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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां

द्वितीयोऽध्यायः

शिवलिंगमाहात्म्यवर्णनम् -
काशीस्थित तथा पूर्व दिशामें प्रकटित विशेष एवं सामान्य लिंगोंका वर्णन -


सूत उवाच -
गंगातीरे सुप्रसिद्धा काशी खलु विमुक्तिदा ।
सा हि लिंगमयी ज्ञेया शिववासस्थली स्मृता ॥ १ ॥
सूतजी बोले-गंगाके तटपर परम प्रसिद्ध काशी नगरी है, जो सबको मुक्ति प्रदान करनेवाली है । उसे लिंगमयी ही जानना चाहिये, वह सदाशिवकी निवासस्थली मानी गयी है ॥ १ ॥

लिंगं तत्रैव मुख्यं च सम्प्रोक्तमविमुक्तकम् ।
कृत्तिवासेश्वरः साक्षात्तत्तुल्यो वृद्धबालकः ॥ २ ॥
तिलभाण्डेश्वरश्चैव दशाश्वमेध एव च ।
गंगा सागरसंयोगे संगमेश इति स्मृतः ॥ ३ ॥
वहींपर अविमुक्त नामका मुख्य लिंग कहा गया है । उसीके समान कृत्तिवासेश्वरलिंग एवं वृद्धकाल लिंग काशीमें है । काशीमें तिलभाण्डेश्वर तथा दशाश्वमेध लिंग है । गंगासागरके संगमपर संगमेश्वर नामक लिंग कहा गया है ॥ २-३ ॥

भूतेश्वरो यः संप्रोक्तो भक्तसर्वार्थदः सदा ।
नारीश्वर इति ख्यातः कौशिक्याः स समीपगः ॥ ४ ॥
जिन्हें भूतेश्वर कहा गया है और जो नारीश्वर नामसे विख्यात हैं-ये कौशिकी नदीके तटपर विराजमान हैं और भक्तोंको सभी फल प्रदान करनेवाले हैं ॥ ४ ॥

वर्तते गण्डकीतीरे बटुकेश्वर एव सः ।
पूरेश्वर इति ख्यातः फल्गुतीरे सुखप्रदः ॥ ५ ॥
सिद्धनाथेश्वरश्चैव दर्शनात्सिद्धिदो नृणाम् ।
दूरेश्वर इति ख्यातः पत्तने चोत्तरे तथा ॥ ६ ॥
गण्डकी नदीके तटपर बटुकेश्वर नामक लिंग है । फल्गु नदीके तटपर सुखदायी पूरेश्वर नामक लिंग है । उत्तर नामक नगरमें सिद्धनाथेश्वर तथा दूरेश्वर नामक लिंग हैं, जो दर्शनमात्रसे मनुष्योंको सिद्धि प्रदान करनेवाले हैं ॥ ५-६ ॥

शृंगेश्वरश्च नाम्ना वै वैद्यनाथस्तथैव च ।
जप्येश्वरस्तथा ख्यातो यो दधी चिरणस्थले ॥ ७ ॥
गोपेश्वरः समाख्यातः रंगेश्वर इति स्मृतः ।
वामेश्वरश्च नागेशः काजेशो विमलेश्वरः ॥ ८ ॥
शृंगेश्वर तथा वैद्यनाथेश्वर नामक लिंग भी वैसे ही हैं । दधीचिकी संग्रामभूमिमें जप्येश्वर नामक प्रसिद्ध लिंग है । इसी प्रकार गोपेश्वर, रंगेश्वर, वामेश्वर, नागेश्वर, कामेश्वर तथा विमलेश्वर नामक लिंग कहे गये हैं ॥ ७-८ ॥

व्यासेश्वरश्च विख्यातः सुकेशश्च तथैव हि ।
भाण्डेश्वराश्च विख्यातो हुंकारेशस्तथैव च ॥ ९ ॥
सुरोचनश्च विख्यातो भूतेश्वर इति स्वयम् ।
संगमेशस्तथा प्रोक्तो महापातकनाशनः ॥ १० ॥
व्यासेश्वर, शुकेश्वर, भाण्डेश्वर, हुंकारेश्वर, सुरोचनेश्वर, भूतेश्वर, संगमेश्वर नामक लिंग कहे गये हैं, जो महापातकका नाश करनेवाले हैं ॥ ९-१० ॥

ततश्च तप्तकातीरे कुमारेश्वर एव च ।
सिद्धेश्वरश्च विख्यातः सेनेशश्च तथा स्मृतः ॥
तप्तका नदीके तटपर कुमारेश्वर, सिद्धेश्वर तथा सेनेश्वर नामक प्रसिद्ध लिंग कहे गये हैं ॥ ११ ॥

रामेश्वर इति प्रोक्तः कुंभेशश्च परो मतः ।
नन्दीश्वरश्च पुंजेशः पूर्णायां पूर्णकस्तथा ॥ १२ ॥
पूर्णा नदीके तटपर रामेश्वर, कुम्भेश्वर, नन्दीश्वर, पुंजेश्वर तथा पूर्णकेश्वर लिंग कहे गये हैं ॥ १२ ॥

ब्रह्मेश्वरः प्रयोगे च ब्रह्मणा स्थापितः पुरा ।
दशाश्वमेधतीर्थे हि चतुर्वर्गफलप्रदः ॥ १३ ॥
पूर्व समयमें ब्रह्माके द्वारा प्रयागके दशाश्वमेध तीर्थमें स्थापित किया गया ब्रह्मेश्वर नामक लिंग धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्षको देनेवाला है ॥ १३ ॥

तथा सोमेश्वरस्तत्र सर्ब्वापद्विनिवारकः ।
भारद्वाजेश्वरश्चैव ब्रह्मवर्चःप्रवर्द्धकः ॥ १४ ॥
शूलटंकेश्वरः साक्षात्कामनाप्रद ईरितः ।
माधवेशश्च तत्रैव भक्तरक्षाविधायकः ॥ १५ ॥
वहींपर सभी विपत्तियोंको दूर करनेवाला सोमेश्वर नामक लिंग तथा ब्रह्मतेजकी वृद्धि करनेवाला भारद्वाजेश्वर नामक लिंग है । वहींपर कामनाओंको देनेवाला साक्षात् शूलटंकेश्वर लिंग तथा भक्तोंकी रक्षा करनेवाला माधवेश्वर लिंग बताया गया है ॥ १४-१५ ॥

नागेशाख्यः प्रसिद्धो हि साकेतनगरे द्विजा ।
सूर्य्यवंशोद्भवानां च विशेषेण सुखप्रदः ॥ १६ ॥
हे द्विजो ! साकेत (अयोध्यापुरी)-में नागेश नामका प्रसिद्ध लिंग है, जो विशेष रूपसे सूर्यवंशमें उत्पन्न हुए लोगोंको सुख देनेवाला है ॥ १६ ॥

पुरुषोत्तमपुर्यां तु भुवनेशस्तु सिद्धिदः ।
लोकेशश्च महालिंगः सर्वानन्दप्रदायकः ॥ १७ ॥
पुरुषोत्तम (जगन्नाथ)-पुरीमें उत्तम सिद्धि प्रदान करनेवाला भुवनेश्वर लिंग है । लोकेश्वर नामक महालिंग सभी प्रकारके आनन्दको देनेवाला है ॥ १७ ॥

कामेश्वरः शंभुलिंगो गंगेशः परशुद्धिकृत् ।
शक्रेश्वरः शुक्रसिद्धो लोकानां हितकाम्यया ॥ १८ ॥
तथा वटेश्वरः ख्यातः सर्वकामफलप्रदः ।
सिन्धुतीरे कपालेशो वक्त्रेशः सर्वपापहा ॥ १९ ॥
कामेश्वर तथा गंगेश शिवलिंग परम शुद्धि प्रदान | करनेवाले हैं । इसी प्रकार लोकहित करनेवाला तथा शुक्रको सिद्धि प्रदान करनेवाला शुक्रेश्वर लिंग है । वटेश्वर नामक लिंग सभी कामनाओंका फल प्रदान करनेवाला कहा गया है । सिन्धुतटपर स्थित कपालेश्वर एवं वक्त्रेश्वर सभी पापोंको दूर करनेवाले हैं ॥ १८-१९ ॥

धौतपापेश्वरः साक्षादंशेन परमेश्वर. ।
भीमेश्वर इति प्रोक्तः सूर्येश्वर इति स्मृतः ॥ २० ॥
नन्देश्वरश्च विज्ञेयो ज्ञानदो लोकपूजितः ।
नाकेश्वरो महापुण्यस्तथा रामेश्वरः स्मृतः ॥ २१ ॥
धौतपापेश्वर, भीमेश्वर तथा सूर्येश्वर नामक लिंग साक्षात् शिवके अंश कहे गये हैं । लोकपूजित नन्दीश्वर लिंगको ज्ञानप्रद जानना चाहिये । नाकेश्वर तथा रामेश्वर महापुण्यके प्रदाता कहे गये हैं । २०-२१ ॥

विमलेश्वरनामा वै कंटकेश्वर एव च ।
पूर्णसागरसंयोगे धर्तुकेशस्तथैव च ॥ २२ ॥
चन्द्रेश्वरश्च विज्ञेयश्चन्द्रकान्तिफलप्रदः ।
सर्वकाम प्रदश्चैव सिद्धेश्वर इति स्मृतः ॥ २३ ॥
विमलेश्वर, कण्टकेश्वर तथा धर्तुकेश नामक लिंग पूर्व सागरके संगमपर स्थित हैं । चन्द्रेश्वरको चन्द्रमाके समान कान्तिरूप फलको देनेवाला जानना चाहिये । सिद्धेश्वर नामक लिंग सम्पूर्ण कामनाओंको सिद्ध करनेवाला कहा गया है । २२-२३ ॥

बिल्वेश्वरश्च विख्यातश्चान्धकेशस्तथैव च ।
यत्र वा ह्यन्धको दैत्यः शंकरेण हतः पुरा ॥ २४ ॥
अयं स्वरूपमंशेन धृत्वा शंभुः पुनः स्थितः ।
शरणेश्वरविख्यातो लोकानां सुखदः सदा ॥ २५ ॥
जहाँपर शिवजीने पूर्वकालमें अन्धक दैत्यका वध किया था, वहींपर बिल्वेश्वर तथा अन्धकेश्वर लिंग भी प्रसिद्ध हैं । [अन्धकका वध करनेके उपरान्त] ये शिवजी अपने अंशसे स्वरूप धारणकर पुनः वहीं स्थित | हो गये । सर्वदा लोकको सुख देनेवाला शरणेश्वर लिंग तो प्रसिद्ध ही है ॥ २४-२५ ॥

कर्दमेशः परः प्रोक्त कोटीशश्चार्बुदाचले ।
अचलेशश्च विख्यातो लोकानां सुखदः सदा ॥ २६ ॥
नागेश्वरस्तु कौशिक्यास्तीरे तिष्ठति नित्यशः ।
अनन्तेश्वरसंज्ञश्च कल्याणशुभभाजनः ॥ २७ ॥
कर्दमेश्वरको श्रेष्ठ लिंग कहा गया है । कोटीश अर्बुदाचलपर स्थित हैं । प्रसिद्ध अचलेश नामक लिंग लोगोंको सदा सुख देनेवाला है । कौशिकी नदीके तटपर नागेश्वर लिंग नित्य विराजमान है । अनन्तेश्वर नामक लिंग कल्याण तथा मंगल करनेवाला है ॥ २६-२७ ॥

योगेश्वरश्च विख्यातो वैद्यनाथेश्वरस्तथा ।
कोटीश्वरश्च विज्ञेयः सप्तेश्वर इति स्मृतः ॥ २८ ॥
भद्रेश्वरश्च विख्यातो भद्रनामा हरः स्वयम् ।
चण्डीश्वरस्तथा प्रोक्तः संगमेश्वर एव च ॥ २९ ॥
योगेश्वर, वैद्यनाथेश्वर, कोटीश्वर तथा सप्तेश्वर लिंग विख्यात कहे गये हैं । भद्र नामक शिव भद्रेश्वर लिंगके रूपमें विख्यात हैं । इसी प्रकार चण्डीश्वर तथा संगमेश्वर भी कहे जाते हैं ॥ २८-२९ ॥

पूर्वस्यां दिशि जातानि शिवलिंगानि यानि च ।
सामान्यान्यपि चान्यानि तानीह कथितानि ते ॥ ३० ॥
दक्षिणस्यां दिशि तथा शिवलिंगानि यानि च ।
संजातानि मुनिश्रेष्ठ तानि ते कथयाम्यहम् ॥ ३१ ॥
पूर्व दिशामें जितने विशेष एवं सामान्य लिंग प्रकट हुए हैं, इस प्रसंगमें उन सभीका वर्णन मैंने आपसे किया । हे मुनिश्रेष्ठ ! अब दक्षिण दिशामें जो शिवलिंग प्रकट हुए हैं, उनका वर्णन मैं आपसे करता हूँ ॥ ३०-३१ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां
शिवलिंगमाहात्म्यवर्णनंनाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुजसंहितामें शिवलिंगमाहात्म्यवर्णन नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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