीं है अथवा विशेषरूपसे प्रारब्धका दोष समझना चाहिये और शिवजी स्वयं अपनी इच्छासे कभी बहुत अथवा कम उस भोगको भुगताकर उस दुर्भाग्यका निवारण करते हैं, इसमें संशय नहीं है । ३५-३६ ॥ विषं चैवामृतं कुर्यादमृतं विषमेव वा । यदिच्छति करोत्येव समर्थः किन्निषिध्यते ॥ ३७ ॥ इत्थं विचार्यमाणेऽपि भक्तैरन्यैः पुरातनैः । भाविभिश्च सदा भक्तैरिहानीय मनः स्थिरम् ॥ ३८ ॥ वे विषको अमृत एवं अमृतको विष बना देते हैं । वे समर्थ हैं, जैसा चाहते हैं, वैसा करते हैं, भला ! उन सर्वसमर्थको कौन मना कर सकता है ? अन्य पुरातन भक्तोंके द्वारा इस प्रकार विचार किये जानेके कारण भावी भक्तोंको भी सदा शिवजीमें अपना मन स्थिर रखना चाहिये ॥ ३७-३८ ॥ लक्ष्मीर्गच्छेच्चावतिष्ठेन्मरणं निकटे पुरः । निन्दां वाथ प्रकुर्वन्तु स्तुतिं वा दुःखसंक्षयम् ॥ ३९ ॥ जायते पुण्यपापाभ्यां शंकरः सुखदः सदा । कदाचिच्च परीक्षार्थं दुःखं यच्छति वै शिवः ॥ ४० ॥ अंते च सुखदः प्रोक्तो दयालुत्वान्न संशयः । यथा चैव सुवर्णं च शोधि तं शुद्धतां व्रजेत् ॥ ४१ ॥ लक्ष्मी रहे या चली जाय, मृत्यु भले ही सन्निकट और समक्ष खड़ी हो, लोग निन्दा करें अथवा स्तुति करें, [दुःख बना रहे या] दुःखनाश हो जाय [यह इष्टअनिष्टात्मक द्वन्द्व तो] पुण्य तथा पापके कारण उत्पन्न होता है, [इसमें शिव निमित्त नहीं हैं] वे तो सर्वदा अपने भक्तोंको सुख ही देते हैं । कभी-कभी वे अपने भक्तोंकी परीक्षा करनेके लिये उनको दुःख भी देते हैं; किंतु दयालु होनेके कारण वे अन्तमें सुख देनेवाले ही होते हैं । जैसे सुवर्ण अग्निमें तपानेपर शुद्ध होता है, उसी प्रकार भक्त भी तपानेसे निखरते हैं ॥ ३९-४१ ॥ एवं चैवं मया पूर्वं श्रुतं मुनिमुखात्तथा । अतस्तद्भजनेनैव लप्स्येऽहं सुखमुत्तमम् ॥ ४२ ॥ इत्येवं तु विचारं स करोति यावदेव हि । तावच्च सूकरः प्राप्तो बाणसंमोचनावधिः ॥ ४३ ॥ शिवोपि पृष्ठतो लग्नो ह्यायातः शूकरस्य हि । तयोर्मध्ये तदा सोयं दृश्यते शृङ्गमद्भुतम् ॥ ४४ ॥ पूर्वकालमें मैंने मुनियोंके मुखसे ऐसा ही सुना है, इसलिये मैं उनके भजनसे ही उत्तम सुख प्राप्त करूँगा, जबतक अर्जुन इस प्रकारका विचार कर ही रहे थे, तबतक शरसन्धानका लक्ष्य वह शूकर वहाँ आ पहुँचा । उधर, [भीलवेषधारी] शिवजी भी शूकरका पीछा करते हुए आ पहुंचे । उस समय उन दोनोंके बीच में वह शूकर अद्भुत शिखरके समान दिखायी पड़ रहा था ॥ ४२-४४ ॥ तस्य प्रोक्तं च माहात्म्यं शिवः शीघ्रतरं गतः । अर्जुनस्य च रक्षार्थं शंकरो भक्तव त्सलः ॥ ४५ ॥ अर्जुनने शिवका माहात्म्य कहा था, इसलिये भक्तवत्सल शिव उनकी रक्षा करनेके लिये वहाँ पहुँच गये ॥ ४५ ॥ एतस्मिन्समये ताभ्यां कृतं बाणविमोचनम् । शिवबाणस्तु पुच्छे वै ह्यर्जुनस्य मुखे तथा ॥ ४६ ॥ शिवस्य पुच्छतो गत्वा मुखान्निःसृत्य शीघ्रतः । भूमौ विलीनः संयातस्तस्य वै पुच्छतो गतः ॥ ४७ ॥ पपात पार्श्वतश्चैव बाणश्चैवार्जुनस्य च । सूकरस्तत्क्षणं दैत्यो मृतो भूमौ पपात ह ॥ ४८ ॥ इसी समय उन दोनोंने बाण चलाया; शिवजीका बाण शूकरकी पूँछमें तथा अर्जुनका बाण मुखमें लगा । शिवजीका बाण पूँछमें घुसकर मुखसे निकलकर शीघ्र ही पृथ्वीमें विलीन गया और अर्जुनका बाण [मुखमें प्रविष्ट होकर] पूँछसे निकलकर पार्श्वभागमें गिर पड़ा । वह शूकररूप दैत्य उसी क्षण मरकर पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ ४६-४८ ॥ देवा हर्षं परं प्रापुः पुष्पवृष्टिं च चक्रिरे । जयपूर्वं स्तुतिकराः प्रणम्य च पुनःपुनः ॥ ४९ ॥ देवता परम हर्षित हो गये और पुष्पवृष्टि करने लगे । उन्होंने बार-बार प्रणामकर जय-जयकार करते हुए शिवजीकी स्तुति की ॥ ४९ ॥ शिवस्तुष्टमना आसीदर्जुनः सुखमागतः । दैत्यस्य च तदा दृष्ट्वा क्रूरं रूपं च तौ तदा ॥ ५० ॥ अर्जुनस्तु विशेषेण सुखिना प्राह चेतसा ॥ अहो दैत्यवरश्चायं रूपं तु परमाद्भुतम् ॥ ५१ ॥ कृत्वागतो मद्वधार्थं शिवेनाहं सुरक्षितः ॥ ईश्वरेण ममाद्यैव बुद्धिर्दत्ता न संशयः ॥ ५२ ॥ उस दैत्यके क्रूर रूपको देखकर शिवजी प्रसन्नचित्त हो गये और अर्जुनको भी सुख प्राप्त हुआ । तब अर्जुनने विशेषरूपसे प्रसन्न मनसे कहा-अरे, यह महादैत्य अत्यन्त अद्भुत रूप धारणकर मेरे वधके लिये आया था, किंतु शिवजीने मेरी रक्षा की । शिवजीने ही आज मुझे बुद्धि प्रदान की । इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५०-५२ ॥ विचार्येत्यर्जुनस्तत्र जगौ शिवशिवेति च ॥ प्रणनाम शिवं भूयस्तुष्टाव च पुनः पुनः ॥ ५३ ॥ ऐसा विचारकर अर्जुनने 'शिव-शिव' कहकर उनका यशोगान किया और उन्हें प्रणाम किया तथा बार-बार उनकी स्तुति की ॥ ५३ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां किरातावतारवर्णने मूकदैत्यवधो नामैकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ३९ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहिताके किरातावतारवर्णनमें मूकदैत्यवध नामक उनतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३९ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |