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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ तृतीया शतरुद्रसंहितायां
एकचत्वारिंशोऽध्यायः किरातेश्वरावतारवर्णनम् -
भगवान् शिवके किरातेश्वरावतारका वर्णन - तमागतं ततो दृष्ट्वा ध्यानं कृत्वा शिवस्य सः । गत्वा तत्रार्जुनस्तेन युद्धं चक्रे सुदारुणम् ॥ १ ॥ नन्दीश्वर बोले-सेनाके साथ किरातेश्वरको युद्धके लिये आया देखकर शिवजीका ध्यान करते हुए अर्जुनने वहाँ जाकर उसके साथ भयंकर युद्ध किया ॥ १ ॥ गणैश्च विविधैस्तीक्ष्णैरायुधैस्तं न्यपीडयत् । तैस्तदा पीडितः पार्थः सस्मार स्वामिनं शिवम् ॥ २ ॥ अर्जुनश्च तदा तेषां बाणावलिमथाच्छिनत् । यदायुद्धं च तैः क्षिप्तं ततः शर्वं परामृशत् ॥ ३ ॥ उस भीलराजने अपने अनेक गणों तथा तीक्ष्ण शस्वोंके द्वारा अर्जुनको अत्यधिक पीड़ित किया । तब उनसे पीड़ित हुए अर्जुन अपने इष्टदेव शिवका स्मरण करने लगे । अर्जुनने शत्रुओंके सारे बाण काट डाले । जब गणोंने युद्ध करना छोड़ दिया, तो अर्जुनने [किरातवेषधारी] शिवजीको ललकारा ॥ २-३ ॥ पीडितास्ते गणास्तेन ययुश्चैव दिशो दश । गणेशा वारितास्ते च नाजग्मुः स्वामिनं प्रति ॥ ४ ॥ शिवश्चैवार्जुनश्चैव युयुधाते परस्परम् । नानाविधैश्चायुधैर्हि महाबलपराक्रमौ ॥ ५ ॥ अर्जुनसे पीड़ित गण दसों दिशाओंमें भागने लगे । यद्यपि किरातपतिने उन गणस्वामियोंको ऐसा करनेसे रोका, किंतु वे अपने स्वामीके बुलानेपर भी नहीं लौटे । तब महाबली एवं पराक्रमी अर्जुन और शिवजीने नाना प्रकारके शस्त्रास्त्रोंसे परस्पर युद्ध किया ॥ ४-५ ॥ शिवोऽपि मनसा नूनं दयां कृत्वार्जुनं ह्यगात् । अर्जुनश्च दृढं तत्र प्रहारं कृतवांस्तदा ॥ ६ ॥ यद्यपि शिवजी दया करते हुए अर्जुनके पास गये, किंतु अर्जुनने निर्दयतापूर्वक शिवपर प्रहार किया ॥ ६ ॥ आयुधानि शिवः सो वै ह्यर्जुनस्याच्छिनत्तदा । कवचानि च सर्वाणि शरीरं केवलं स्थितम् ॥ ७ ॥ तदनन्तर शिवजीने अर्जुनके समस्त शस्त्र-अस्त्रोंको काट डाला और कवचोंको भी छिन्न-भिन्न कर दिया; केवल उनका शरीर शेष रह गया ॥ ७ ॥ तदार्जुनः शिवं स्मृत्वा मल्लयुद्धं चकार सः । वाहिनीपतिना तेन भयात्क्लिष्टोऽपि धैर्यवान् ॥ ८ ॥ तद्युद्धेन मही सर्वा चकम्पे ससमुद्रका । देवा दुःखं समापन्नाः किं भविष्यति वा पुनः ॥ ९ ॥ तब धैर्यशाली उन अर्जुनने भयसे व्यथित होते हुए भी शिवजीका स्मरणकर वाहिनीपतिके साथ मल्लयुद्ध करना प्रारम्भ किया । उन दोनोंके संग्रामको देखकर सागरसहित पृथ्वी काँप रही थी और देवता दुखी हो रहे थे कि अब और क्या होनेवाला है ? ॥ ८-९ ॥ एतस्मित्रंतरे देवः शिवो गगनमास्थितः । युद्धं चकार तत्रस्थः सोर्जुनश्च तथाऽकरोत् ॥ १० ॥ उड्डीयोड्डीय तौ युद्धं चक्रतुर्देवपार्थिवौ । देवाश्च विस्मयं प्रापू रणं दृष्ट्वा तदाद्भुतम् ॥ ११ ॥ इसी बीचमें शिवजी ऊपर जाकर आकाशमें स्थित हो युद्ध करने लगे और अर्जुन भी उसी प्रकार आकाशमें स्थित हो युद्ध करने लगे । इस प्रकार शिव एवं अर्जुन दोनों ही उड़-उड़कर आकाशमें जब युद्ध कर रहे थे, तब उस अद्भुत युद्धको देखकर देवगण विस्मित हो रहे थे ॥ १०-११ ॥ अथार्जुनोत्तरे ज्ञात्वा स्मृत्वा शिवपदांबुजम् । दधार पादयोस्तं वै तद्ध्यानादाप्तसद्बलः ॥ १२ ॥ धृत्वा पादौ तदा तस्य भ्रामयामास सोर्जुनः । विजहास महादेवो भक्तवत्सल ऊतिकृत् ॥ १३ ॥ उसके पश्चात् अर्जुनने उन्हें अपनेसे अधिक बलवान् जानकर शिवजीके चरणोंका स्मरणकर तथा उनके ध्यानसे विशेष बल प्राप्तकर भीलके दोनों चरणोंको पकड़ लिया । ज्यों ही चरण पकड़कर अर्जुन उन्हें आकाशमें घुमाने लगे, तभी लीला करनेवाले भक्तवत्सल भगवान् शिव हँस पड़े ॥ १२-१३ ॥ दातुं स्वदासतां तस्मै भक्तवश्यतया मुने । शिवेनैव कृतं ह्येतच्चरितं नान्यथा भवेत् ॥ १४ ॥ पश्चाद्विहस्य तत्रैव शंकरो रूपमद्भुतम् । दर्शयामास सहसा भक्तवश्यतया शुभम् ॥ १५ ॥ हे मुने ! भक्तके अधीन रहनेवाले शिवजीने अर्जुनको अपना दास्य प्रदान करनेके लिये जो यह चरित्र किया, वह अन्यथा कैसे हो सकता है । इसके बाद भक्तवश्यताके कारण शिवजीने हँसकर अपना अद्भुत सुन्दर रूप अर्जुनके सामने प्रकट किया ॥ १४-१५ ॥ यथोक्तं वेदशास्त्रेषु पुराणे पुरुषोत्तमम् । व्यासोपदिष्टं ध्यानाय तस्य यत्सर्वसिद्धिदम् ॥ १६ ॥ तद्दृष्ट्वा सुंदरं रूपं ध्यानप्राप्तं शिवस्य तु । बभूव विस्मितोऽतीव ह्यर्जुनो लज्जितः स्वयम् ॥ १७ ॥ अहो शिवः शिवः सोय यो मे प्रभुतया वृतः । त्रिलोकेशः स्वयं साक्षाद् हा कृतं किं मयाऽधुना ॥ १८ ॥ हे पुरुषोत्तम ! वेद-शास्त्रोंमें तथा पुराणोंमें उनके जिस रूपका वर्णन है और व्यासजीने अर्जुनको ध्यानके लिये जिस रूपका उपदेश दिया था, जिसके दर्शनमात्रसे सारी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । [उसी प्रकारका रूप धारणकर शिवजी प्रकट हुए] अर्जुन जिस रूपका ध्यान करते थे, उसी सुन्दर रूपको अपने सामने प्रत्यक्ष प्रकट देखकर वे अत्यन्त विस्मित तथा लज्जित हो उठे और मनमें कहने लगे-अहो ! यह तो परम कल्याणकारी वे शिवजी ही हैं, जिन्हें मैंने अपना स्वामी स्वीकार किया है । ये तो स्वयं त्रिलोकीके साक्षात् ईश्वर हैं; यह मैंने आज क्या कर डाला ! ॥ १६-१८ ॥ प्रभोर्बलवती माया मायिनामपि मोहिनी । किं कृतं रूपमाच्छाद्य प्रभुणा छलितो ह्यहम् ॥ १९ ॥ निश्चय ही भगवान् शिवकी माया बड़ी बलवती है, जो बड़े-बड़े मायाविदोंको मोह लेती है । इन्होंने अपना रूप छिपाकर मेरे साथ इस प्रकारका छल क्यों किया; निश्चय ही मैं इनके द्वारा छला गया हूँ ॥ १९ ॥ धियेति संविचार्यैव साञ्जलिर्नतमस्तकः । प्रणनाम प्रभुं प्रीत्या तदोवाच स खिन्नधीः ॥ २० ॥ इस प्रकार अपने मनमें विचारकर अर्जुनने हाथ जोड़कर सिर झुकाकर और खिन्न मनसे भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और उनसे कहा- ॥ २० ॥ अर्जुन उवाच - देवदेव महादेव करुणाकर शंकर । ममापराधः सर्वेश क्षन्तव्यश्च त्वया पुनः ॥ २१ ॥ किं कृतं रूपमाच्छाद्य च्छलितोऽस्मि त्वयाधुना । धिङ् मां समरकर्तारं स्वामिना भवता प्रभो ॥ २२ ॥ अर्जुन बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे करुणाकर ! हे शंकर ! हे सर्वेश ! मैं आपका अपराधी हूँ, मुझे क्षमा कीजिये । हे प्रभो ! इस समय आपने यह क्या किया, जो अपना रूप छिपाकर मुझसे छल किया । हे प्रभो ! आपजैसे स्वामीसे युद्ध करते हुए मुझे लज्जा नहीं आयी मुझको धिक्कार है ! ॥ २१-२२ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्येवं पाण्डवः सोथ पश्चात्तापमवाप सः । पादयोर्निपपाताशु शंकरस्य महाप्रभोः ॥ २३ ॥ अथेश्वरः प्रसन्नात्मा प्रत्युवाचार्जुनं च तम् । समाश्वास्येति बहुशो महेशो भक्तवत्सलः ॥ २४ ॥ नन्दीश्वर बोले-[हे सनत्कुमार !] इस प्रकार पाण्डुपुत्र अर्जुन पश्चात्ताप करने लगे और तत्काल महाप्रभु शिवजीके चरणोंमें शीघ्र गिर पड़े । तदनन्तर भक्तवत्सल महेश्वरने प्रसन्न होकर अर्जुनको अनेक प्रकारसे आश्वासन दिया और उनसे कहा- ॥ २३-२४ ॥ शंकर उवाच - न खिद्य पार्थ भक्तोऽसि मम त्वं हि विशेषतः । परीक्षार्थं मया तेऽद्य कृतमेवं शुचं जहि ॥ २५ ॥ शिवजी बोले-हे पार्थ ! तुम खेद मत करो, तुम मेरे प्रिय भक्त हो; मैंने यह सारी लीला तुम्हारी परीक्षाके लिये की थी, तुम शोकका परित्याग कर दो ॥ २५ ॥ नंदीश्वर उवाच - इत्युक्त्वा तं स्वहस्ताभ्यामुत्थाप्य प्रभुरर्जुनम् । विलज्जं कारयामास गणैश्च स्वामिनो गणैः ॥ २६ ॥ पुनः शिवोऽर्जुनं प्राह पाण्डवं वीरसम्मतम् । हर्षयन् सर्वथा प्रीत्या शंकरो भक्तवत्सलः ॥ २७ ॥ नन्दीश्वर बोले-इस प्रकार कहकर प्रभु सदाशिवने स्वयं अपने हाथोंसे अर्जुनको उठाया और स्वामी [शिवजी]-के जैसे गुणोंवाले गणोंद्वारा उन [अर्जुन]की लज्जा दूर करायी । उसके अनन्तर भक्तवत्सल भगवान् शिव वीरोंमें माननीय पाण्डुपुत्र अर्जुनको प्रीतिसे पूर्णत: हर्षित करते हुए कहने लगे- ॥ २६-२७ ॥ शिव उवाच - हे पार्थ पाण्डवश्रेष्ठ प्रसन्नोस्मि वरं वृणु । प्रहारैस्ताडनैस्तेऽद्य पूजनं मानितं मया ॥ २८ ॥ इच्छया च कृतं मेऽद्य नापराधस्तवाधुना । नादेयं विद्यते तुभ्यं यदिच्छसि वृणीष्व तत् ॥ २९ ॥ ते शत्रुषु यशोराज्यस्थापनाय शुभं कृतम् । एतद्दुःखं न कर्तव्यं वैक्लव्यं च त्यजाखिलम् ॥ ३० ॥ शिवजी बोले-हे पाण्डवश्रेष्ठ ! हे पृथापुत्र अर्जुन ! मैं प्रसन्न हूँ, तुम वर माँगो । मैंने तुम्हारे द्वारा आज किये गये प्रहारों एवं सन्ताड़नोंको अपनी पूजा मान ली है । आज यह सब मैंने अपनी इच्छासे किया है, इसमें तुम्हारा कोई अपराध नहीं है, मुझे तुम्हारे लिये इस समय कुछ भी अदेय नहीं है, तुम जो चाहते हो, उसे माँग लो । मैंने शत्रुओंमें तुम्हारा यश तथा राज्य प्रतिष्ठित करनेके लिये [ही यह] कल्याणकर [कृत्य] किया है । तुम इस घटनाके लिये दुःख न मानो और अपनी सारी विकलताका त्याग करो ॥ २८-३० ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्तस्त्वर्जुनस्तेन प्रभुणा शंकरेण सः । उवाच शंकरं भक्त्या सावधानतया स्थितः ॥ ३१ ॥ नन्दीश्वर बोले-प्रभु शंकरजीके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर अर्जुन सावधान होकर भक्तिपूर्वक शिवजीसे कहने लगे- ॥ ३१ ॥ अर्जुन उवाच - भक्तप्रियस्य शम्भोस्ते सुप्रभो किं समीहितम् । वर्णनीयं मया देव कृपालुस्त्वं सदाशिव ॥ ३२ ॥ अर्जुन बोले-हे प्रभो ! आप भक्तप्रिय हैं, आपकी इच्छाका वर्णन मैं किस प्रकार कर सकता हूँ । हे सदाशिव ! आप कृपालु हैं [हर प्रकारसे भक्तोंपर दया करते हैं] ॥ ३२ ॥ इत्युक्त्वा संस्तुतिं तस्य शंकरस्य महाप्रभोः । चकार पाण्डवः सोथ सद्भक्तिं वेदसंमताम् ॥ ३३ ॥ [नन्दीश्वर बोले-] इस प्रकार कहकर वे पाण्डुपुत्र अर्जुन महाप्रभु सदाशिवकी वेदसम्मत तथा सद्भक्तियुक्त स्तुति करने लगे ॥ ३३ ॥ अर्जुन उवाच - नमस्ते देवदेवाय नमः कैलासवासिने । सदाशिव नमस्तुभ्यं पञ्चवक्त्राय ते नमः ॥ ३४ ॥ अर्जुन बोले-हे देवाधिदेव ! आपको नमस्कार है । कैलासवासी आपको नमस्कार है, सदाशिव ! आपको नमस्कार है, पाँच मुखबाले आपको नमस्कार है ॥ ३४ ॥ कपर्दिने नमस्तुभ्यं त्रिनेत्राय नमोऽस्तु ते । मनः प्रसन्नरूपाय सहस्रवदनाय च ॥ ३५ ॥ जटा-जूटधारी आपको नमस्कार है, त्रिनेत्र आपको नमस्कार है, प्रसन्न स्वरूपवाले आपको नमस्कार है । सहस्रमुख आपको नमस्कार है ॥ ३५ ॥ नीलकंठ नमस्तेस्तु सद्योजाताय वै नमः । वृषध्वज नमस्तेस्तु वामाङ्गगिरिजाय च ॥ ३६ ॥ दशदोष नमस्तुभ्यन्नमस्ते परमात्मने । डमरुकपालहस्ताय नमस्ते मुण्डमालिने ॥ ३७ ॥ हे नीलकण्ठ ! आपको नमस्कार है । सद्योजातरूप आपके लिये नमस्कार है । हे वृषभध्वज ! आपको नमस्कार है, वामभागमें पार्वतीको धारण करनेवाले आपको नमस्कार है । दस भुजावाले आपको नमस्कार है, परमात्मन् ! आपको नमस्कार है, हाथमें डमरू तथा कपाल लेनेवाले आपको नमस्कार है, मुण्डमालाधारी आपको नमस्कार है ॥ ३६-३७ ॥ शुद्धस्फटिकसंकाशशुद्धकर्पूरवर्ष्मणे । पिनाकपाणये तुभ्यं त्रिशूलवरधारिणे ॥ ३८ ॥ व्याघ्रचर्मोत्तरीयाय गजाम्बरविधारिणे । नागाङ्गाय नमस्तुभ्यं गंगाधर नमोस्तु ते ॥ ३९ ॥ शुद्ध स्फटिक तथा शुद्ध कर्पूरके समान उज्ज्वल गौरवर्णवाले आपको नमस्कार है । पिनाक नामक धनुष एवं श्रेष्ठ त्रिशूल धारण करनेवाले आपको नमस्कार है । व्याघ्रचर्मका उत्तरीय तथा गजचर्मका वस्त्र धारण करनेवाले आपको नमस्कार है । सर्पसे आवेष्टित अंगोवाले तथा सिरपर गंगाको धारण करनेवाले आपको नमस्कार है ॥ ३८-३९ ॥ सुपादाय नमस्तेऽस्तु आरक्तचरणाय च । नन्द्यादिगणसेव्याय गणेशाय च ते नमः ॥ ४० ॥ नमो गणेशरूपाय कार्तिकेयानुगाय च । भक्तिदाय च भक्तानां मुक्तिदाय नमो नमः ॥ ४१ ॥ सुन्दर पैरवाले आपको नमस्कार है । अरुणाभ चरणोंवाले आपको नमस्कार है । नन्दी आदि प्रमुख गोंसे सेवित आपको नमस्कार है । गणेशरूप आपको नमस्कार है । कार्तिकेयके अनुगामी आपको नमस्कार है, भक्तोंको भक्ति देनेवाले तथा [मुमुक्षुओंको] मुक्ति देनेवाले आपको नमस्कार है ॥ ४०-४१ ॥ अगुणाय नमस्तेस्तु सगुणाय नमो नमः । अरूपाय सरूपाय सकलायाकलाय च ॥ ४२ ॥ नमः किरातरूपाय मदनुग्रहकारिणे । युद्धप्रियाय वीराणां नानालीलानुकारिणे ॥ ४३ ॥ गुणरहित आपको नमस्कार है, सगुणरूपधारी आपको नमस्कार है । अरूप, सरूप, सकल एवं अकल आपको नमस्कार है । किरातरूप धारणकर मुझपर अनुग्रह करनेवाले, वीरोंसे प्रीतिपूर्वक युद्ध करनेवाले एवं [नटकी भति] अनेक प्रकारकी लीला दिखानेवाले आपको नमस्कार है ॥ ४२-४३ ॥ यत्किञ्चिद्दृश्यते रूपं तत्तेजस्तावकं स्मृतम् । चिद्रूपस्त्वं त्रिलोकेषु रमसेन्वयभेदतः ॥ ४४ ॥ गुणानां ते न संख्यास्ति यथा भूरजसामिह । आकाशे तारकाणां हि कणानां वृष्ट्यपामपि ॥ ४५ ॥ इस त्रिलोकीमें जो भी रूप दिखायी देता है, वह आपका ही तेज कहा गया है । आप ज्ञानस्वरूप हैं और शरीरभेदसे रमण करते हैं । हे प्रभो ! जिस प्रकार संसारमें पृथ्वीके रजकण, आकाशके तारे तथा वृष्टिकी बूंदें असंख्य हैं, उसी प्रकार आपके गुण भी असंख्य हैं ॥ ४४-४५ ॥ न ते गुणास्तु संख्यातुं वेदा वै सम्भवन्ति हि । मन्दबुद्धिरहं नाथ वर्णयामि कथं पुनः ॥ ४६ ॥ सोऽसि योऽसि नमस्तेऽस्तु कृपां कर्तुमिहार्हसि । दासोहं ते महेशान स्वामी त्वं मे महेश्वर ॥ ४७ ॥ हे नाथ ! आपके गुणोंकी गणना करनेमें तो बेद भी असमर्थ हैं, मैं तो मन्दबुद्धि ही हूँ । आपके गुणोंका वर्णन कैसे करूँ ? हे महेश्वर ! आप जो हैं, सो हैं, आपको नमस्कार है । हे महेशान ! मैं आपका सेवक हूँ, आप मेरे स्वामी हैं, अतः मुझपर कृपा कीजिये ॥ ४६-४७ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इति श्रुत्वा वचस्तस्य पुनः प्रोवाच शंकर । सुप्रसन्नतरो भूत्वा विहसन्प्रभुरर्जुनम् ॥ ४८ ॥ नन्दीश्वर बोले-अर्जुनके द्वारा की गयी स्तुतिको सुनकर परम प्रसन्न हुए भगवान् सदाशिवने हँसकर अर्जुनसे फिर कहा- ॥ ४८ ॥ शंकर उवाच - वचसा किम्बहूक्तेन शृणुष्व वचनं मम । शीघ्रं वृणु वरं पुत्र सर्वं तच्च ददामि ते ॥ ४९ ॥ शिवजी बोले-हे पुत्र ! बारंबार कहनेसे क्या प्रयोजन, मेरी बात सुनो । तुम शीघ्र ही मुझसे वर माँगो, मैं तुम्हें वह सब कुछ दूंगा ॥ ४९ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्तश्चार्जुनस्तेन प्रणिपत्य सदाशिवम् । साञ्जलिर्नतकः प्रेम्णा प्रोवाच गद्गदाक्षरम् ॥ ५० ॥ नन्दीश्वर बोले-शिवजीका यह वचन सुनकर अर्जुनने सदाशिवको हाथ जोड़कर प्रणाम किया और सिर झुका करके प्रेमपूर्वक गद्गद वाणीसे कहा- ॥ ५० ॥ अर्जुन उवाच - किं ब्रूयां त्वं च सर्वेषामन्तर्यामितया स्थितः । तथापि वर्णितं मेऽद्य श्रूयतां च त्वया विभो ॥ ५१ ॥ शत्रूणां संकटं यच्च तद्गतं दर्शनात्तव । ऐहिकीं च परां सिद्धिं प्राप्नुयां वै तथा कुरु ॥ ५२ ॥ अर्जुन बोले-हे प्रभो ! आप तो सबके अन्त:करणमें अन्तर्यामीरूपसे स्थित हैं, अतः आपसे क्या कहूँ । आप सब कुछ जानते हैं, फिर भी मैं आपसे जो प्रार्थना करता हूँ, उसे सुनिये । आपके दर्शनसे शत्रुओंसे उत्पन्न होनेवाला जो मेरा संकट था, वह दूर हो गया । अब मैं जिस प्रकार इस लोकमें सर्वश्रेष्ठ सिद्धि प्राप्त की, वैसा उपाय कीजिये ॥ ५१-५२ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्त्वा तं नमस्कृत्य शंकरं भक्तवत्सलम् । नतस्कन्धोऽर्जुनस्तत्र बद्धाञ्जलिरुपस्थितः ॥ ५३ ॥ नन्दीश्वर बोले-ऐसा कहकर विनम्र हो हाथ जोड़कर अर्जुन नमस्कार करके भक्तवत्सल भगवान शिवके सन्निकट स्थित हो गये ॥ ५३ ॥ शिवोपि च तथाभूतं ज्ञात्वा पाण्डवमर्जुनम् । निजभक्तवरं स्वामी महातुष्टो बभूव ह ॥ ५४ ॥ स्वामी शिवजी भी पाण्डुपुत्र अर्जुनको इस प्रकार अपना परमभक्त जानकर बहुत सन्तुष्ट हो गये ॥ ५४ ॥ अस्त्रं पाशुपतं स्वीयन्दुर्जयं सर्वदाखिलैः । ददौ तस्मै महेशानो वचनश्चेदमब्रवीत् ॥ ५५ ॥ उन्होंने प्रसन्न होकर सभीके लिये सर्वदा दुर्जेय अपना पाशुपत अस्त्र अर्जुनको प्रदान किया और यह वचन कहा- ॥ ५५ ॥ शिव उवाच - स्वं महास्त्रं मया दत्तं दुर्जयस्त्वं भविष्यति । अनेन सर्वशत्रूणां जयकृत्यमवाप्नुहि ॥ ५६ ॥ कृष्णं च कथयिष्यामि साहाय्यं ते करिष्यति । स वै ममात्मभूतश्च मद्भक्तः कार्यकारकः ॥ ५७ ॥ शिवजी बोले-मैंने अपना यह महान् पाशुपतअस्त्र तुम्हें प्रदान किया । [हे अर्जुन !] तुम इससे दुर्जेय हो जाओगे, तुम इस अस्त्रकी सहायतासे शत्रुओंपर विजय प्राप्त करो । मैं स्वयं श्रीकृष्णसे कहूँगा कि वे तुम्हारी सहायता करें । वे मेरे भक्त तथा मेरी आत्मा हैं और कार्य करनेमें सर्वथा समर्थ हैं ॥ ५६-५७ ॥ मत्प्रभावान्भारत त्वं राज्यं निकण्टकं कुरु । धर्म्यान्नानाविधान्भ्रात्रा कारय त्वं च सर्वदा ॥ ५८ ॥ हे भारत ! अब तुम मेरे प्रभावसे निष्कण्टक राज्य करो और अपने भ्राता [युधिष्ठिर]-से सर्वदा नाना प्रकारका धर्माचरण कराते रहो ॥ ५८ ॥ नन्दीश्वर उवाच - इत्युक्त्वा निजहस्तं च धृत्वा शिरसि तस्य सः । पूजितो ह्यर्जुनेनाशु शंकरोऽन्तरधीयत ॥ ५९ ॥ अथार्जुनः प्रसन्नात्मा प्राप्यास्त्रं च वरं प्रभोः । जगाम स्वाश्रमे मुख्यं स्मरन्भक्त्या गुरुं शिवम् ॥ ६० ॥ नन्दीश्वर बोले-ऐसा कहकर उन शिवने अर्जुनके सिरपर अपना हाथ रखा और उनसे पूजित होकर वे तत्काल अन्तर्धान हो गये और प्रसन्न मनवाले अर्जुन भी प्रभुसे श्रेष्ठ पाशुपतास्त्र प्राप्तकर भक्तिपूर्वक गुरुवर शिवजीका स्मरण करते हुए अपने आश्रमको चले गये ॥ ५९-६० ॥ सर्वे ते भ्रातरः प्रीतास्तन्वः प्राणमिवागतम् । मिलित्वा तं सुखं प्रापुर्द्रौपदी चातिसुव्रता ॥ ६१ ॥ जिस प्रकार शरीरमें पुनः प्राण आ जाता है, उसी प्रकार अर्जुनको आया देख [युधिष्ठिर आदि] सभी भाई प्रसन्न हो गये और पतिव्रता द्रौपदीको भी अर्जुनके दर्शनसे सुखकी प्राप्ति हुई ॥ ६१ ॥ शिवं परं च सन्तुष्टं पाण्डवाः सर्व एव हि । नातृप्यन्सर्ववृत्तान्तं श्रुत्वा हर्षमुपागताः ॥ ६२ ॥ सभी पाण्डव परमात्मा शिवजीको प्रसन्न जानकर आनन्दित हो गये तथा अर्जुनसे सारा समाचार सुनकर [भी उस वृत्तान्त-श्रवणसे] तृप्त नहीं हुए ॥ ६२ ॥ आश्रमे पुष्पवृष्टिश्च चन्दनेन समन्विता । पपात सुकरार्थं च तेषाञ्चैव महात्मनाम् ॥ ६३ ॥ उस समय उन महात्मा पाण्डवोंके आश्रममें उनका मंगल प्रदर्शित करनेके लिये चन्दनयुक्त फूलोंकी वर्षा होने लगी ॥ ६३ ॥ धन्यं च शंकरं चैव नमस्कृत्य शिवं मुदा । अवधिं चागतं ज्ञात्वा जयश्चैव भविष्यति ॥ ६४ ॥ उन लोगोंने भगवान् शंकरको धन्य-धन्य कहते हुए आनन्दके साथ नमस्कार किया और अपने वनवासकी अवधिको समाप्त जानकर यह समझ लिया कि अब अवश्य ही हमलोगोंकी विजय होगी ॥ ६४ ॥ एतस्मिन्नन्तरे कृष्णः श्रुत्वार्जुनमथागतम् । मेलनाय समायातः श्रुत्वा सुखमुपागतः ॥ ६५ ॥ इसी समय अर्जुनको आश्रमपर आया हुआ जानकर श्रीकृष्ण उनसे मिलनेके लिये आये और सारा वृत्तान्त जानकर हर्षित हुए [और कहने लगे-] ॥ ६५ ॥ अतश्चैव मयाख्यातः शंकरः सर्वदुःखहा । स सेव्यते मया नित्यं भवद्भिरपि सेव्यताम् ॥ ६६ ॥ इत्युक्तस्ते किराताह्वोऽवतारः शंकस्य वै । तं श्रुत्वा श्रावयन्वापि सर्वान्कामानवाप्नुयात् ॥ ६७ ॥ इसीलिये तो मैंने कहा था कि शंकर सभी दुःखोंको नष्ट करनेवाले हैं । मैं उनकी सेवा नित्य करता हूँ, आपलोग भी नित्य उनकी सेवा करें । [हे सनत्कुमार !] इस प्रकार मैंने किरातेश्वर नामक शिवावतारका वर्णन आपसे किया, उसको सुनकर अथवा सुनाकर भी मनुष्य अपने समस्त मनोरथोंको प्राप्त कर लेता है ॥ ६६-६७ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां किरातेश्वरावतारवर्णनं नामैकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४१ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें किरातेश्वरावतारवर्णन नामक इकतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४१ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |