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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां

एकादशोऽध्यायः

चन्द्रभालपशुपतिनाथलिंगमाहात्म्यवर्णनम् -
उत्तरदिशामें विद्यमान शिवलिंगोंके वर्णन-क्रममें चन्द्रभाल एवं पशुपतिनाथलिंगका माहात्म्य-वर्णन -


ऋषय ऊचुः -
सूतसूत महाभाग धन्यस्त्वं शिवसक्तधीः ।
महाबलस्य लिंगस्य श्रावितेयं कथाद्भुता ॥ १ ॥
उत्तरस्यां दिशायां च शिवलिंगानि यानि च ।
तेषां माहात्म्यमनघ वद त्वं पापनाशकम् ॥ २ ॥
ऋषिगण बोले-हे महाभाग ! हे सूतजी ! शिवजीमें आसक्त चित्तवाले आप धन्य हैं, जो कि आपने महाबलेश्वर लिंगकी यह अद्‌भुत कथा हमें सुनायी । अब उत्तर दिशामें स्थित जो शिवलिंग हैं, उनका पापनाशक निर्मल माहात्म्य आप सुनायें ॥ १-२ ॥

सूत उवाच -
शृणुतादरतो विप्रा औत्तराणां विशेषतः ।
माहात्म्यं शिवलिंगानां प्रवदामि समासतः ॥ ३ ॥
सूतजी बोले-हे ब्राह्मणो ! मैं उत्तर दिशामें विराजमान मुख्य-मुख्य शिवलिंगोंके माहात्म्यका संक्षेपमें वर्णन कर रहा हूँ: आपलोग आदरपूर्वक सुनिये ॥ ३ ॥

गोकर्णं क्षेत्रमपरं महापातकनाशनम् ।
महावनं च तत्रास्ति पवित्रमतिविस्तरम् ॥ ४ ॥
गोकर्ण नामक एक दूसरा भी पापनाशक क्षेत्र है; वहाँपर एक पवित्र तथा अति विस्तृत महावन है ॥ ४ ॥

तत्रास्ति चन्द्रभालाख्यं शिवलिंगमनुत्तमम् ।
रावणेन समानीतं सद्भक्त्या सर्वसिद्धिदम् ॥ ५ ॥
तस्य तत्र स्थितिर्वैद्यनाथस्येव मुनीश्वराः ।
सर्वलोकहितार्थाय करुणासागरस्य च ॥ ६ ॥
वहाँपर चन्द्रभाल नामक उत्तम तथा सर्वसिद्धिदायक शिवलिंग है, जिसे रावण सद्‌भक्तिपूर्वक लाया था । हे मुनीश्वरो ! वहाँपर उस करुणासागर शिवलिंगकी स्थिति सारे संसारके हितके लिये वैद्यनाथ नामक ज्योतिर्लिंगके तुल्य है ॥ ५-६ ॥

स्नानं कृत्वा तु गोकर्णे चन्द्रभालं समर्च्य च ।
शिवलोकमवाप्नोति सत्यंसत्यं न संशयः ॥ ७ ॥
गोकर्णमें स्नानकर तथा चन्द्रभालका पूजनकर मनुष्य अवश्य ही शिवलोकको प्राप्त करता है, इसमें संशय नहीं है ॥ ७ ॥

चन्द्रभालस्य लिंगस्य महिमा परमाद्भुतः ।
न शक्यो वर्णितुं व्यासाद्भक्तस्नेहितरस्य हि ॥ ८ ॥
चन्द्रभालमहादेव लिंगस्य महिमा महान् ।
यथाकथंचित्संप्रोक्तः परलिंगस्य वै शृणु ॥ ९ ॥
भक्तोंके ऊपर स्नेह करनेवाले उन चन्द्रभाल नामक शिवकी महिमा बड़ी अद्‌भुत है; विस्तारसे उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है । चन्द्रभाल नामक महादेवके लिंगकी महती महिमाका वर्णन मैंने जिस-किसी प्रकार कर दिया; अब दूसरे लिंगका माहात्म्य सुनिये ॥ ८-९ ॥

दाधीचं शिवलिंगं तु मिश्रर्षिवरतीर्थके ।
दधीचिना मुनीशेन सुप्रीत्या च प्रतिष्ठितम् ॥ १० ॥
तत्र गत्वा च तत्तीर्थे स्नात्वा सम्यग्विधानतः ।
शिवलिंगं समर्चेद्वै दाधीचेश्वरमादरात् ॥ ११ ॥
मिश्रर्षि (मिसरिख) नामक उत्तम तीर्थमें दाधीच नामक शिव लिंग है, जिसे दधीचिमुनिने परम प्रीतिपूर्वक स्थापित किया था । वहाँ जाकर उस तीर्थमें विधिपूर्वक स्नानकर दाधीचेश्वर शिवलिंगका आदरपूर्वक पूजन अवश्य ही करना चाहिये ॥ १०-११ ॥

दाधीचमूर्तिस्तत्रैव समर्च्या विधिपूर्वकम् ।
शिवप्रीत्यर्थमेवाशु तीर्थयात्रा फलार्थिभिः ॥ १२ ॥
तीर्थयात्राका फल शीघ्र प्राप्त करनेकी इच्छावालोंको शिवजीको प्रसन्न करनेके लिये वहाँपर विधिपूर्वक दधीचिकी मूर्तिका पूजन करना चाहिये ॥ १२ ॥

एवं कृते मुनिश्रेष्ठाः कृतकृत्यो भवेन्नरः ।
इह सर्वसुखं भुक्त्वा परत्र गतिमाप्नुयात् ॥ १३ ॥
हे मुनिश्रेष्ठो ! ऐसा करनेसे मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है और इस लोकमें सभी सुख भोगकर परलोकमें सद्‌गति प्राप्त करता है ॥ १३ ॥

नैमिषारण्यतीर्थे तु निखिलर्षिप्रतिष्ठितम् ।
ऋषीश्वरमिति ख्यातं शिवलिंगं सुखप्रदम् ॥ १४ ॥
तद्दर्शनात्पूजनाच्च जनानां पापिनामपि ।
भुक्तिमुक्तिश्च तेषां तु परत्रेह मुनीश्वराः ॥ १५ ॥
नैमिषारण्यमें सभी ऋषियोंद्वारा स्थापित ऋषीश्वर नामक सुखदायक शिवलिंग है । हे मुनीश्वरो ! उसके दर्शन एवं पूजनसे पापी लोगोंको भी इस लोकमें भोग तथा परलोकमें मोक्ष प्राप्त होता है ॥ १४-१५ ॥

हत्याहरणतीर्थे तु शिवलिंगमघापहम् ।
पूजनीयं विशेषेण हत्याकोटिविनाशनम् ॥ १६ ॥
हत्याहरण तीर्थमें पापोंको दूर करनेवाला तथा करोड़ों हत्याओंका नाश करनेवाला शिवलिंग है, उसकी विशेष रूपसे पूजा करनी चाहिये ॥ १६ ॥

देवप्रयागतीर्थे तु ललितेश्वरनामकम् ।
शिवलिंगं सदा पूज्यं नरैस्सर्वाघनाशनम् ॥ १७ ॥
देवप्रयागतीर्थमें ललितेश्वर नामक शिवलिंग है, उस लिंगकी हमेशा पूजा करनी चाहिये, जिससे सभी प्रकारके पाप दूर हो जाते हैं ॥ १७ ॥

नयपालाख्यपुर्य्यां तु प्रसिद्धायां महीतले ।
लिंगं पशुपतीशाख्यं सर्वकामफलप्रदम् ॥ १८ ॥
शिरोभागस्वरूपेण शिवलिंगं तदस्ति हि ।
तत्कथां वर्णयिष्यामि केदारेश्वरवर्णने ॥ १९ ॥
पृथिवीपर प्रसिद्ध नेपाल नामक पुरीमें पशुपतीश्वर नामक शिवलिंग है, जो सम्पूर्ण कामनाओंका फल प्रदान करता है । वह शिवलिंग शिरोभागमात्रसे वहाँ स्थित है, उसकी कथा केदारेश्वरवर्णनके प्रसंगमें कहूँगा ॥ १८-१९ ॥

तदारान्मुक्तिनाथाख्यं शिवलिंगं महाद्भुतम् ।
दर्शनादर्चनात्तस्य भुक्तिर्मुक्तिश्च लभ्यते ॥ २० ॥
उसके समीप मुक्तिनाथ नामक अत्यन्त अद्‌भुत शिवलिंग है, उसके दर्शन एवं अर्चनसे भोग तथा मोक्ष प्राप्त होते हैं ॥ २० ॥

इति वश्च समाख्यातं लिंगवर्णनमुत्तमम् ।
चतुर्दिक्षु मुनिश्रेष्ठाः किमन्यच्छ्रोतुमिच्छथ ॥ २१ ॥
हे मुनीश्वरो ! इस प्रकार मैंने आपलोगोंसे चारों दिशाओंमें स्थित शिवलिंगोंका उत्तम वर्णन किया; अब आपलोग और क्या सूनना चाहते हैं ? ॥ २१ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां
चन्द्रभालपशुपतिनाथलिंगमाहात्म्यवर्णनं नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें चन्द्रभालपशुपतिनावलिंगमाहात्म्य वर्णन नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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