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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ तृतीया शतरुद्रसंहितायां
द्विचत्वारिंशोऽध्यायः द्वादशज्योतिर्लिंगावतारवर्णनम् -
भगवान् शिवके द्वादश ज्योतिर्लिगरूप अवतारोंका वर्णन - नन्दीश्वर उवाच - अवताराञ्छृणु विभोर्द्वादशप्रमितान्परान् । ज्योतिर्लिङ्गस्वरूपान्वै नानोतिकारकान्मुने ॥ १ ॥ नन्दीश्वरजी बोले-[हे सनत्कुमार !] हे मुने ! अब अनेक प्रकारकी लीला करनेवाले परमात्मा शिवजीके ज्योतिर्लिंगरूप द्वादशसंख्यक अवतारोंको सुनिये ॥ १ ॥ सौराष्ट्रे सोमनाथश्च श्रीशैले मल्लिकार्जुनः । उज्जयिन्यां महाकाल ओंकारे चामरेश्वरः ॥ २ ॥ केदारो हिमवत्पृष्टे डाकिन्यां भीमशंकरः । वाराणस्यां च विश्वेशस्त्र्यम्बको गौतमीतटे ॥ ३ ॥ वैद्यनाथश्चिताभूमौ नागेशो दारुकावने । सेतुबन्धे च रामेशो घुश्मेशश्च शिवालये ॥ ४ ॥ सौराष्ट्रमें सोमनाथ, श्रीशैलपर मल्लिकार्जुन, उजयिनीमें महाकाल, ॐकारमें अमरेश्वर, हिमालयपर केदारेश्वर, डाकिनीमें भीमशंकर, काशीमें विश्वनाथ, गौतमीतटपर त्र्यम्बकेश्वर, चिताभूमिमें वैद्यनाथ, दारुकावनमें नागेश्वर, सेतुबन्धमें रामेश्वर एवं शिवालयमें घुश्मेश्वर*-[ये बारह शिवजीके ज्योतिर्लिंगस्वरूप अवतार हैं] ॥ २-४ ॥ अवतारद्वादशकमेतच्छम्भोः परात्मनः । सर्वानन्दकरं पुंसां दर्शनात्स्पर्शनान्मुने ॥ ५ ॥ हे मुने ! ये परमात्मा शिवके बारह ज्योतिर्लिंगावतार दर्शन तथा स्पर्शसे पुरुषोंका कल्याण करनेवाले हैं ॥ ५ ॥ तत्राद्यः सोमनाथो हि चन्द्रदुःखक्षयंकरः । क्षयकुष्ठादिरोगाणां नाशकः पूजनान्मुने ॥ ६ ॥ शिवावतारः सोमेशो लिंगरूपेण संस्थितः । सौराष्ट्रे शुभदेशे च शशिना पूजितः पुरा ॥ ७ ॥ इन द्वादश ज्योतिर्लिंगोंमें प्रथम सोमनाथ नामक ज्योतिर्लिंग चन्द्रमाके दुःखका नाश करनेवाला है, उसके पूजनसे क्षय और कुष्ठ आदि रोगोंका विनाश होता है । यह सोमेश नामक शिवावतार सुन्दर सौराष्ट्रदेशमें लिंगरूपसे स्थित है, पूर्वकालमें चन्द्रमाने इसकी पूजा की थी ॥ ६-७ ॥ चंद्रकुण्डं च तत्रैव सर्वपापविनाशकम् । तत्र स्नात्वा नरो धीमान्सर्वरोगैः प्रमुच्यते ॥ ८ ॥ वहींपर चन्द्रकुण्ड है, जो समस्त पापोंका नाश करनेवाला है । बुद्धिमान् पुरुष वहाँ स्नान करनेमात्रसे सभी प्रकारके रोगोंसे छुटकारा पा जाता है ॥ ८ ॥ सोमेश्वरं महालिंगं शिवस्य परमात्मकम् । दृष्ट्वा प्रमुच्यते पापाद्भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥ ९ ॥ शिवजीके परमात्मस्वरूप महालिंग सोमेश्वरका दर्शन करनेसे मनुष्य पापोंसे मुक्त हो जाता है और भोग तथा मोक्ष प्राप्त करता है ॥ ९ ॥ मल्लिकार्जुनसञ्ज्ञश्चावतारः शंकरस्य वै । द्वितीयः श्रीगिरौ तात भक्ताभीष्टफलप्रदः ॥ १० ॥ संस्तुतो लिङ्गरूपेण सुतदर्शनहेतुतः । गतस्तत्र महाप्रीत्या स शिवः स्वगिरेर्मुने ॥ ११ ॥ हे तात ! शिवका मल्लिकार्जुन नामक दूसरा अवतार श्रीशैलपर हुआ था, जो भक्तोंको मनोवांछित फल प्रदान करता है । हे मुने ! वे भगवान् शिव कैलासपर्वतसे पुत्र [कार्तिकेय]-को देखनेके लिये अत्यन्त प्रीतिपूर्वक श्रीशैलपर गये और वहाँ लिंगरूपसे [भक्तोंके द्वारा] संस्तुत हुए ॥ १०-११ ॥ ज्योतिर्लिंगं द्वितीयं तद्दर्शनात्पूजनान्मुने । महासुखकरं चान्ते मुक्तिदन्नात्र संशयः ॥ १२ ॥ हे मुने ! उस द्वितीय ज्योतिर्लिंगकी पूजा करनेसे महान् सुखकी प्राप्ति होती है और अन्त समयमें वह निःसन्देह मुक्ति प्रदान करता है ॥ १२ ॥ महाकालाभिधस्तातावतारः शंकरस्य वै । उज्जयिन्यां नगर्यां च बभूव स्वजनावनः ॥ १३ ॥ दूषणाख्यासुरं यस्तु वेदधर्मप्रमर्दकम् । उज्जयिन्यां गतं विप्रद्वेषिणं सर्वनाशनम् ॥ १४ ॥ वेदविप्रसुतध्यातो हुङ्कारेणैव स द्रुतम् । भस्मसात्कृतवांस्तं च रत्नमाल निवासिनम् ॥ १५ ॥ हे तात । शिवजीका तीसरा महाकाल नामक अवतार उज्जयिनीमें अपने भक्तोंकी रक्षाके लिये हुआ था । पूर्वकालमें रत्नमाला [नामक स्थान]-पर निवास करनेवाला, वेदोक्त धर्मका विध्वंसक, सर्वनाशक, ब्राह्मणद्वेषी दूषण नामक असुर उज्जयिनी गया । तब वेद नामक ब्राह्मणके पुत्रने शिवजीका ध्यान किया । तब [प्रकट हुए] उन शिवजीने उस असुरको हुंकारमात्रसे उसी समय भस्म कर दिया था ॥ १३-१५ ॥ तं हत्वा स महाकालो ज्योतिर्लिंगस्वरूपतः । देवैः स प्रार्थितोऽतिष्ठत्स्वभक्तपरिपालकः ॥ १६ ॥ महाकालाह्वयं लिंगं दृष्ट्वाभ्यर्च्य प्रयत्नतः । सर्वान्कामानवाप्नोति लभते परतो गतिम् ॥ १७ ॥ इस प्रकार उस दैत्यको मारकर देवगणोंसे प्रार्थित होकर अपने भक्तजनोंकी रक्षाके लिये वे महाकाल नामक ज्योतिर्लिंगस्वरूपसे वहीं उज्जयिनीमें प्रतिष्ठित हुए । इस महाकाल नामक ज्योतिर्लिंगके दर्शन तथा यत्नपूर्वक पूजनसे सभी कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं और अन्तमें उत्तम गतिकी प्राप्ति होती है ॥ १६-१७ ॥ ओङ्कारः परमेशानो धृतः शम्भो परात्मनः । अवतारश्चतुर्थो हि भक्ताभीष्टफलप्रदः ॥ १८ ॥ परमात्मा शिवजीके द्वारा धारण किया गया परमैश्वयंसम्पन्न चौथा अवतार ॐकारेश्वर नामसे प्रसिद्ध है, जो भक्तोंको इच्छित फल देनेवाला है ॥ १८ ॥ विधिना स्थापितो भक्त्या स्वलिङ्गात्पार्थिवान्मुने । प्रादुर्भूतो महादेवो विन्ध्यकामप्रपूरकः ॥ १९ ॥ विन्ध्यके द्वारा भक्तिभावसे विधिपूर्वक पार्थिव लिंग स्थापित किया गया, जिससे विन्ध्यकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले वे महादेव आविर्भूत हुए ॥ १९ ॥ देवैः संप्रार्थितस्तत्र द्विधारूपेण संस्थितः । भुक्तिमुक्तिप्रदो लिंगरूपो वै भक्तवत्सल ॥ २० ॥ देवगणोंके द्वारा प्रार्थना किये जानेपर शिवजी वहाँ दो रूपोंमें स्थित हो गये । [हे मुनीश्वर !] लिंगरूपसे स्थित हुए वे भक्तोंपर कृपा करनेवाले और भोग तथा मोक्ष देनेवाले हैं ॥ २० ॥ प्रणवे चैव चोङ्कारनामासील्लिंगमुत्तमम् । परमेश्वरनामासीत्पार्थिवश्च मुनीश्वर ॥ २१ ॥ भक्ताभीष्टप्रदो ज्ञेयो योपि दृष्टोर्चितो मुने । ज्योतिर्लिंगे महादिव्ये वर्णिते ते महामुने ॥ २२ ॥ हे मुनीश्वर ! प्रणवमें ओंकार नामसे स्थित शिव ओंकारेश्वर नामसे प्रसिद्ध हैं और पार्थिव लिंग परमेश्वर नामसे प्रसिद्ध है, हे महामुने ! इनके दर्शन तथा पूजन करनेसे भक्तोंको अभीष्ट फलकी प्राप्ति होती है । इस प्रकार मैंने आपसे चतुर्थ स्थानीय ॐकारेश्वर तथा परमेश्वर ज्योतिर्लिंगोंका वर्णन किया ॥ २१-२२ ॥ केदारेशोवतारस्तु पञ्चमः परमः शिवः । ज्योतिर्लिंगस्वरूपेण केदारे संस्थितस्य च ॥ २३ ॥ नरनारायणाख्यौ याववतारौ हरेर्मुने । तत्प्रार्थितः शिवस्तत्स्थैः केदारे हिमभूधरे ॥ २४ ॥ परमशिवका पाँचवाँ अवतार केदारेश नामवाला है, यह ज्योतिलिंगरूपसे केदारक्षेत्रमें स्थित है । हे मुने ! विष्णुके जो नर-नारायण नामक अवतार हैं, उनके द्वारा तथा वहाँकै निवासियोंद्वारा प्रार्थना किये जानेपर वे शिव हिमालयके केदार नामक स्थानपर स्थित हुए । २३-२४ ॥ ताभ्यां च पूजितो नित्यं केदारेश्वरसञ्ज्ञकः । भक्ताभीष्टप्रदः शम्भुर्दर्शनादर्चनादपि ॥ २५ ॥ उन दोनोंने ही इन केदारेश्वर नामक ज्योतिर्लिंगकी पूजा की थी । ये केदारेश्वर नामक शिव दर्शन तथा अर्चनसे भक्तोंके मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले हैं ॥ २५ ॥ अस्य खण्डस्य स स्वामी सर्वेशोपि विशेषतः । सर्वकामप्रदस्तात सोवतारः शिवस्य वै ॥ २६ ॥ भीमशंकरसञ्ज्ञस्तु षष्ठः शम्भोर्महाप्रभोः । अवतारो महालीलो भीमासुरविनाशनः ॥ २७ ॥ हे तात ! शिवजीका यह केदारसंज्ञक अवतार सर्वेश्वर होनेपर भी इस केदारखण्डका विशेषरूपसे स्वामी है, जो भक्तोंकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करनेवाला है । शिवजीका छठा ज्योतिर्लिंगावतार भीमशंकर नामसे प्रसिद्ध है । यह अवतार महान् लीला करनेवाला है और भीम नामक असुरका विनाशक है ॥ २६-२७ ॥ सुदक्षिणाभिधं भक्तं कामरूपेश्वरन्नृपम् । यो ररक्षाद्भुतं हत्वासुरं तं भक्तदुःखदम् ॥ २८ ॥ इन्हीं भीमशंकरने भक्तोंको दुःख देनेवाले [भीम नामक अद्भुत दैत्यको मारकर कामरूप देशके सुदक्षिण नामक भक्त राजाकी रक्षा की थी ॥ २८ ॥ भीमशङ्करनामा स डाकिन्यां संस्थितः स्वयम् । ज्योतिर्लिंगस्वरूपेण प्रार्थितस्तेन शंकरः ॥ २९ ॥ इसलिये वे राजाद्वारा प्रार्थना किये जानेपर भीमशंकर नामक ज्योतिर्लिंगके रूपसे उस डाकिनी नामक स्थानमें स्वयं प्रतिष्ठित हुए ॥ २९ ॥ विश्वेश्वरावतारस्तु काश्यां जातो हि सप्तमः । सर्वब्रह्माण्डरूपश्च भुक्तिमुक्तिप्रदो मुने ॥ ३० ॥ हे मुने ! शिवजीका सातवाँ विश्वेश्वर नामक अवतार काशीमें हुआ । जो समस्त ब्रह्माण्डका स्वरूप है एवं भोग तथा मोक्षको देनेवाला है ॥ ३० ॥ पूजितः सर्वदेवैश्च भक्त्या विष्ण्वादिभिः सदा । कैलासपतिना चापि भैरवेणापि नित्यशः ॥ ३१ ॥ विष्णु आदि समस्त देवोंने इस विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंगका पूजन किया और कैलासपति भैरव तो इनकी नित्य ही पूजा करते हैं ॥ ३१ ॥ ज्योतिर्लिंगस्वरूपेण संस्थितस्तत्र मुक्तिदः । स्वयं सिद्धस्वरूपो हि तथा स्वपुरि स प्रभुः ॥ ३२ ॥ स्वयं सिद्धस्वरूप ये प्रभु अपनी [काशी] पुरीमें ज्योतिर्लिंगस्वरूपसे विराजमान हैं तथा [मुमुक्षुओंको] वहाँपर मुक्ति प्रदान कर रहे हैं ॥ ३२ ॥ काशीविश्वेशयोर्भक्त्या तन्नामजपकारकाः । निर्लिप्ताः कर्मभिर्नित्यंकैवल्यपदभागिनः ॥ ३३ ॥ जो लोग भक्तिपूर्वक काशी तथा विश्वेश्वरके नामका निरन्तर जप करते हैं, वे कर्मोसे सर्वदा निर्लिप्त रहकर कैवल्यपदके भागी होते हैं ॥ ३३ ॥ त्र्यंबकाख्योऽवतारो यः सोऽष्टमो गौतमीतटे । प्रार्थितो गौतमेनाविर्बभूव शशिमौलिनः ॥ ३४ ॥ गौतमस्य प्रार्थनया ज्योतिर्लिंङ्गस्वरूपतः । स्थितस्तत्राचलः प्रीत्या तन्मुनेः प्रीतिकाम्यया ॥ ३५ ॥ शिवजीका त्र्यम्बक नामक आठवाँ अवतार महर्षि गौतमके द्वारा प्रार्थना किये जानेपर गौतमीके तटपर हुआ और महर्षि गौतमद्वारा प्रार्थना किये जानेपर वहींपर उनकी प्रसन्नताके लिये शिवजी ज्योतिर्लिंगस्वरूपसे अचल होकर प्रेमपूर्वक प्रतिष्ठित हो गये ॥ ३४-३५ ॥ तस्य सन्दर्शनात्स्पर्शाद्दर्शनाच्च महेशितुः । सर्वे कामाः प्रसिध्यन्ति ततो मुक्तिर्भवेदहो ॥ ३६ ॥ उन महेश्वरके दर्शन, स्पर्श एवं अर्चनसे सभी कामनाएँ पूर्ण होती हैं और अन्तमें मुक्ति हो जाती है, यह आश्चर्यकारी है ॥ ३६ ॥ शिवानुग्रहतस्तत्र गंगा नाम्ना तु गौतमी । संस्थिता गौतमप्रीत्या पावनी शंकरप्रिया ॥ ३७ ॥ शिवके अनुग्रहसे वहाँपर गौतमके प्रीतिवश पवित्र करनेवाली शिवप्रिया गंगा गौतमी नामसे स्थित हैं ॥ ३७ ॥ वैद्यनाथावतारो हि नवमस्तत्र कीर्तितः । आविर्भूतो रावणार्थं बहुलीलाकरः प्रभुः ॥ ३८ ॥ तदानयनरूपं हि व्याजं कृत्वा महेश्वरः । ज्योतिर्लिंगस्वरूपेण चिताभूमौ प्रतिष्ठितः ॥ ३९ ॥ शिवजीका नौवाँ ज्योतिर्लिंगावतार वैद्यनाथेश्वर नामसे प्रसिद्ध है । नानाविध लीलाएँ करनेवाले वे प्रभु रावणके निमित्त प्रकट हुए थे । भगवान् महेश्वर रावणके द्वारा लाये जानेके बहाने चिताभूमिमें ज्योतिर्लिंगस्वरूपसे प्रतिष्ठित हो गये ॥ ३८-३९ ॥ वैद्यनाथेश्वरो नाम्ना प्रसिद्धोऽभूज्जगत्त्रये । दर्शनात्पूजनाद्भक्त्या भुक्तिमुक्तिप्रदः स हि ॥ ४० ॥ यह ज्योतिर्लिंग वैद्यनाथेश्वर नामसे तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध हुआ । भक्तिपूर्वक दर्शन और पूजन करनेसे निश्चय ही यह भोग तथा मोक्ष देनेवाला है ॥ ४० ॥ वैद्यनाथेश्वरशिवमाहात्म्यमनुशासनम् । पठतां शृण्वतां चापि भुक्तिमुक्तिप्रदं मुने ॥ ४१ ॥ नागेश्वरावतारस्तु दशमः परिकीर्तितः । आविर्भूतः स्वभक्तार्थं दुष्टानां दण्डदः सदा ॥ ४२ ॥ हे मुने ! वैद्यनाथेश्वर शिवके माहात्म्यरूप शास्त्रको पढ़ने तथा सुननेवालोंको भोग तथा मोक्ष दोनों प्राप्त होता है । शिवजीका दसवाँ अवतार नागेश्वर नामवाला कहा गया है, जो भक्तोंकी रक्षाके लिये आविर्भूत हुआ और सर्वदा दुष्टोंका दमन करता रहता है ॥ ४१-४२ ॥ हत्वा दारुकनामानं राक्षसं धर्मघातकम् । स्वभक्तं वैश्यनाथं च प्रारक्षत्सुप्रियाभिधम् ॥ ४३ ॥ लोकानामुपकारार्थं ज्योतिर्लिंगस्वरूपधृक् । सन्तस्थौ सांबिकः शम्भुर्बहुलीलाकरः परः ॥ ४४ ॥ धर्मनाशक दारुक नामक राक्षसको मारकर शिवजीने वैश्योंके स्वामी सुप्रिय नामक अपने भक्तकी रक्षा की थी । नाना प्रकारकी लीला करनेवाले वे परमात्मा साम्बसदाशिव लोकोंका कल्याण करनेके लिये ज्योतिर्लिंगस्वरूप धारणकर नागेश्वर नामसे वहींपर स्थित हो गये ॥ ४३-४४ ॥ तद्दृष्ट्वा शिवलिंगन्तु मुने नागेश्वराभिधम् । विनश्यन्ति द्रुतं चार्च्य महापातकराशयः ॥ ४५ ॥ रामेश्वरावतारस्तु शिवस्यैकादशः स्मृतः । रामचन्द्रप्रियकरो रामसंस्थापितो मुने ॥ ४६ ॥ हे मुने ! उस नागेश्वर नामक शिवलिंगका दर्शनपूजन करनेसे महापातकोंके समूह शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं । हे मुने ! शिवजीका ग्यारहवाँ अवतार रामेश्वर नामसे प्रसिद्ध है, जो रामचन्द्रका प्रिय करनेवाला है, यह रामचन्द्रके द्वारा स्थापित किया गया है । ४५-४६ ॥ ददौ जयवरं प्रीत्या यो रामाय सुतोषितः । आविर्भूतस्य लिङ्गस्तु शंकरो भक्तवत्सलः ॥ ४७ ॥ ज्योतिर्लिंगस्वरूपसे आविर्भूत हुए उन भक्तवत्सल भगवान् रामेश्वरने ही रामचन्द्रके द्वारा सन्तुष्ट किये जानेपर उनको विजयका वरदान दिया था ॥ ४७ ॥ रामेण प्रार्थितोऽत्यर्थं ज्योतिर्लिंगस्वरूपतः । सन्तस्थौ सेतुबन्धे च रामसंसेवितो मुने ॥ ४८ ॥ हे मुने ! रामचन्द्रजीद्वारा बहुत प्रार्थना करनेपर उनके द्वारा सेवित हुए शिवजी ज्योतिर्लिंगस्वरूपसे सेतुबन्धमें स्थित हो गये ॥ ४८ ॥ रामेश्वरस्य महिमाद्भुतोऽभूद्भुवि चातुलः । भुक्तिमुक्तिप्रदश्चैव सर्वदा भक्तकामदः ॥ ४९ ॥ रामेश्वरको महिमा इस पृथ्वीतलमें अद्भुत तथा अतुलनीय हुई, ये भोग तथा मोक्षको देनेवाले तथा भक्तोंके मनोरथको पूर्ण करनेवाले हैं ॥ ४९ ॥ तं च गंङ्गाजलेनैव स्नापयिष्यति यो नरः । रामेश्वरं च सद्भक्त्या स जीवन्मुक्त एव हि ॥ ५० ॥ जो मनुष्य रामेश्वरको उत्तम भक्तिपूर्वक गंगाजलसे स्नान कराता है, वह जीवन्मुक्त हो जाता है ॥ ५० ॥ इह भुक्त्वाखिलान्भोगान्देवतादुर्ल्लभानपि । अतः प्राप्य परं ज्ञानं कैवल्यं मोक्षमाप्नुयात् ॥ ५१ ॥ वह इस लोकमें देवताओंके लिये भी दुर्लभ सभी प्रकारके सुखोंका उपभोगकर अन्तमें उत्तम ज्ञान प्राप्तकर कैवल्यमोक्ष प्राप्त करता है ॥ ५१ ॥ घुश्मेश्वरावतारस्तु द्वादशः शंकरस्य हि । नानालीलाकरो घुश्मानन्ददो भक्तवत्सलः ॥ ५२ ॥ शिवजीका बारहवाँ अवतार घुश्मेश्वर नामसे प्रसिद्ध है, जो भक्तोंपर कृपा करनेवाला, अनेकविध लीला करनेवाला तथा घुश्माको आनन्द देनेवाला है ॥ ५२ ॥ दक्षिणस्यां दिशि मुने देवशैलसमीपतः । आविर्बभूव सरसि घुश्माप्रियकरः प्रभुः ॥ ५३ ॥ हे मुने ! दक्षिण दिशामें देवशैलके समीप स्थित सरोवरमें घुश्माका कल्याण करनेवाले प्रभु शिव प्रकट हुए थे ॥ ५३ ॥ सुदेह्यमारितं घुश्मापुत्रं साकल्यतो मुने । तुष्टस्तद्भक्तितः शम्भुर्योरक्षद्भक्तवत्सलः ॥ ५४ ॥ तत्प्रार्थितः स वै शम्भुस्तडागे तत्र कामदाः । ज्योतिर्लिंग स्वरूपेण तस्थौ घुश्मेश्वराभिधः ॥ ५५ ॥ हे मुने ! इन्हीं भक्तवत्सल शिवजीने सुदेहाद्वारा मारे गये घुश्माके पुत्रकी उसकी भक्तिसे प्रसन्न हो रक्षा की थी और घुश्माके द्वारा प्रार्थना किये जानेपर सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाले ये प्रभु घुश्मेश्वर नामसे उस सरोवरमें ज्योतिर्लिंग-स्वरूपसे स्थित हो गये ॥ ५४-५५ ॥ तन्दृष्ट्वा शिवलिंगं तु समभ्यर्च्य च भक्तितः । इह सर्वसुखं भुक्त्वा ततो मुक्तिं च विन्दति ॥ ५६ ॥ उस शिवलिंगका दर्शन एवं भक्तिपूर्वक पूजन करनेसे मनुष्य इस लोकमें सभी प्रकारका सुख भोगकर अन्तमें मुक्ति प्राप्त कर लेता है ॥ ५६ ॥ इति ते हि समाख्याता ज्योतिर्लिंगावली मया । द्वादशप्रमिता दिव्या भुक्तिमुक्तिप्रदायिनी ॥ ५७ ॥ [हे सनत्कुमार !] इस प्रकार मैंने भोग तथा मोक्ष देनेवाले इन दिव्य द्वादश ज्योतिर्लिंगोंका वर्णन आपसे कर दिया ॥ ५७ ॥ एतां ज्योतिर्लिंगकथां यः पठेच्छृणुयादपि । मुच्यते सर्वपापेभ्यो भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥ ५८ ॥ जो मनुष्य ज्योतिर्लिंगोंकी इस कथाको पढ़ता अथवा सुनता है, वह समस्त पापोंसे छूट जाता है और भोग तथा मोक्षको प्राप्त कर लेता है ॥ ५८ ॥ शतरुद्राभिदा चेयं वर्णिता संहिता मया । शतावतारःसत्कीर्तिः सर्वकामफलप्रदा ॥ ५९ ॥ मैंने शिवजीके सौ अवतारोंकी उत्तम कीर्तिसे पूर्ण तथा सभी मनोरथोंको पूर्ण करनेवाली इस शतरुद्र नामक संहिताका वर्णन कर दिया ॥ ५९ ॥ इमां यः पठते नित्यं शृणुयाद्वा समाहितः । सर्वान्कामानवाप्नोति ततो मुक्तिं लभेद्ध्रुवम् ॥ ६० ॥ जो एकाग्रचित्त होकर इसे नित्य पढ़ता अथवा सुनता है, उसकी समस्त कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं और उसके बाद वह मुक्तिको प्राप्त कर लेता है ॥ ६० ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे तृतीयायां शतरुद्रसंहितायां सनत्कुमारनन्दीश्वरसंवादे द्वादशज्योतिर्लिंगावतार- वर्णनं नाम द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४२ ॥ समाप्तेयं तृतीया शतरुद्रसंहिता ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहिताके सनत्कुमार-नन्दीश्वर-संवादमें द्वादशज्योतिलिंगावतारवर्णन नामक बयालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४२ ॥ तृतीय शतरुद्रसंहिता पूर्ण हुई । श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |