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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ तृतीया शतरुद्रसंहितायां
चत्वारिंशोऽध्यायः किरातावतारवर्णने भिल्लार्जुनसंवादः -
भीलस्वरूप गणेश्वर एवं तपस्वी अर्जुनका संवाद - नन्दीश्वर उवाच - सनत्कुमार सर्वज्ञ शृणु लीलां परात्मनः । भक्तवात्सल्यसंयुक्तां तद् दृढत्वविदर्भिताम् ॥ १ ॥ नन्दिकेश्वर बोले-हे सनत्कुमार ! हे सर्वज्ञ ! अब परमात्मा शिवकी भक्तवत्सलतासे युक्त तथा उनकी दृढ़ भक्तिसे भरी हुई लीला सुनिये ॥ १ ॥ शिवोप्यथ स्वभृत्यं वै प्रेषयामास स द्रुतम् । बाणार्थे च तदा तत्रार्जुनोऽपि समगात्ततः ॥ २ ॥ एकस्मिन् समये प्राप्तौ बाणार्थं तद्गणार्जुनौ । अर्जुनस्तं पराभर्त्स्य स्वबाणं चाग्रहीत्तदा ॥ ३ ॥ उसके बाद उन शिवजीने अपना बाण लानेके लिये शीघ्र ही अपने सेवकको वहाँ भेजा और उसी समय अर्जुन भी अपना वाण लेनेके लिये वहाँ पहुँचे । एक ही समय शिवका गण तथा अर्जुन बाण लेने हेतु वहाँ उपस्थित हुए, तब अर्जुनने उसे धमकाकर अपना बाण ले लिया ॥ २-३ ॥ गण प्रोवाच तं तत्र किमर्थं गृह्यते शरः । बाणश्चैवास्मदीयो वै मुच्यतां ऋषिसत्तम ॥ ४ ॥ इत्युक्तस्तेन भिल्लस्य गणेन मुनिसत्तम । सोर्जुनः शंकरं स्मृत्वा वचनं च तमब्रवीत् ॥ ५ ॥ तब शिवजीका गण उनसे कहने लगा-हे मुनिसत्तम ! यह बाण मेरा है, आप इसे क्यों ले रहे हैं, आप इसे छोड़ दीजिये । हे मुनिश्रेष्ठ ! भीलराजके उस गणद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर उन अर्जुनने शिवजीका स्मरण करके उससे कहा- ॥ ४-५ ॥ अर्जुन उवाच - अज्ञात्वा किञ्च वदसि मूर्खोसि त्वं वनेचर । बाणश्च मोचितो मेऽद्य त्वदीयश्च कथं पुनः ॥ ६ ॥ रेखारूपं च पिच्छानि मन्नामांकित एव च । त्वदीयश्च कथं जातः स्वभावो दुस्त्यजस्तव ॥ ७ ॥ अर्जुन बोले-हे वनेचर ! बिना जाने तुम ऐसा क्यों बोल रहे हो ? तुम मूर्ख हो; यह बाण अभी मैंने चलाया था, फिर यह तुम्हारा किस प्रकार हो सकता है ? इस बाणके पिच्छ रेखाओंसे चित्रित हैं तथा इसमें मेरा नाम अंकित है । यह तुम्हारा कैसे हो गया ? निश्चय ही तुम्हारा [यह हठी] स्वभाव कठिनाईसे छूटनेवाला है ॥ ६-७ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्येवं तद्वचः श्रुत्वा विहस्य स गणेश्वरः । अर्जुनं ऋषिरूपं तं भिल्लो वाक्यमुपाददे ॥ ८ ॥ तापस श्रूयतां रे त्वं न तपः क्रियते त्वया । वेषतश्च तपस्वी त्वं न यथार्थं छलायते ॥ ९ ॥ नन्दीश्वर बोले-उनकी यह बात सुनकर गणेश्वर उस भीलने महर्षिरूपधारी उन अर्जुनसे यह वचन कहा-अरे तपस्वी ! सुनो, तुम तप नहीं कर रहे हो, तुम केवल वेषसे तपस्वी हो, यथार्थरूपमें [तपोनिरत व्यक्ति] छल नहीं करते ॥ ८-९ ॥ तपस्वी च कथं मिथ्या भाषते कुरुते नरः । नैकाकिनं च मां त्वं च जानीहि वाहिनीपतिम् ॥ १० ॥ तपस्वी व्यक्ति असत्य भाषण कैसे कर सकता है ? तुम मुझ सेनापतिको यहाँ अकेला मत समझो ॥ १० ॥ बहुभिर्वनभिल्लैश्च युक्तः स्वामी स आसते । समर्थः सर्वथा कर्तुं विग्रहानुग्रहौ पुनः ॥ ११ ॥ वर्तते तस्य बाणोऽयं यो नीतश्च त्वयाधुना । अयं बाणश्च ते पार्श्वे न स्थास्यति कदाचन ॥ १२ ॥ मेरे स्वामी भी वनके बहुत-से भीलोंके साथ यहाँ विद्यमान हैं । वे विग्रह तथा अनुग्रह करनेमें सब प्रकारसे समर्थ भी हैं । इस समय जिस बाणको तुमने लिया है, वह उनका ही है, तुम इस बातको अच्छी तरह जान लो कि यह बाण तुम्हारे पास कभी नहीं रहेगा ॥ ११-१२ ॥ तपःफलं कथं त्वं च हातुमिच्छसि तापस । चौर्याच्छलार्द्यमानाद् विस्मयात्सत्यभञ्जनात् ॥ १३ ॥ तपसा क्षीयतेऽसत्यमेतदेव मया श्रुतम् । तस्माच्च तपसस्तेऽद्य भविष्यति फलं कुतः ॥ १४ ॥ हे तापस ! [तुम असत्य बोलकर अपनी तपस्याका फल क्यों नष्ट कर रहे हो, क्योंकि चोरीसे, छलसे, किसीको व्यथित करनेसे, अहंकारसे तथा सत्यको छोड़नेसे व्यक्ति अपनी तपस्यासे रहित हो जाता है । यह बात मैंने यथार्थ रूपसे सुनी है; तब तुम्हें इस तपस्याका फल कैसे मिलेगा ? ॥ १३-१४ ॥ तस्मादमुक्तबाणो हि कृतघ्नस्त्वं भविष्यसि । ममैव स्वामिनो बाणस्तवार्थे मोचितो ध्रुवम् ॥ १५ ॥ शत्रुश्च मारितस्तेन पुनर्बाणश्च रक्षितः । अत्यन्तं च कृतघ्नोसि तपोऽशुभकरस्तथा ॥ १६ ॥ इसलिये यदि तुम बाणका त्याग नहीं करोगे, तो कृतघ्न कहे जाओगे; क्योंकि मेरे स्वामीने निश्चितरूपसे तुम्हारी ही रक्षाके लिये यह बाण [शूकरपर] चलाया था । उन्होंने तुम्हारे ही शत्रुको मारा है और तुमने उनके बाणको रख लिया; अतः तुम अति कृतघ्न हो, तुम्हारी यह तपस्या अशुभ करनेवाली है ॥ १५-१६ ॥ सत्यं न भाषसे त्वं च किमतः सिद्धिमिच्छसि । प्रयोजनं चेद् बाणेन स्वामी च याच्यतां मम ॥ १७ ॥ जब तुम [तपस्या में निरत हो] सत्यभाषण नहीं कर रहे हो, तब तुम इस तपसे सिद्धिकी अपेक्षा कैसे रखते हो ? यदि तुम्हें बाणकी आवश्यकता हो, तो मेरे स्वामीसे माँग लो ॥ १७ ॥ ईदृशांश्च बहून्बाणांस्तदा दातुं क्षमः स्वयम् । राजा च वर्तते मेऽद्य किं त्वेवं याच्यते त्वया ॥ १८ ॥ उपकारं परित्यज्य ह्यपकारं समीहसे । नैतद्युक्तं त्वयाद्यैव क्रियते त्यज चापलम् ॥ १९ ॥ वे ऐसे बहुत-से बाण देनेमें समर्थ हैं । वे हमारे राजा हैं, फिर तुम उनसे क्यों नहीं माँग लेते हो ? तुम्हें तो उनका उपकार मानना चाहिये, उलटे अपकार कर रहे हो, इस समय तुम्हारा ऐसा व्यवहार उचित प्रतीत नहीं होता, तुम इस चपलताका त्याग करो ॥ १८-१९ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्येवं वचनन्तस्य श्रुत्वा पार्थोर्जुनस्तदा । क्रोधं कृत्वा शिवं स्मृत्वा मितं वाक्यमथाब्रवीत् ॥ २० ॥ नन्दीश्वर बोले-तब उसकी यह बात सुनकर पृथापुत्र अर्जुन क्रोध करके पुन: शिवजीका स्मरण करते हुए मर्यादित वाक्य कहने लगे- ॥ २० ॥ अर्जुन उवाच - शृणु भिल्ल प्रवक्ष्यामि न सत्यं तव भाषणम् । यथा जातिस्तथा त्वां च जानामि हि वनेचर ॥ २१ ॥ अर्जुन बोले-हे भील ! मैं जो कहता हूँ, तुम उसे सुनो । हे वनेचर ! जैसी तुम्हारी जाति है और जैसे तुम हो, मैं उसे [अच्छी तरह] जानता हूँ ॥ २१ ॥ अहं राजा भवान् चौरः कथं युद्धप्रयुक्तता । युद्धं मे सबलैः कार्यं नाधमैर्हि कदाचन ॥ २२ ॥ तस्मात्ते च तथा स्वामी भविष्यति भवादृशः । दातारश्च वयं प्रोक्ताश्चौरा यूयं वनेचराः ॥ २३ ॥ कथं याच्यो मया भिल्लराज एवं च साम्प्रतम् । त्वमेव याचसे नैव बाणं मां किं वनेचरः ॥ २४ ॥ मैं राजा हूँ और तुम चोर हो । दोनोंका युद्ध किस प्रकार उचित होगा ? मैं बलवानोंसे युद्ध करता हूँ, अधमोंसे कभी नहीं । इसलिये तुम्हारा स्वामी भी तुम्हारे समान ही होगा । देनेवाले तो हम कहे गये हैं, तुम वनेचर तो चोर हो । मैं भीलराजसे किस प्रकार अयुक्त याचना कर सकता हूँ: हे बनेचर ! तुम्हीं मुझसे बाण क्यों नहीं माँग लेते हो ? ॥ २२-२४ ॥ ददामि ते तथा बाणान् सन्ति मे बहवो ध्रुवम् । राजा च ग्रहणं चैव न दास्यति तथा भवेत् ॥ २५ ॥ मैं वैसे बहुत-से बाण तुम्हें दे सकता हूँ, मेरे पास बहुत-से बाण हैं । राजा होकर किससे याचना करे अथवा माँगनेपर न दे, तो कैसा राजा ? ॥ २५ ॥ किं पुनश्च तथा बाणान्प्रयच्छामि वनेचर । यदि मे या चिकीर्षा स्यात्कथं नागम्यतेऽधुना ॥ २६ ॥ हे वनेचर ! मैं क्या कहूँ ? मैं बहुत-से ऐसे बाण दे सकता हूँ; यदि तुम्हारे स्वामीको मेरे बाणोंकी अपेक्षा है तो वह आकर मुझसे क्यों नहीं माँगता ? ॥ २६ ॥ यथागच्छेत्तु ते भर्ता किमर्थं भाषतेऽधुना । आगत्य च मया सार्द्धं जित्वा युद्धे च मां पुनः ॥ २७ ॥ नीत्वा बाणमिमं भिल्ल स्वामी ते वाहिनीपतिः । निजालयं सुखं यातु विलंबः क्रियते कथम् ॥ २८ ॥ तुम्हारा स्वामी यहाँ आये, वहाँसे क्यों बकवास कर रहा है ? यहाँ आकर मेरे साथ युद्ध करे और मुझे युद्ध में पराजित करके तुम्हारा सेनापति भीलराज इस बाणको लेकर सुखसे अपने घर चला जाय, वह देर क्यों कर रहा है ? ॥ २७-२८ ॥ नन्दीश्वर उवाच - महेश्वरकृपाप्राप्तसद्बलस्यार्जुनस्य हि । इत्येतद्वचनं श्रुत्वा भिल्लो वाक्यमथाब्रवीत् ॥ २९ ॥ नन्दीश्वर बोले-महेश्वरकी कृपासे उत्तम बल प्राप्त किये हुए अर्जुनकी इस प्रकारकी बात सुनकर उस भीलने कहा- ॥ २९ ॥ भिल्ल उवाच - अज्ञोसि त्वं ऋषिर्नासि मरणं त्वीहसे कथम् । देहि बाणं सुखं तिष्ठ त्वन्यथा क्लेशभाग्भवेः ॥ ३० ॥ भील बोला-तुम ऋषि नहीं हो, मूर्ख हो, तुम अपनी मृत्यु क्यों चाह रहे हो, बाणको दे दो और सुखपूर्वक रहो, अन्यथा कष्ट प्राप्त करोगे ॥ ३० ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्तस्तेन भिल्लेन शिवसच्छक्तिशोभिना । गणेन पाण्डवस्तं च प्राह स्मृत्वा च शङ्करम् ॥ ३१ ॥ ्दीश्वर बोले-शिवकी श्रेष्ठ शक्तिसे शोभित होनेवाले भीलकी बात सुनकर पाण्डुपुत्र अर्जुनने शिवजीका स्मरण करते हुए उस भीलसे कहा- ॥ ३१ ॥ अर्जुन उवाच - मद्वाक्यं तत्त्वतो भिल्ल शृणु त्वं च वनेचर । आगमिष्यति ते स्वामी दर्शयिष्ये फलं तदा ॥ ३२ ॥ अर्जुन बोले-हे वनेचर ! हे भील ! मेरी बातको भलीभाँति सुनो; जब तुम्हारा स्वामी यहाँ आयेगा, तब मैं उसको इसका फल दिखाऊँगा ॥ ३२ ॥ न शोभते त्वया युद्धं करिष्ये स्वामिना तव । उपहासकरं ज्ञेयं युद्धं सिंहशृगालयोः ॥ ३३ ॥ तुम्हारे साथ युद्ध करना मुझे शोभा नहीं देता, अत: तुम्हारे स्वामीके साथ युद्ध करूँगा; क्योंकि सिंह और गीदड़का युद्ध उपहासास्पद होता है ॥ ३३ ॥ श्रुतं च मद्वचस्तेऽद्य द्रक्ष्यसि त्वं महाबलम् । गच्छ स्वस्वामिनं भिल्ल यथेच्छसि तथा कुरु ॥ ३४ ॥ हे भील ! तुमने मेरी बात सुन ली, अब [आगे] मेरा महाबल भी देखोगे । अब तुम अपने स्वामीके पास जाओ और जैसी तुम्हारी इच्छा हो, वैसा करो ॥ ३४ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्तस्तु गतस्तत्र भिल्लः पार्थेन वै मुने । शिवावतारो यत्रास्ते किरातो वाहिनीपतिः ॥ ३५ ॥ अथार्जुनस्य वचनं भिल्लनाथाय विस्तरात् । सर्वं निवेदयामास तस्यै भिल्लपरात्मने ॥ ३६ ॥ नन्दीश्वर बोले-अर्जुनके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर वह भील वहाँ गया, जहाँ शिवावतार भीलराज स्थित थे । तदुपरान्त उसने अर्जुनका सारा वचन भीलस्वरूपी परमात्मासे विस्तारपूर्वक निवेदन किया ॥ ३५-३६ ॥ स किरातेश्वरः श्रुत्वा तद्वचो हर्षमागतः । आजगाम स्वसैन्येन शंकरो भिल्लरूपधृक् ॥ ३७ ॥ किरातेश्वर शिव उसका वचन सुनकर अत्यन्त हर्षित हुए, फिर भीलरूपधारी सदाशिव अपनी सेनाके साथ [जहाँ अर्जुन थे,] वहाँ आये ॥ ३७ ॥ अर्जुनश्च तदा सेनां किरातस्य च पाण्डवः । दृष्ट्वा गृहीत्वा सशरं धनुः सन्मुख आययौ ॥ ३८ ॥ उस समय पाण्डुपुत्र अर्जुन भी किरात सेनाको देखकर धनुष-बाण लेकर सामने आ गये ॥ ३८ ॥ अथो किरातश्च पुनः प्रेषयामास तं चरम् । तन्मुखेन जगौ वाक्यं भारताय महात्मने ॥ ३९ ॥ - इसके बाद किरातेश्वरने पुनः भरतवंशीय महात्मा अर्जुनके पास दूत भेजा और उसके मुखसे अपना सन्देश उन्हें कहलवाया ॥ ३९ ॥ किरात उवाच - पश्य सैन्यं तपस्विस्त्वं मुञ्च बाणं व्रजाधुना । मरणं स्वल्पकार्यार्थं कथमिच्छसि साम्प्रतम् ॥ ४० ॥ किरात बोला-हे दूत ! तुम जाकर अर्जुनसे कहो, हे तपस्विन् ! तुम मेरी इस विशाल सेनाको देखो, मेरा बाण मुझे लौटा दो और अब चले जाओ । स्वल्प कार्यके लिये इस समय क्यों मरना चाहते हो ? ॥ ४० ॥ भ्रातरस्तव दुःखार्ताः कलत्रं च ततः परम् । पृथिवी हस्ततस्तेऽद्य यास्यतीति मतिर्मम ॥ ४१ ॥ तुम्हारे भाई दुखी होंगे, इससे भी अधिक तुम्हारी स्त्री दुखी होगी । मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हारे हाथसे आज पृथ्वी भी चली जायगी ॥ ४१ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्तं परमेशेन पार्थदार्ढ्यपरीक्षया । सर्वथार्जुनरक्षार्थं धृतरूपेण शंभुना ॥ ४२ ॥ इत्युक्तस्तु तदागत्य स गणः शंकरश्च तत् । विस्तराद् वृत्तमखिलमर्जुनाय न्यवेदयत् ॥ ४३ ॥ नन्दीश्वर बोले-अर्जुनकी रक्षाके लिये और उनकी दृढ़ताकी परीक्षाके लिये किरातरूपधारी परमेश्वर शिवने इस प्रकार कहा । उसके ऐसा कहनेपर शंकरके उस दूतने अर्जुनके पास जाकर सारा वृत्तान्त विस्तारपूर्वक निवेदन किया ॥ ४२-४३ ॥ तच्छ्रुत्वा तु पुनः प्राह प्रार्थस्तं दूतमागतम् । वाहिनीपतये वाच्यं विपरीतं भविष्यति ॥ ४४ ॥ यद्यहं चैव ते बाणं यच्छामि च मदीयकम् । कुलस्य दूषणं चाहं भविष्यामि न संशयः ॥ ४५ ॥ भ्रातरश्चैव दुखार्ताः भवन्तु च तथा ध्रुवम् । विद्याश्च निष्फला मे स्युस्तस्मादागच्छ वै ध्रुवम् ॥ ४६ ॥ सिंहश्चैव शृगालाद्वा भीतो नैव मया श्रुतः । तथा वनेचराद्राजा न बिभेति कदाचन ॥ ४७ ॥ उसकी बात सुनकर अर्जुनने पुनः आये हुए उस दूतसे कहा-हे दूत ! तुम अपने स्वामीसे जाकर कहो कि इसका परिणाम विपरीत होगा । यदि मैं तुम्हें अपना बाण दे दूँगा, तो मैं कुलकलंकी हो जाऊँगा; इसमें सन्देह नहीं है । भले ही हमारे भाई दुखी हों, भले ही हमारी विद्या नष्ट हो जाय, किंतु भीलराज मुझसे युद्ध करनेके लिये अवश्य यहाँ आयें । सिंह गीदड़से डर जाय, यह बात मैंने कभी नहीं सुनी, इसी प्रकार किसी वनेचरसे राजा डरे, ऐसा नहीं हो सकता ॥ ४४-४७ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्तस्तं पुनर्गत्वा स्वामिनं पाण्डवेन सः । सर्वं निवेदयामास तदुक्तं हि विशेषतः ॥ ४८ ॥ अथ सोपि किराताह्वो महादेवः ससैन्यकः । तच्छ्रुत्वा सैन्यसंयुक्तो ह्यर्जुनं चागमत्तदा ॥ ४९ ॥ नन्दीश्वर बोले-पाण्डुपुत्र अर्जुनके इस प्रकार कहनेपर भीलने अपने स्वामीके पास जाकर अर्जुनद्वारा कहे गये सारे वृत्तान्तको विशेष रूपसे वर्णित किया । तब इस वृत्तान्तको सुनकर किरातवेषधारी महादेव सेनासहित अर्जुनके पास आये ॥ ४८-४९ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां किरातावतारवर्णने भिल्लार्जुनसंवादोनाम चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४० ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसहिताके किरातावतारवर्णनमें भील-अर्जुन-संवाद नामक चालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४० ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |