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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां

द्वादशोऽध्यायः

लिंगस्वरूपकारणवर्णनम् -
हाटकेश्वरलिंगके प्रादुर्भाव एवं माहात्म्यका वर्णन -


ऋषय ऊचुः -
सूत जानासि सकलं वस्तु व्यासप्रसादतः ।
तवाज्ञातं न विद्येत तस्मात्पृच्छामहे वयम् ॥ १ ॥
ऋषि बोले-हे सूतजी ! आप व्यासजीकी कृपासे सब कुछ जानते हैं, कोई भी बात आपसे अज्ञात नहीं है, इसीलिये हमलोग आपसे पूछते हैं ॥ १ ॥

लिंगं च पूज्यते लोके तत्त्वया कथितं च यत् ।
तत्तथैव न चान्यद्वा कारणं विद्यते त्विह ॥ २ ॥
आपने पूर्वमें कहा था कि लोकमें सभी जगह शिवलिंगकी पूजा होती है । क्या वह लिंग होनेके कारण ही पूजित है अथवा अन्य कोई कारण है ? ॥ २ ॥

बाणरूपा श्रुता लोके पार्वती शिववल्लभा ।
एतत्किं कारणं सूत कथय त्वं यथाश्रुतम् ॥ ३ ॥
शिववल्लभा पार्वती लोकमें बाणलिंगरूपा कही जाती हैं । हे सूतजी ! इसका क्या कारण है, इस विषयमें आपने जैसा सुना है, वैसा कहिये ॥ ३ ॥

सूत उवाच -
कल्पभेदकथा चैव श्रुता व्यासान्मया द्विजाः ।
तामेव कथयाम्यद्य श्रूयतामृषिसत्तमाः ॥ ४ ॥
सूतजी बोले-हे ब्राह्मणो ! हे ऋषिसत्तमो ! मैंने व्यासजीसे जो कल्पभेदकी कथा सुनी है, उसीका आज वर्णन कर रहा हूँ, आपलोग सुनें ॥ ४ ॥

पुरा दारुवने जातं यद्वृत्तं तु द्विजन्मनाम् ।
तदेव श्रूयतां सम्यक् कथयामि कथाश्रुतम् ॥ ५ ॥
दारुनामवनं श्रेष्ठं तत्रासन्नृषिसत्तमाः ।
शिवभक्तास्सदा नित्यं शिवध्यानपरायणाः ॥ ६ ॥
पूर्वकालमें दारुवनमें ब्राह्मणोंके साथ जो घटना घटी, उसीको आप लोग सुनें । जैसा मैंने सुना है, वैसा ही कहता हूँ । हे ऋषिसत्तमो ! जो दारु नामक श्रेष्ठ वन है, वहाँ नित्य शिवजीके ध्यानमें तत्पर शिवभक्त [ब्राह्मण] रहा करते थे ॥ ५-६ ॥

त्रिकालं शिवपूजां च कुर्वंति स्म निरन्तरम् ।
नानाविधैः स्तवैर्दिव्यैस्तुष्टुवुस्ते मुनीश्वराः ॥ ७ ॥
ते कदाचिद्वने यातास्समिधाहरणाय च ।
सर्वे द्विजर्षभाश्शैवाश्शिवध्यानपरायणाः ॥ ८ ॥
हे मुनीश्वरो ! वे तीनों कालोंमें सदा शिवजीकी पूजा करते थे और नाना प्रकारके स्तोत्रोंसे उनकी स्तुति किया करते थे । शिवध्यानमें मग्न रहनेवाले वे शिवभक्त श्रेष्ठ ब्राह्मण किसी समय समिधा लेनेके लिये वनमें गये हुए थे ॥ ७-८ ॥

एतस्मिन्नंतरे साक्षाच्छंकरो नील लोहितः ।
विरूपं च समास्थाय परीक्षार्थं समागतः ॥ ९ ॥
दिगम्बरोऽतितेजस्वी भूतिभूषणभूषितः ।
स चेष्टामकरोद्दुष्टां हस्ते लिंगं विधारयन् ॥ १० ॥
इसी बीच उन लोगोंकी परीक्षा लेनेहेतु साक्षात् नीललोहित [भगवान् शंकर विकट रूप धारणकर वहाँ आये । वे दिगम्बर, भस्मरूप भूषणसे विभूषित तथा महातेजस्वी भगवान् शंकर हाथमें [तेजोमय] लिंगको धारणकर विचित्र लीला करने लगे ॥ ९-१० ॥

मनसा च प्रियं तेषां कर्तुं वै वनवासिनाम् ।
जगाम तद्वनं प्रीत्या भक्तप्रीतो हरः स्वयम् ॥ ११ ॥
तं दृष्ट्‍वा ऋषिपत्न्यस्ताः परं त्रासमुपागताः ।
विह्वला विस्मिताश्चान्यास्समाजग्मुस्तथा पुनः ॥ १२ ॥
अलिलिंगुस्तथा चान्याः करं धृत्या तथापराः ।
परस्परं तु संघर्षात्संमग्नास्ताः स्त्रियस्तदा ॥ १३ ॥
मनसे उन वनवासियोंका कल्याण करनेके लिये भक्तोंसे प्रेम करनेवाले वे शिव स्वयं प्रेमपूर्वक उस वनमें गये । उन्हें देखकर ऋषिपलियाँ अत्यन्त भयभीत हो गयींऔर अन्य स्त्रियाँ विह्वल तथा आश्चर्यचकित होकर वहीं चली आयीं । कुछ स्त्रियोंने परस्पर हाथ पकड़कर आलिंगन किया, कुछ स्त्रियाँ आपसमें आलिंगन करनेके कारण अत्यन्त मोहविह्वल हो गयीं ॥ ११-१३ ॥

एतस्मिन्नेव समये ऋषिवर्याः समागमन् ।
विरुद्धं तं च ते दृष्ट्‍वा दुःखिताः क्रोधमूर्च्छिताः ॥ १४ ॥
तदा दुःखमनुप्राप्ताः कोयं कोयं तथाऽबुवन् ।
समस्ता ऋषयस्ते वै शिवमायाविमोहिताः ॥ १५ ॥
इसी समय सभी ऋषिवर [वनसे समिधा लेकर] आ गये और वे इस आचरणको देखकर [उसे समझ नहीं सके और] दुःखित तथा क्रोधसे व्याकुल हो गये । तब शिवकी मायासे मोहित हुए समस्त ऋषिगण दुःखित हो आपसमें कहने लगे-'यह कौन है, यह कौन है ?' ॥ १४-१५ ॥

यदा च नोक्तवान्किंचित्सोवधूतो दिगम्बरः ।
ऊचुस्तं पुरुषं भीमं तदा ते परमर्षयः ॥ १६ ॥
त्वया विरुद्धं क्रियते वेदमार्ग विलोपि यत् ।
ततस्त्वदीयं तल्लिंगं पततां पृथिवीतले ॥ १७ ॥
जब उन दिगम्बर अवधूतने कुछ भी नहीं कहा, तब उन महर्षियोंने भयंकर पुरुषका रूप धारण किये हुए उन शिवजीसे कहा-हे अवधूत ! तुम वेदमार्गका लोप करनेवाला यह विरुद्ध आचरण कर रहे हो, अत: तुम्हारा यह विग्रहरूप लिंग [शीघ्र ही] पृथ्वीपर गिर जाय ॥ १६-१७ ॥

सूत उवाच -
इत्युक्ते तु तदा तैश्च लिंगं च पतितं क्षणात् ।
अवधूतस्य तस्याशु शिवस्याद्भुतरूपिणः ॥ १८ ॥
सूतजी बोले-[हे महर्षियो !] उनके ऐसा कहनेपर अद्‌भुत रूपवाले उन अवधूतवेषधारी शिवका [वह चिन्मय] लिंग शीघ्र ही पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ १८ ॥

तल्लिंगं चाग्निवत्सर्वं यद्ददाह पुरा स्थितम् ।
यत्रयत्र च तद्याति तत्रतत्र दहेत्पुनः ॥ १९ ॥
पाताले च गतं तश्च स्वर्गे चापि तथैव च ।
भूमौ सर्वत्र तद्यातं न कुत्रापि स्थिरं हि तत् । २० ॥
अग्नितुल्य उस माहेश्वरलिंगने सामने स्थित सभी वस्तुओंको जला डाला और इतना ही नहीं, वह फैलकर जहाँ-जहाँ जाता, सब कुछ भस्म कर देता । वह पातालमें तथा स्वर्गमें भी वैसे ही गया; वह पृथ्वीपर सर्वत्र गया और कहीं भी स्थिर न रहा । १९-२० ॥

लोकाश्च व्याकुला जाता ऋषयस्तेतिदुःखिताः ।
न शर्म लेभिरे केचिद्देवाश्च ऋषयस्तथा ॥ २१ ॥
सारे लोक व्याकुल हो उठे और वे ऋषिगण अत्यन्त दुःखित हो गये । देवता और ऋषियोंमें किसीको भी अपना कल्याण दिखायी न पड़ा ॥ २१ ॥

न ज्ञातस्तु शिवो यैस्तु ते सर्वे च सुरर्षयः ।
दुःखिता मिलिताश्शीघ्रं ब्रह्माणं शरणं ययुः ॥ २२ ॥
तत्र गत्वा च ते सर्वे नत्वा स्तुत्वा विधिं द्विजाः ।
तत्सर्वमवदन्वृत्तं ब्रह्मणे सृष्टिकारिणे ॥ २३ ॥
जिन देवता और ऋषियोंने शिवजीको नहीं पहचाना, वे सब दुःखित हो आपसमें मिलकर ब्रह्माजीकी शरणमें गये । हे ब्राह्मणो ! वहाँ जाकर उन सभीने ब्रह्माको प्रणाम तथा स्तुतिकर सृष्टिकर्ता ब्रह्मासे सारा वृत्तान्त निवेदन किया ॥ २२-२३ ॥

ब्रह्मा तद्वचनं श्रुत्वा शिवमायाविमोहितान् ।
ज्ञात्वा ताञ्च्छंकरं नत्वा प्रोवाच ऋषिसत्तमान् ॥ २४ ॥
तब ब्रह्माजी उनका वचन सुनकर उन श्रेष्ठ ऋषियोंको शिवकी मायासे मोहित जानकर सदाशिवको नमस्कारकर कहने लगे- ॥ २४ ॥

ब्रह्मोवाच -
ज्ञातारश्च भवन्तो वै कुर्वते गर्हितं द्विजाः ।
अज्ञातारो यदा कुर्युः किं पुनः कथ्यते पुनः ॥ २५ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे ब्राह्मणो ! आपलोग ज्ञानी होकर भी निन्दित कर्म कर रहे हैं, तो यदि अज्ञानी लोग ऐसा करें, तो फिर क्या कहा जाय ! ॥ २५ ॥

विरुद्ध्यैवं शिवं देवं कुशलं कस्समीहते ।
मध्याह्नसमये यो वै नातिथिं च परामृशेत् ॥ २६ ॥
तस्यैव सुकृतं नीत्वा स्वीयं च दुष्कृतं पुनः ।
संस्थाप्य चातिथिर्याति किं पुनः शिवमेव वा ॥ २७ ॥
इस प्रकार सदाशिवसे विरोध करके भला कौन कल्याणकी कामना कर सकता है ! यदि कोई मध्याह्नकालमें आये हुए अतिथिका सत्कार नहीं करता, तो वह अतिथि उसका सारा पुण्य लेकर और अपना सारा पाप उसको देकर चला जाता है; फिर शिवजीके विषयमें तो कहना ही क्या ! ॥ २६-२७ ॥

यावल्लिंगं स्थिरं नैव जगतां त्रितये शुभम् ।
जायते न तदा क्वापि सत्यमेतद्वदाम्यहम् ॥ २८ ॥
भवद्भिश्च तथा कार्यं यथा स्वास्थ्यं भवेदिह ।
शिवलिंगस्य ऋषयो मनसा संविचार्य्यताम् ॥ २९ ॥
अतः जबतक यह [शैव लिंग स्थिर नहीं होता, तबतक तीनों लोकोंमें कहीं भी लोगोंका कल्याण नहीं हो सकता है; मैं यह सत्य कहता हूँ । हे ऋषियो ! अब आपलोग मनसे विचार करें और ऐसा उपाय करें, जिससे शिवलिंगकी स्थिरता हो जाय ॥ २८-२९ ॥

सूत उवाच -
इत्युक्तास्ते प्रणम्योचुर्ब्रह्माणमृषयश्च वै ।
किमस्माभिर्विधे कार्यं तत्कार्यं त्वं समादिश ॥ ३० ॥
इत्युक्तश्च मुनीशैस्तैस्सर्वलोकपितामहः ।
मुनीशांस्तांस्तदा ब्रह्मा स्वयं प्रोवाच वै तदा ॥ ३१ ॥
सूतजी बोले-ब्रह्माके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर ऋषियोंने उन्हें प्रणामकर कहा-हे ब्रह्मन् ! अब हमलोगोंको क्या करना चाहिये ? आप उस कार्यके लिये आज्ञा प्रदान कीजिये । तब उन मुनीश्वरोंके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर सर्वलोकपितामह ब्रह्माजीने उन मुनीश्वरोंसे स्वयं कहा- ॥ ३०-३१ ॥

ब्रह्मोवाच -
आराध्य गिरिजां देवीं प्रार्थयन्तु सुराश्शिवम् ।
योनिरूपा भवेच्चेद्वै तदा तत्स्थिरतां व्रजेत् ॥ ३२ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे देवताओ ! आपलोग देवी पार्वतीकी आराधना करके उन शिवासे प्रार्थना कीजिये यदि वे योनिपीठात्मकरूप धारण कर लें, तो वह शिवलिंग स्थिर हो जायगा ॥ ३२ ॥

तद्विधिम्प्रवदाम्यद्य सर्वे शृणुत सत्तमाः ।
तामेव कुरुत प्रेम्णा प्रसन्ना सा भविष्यति ॥ ३३ ॥
हे ऋषिसत्तमो ! अब मैं उस उपायको आपलोगोंसे बताता हूँ, आप लोग सुनिये और प्रेमपूर्वक उस विधिका सम्पादन कीजिये; वे [अवश्य] प्रसन्न होंगी ॥ ३३ ॥

कुम्भमेकं च संस्थाप्य कृत्वाष्टदलमुत्तमम् ।
दूर्वायवांकुरैस्तीर्थोदकमापूरयेत्ततः ॥ ३४ ॥
वेदमंत्रैस्ततस्तं वै कुंभं चैवाभिमंत्रयेत् ।
श्रुत्युक्तविधिना तस्य पूजां कृत्वा शिवं स्मरन् ॥ ३५ ॥
तल्लिंगं तज्जलेनाभिषेचयेत्परमर्षयः ।
शतरुद्रियमंत्रैस्तु प्रोक्षितं शांतिमाप्नुयात् ॥ ३६ ॥
अष्टदलवाला कमल बना करके उसपर एक कलश स्थापितकर उसमें दूर्वा तथा यवांकुरोंसे युक्त तीर्थका जल भर देना चाहिये । फिर वेदमन्त्रोंके द्वारा उस कुम्भको अभिमन्त्रित करना चाहिये । इसके बाद [हे महर्षियो !] वेदोक्त रीतिसे उसका पूजन करके शिवका स्मरण करते हुए शतरुद्रिय मन्त्रोंसे कलशके जलसे उस शिवलिंगका अभिषेक करना चाहिये, फिर उन्हीं मन्त्रोंसे लिंगका प्रोक्षण करना चाहिये; तब शिवलिंग प्रशान्त हो जायगा ॥ ३४-३६ ॥

गिरिजां योनिरूपां च बाणं स्थाप्य शुभं पुनः ।
तत्र लिंगं च तत्स्थाप्यं पुनश्चैवाभिमंत्रयेत् ॥ ३७ ॥
सुगन्धैश्चन्दनैश्चैव पुष्पधूपादिभिस्तथा ।
नैवेद्यादिकपूजाभिस्तोषयेत्परमेश्वरम् ॥ ३८ ॥
प्रणिपातैः स्तवैः पुण्यैर्वाद्यैर्गानैस्तथा पुनः ।
ततः स्वस्त्ययनं कृत्वा जयेति व्याहरेत्तथा ॥ ३९ ॥
प्रसन्नो भव देवेश जगदाह्लादकारक ।
कर्ता पालयिता त्वञ्च संहर्ता त्वं निरक्षरः । ४० ॥
जगदादिर्जगद्योनिर्जगदन्तर्गतोपि च ।
शान्तो भव महेशान सर्वांल्लोकांश्च पालय ॥ ४१ ॥
इसके बाद योनिरूपा गिरिजा तथा उत्तम बाणलिंगको स्थापितकर उस प्रतिष्ठित शिवलिंगको पुनः अभिमन्त्रित करना चाहिये । उसके अनन्तर सुगन्ध द्रव्य, चन्दन, पुष्प, धूप एवं नैवेद्य आदिसे पूजाकर प्रणाम, स्तुति तथा मंगलकारी गीत-वाद्यके द्वारा परमेश्वरको प्रसन्न करना चाहिये । तत्पश्चात् स्वस्तिवाचन करके 'जय' शब्दका उच्चारण करना चाहिये और प्रार्थना करना चाहिये कि हे देवेश ! हे संसारको प्रसन्न करनेवाले ! आप [हमपर] प्रसन्न होइये; आप ही [संसारके] कर्ता, पालन करनेवाले एवं संहार करनेवाले तथा पूर्णतः विनाशरहित हैं । आप इस जगत्के आदि, जगत्के कारण एवं जगत्के आत्मस्वरूप भी हैं । हे महेश्वर ! आप शान्त हो जाय और सम्पूर्ण जगत्का पालन करें ॥ ३७-४१ ॥

एवं कृते विधौ स्वास्थ्यं भविष्यति न संशय ।
विकारो न त्रिलोकेस्मिन्भविष्यति सुखं सदा ॥ ४२ ॥
हे ऋषियो ! इस प्रकारका अनुष्ठान करनेपर शिवलिंग अवश्य स्थिर हो जायगा । फिर इस त्रैलोक्यमें किसी भी प्रकारका उपद्रव नहीं होगा और सदा सुख रहेगा ॥ ४२ ॥

सूत उवाच -
इत्युक्तास्ते द्विजा देवाः प्रणिपत्य पितामहम् ।
शिवं तं शरणं प्राप्तस्सर्वलोकसुखेप्सया ॥ ४३ ॥
सूतजी बोले-ब्रह्माके यह कहनेपर वे ब्राह्मण तथा देवता पितामह ब्रह्माजीको प्रणामकर सभी लोकोंको सुखी बनानेकी इच्छासे उन शिवजीकी शरणमें गये ॥ ४३ ॥

पूजितः परया भक्त्या प्रार्थितः शंकरस्तदा ।
सुप्रसन्नस्ततो भूत्वा तानुवाच महेश्वरः ॥ ४४ ॥
उन लोगोंने परम भक्तिसे सदाशिवको पूजा एवं प्रार्थना की, तब प्रसन्न होकर महेश्वरने उनसे कहा- ॥ ४४ ॥

महेश्वर उवाच -
हे देवा ऋषयः सर्वे मद्वचः शृणुतादरात् ।
योनिरूपेण मल्लिंगं धृतं चेत्स्यात्तदा सुखम् ॥ ४५ ॥
पार्वतीं च विना नान्या लिंगं धारयितुं क्षमा ।
तया धृतं च मल्लिंगं द्रुतं शान्तिं गमिष्यति ॥ ४६ ॥
महेश्वर बोले-हे देवताओ । हे ऋषियो ! आपलोग आदरपूर्वक मेरी बात सुनिये । यदि यह शिवलिंग योनिपीठात्मिका (समस्त ब्रह्माण्डका प्रसव करनेवाली) भगवती महाशक्तिके द्वारा धारण किया जाय, तभी आपलोगोंको सुख प्राप्त होगा । पार्वतीके अतिरिक्त अन्य कोई भी मेरे इस स्वरूपको धारण करने में समर्थ नहीं है; उन महाशक्तिके द्वारा धारण किये जानेपर शीघ्र ही यह मेरा निष्कल स्वरूप प्रशान्त हो जायगा ॥ ४५-४६ ॥

सूत उवाच -
तच्छ्रुत्वा ऋषिभिर्देवैस्सुप्रसन्नैर्मुनीश्वराः ।
गृहीत्वा चैव ब्रह्माणं गिरिजा प्रार्थिता तदा ॥ ४७ ॥
प्रसन्नां गिरिजां कृत्वा वृषभध्वजमेव च ।
पूर्वोक्तं च विधिं कृत्वा स्थापितं लिंगमुत्तमम् ॥ ४८ ॥
सूतजी बोले-हे मुनीश्वरो ! तब यह सुनकर प्रसन्न हुए देवताओं एवं ऋषियोंने ब्रह्माको साथ लेकर पार्वतीकी प्रार्थना की और पार्वती तथा शिवको प्रसन्न करके पूर्वोक्त विधि सम्पादितकर उत्तम लिंग स्थापित किया ॥ ४७-४८ ॥

मंत्रोक्तेन विधानेन देवाश्च ऋषयस्तथा ।
चक्रुः प्रसन्नां गिरिजां शिवं च धर्महेतवे ॥ ४९ ॥
इस प्रकार मन्त्रोक्त विधानके अनुसार उन देवताओं एवं ऋषियोंने धर्मकी रक्षाके लिये शिव तथा पार्वतीको प्रसन्न किया ॥ ४९ ॥

समानर्चुर्विशेषेण सर्वे देवर्षयः शिवम् ।
ब्रह्मा विष्णुः परे चैव त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥ ५० ॥
तत्पश्चात् सभी देवता, ऋषिगण, ब्रह्मा, विष्णु तथा चराचर त्रिलोकीने शिवजीकी विशेष रूपसे पूजा की ॥ ५० ॥

सुप्रसन्नः शिवो जातः शिवा च जगदम्बिका ।
धृतं तया च तल्लिंगं तेन रूपेण वै तदा ॥ ५१ ॥
लोकानां स्थापिते लिंगे कल्याणं चाभवत्तदा ।
प्रसिद्धं चैव तल्लिंगं त्रिलोक्यामभवद्द्विजाः ॥ ५२ ॥
तब शिवजी प्रसन्न हो गये और जगदम्बा पार्वती भी प्रसन्न हो गयीं; इसके बाद उन पार्वतीने उस शिवलिंगको पौठरूपसे धारण कर लिया । हे द्विजो ! तब शिवलिंगके स्थापित हो जानेपर लोकोंका कल्याण हुआ और वह शिवलिंग तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध हो गया ॥ ५१-५२ ॥

हाटकेशमिति ख्यातं तच्छिवाशिवमित्यपि ।
पूजनात्तस्य लोकानां सुखं भवति सर्वथा ॥ ५३ ॥
इह सर्वसमृद्धिः स्यान्नानासुखवहाधिका ।
परत्र परमा मुक्तिर्नात्र कार्या विचारणा ॥ ५४ ॥
पार्वतीजी तथा शिवका वह विग्रह हाटकेश्वरइस नामसे प्रसिद्ध हुआ, उसके पूजनसे सभी लोगोंको सब प्रकारका सुख प्राप्त होता है, इस लोकमें अनेक प्रकारका सुख देनेवाली सम्पूर्ण समृद्धि अधिकाधिक प्राप्त होती है और परलोकमें उत्तम मुक्ति प्राप्त होती है । इसमें कोई विचार नहीं करना चाहिये ॥ ५३-५४ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां
लिंगस्वरूपकारणवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें लिंगस्वरूपकारणवर्णन नामक बारहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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