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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां

प्रथमोऽध्यायः

ज्योतिर्लिंगतदुपलिंग माहात्म्यवर्णनंम् -
भगवान् शिवके द्वादश ज्योतिर्लिगरूप अवतारोंका वर्णन -


यो धत्ते निजमाययैव भुवनाकारं विकारोज्झितो
यस्याहुः करुणाकटाक्षविभवौ स्वर्गापवर्गाभिधौ ।
प्रत्यग्बोधसुखाद्वयं हृदि सदा पश्यन्ति यं योगिन-
स्तस्मै शैलसुताञ्जितार्द्धवपुषे शश्वन्नमस्तेजसे ॥ १ ॥
जो निर्विकार होते हुए भी अपनी मायासे विराट विश्वका आकार धारण कर लेते हैं. स्वर्ग तथा अपवर्ग जिनके कृपाकटाक्षके वैभव बताये जाते हैं तथा योगीजन जिन्हें सदा अपने हृदयके भीतर आत्मज्ञानानन्दस्वरूपमें देखते हैं, उन तेजोमय भगवान् शंकरको, जिनका आधा शरीर शैलराजकुमारी पार्वतीसे सुशोभित है, निरन्तर मेरा नमस्कार है ॥ १ ॥

कृपाललितवीक्षणं स्मितमनोज्ञवक्त्राम्बुजं
शशांककलयोज्ज्वलं शमितघोरतापत्रयम् ।
करोतु किमपि स्फुरत्परमसौख्यसच्चिद्वपु-
र्धराधरसुताभुजोद्वलयितं महो मंगलम् ॥ २ ॥
जिसकी कृपापूर्ण चितवन बड़ी ही सुन्दर है, जिसका मुखारविन्द मन्द मुसकानकी छटासे अत्यन्त मनोहर दिखायी देता है, जो चन्द्रमाकी कलासे परम उज्वल है, जो तीनों भीषण तापोंको शान्त कर देने में समर्थ है, जिसका स्वरूप सच्चिन्मय एवं परमानन्दरूपसे प्रकाशित होता है तथा जो गिरिराजनन्दिनी पार्वतीके भुजपाशसे आवेष्टित है, वह [शिव नामक] कोई [अनिर्वचनीय] तेज:पुंज सबका मंगल करे ॥ २ ॥

ऋषय ऊचुः -
सम्यगुक्तं त्वया सूत लोकानां हितकाम्यया ।
शिवावतारमाहात्म्यं नानाख्यानसमन्वितम् ॥ ३ ॥
पुनश्च कथ्यतां तात शिवमाहात्म्यमुत्तमम् ।
लिंगसम्बन्धि सुप्रीत्या धन्यस्त्वं शैवसत्तमः ॥ ४ ॥
ऋषिगण बोले-हे सूत ! आपने लोकका कल्याण करनेके निमित्त अनेक प्रकारके आख्यानोंसे युक्त शिवजीके अवतारोंका माहात्य भलीभाँति कहा । अब हे तात ! आप शिवजीके लिंगसम्बन्धी माहातयका प्रेमपूर्वक वर्णन कीजिये । हे शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ ! आप धन्य हैं ॥ ३-४ ॥

शृण्वन्तस्त्वन्मुखाम्भोजान्न तृप्तास्स्मो वयं प्रभो ।
शैवं यशोऽमृतं रम्यं तदेव पुनरुच्यताम्। ॥ ५ ॥
हे प्रभो ! आपके मुखकमलसे शिवके अमृतरूप मनोहर यशको सुनते हुए हम लोग तृप्त नहीं हुए, अत: उसीको फिरसे कहिये ॥ ५ ॥

पृथिव्यां यानि यानि लिंगानि तीर्थेतीर्थे शुभानि हि ।
अन्यत्र वा स्थले यानि प्रसिद्धानि स्थितानि वै ॥ ६ ॥
तानि तानि च दिव्यानि लिंगानि परमेशितुः ।
व्यासशिष्य समाचक्ष्व लोकानां हितकाम्यया ॥ ७ ॥
इस पृथ्वीके सभी तीर्थों में जितने शुभ लिंग हैं, अथवा इस भूतलपर अन्यत्र भी जो प्रसिद्ध लिंग स्थित हैं, हे व्यासशिष्य ! लोकहितकी कामनासे परमेश्वर शिवके उन सभी दिव्य लिंगोंका वर्णन कीजिये ॥ ६-७ ॥

सूत उवाच -
साधुपृष्टमृषिश्रेष्ठ लोकानां हितकाम्यया ।
कथयामि भवत्स्नेहात्तानि संक्षेपतो द्विजाः ॥ ८ ॥
सूतजी बोले-हे ऋषिवरो ! आपलोगोंने लोकहितकी कामनासे अच्छी बात पूछी है, अतः हे द्विजो ! आपलोगोंके स्नेहसे मैं उन लिंगोंका वर्णन करता हूँ ॥ ८ ॥

सर्वेषां शिवलिंगानां मुने संख्या न विद्यते ।
सर्वं लिंगमयी भूमिः सर्वलिंगमयं जगत् ॥ ९ ॥
लिंगमयानि तीर्थानि सर्वं लिंगे प्रतिष्ठितम् ।
संख्या न विद्यते तेषां तानि किंचिद्ब्रवीम्यहम् ॥ १० ॥
हे मुने ! शिवजीके सम्पूर्ण लिंगोंकी [कोई निश्चित] संख्या नहीं है । क्योंकि यह समस्त पृथ्वी लिंगमय है और सारा जगत् लिंगमय है । सभी तीर्थ लिंगमय हैं; सारा प्रपंच लिंगमें ही प्रतिष्ठित है । यद्यपि उनकी कोई संख्या नहीं है, फिर [भी] मैं कुछ लिंगोंका वर्णन कर रहा हूँ ॥ ९-१० ॥

यत्किंचिद्दृश्यते दृश्यं वर्ण्यते स्मर्यते च यत् ।
तत्सर्वं शिवरूपं हि नान्यदस्तीति किंचन ॥ ११ ॥
तथापि श्रूयताम्प्रीत्या कथयामि यथाश्रुतम् ।
लिंगानि च ऋषिश्रेष्ठाः पृथिव्यां यानि तानि ह ॥ १२ ॥
इस जगत्में जो कुछ भी दृश्य देखा जाता है, कहा जाता है और [मनसे] स्मरण किया जाता है, वह सब शिवस्वरूप ही है । शिवके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है । फिर भी हे श्रेष्ठ ऋषिगण ! इस पृथ्वीपर जितने भी दिव्य लिंग हैं, जैसा कि मुझे ज्ञात है । उनको मैं बता रहा हूँ, आपलोग प्रेमपूर्वक सुनिये ॥ ११-१२ ॥

पाताले चापि वर्तन्ते स्वर्गे चापि तथा भुवि ।
सर्वत्र पूज्यते शम्भुः सदेवासुरमानुषैः ॥ १३ ॥
पातालमें, स्वर्गमें एवं पृथ्वीपर सभी जगह शिवलिंग हैं; क्योंकि देवता, असुर एवं मनुष्य-ये सभी शिवजीका पूजन करते हैं ॥ १३ ॥

त्रिजगच्छम्भुना व्याप्तं सदेवासुरमानुषम् ।
अनुग्रहाय लोकानां लिंगरूपेण सत्तमाः ॥ १४ ॥
अनुग्रहाय लोकानां लिंगानि च महेश्वरः ।
दधाति विविधान्यत्र तीर्थे चान्यस्थले तथा ॥ १५ ॥
हे महर्षियो । शिवजीने लोकोंके कल्याणार्थ ही लिंगरूपसे देव, मनुष्य तथा दैत्योंके सहित इस समस्त त्रिलोकीको व्याप्त कर रखा है । वे महेश्वर लोकोंके हितके लिये तीर्थ-तीर्थमें तथा अन्य स्थलोंमें भी विविध लिंगोंको धारण करते हैं ॥ १४-१५ ॥

यत्रयत्र यदा शंभुर्भक्त्या भक्तैश्च संस्मृतः ।
तत्रतत्रावतीर्याथ कार्यं कृत्वा स्थितस्तदा ॥ १६ ॥
लोकानामुपकारार्थं स्वलिंगं चाप्यकल्पयत् ।
तल्लिंगं पूजयित्वा तु सिद्धिं समधिगच्छति ॥ १७ ॥
जिस-जिस स्थानमें जब-जब शिवजीके भक्तोंने भक्तिपूर्वक उनका स्मरण किया है, उस समय उन-उन स्थानोंमें प्रकट होकर [भक्तजनोंका कार्य करके वे वहाँ स्थित हो गये । उन्होंने लोकोपकारार्थ अपने लिंगको प्रकट किया, उस लिंगका पूजन करके मनुष्य सिद्धिको प्राप्त होता है ॥ १६-१७ ॥

पृथिब्यां यानि लिंगानि तेषां संख्या न विद्यते ।
तथापि च प्रधानानि कथ्यते च मया द्विजाः ॥ १८ ॥
प्रधानेषु च यानीह मुख्यानि प्रवदाम्यहम् ।
यच्छ्रुत्वा सर्वपापेभ्यो मुच्यते मानवः क्षणात् ॥ १९ ॥
हे द्विजो ! पृथिवीपर जितने लिंग हैं, उनकी कोई गणना नहीं है, फिर भी मैं प्रधान लिंगोंको कहता हूँ । प्रधान लिंगोंमें जो [विशेषरूपसे] मुख्य लिंग हैं, उनको मैं कहता हूँ, जिनके सुननेसे मनुष्य उसी समय पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ १८-१९ ॥

ज्योतिर्लिंगानि यानीह मुख्यमुख्यानि सत्तम ।
तान्यहं कथयाम्यद्य श्रुत्वा पापं व्यपोहति ॥ २० ॥
हे मुनिसत्तम ! इस लोकमें मुख्योंमें भी मुख्य जितने ज्योतिर्लिंग हैं, उन्हें मैं इस समय कहता हूँ, जिन्हें सुनकर प्राणी पापोंसे छूट जाता है ॥ २० ॥

सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम् ।
उज्जयिन्यां महाकालमोंकारे परमेश्वरम् ॥ २१ ॥
केदारं हिमवत्पृष्ठे डाकिन्यां भीमशंकरम् ।
वाराणस्यां च विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे ॥ २२ ॥
वैद्यनाथं चिताभूमौ नागेशं दारुकावने ।
सेतुबंधे च रामेशं घुश्मेशं च शिवालये ॥ २३ ॥
द्वादशैतानि नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः सर्वसिद्धिफलं लभेत् ॥ २४ ॥
सौराष्ट्रमें सोमनाथ, श्रीशैलपर मल्लिकार्जुन, उज्जयिनीमें महाकाल, ॐकार क्षेत्रमें परमेश्वर, हिमालयपर केदार, डाकिनीमें भीमशंकर, वाराणसीमें विश्वेश्वर, गौतमी नदीके तटपर त्र्यम्बकेश्वर, चिताभूमिमें वैद्यनाथ, दारुकवनमें नागेश, सेतुबन्धमें रामेश्वर तथा शिवालयमें घुश्मेश्वर [नामक ज्योतिर्लिग] हैं । जो [प्रतिदिन] प्रातःकाल उठकर इन बारह नामोंका पाठ करता है, उसके सभी प्रकारके पाप छूट जाते हैं और उसको सम्पूर्ण सिद्धियोंका फल प्राप्त हो जाता है ॥ २१-२४ ॥

यं यं काममपेक्ष्यैव पठिष्यन्ति नरोत्तमाः ।
प्राप्स्यंति कामं तं तं हि परत्रेव मुनीश्वराः ॥ २५ ॥
ये निष्कामतया तानि पठिष्यन्ति शुभाशयाः ।
तेषां च जननीगर्भे वासो नैव भविष्यति ॥ २६ ॥
हे मुनीश्वरो ! उत्तम पुरुष जिस-जिस मनोरथकी अपेक्षा करके इनका पाठ करेंगे, वे उस-उस मनोकामनाको इस लोकमें तथा परलोकमें प्राप्त करेंगे और जो शुद्ध अन्तःकरणवाले पुरुष निष्कामभावसे इनका पाठ करेंगे, वे [पुन:] माताके गर्भमें निवास नहीं करेंगे ॥ २५-२६ ॥

एतेषां पूजनेनैव वर्णानां दुःखना शनम् ।
इह लोके परत्रापि मुक्तिर्भवति निश्चितम् ॥ २७ ॥
ग्राह्यमेषां च नैवेद्यं भोजनीयं प्रयत्नतः ।
तत्कर्तुः सर्व्वपापानि भस्मसाद् यान्ति वै क्षणात् ॥ २८ ॥
इस लोकमें इन लिंगोंका पूजन करनेसे [ब्राह्मण आदि] सभी वर्णीका दु:ख नष्ट हो जाता है और परलोकमें निश्चित रूपसे उनकी मुक्ति भी हो जाती है । इन लिंगोंपर चढ़ाया गया प्रसाद सर्वथा ग्रहण करनेयोग्य होता है; उसे [श्रद्धासे] विशेष यत्‍नसे ग्रहण करना चाहिये । ऐसा करनेवालेके समस्त पाप उसी क्षण विनष्ट हो जाते हैं ॥ २७-२८ ॥

ज्योतिषां चैव लिंगानां बह्मादिभिरलं द्विजाः ।
विशेषतः फलं वक्तुं शक्यते न परैस्तथा ॥ २९ ॥
एकं च पूजितं येन षण्मासं तन्निरन्तरम् ।
तस्य दुःखं न जायेत मातृकुक्षिसमुद्भवम् ॥ ३० ॥
हे द्विजो ! इन ज्योतिर्लिंगोंका विशेष फल कहनेमें ब्रह्मा आदि भी समर्थ नहीं हैं, फिर दूसरों की बात ही क्या ? जिसने किसी एक लिंगका भी छ: मासतक यदि निरन्तर पूजन कर लिया, उसे पुनर्जन्मका दुःख नहीं उठाना पड़ता है ॥ २९-३० ॥

हीनयोनौ यदा जातो ज्योतिर्लिंगं च पश्यति ।
तस्य जन्म भवेत्तत्र विमले सत्कुले पुनः ॥ ३१ ॥
सत्कुले जन्म संप्राप्य धनाढ्यो वेदपारगः ।
शुभकर्म तदा कृत्वा मुक्तिं यात्यनपायिनीम् ॥ ३२ ॥
नीच कुलमें उत्पन्न हुआ पुरुष भी यदि किसी ज्योतिर्लिंगका दर्शन करता है, तो उसका जन्म पुनः निर्मल एवं उत्तम कुलमें होता है । वह उत्तम कुलमें जन्म प्राप्तकर धनसे सम्पन्न एवं वेदका पारगामी विद्वान् होता है । उसके बाद [वेदोचित] शुभ कर्म करके वह स्थिर रहनेवाली मुक्ति प्राप्त करता है ॥ ३१-३२ ॥

म्लेच्छो वाप्यन्त्यजो वापि षण्ढो वापि मुनीश्वराः ।
द्विजो भूत्वा भवेन्मुक्तस्तस्मात्तद्दर्शनं चरेत् ॥ ३३ ॥
हे मुनीश्वरो ! म्लेच्छ, अन्त्यज अथवा नपुंसक कोई भी हो-वह [ज्योतिर्लिंगके दर्शनके प्रभावसे] द्विजकुलमें जन्म लेकर मुक्त हो जाता है, इसलिये ज्योतिर्लिंगका दर्शन [अवश्य] करना चाहिये ॥ ३३ ॥

ज्योतिषां चैव लिंगानां किंचित्प्रोक्तं फलं मया । .
ज्योतिषां चोपलिंगानि श्रूयन्तामृषिसत्तमाः ॥ ३४ ॥
हे मुनिसत्तमो ! मैंने संक्षेपमें इन ज्योतिर्लिंगोंके फलका वर्णन किया; अब इनके उपलिंगोंको सुनिये ॥ ३४ ॥

सोमेश्वरस्य यल्लिंगमन्तकेशमुदाहृतम् ।
मह्यास्सागरसंयोगे तल्लिंगमुपलिङ्गकम् ॥ ३५ ॥
मल्लिकार्जुनसंभूतमुपलिंगमुदाहृतम् ।
रुद्रेश्वरमिति ख्यातं भृगुकक्षे सुखावहम् ॥ ३६ ॥
महीनदी तथा सागरके संगमपर जो अन्तकेश नामक लिंग स्थित है, वह सोमेश्वरका उपलिंग कहा जाता है । भृगुकच्छमें स्थित परम सुखदायक रुद्रेश्वर नामक लिंग ही मल्लिकार्जुनसे प्रकट हुआ उपलिंग कहा गया है । ३५-३६ ॥

महाकालभवं लिंगं दुग्धेशमिति विश्रुतम् ।
नर्मदायां प्रसिद्धं तत्सर्वपापहरं स्मृतम् ॥ ३७ ॥
ॐकारजं च यल्लिंगं कर्दमेशमिति श्रुतम् ।
प्रसिद्धं बिन्दुसरसि सर्वकामफलप्रदम् ॥ ३८ ॥
नर्मदाके तटपर महाकालसे प्रकट हुआ दुग्धेश्वर नामसे प्रसिद्ध उपलिंग है; जो सम्पूर्ण पापोंका विनाश करनेवाला है । ओंकारेश्वरसम्बन्धी उपलिंग कर्दमेश्वर नामसे प्रसिद्ध तथा बिन्दुसरोवरके तटपर स्थित है और यह सम्पूर्ण कामनाओंका फल देनेवाला है ॥ ३७-३८ ॥

केदारेश्वरसंजातं भूतेशं यमुना तटे ।
महापापहरं प्रोक्तं पश्यतामर्चतान्तथा ॥ ३९ ॥
भीमशंकरसंभूतं भीमेश्वरमिति स्मृतम् ।
सह्याचले प्रसिद्धं तन्महाबलविवर्द्धनम् ॥ ४० ॥
नागेश्वरसमुद्भूतं भूतेश्वरमुदाहृतम् ।
मल्लिकासरस्वतीतीरे दर्शनात्पापहारकम् ॥ ४१ ॥
यमुनाके तटपर केदारेश्वरसे उत्पन्न भूतेश्वर नामक | उपलिंग स्थित है, जो दर्शन एवं पूजन करनेवालोंके लिये महापापनाशक कहा गया है । सहापर्वतपर स्थित भीमेश्वर नामक लिंग भीमशंकरका उपलिंग कहा गया है । वह प्रसिद्ध लिंग महान् बलको बढ़ानेवाला है । विश्वेश्वरसे उत्पन्न लिंग शरण्येश्वर नामसे प्रसिद्ध हुआ, त्र्यम्बकेश्वरसे सिद्धेश्वर लिंग प्रकट हुआ तथा वैद्यनाथसे वैजनाथ नामक लिंगका प्राकट्य हुआ ॥ ३९-४१ ॥

रामेश्वराच्च यज्जातं गुप्तेश्वरमिति स्मृतम् ।
घुश्मेशाच्चैव यज्जातं व्याघ्रेश्वरमिति स्मृतम् ॥ ४२ ॥
ज्योतिर्लिंगोपलिंगानि प्रोक्तानीह मया द्विजाः ।
दर्शनात्पापहारीणि सर्वकामप्रदानि च ॥ ४३ ॥
मल्लिका-सरस्वतीके तटपर स्थित एक अन्य भूतेश्वर नामका ही शिवलिंग नागेश्वरसे उत्पन्न उपलिंग कहा गया है, जो दर्शनमात्रसे पापहारी है । रामेश्वरसे जो प्रकट हुआ, वह गुप्तेश्वर और घुश्मेश्वरसे जो प्रकट हुआ, वह व्यानेश्वर कहा गया है ॥ ४२-४३ ॥

एतानि सुप्रधानानि मुख्यतां हि गतानि च ।
अन्यानि चापि मुख्यानि श्रूयतामृषिसत्तमा ॥ ४४ ॥
हे ब्राह्मणो ! इस प्रकार मैंने ज्योतिर्लिंगों तथा उनके उपलिंगोंका वर्णन किया; ये दर्शनमात्रसे पापोंको दूर करनेवाले तथा सम्पूर्ण मनोरथोंको सिद्ध करनेवाले हैं । हे ऋषिश्रेष्ठो ! ये प्रधान लिंग तथा उनके उपलिंग मुख्य रूपसे प्रसिद्ध हैं; अब अन्य प्रसिद्ध लिंगोंको भी सुनिये ॥ ४४ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां
ज्योतिर्लिंगतदुपलिंग माहात्म्यवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें ज्योतिर्लिंग और उनके उपलिंगोंका माहात्म्यवर्णन नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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