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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां

त्रयोदशोऽध्यायः

वटुकोत्पत्तिवर्णनम् -
अन्धकेश्वरलिंगकी महिमा एवं बटुककी उत्पत्तिका वर्णन -


सूत उवाच -
यथाभवल्लिंगरूपः संपूज्यस्त्रिभवे शिवः ।
तथोक्तं वा द्विजाः प्रीत्या किमन्यच्छ्रोतुमिच्छथ ॥ १ ॥
सूतजी बोले-हे द्विजो ! जिस प्रकार शिवजी तीनों लोकोंमें लिंगस्वरूपसे पूजनीय हुए, उस वृत्तान्तको मैंने प्रीतिपूर्वक बता दिया; अब आपलोग और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ १ ॥

ऋषय ऊचुः।अन्धकेश्वरलिंगस्य महिमानं वद प्रभो ।
तथान्यच्छिवलिंगानां प्रीत्या वक्तुमिहार्हसि ॥ २ ॥
ऋषिगण बोले-हे प्रभो ! आप अन्धकेश्वर लिंगकी महिमाका वर्णन कीजिये तथा इसी प्रसंगमें अन्य शिवलिंगोंकी महिमा भी प्रीतिपूर्वक कहिये ॥ २ ॥

सूत उवाच -
पुराब्धिगर्तमाश्रित्य वसन्दैत्योऽन्धकासुरः ।
स्ववशं कारयामास त्रैलोक्यं सुरसूदनः ॥ ३ ।
सूतजी बोले-हे महर्षियो ! पूर्व समयमें समुद्रके गर्तका आश्रय लेकर निवास करते हुए देवशत्रु अन्धक नामक दैत्यने त्रैलोक्यको अपने वशमें कर लिया था ॥ ३ ॥

तस्माद्गर्ताच्च निस्सृत्य पीडयित्वा पुनः प्रजाः ।
प्राविशच्च तदा दैत्यस्तं गर्तं सुपराक्रमः ॥ ४ ॥
देवाश्च दुःखितः सर्वे शिवं प्रार्थ्य पुनःपुनः ।
सर्वं निवेदयामासुस्स्वदुःखं च मुनीश्वराः ॥ ५ ॥
वह अत्यन्त पराक्रमशाली दैत्य उस गर्तसे निकलकर प्रजाओंको पीड़ित करनेके पश्चात् पुनः उसी गड्ढे में प्रवेश कर जाता था । हे मुनीश्वरो ! तब दुखी होकर समस्त देवताओंने बारंबार शिवकी प्रार्थना करते हुए उनसे अपना सारा दुःख निवेदन किया ॥ ४-५ ॥

सूत उवाच -
तदाकर्ण्य वचस्तेषां देवानां परमेश्वरः ।
प्रत्युवाच प्रसन्नात्मा दुष्टहंता सतां गतिः ॥ ६ ॥
सूतजी बोले-तब उन देवगणोंका वचन सुनकर दुष्टोंका संहार करनेवाले एवं सजनोंके शरणदाता परमेश्वर प्रसन्न होकर कहने लगे- ॥ ६ ॥

शिव उवाच -
घातयिष्यामि तं दैत्यमन्धकं सुरसूदनम् ।
सैन्यं च नीयतान्देवा ह्यायामि च गणैस्सह ॥ ७ ॥
तस्माद्गर्तादंधके हि देवर्षिद्रुहि भीकरे ।
निस्सृते च तदा तस्मिन्देवा गर्तमुपाश्रिताः ॥ ८ ॥
शिवजी बोले-हे देवगण ! मैं देवताओंको दुःख देनेवाले उस अन्धक दैत्यका वध करूँगा; आपलोग अपनी सेना लेकर चलिये, मैं भी गणोंके साथ आ रहा हूँ । तब उस गर्नसे देवताओं और ऋषियोंसे द्वेष करनेवाले उस भयंकर अन्धकके निकल जानेपर देवता लोग उस गर्तमें प्रवेश कर गये ॥ ७-८ ॥

दैत्याश्च देवताश्चैव युद्धं चक्रुः सुदारुणम् ।
शिवानुग्रहतो देवाः प्रबलाश्चाभवँस्तदा ॥ ९ ॥
देवैश्च पीडितः सोपि यावद्गर्तमुपागतः ।
तावच्छूलेन संप्रोतः शिवेन परमात्मना ॥ १० ॥
तब देवताओं एवं दैत्योंने [परस्पर] अत्यन्त भयानक युद्ध किया; शिवजीकी कृपासे देवता उस [युद्ध]-में प्रबल हो गये । देवताओंसे पीड़ित होकर वह ज्यों ही उस गट्टे में प्रवेश करने लगा, उसी समय परमात्मा शिवने उसे त्रिशूलमें पिरो लिया ॥ ९-१० ॥

तत्रत्यश्च तदा शंभुं ध्यात्वा संप्रार्थयत्तदा ।
अन्तकाले च त्वां दृष्ट्‍वा तादृशो भवति क्षणात् ॥ ११ ॥
तब त्रिशूलमें स्थित हुआ वह शिवजीका ध्यान करके प्रार्थना करने लगा कि [हे शिवजी !] अन्त समयमें आपका दर्शन करके प्राणी आपके ही सदृश हो जाता है ॥ ११ ॥

इत्येवं संस्तुतस्सोपि प्रसन्नः शंकरस्तदा ।
उवाच वचनं तत्र वरं ब्रूहि ददामि ते ॥ १२ ॥
इस प्रकार स्तुत हुए उन शंकरने भी प्रसन्न होकर यह वचन कहा-तुम वर माँगो, मैं तुम्हें दूँगा ॥ १२ ॥

इत्येवं वचनं श्रुत्वा स दैत्यः पुनरब्रवीत् ।
सुप्रणम्य शिवं स्तुत्वा सत्त्वभावमुपाश्रितः ॥ १३ ॥
यह वचन सुनकर सात्त्विक भावको प्राप्त हुए उस दैत्यने शिवजीको भलीभाँति प्रणाम करके तथा उनकी स्तुतिकर [पुनः] कहा- ॥ १३ ॥

अन्धक उवाच -
यदि प्रसन्नो देवेश स्वभक्तिं देहि मे शुभाम् ।
कृपां कृत्वा विशेषेण संस्थितो भव चेह वै ॥ १४ ॥
अन्धक बोला-हे देवेश ! यदि आप प्रसन्न हैं, तो मुझे अपनी शुभ भक्ति प्रदान कीजिये और विशेष कृपा करके यहाँपर निवास कीजिये ॥ १४ ॥

सूत उवाच -
इत्युक्तस्तेन दैत्यं तं तद्गर्ते चाक्षिपद्धरः ।
स्वयं तत्र स्थितो लिंगरूपोऽसौ लोककाम्यया ॥ १५ ॥
सूतजी बोले-उसके इस प्रकार कहनेपर [भगवान्] शंकरने उस दैत्यको उसी गड़े में फेंक दिया और लोकहितकी कामनासे वे वहीं लिंगरूप धारणकर स्थित हो गये ॥ १५ ॥

अन्धकेशं च तल्लिंगं नित्यं यः पूजयेन्नरः ।
षण्मासाज्जायते तस्य वांछासिद्धिर्न संशयः ॥ १६ ॥
जो मनुष्य नित्य उस अन्धकेश्वर लिंगकी पूजा करता है, उसकी छ: मासके भीतर ही समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं । इसमें सन्देह नहीं है ॥ १६ ॥

वृत्त्यर्थं पूजयेल्लिंगं लोकस्य हितकारकम् ।
षण्मासं यो द्विजश्चैव स वै देवलकः स्मृतः ॥ १७ ॥
[परंतु] जो ब्राह्मण आजीविकाके लिये छ: मासतक संसारका हित करनेवाले इस लिंगकी [द्रव्य लेकर] पूजा करता है, वह तो देवलक कहा गया है ॥ १७ ॥

यथा देवलकश्चैव स भवेदिह वै तदा ।
देवलकश्च यः प्रोक्तो नाधिकारो द्विजस्य हि ॥ १८ ॥
जिस प्रकार देवलक होता है, उसी प्रकार वह ब्राह्मण भी हो जाता है, [जो छ: महीनेतक वृत्त्यर्थ शिवपूजन करता है, जो देवलक कहा गया है, वह द्विजत्वके अधिकारसे वंचित हो जाता है ॥ १८ ॥

ऋषय ऊचुः -
देवलकश्च कः प्रोक्तः किं कार्यं तस्य विद्यते ।
तत्त्वं वद महाप्राज्ञ लोकानां हितहेतवे ॥ १९ ॥
ऋषिगण बोले-देवलक कौन कहा गया है और उसका क्या कार्य है ? हे महाप्राज्ञ ! लोकहितके लिये आप इसे बताइये ॥ १९ ॥

सूत उवाच -
दधीचिर्नाम विप्रो यो धर्मिष्ठो वेदपारगः ।
शिवभक्तिरतो नित्यं शिवशास्त्रपरायणः ॥ २० ॥
तस्य पुत्रस्तथा ह्यासीत्स्मृतो नाम्ना सुदर्शनः ।
तस्य भार्या दुकूला च नाम्ना दुष्टकुलोद्भवा ॥ २१ ॥
सूतजी बोले-ऋषियो ! जो दधीचि नामक धर्मिष्ठ, वेदमें पारंगत, शिवभक्तिमें संलग्न तथा शिवशास्वपरायण विप्र थे, उनका पुत्र भी वैसा ही था; वह सुदर्शन नामसे प्रसिद्ध था । उसकी दुकूला नामक पत्‍नी थी, जो दुष्टकुलमें उत्पन्न हुई थी ॥ २०-२१ ॥

तद्वशे स च भर्तासीत्तस्य पुत्रचतुष्टयम् ।
सोऽपि नित्यं शिवस्यैव पूजां च स्म करोत्यसौ ॥ २२ ॥
उसका वह पति [सुदर्शन] उसके वशमें रहता था । उसके चार पुत्र हुए । वह [सुदर्शन] भी नित्य शिवको पूजा किया करता था ॥ २२ ॥

दधीचेस्तु तदा ह्यासीद्ग्रामान्तरनिवेशनम् ।
ज्ञातिसंयोगतश्चैव ज्ञातिभिर्न स मोचितः ॥ २३ ॥
किसी समय दधीचिको दूसरे गाँवमें जाना पड़ा, वहाँ बान्धवोंके सम्मेलनके कारण बन्धु-बान्धवोंने उन्हें लौटने नहीं दिया ॥ २३ ॥

कथयित्वा च पुत्रं स शिवभक्तिरतो भव ।
इत्युक्त्वा स गतो मुक्तो दाधीचिश्शैवसत्तमः ॥ २४ ॥
सुदर्शनस्तत्पुत्रोऽपि शिवपूजां चकार ह ।
एवं चिरतरः कालो व्यतीयाय मुनीश्वराः ॥ २५ ॥
शैवोंमें श्रेष्ठ वे दधीचि अपने पुत्रसे 'तुम शिवजीकी सेवा करते रहना' यह कहकर [पूजन आदि दायित्वोंसे] मुक्त होकर चले गये । उनका पुत्र सुदर्शन भी शिवजीका पूजन करता रहा । हे मुनीश्वरो ! इस प्रकार बहुत समय बीत गया ॥ २४-२५ ॥

एवं च शिवरात्रिश्च समायाता कदाचन ।
तस्यां चोपोषितास्सर्वे स्वयं संयोगतस्तदा ॥ २६ ॥
इसी बीच शिवरात्रि आ गयी और उसमें सभी लोगोंने उपवास किया और सुदर्शनने स्वयं भी संयोगवश उपवास किया ॥ २६ ॥

पूजां कृत्वा गतस्सोऽपि सुदर्शन इति स्मृतः ।
स्त्रीसंगं शिवरात्रौ तुं कृत्वा पुनरिहागतः ॥ २७ ॥
वह सुदर्शन भी पूजा करके चला गया और शिवरात्रिमें स्त्रीसंग करके पुनः वहाँ आ गया ॥ २७ ॥

न स्नानं तेन च कृतं तद्रात्र्यां शिवपूजनम् ।
तेन तत्कर्मपाकेन क्रुद्धः प्रोवाच शङ्करः ॥ २८ ॥
उसने उस रात्रिमें स्नान नहीं किया, किंतु शिवपूजन किया; तब उसके इस कुकर्मसे क्रोधित हुए [भगवान्] शंकरने कहा- ॥ २८ ॥

महेश्वर उवाच -
शिवरात्र्यां त्वया दुष्ट सेवनं च स्त्रियाः कृतम् ।
अस्नातेन मदीया च कृता पूजाविवेकिना ॥ २९ ॥
ज्ञात्वा चैवं कृतं यस्मात्तस्मात्त्वं जडतां व्रज ।
ममास्पृश्यो भव त्वं च दूरतो दर्शनं कुरु ॥ ३० ॥
महेश्वर बोले-रे दुष्ट ! तुझ अविवेकीने शिवरात्रिके दिन स्त्रीका सेवन किया और बिना स्नान किये ही मेरा पूजन भी किया । चूँकि तुमने जानबूझकर ऐसा किया है, इसलिये जड़ हो जाओ । अब तुम मुझे स्पर्श करनेयोग्य नहीं हो, अत: दूरसे ही दर्शन करो ॥ २९-३० ॥

सूत उवाच -
इति शप्तो महेशेन दाधीचिस्स सुदर्शनः ।
जडत्वं प्राप्तवान्सद्यश्शिवमायाविमोहितः ॥ ३१ ॥
सूतजी बोले-[हे महर्षियो !] शिवजीके द्वारा इस प्रकार शापित वह दधीचिपुत्र सुदर्शन शिवमायासे विमोहित होकर उसी क्षण जड़ हो गया ॥ ३१ ॥

एतस्मिन्समये विप्रा दधीचिः शैवसत्तमः ।
ग्रामान्तरात्समायातो वृत्तान्तं श्रुतवाँश्च सः ॥ ३२ ॥
हे ब्राह्मणो ! इसी समय शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ दधीचि दूसरे गाँवसे आ गये और उन्होंने यह समाचार सुना ॥ ३२ ॥

शिवेन भर्त्सितः सोऽपि दुःखितोऽभूदतीव हि ।
रुरोद हा हतोऽश्मीति दुःखेन सुतकर्मणा ॥ ३३ ॥
पुनःपुनरुवाचेति स दधीचिस्सतां मतः ।
अनेनेदं कुपुत्रेण हतं मे कुलमुत्तमम् ॥ ३४ ॥
शिवजीने उन्हें भी धिक्कारा, तब वे अत्यन्त दुखी हुए और यह कहकर रोने लगे-हाय ! पुत्रके दुःखित करनेवाले कुकर्मसे मैं मारा गया । सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ दधीचिने बारंबार यह कहा कि इस कुपुत्रके कारण मेरा यह उत्तम कुल नष्ट हो गया ॥ ३३-३४ ॥

स पुत्रोऽपि हतो भार्यां पुंश्चलीं कृतवान्द्रुतम् ।
पश्चात्तापमनुप्राप्य स्वपित्रा परिभर्त्सितः ॥ ३५ ॥
तत्पित्रा गिरिजा तत्र पूजिता विधिभिर्वरैः ।
सुयत्नतो महाभक्त्या स्वपुत्रसुखहेतवे ॥ ३६ ॥
अपने पिताके द्वारा तिरस्कृत उस अभागे पुत्र सुदर्शनने भी पश्चात्ताप करके अपनी भायांके लिये कहा कि यह पुंश्चली है । तदुपरान्त उसके पिताने वहाँ पुत्रके कल्याणके लिये प्रयत्‍नपूर्वक श्रेष्ठ विधियोंसे परमभक्ति भावसे पार्वतीका पूजन किया ॥ ३५-३६ ॥

सुदर्शनोऽपि गिरिजां पूजयामास च स्वयम् ।
चण्डीपूजनमार्गेण महाभक्त्या शुभैः स्तवैः ॥ ३७ ॥
स्वयं सुदर्शनने भी महाभक्तिपूर्वक चण्डीपूजनविधानसे पार्वतीका पूजन किया और उत्तम स्तोत्रोंसे उनकी स्तुति भी की ॥ ३७ ॥

एवं तौ पितृपुत्रौ हि नानोपायैः सुभक्तितः ।
प्रसन्नां चक्रतुर्देवीं गिरिजां भक्तवत्सलाम् ॥ ३८ ॥
इस प्रकार उन दोनों पिता-पुत्रोंने भक्तिपूर्वक अनेक उपायोंसे भक्तवत्सला देवी गिरिजाको प्रसन्न कर लिया ॥ ३८ ॥

तयोः सेवाप्रभावेण प्रसन्ना चण्डिका तदा ।
सुदर्शनं च पुत्रत्वे चकार गिरिजा मुने ॥ ३९ ॥
हे मुने ! तब उन दोनोंके उत्कृष्ट सेवाभावसे प्रसन्न हुई चण्डिकाने सुदर्शनको अपना पुत्र मान लिया ॥ ३९ ॥

शिवं प्रसादयामास पुत्रार्थे चण्डिका स्वयम् ।
क्रुद्धाऽक्रुद्धा पुनश्चण्डी तत्पुत्रस्य प्रसन्नधीः ॥ ४० ॥
अथाज्ञाय प्रसन्नं तं महेशं वृषभध्वजम् ॥
नमस्कृत्य स्वयं तस्य ह्युत्संगे तं न्यवेशयत् ॥ ४१ ॥
चण्डिकाने स्वयं भी उस [सुदर्शन नामक] पुत्रके लिये शिवजीको प्रसन्न किया । इसके बाद पूर्वमें सुदर्शनसे क्रोधित किंतु अब उस पुत्रपर क्रोधरहित चण्डिकाने प्रसन्नचित्त होकर उन वृषभध्वज महेश्वरको [भलीभाँति] प्रसन्न जानकर उन्हें नमस्कारकर स्वयं ही उस सुदर्शनको उनकी गोदमें बैठा दिया ॥ ४०-४१ ॥

घृतस्नानं ततः कृत्वा पुत्रस्य गिरिजा स्वयम् ।
त्रिरावृत्तोपवीतं च ग्रन्थिनैकेन संयुतम् ॥ ४२ ॥
सुदर्शनाय पुत्राय ददौ प्रीत्या तदाम्बिका ।
उद्दिश्य शिवगायत्रीं षोडशाक्षरसंयुताम् ॥ ४३ ॥
तदोंनमः शिवायेति श्रीशब्द पूर्वकाय च ।
वारान्षोडश संकल्पपूजां कुर्यादयं बटुः ॥ ४४ ॥
इसके बाद गिरिजाने स्वयं ही सुदर्शनको घृतसे स्नान कराकर एक ग्रन्थिसे युक्त त्रिरावृत यज्ञोपवीत प्रसन्नतापूर्वक पहनाया । तत्पश्चात् अम्बिकाने पुत्र सुदर्शनको सोलह अक्षरसे युक्त शिवगायत्रीका उपदेश दिया और यह भी कहा कि यह बटु श्रीशब्दपूर्वक 'ॐ नमः शिवाय'-इस मन्त्रका सोलह बार उच्चारणकर संकल्पपूजा किया करे ॥ ४२-४४ ॥

आस्नानादिप्रणामान्तं पूजयन्वृषभध्वजम् ।
मंत्रवादित्रपूजाभिस्सर्षीणां सन्निधौ तथा ॥ ४५ ॥
नाममंत्राननेकांश्च पाठयामास वै तदा ।
उवाच सुप्रसन्नात्मा चण्डिका च शिवस्तथा ॥ ४६ ॥
पुनः उन्होंने स्नानसे लेकर प्रणामपर्यन्त विविध उपचारोंसे ऋषियोंके सान्निध्यमें मन्त्र एवं वाद्यके साथ उस बालकसे शिवपूजन करवाया और उससे शिवजीके अनेक नामों तथा मन्त्रोंका पाठ कराया । तत्पश्चात् अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर चण्डिका एवं शिवजीने उससे कहा- ॥ ४५-४६ ॥

मदर्पितं च यत्किंचिद्धनधान्यादिकन्तथा ।
तत्सर्वं च त्वया ग्राह्यं न दोषाय भविष्यति ॥ ४७ ॥
मम कृत्ये भवान्मुख्यो देवीकृत्ये विशेषतः ।
घृततैलादिकं सर्वं त्वया ग्राह्यं मदर्पितम् ॥ ४८ ॥
प्राजापत्यं भवेद्यर्हिं तर्ह्येको हि भवान्भवेत् ।
तदा पूजा च सम्पूर्णान्यथा सर्वा च निष्फला ॥ ४९ ॥
तिलकं वर्तुलं कार्यं स्नानं कार्यं सदा त्वया ।
शिवसन्ध्या च कर्तव्या गायत्री च तदीयिका ॥ ५० ॥
मत्सेवां प्रथमं कृत्वा कार्यमन्यत्कुलोचितम् ।
एवं कृतेऽखिले भद्रं दोषाः क्षान्ता मया तव ॥ ५१ ॥
[हे पुत्र !] मेरे लिये जो कुछ भी धन-धान्य आदि अर्पित किया गया हो, वह सब तुम्हें ग्रहण करना चाहिये; इसे ग्रहण करनेमें तुम्हें कोई दोष नहीं लगेगा । मेरे [समस्त] कार्यमें और विशेषकर देवीके कार्यमें तुम मुख्य रहोगे । मेरे लिये चढ़ाया गया घृत, तैल आदि सब कुछ तुम्हें ग्रहण करना चाहिये । जब प्राजापत्य होने लगेगा, तब उसमें तुम अकेले ही मुख्य होगे; और तभी पूजा पूर्ण होगी, अन्यथा सब पूजा निष्फल हो जायगी । तुम सर्वदा वर्तुलाकार तिलक लगाना, स्नान करना, शिवसन्ध्या करना और शिवगायत्रीका जप करना । सबसे पहले मेरी सेवा करके तुम कुलोचित अन्य कार्य करना; यह सब किये जानेपर तुम्हारा कल्याण होगा । मैंने तुम्हारे समस्त दोष क्षमा कर दिये ॥ ४७-५१ ॥

सूत उवाच -
इत्युक्त्वा तस्य पुत्राश्च चत्वारो बटुकास्तदा ।
अभिषिक्ताश्चतुर्दिक्षु शिवेन परमात्मना ॥ ५२ ॥
चण्डी चैवात्मनिकटे पुत्रं स्थाप्य सुदर्शनम् ।
तत्पुत्रान्प्रेरयामास वरान्दत्त्वा ह्यनेकशः ॥ ५३ ॥
सूतजी बोले-ऐसा कहकर परमात्मा शिवजीने उसके चारों बटुक पुत्रोंको चारों दिशाओंमें अभिषिक्त कर दिया । तब भगवती चण्डी पुत्र सुदर्शनको अपने निकट बैठाकर उसके पुत्रोंको अनेक प्रकारके वर देकर शिक्षा देने लगीं ॥ ५२-५३ ॥

देव्युवाच -
उभयोर्युवयोर्मध्ये वटुको यो भवेन्मम ।
तस्य स्याद्विजयो नित्यं नात्र कार्या विचारणा ॥ ५४ ॥
भवांश्च पूजितो येन तेनैवाहं प्रपूजिता ।
कर्तव्यं हि भवद्भिश्च स्वीयं कर्म सदा सुत ॥ ५५ ॥
देवी बोलीं-दो व्यूहोंके [युद्धमें] जिस ओर मेरा बटुक होगा, उसकी सदा विजय होगी; इसमें सन्देह नहीं करना चाहिए । हे पुत्र ! जिसने तुम्हारी पूजा की, उसने मानो मेरी पूजा कर ली; तुम सभीको अपना कर्म सदा करते रहना चाहिये ॥ ५४-५५ ॥

सूत उवाच -
एवं तस्मै वरान्दत्तास्सपुत्राय महात्मने ।
सुदर्शनाय कृपया शिवाभ्यां जगतां कृते ॥ ५६ ॥
शिवाभ्यां स्थापिता यस्मात्तस्मात्तं वटुकाः स्मृताः ।
तपोभ्रष्टाश्च ये जाताः स्मृतास्तस्मात्तपोधमाः ॥ ५७ ॥
सूतजी बोले-हे ऋषियो ! इस प्रकार शिव एवं शिवाने कृपापूर्वक संसारके कल्याणके लिये पुत्रोंसहित उस महात्मा सुदर्शनको अनेक वर प्रदान किये । चकि शिव एवं पार्वतीने उन्हें [अपने पुत्रके रूपमें] प्रतिष्ठित किया, इसलिये वे बटुक कहे गये हैं और अपनी तपस्यासे भ्रष्ट हुए, इसलिये वे तपोऽधम कहे गये हैं ॥ ५६-५७ ॥

शिवयोः कृपया सर्वे विस्तारं बहुधा गताः ।
तेषां च प्रथमा पूजा महापूजा महात्मनः ॥ ५८ ॥
शिव-शिवाकी कृपासे वे [आगे चलकर] बहुत विस्तृत हो गये । इन बटुकोंकी प्रथम पूजा साक्षात् महात्मा शंकरकी ही महापूजा है ॥ ५८ ॥

तेन यावत्कृता नैव पूजा वै शंकरस्य च ।
तावत्पूजा न कर्त्तव्या कृता चेन्न शुभापि सा ॥ ५९ ॥
शुभं वाप्यशुभं वापि बटुकं न परित्यजेत् ।
प्राजापत्ये च भोज्ये वै वटुरेको विशिष्यते ॥ ६० ॥
इसलिये जबतक बटुकोंकी पूजा न कर ली जाय, तबतक शिवजीकी पूजा नहीं करनी चाहिये । यदि पूर्वमें शिवजीकी पूजा की जाय, तो वह शुभदायी नहीं होती । शुभ कार्य हो अथवा अशुभ कार्य हो, बटुकका कभी भी त्याग न करे । प्राजापत्य भोजमें एक बटुकका पूजन भी विशिष्ट कहा गया है । ५९-६० ॥

शिवयोश्च तथा कार्ये विशेषोऽत्र प्रदृश्यते ।
तदेव शृणु सुप्राज्ञ यथाहं वच्मि तेऽनघ ॥ ६१ ॥
शिव एवं पार्वतीके कार्यमें बटुककी ही विशेषता देखी जाती है; हे बुद्धिमान् एवं निष्पाप शौनकजी ! मैं जैसा कहता हूँ, उसे आप सुनें ॥ ६१ ॥

तस्यैव नगरे राज्ञो भद्रस्य नित्यभोजने ।
प्राजापत्यस्य नियमे ह्यन्धकेशसमीपतः ॥ ६२ ॥
यज्जातमद्भुतं वृत्तं शिवानुग्रहकारणात् ।
श्रूयतां तच्च सुप्रीत्या कथयामि यथाश्रुतम् ॥ ६३ ॥
अन्धकेश्वरके समीप भद्र नामक राजाके नगरमें प्राजापत्य [नामक यज्ञानुष्ठान, जिसमें नित्यप्रति ब्राह्मणभोजनका सम्पादन होता था]-के नित्य भोजनवाले नियममें शिवके अनुग्रहसे जो अद्‌भुत घटना घटी, उसे प्रीतिपूर्वक सुनिये; जैसा मैंने सुना है, वैसा कह रहा हूँ ॥ ६२-६३ ॥

ध्वज एकश्च तद्राज्ञे दत्तस्तुष्टेन शंभुना ।
प्रोक्तश्च कृपया राजा देवदेवेन तेन सः ॥ ६४ ॥
प्रातश्च वर्ध्यतां राजन्ध्वजो रात्रौ पतिष्यति ।
मम त्वेवं च सम्पूर्णे प्राजापत्ये तथा पुनः ॥ ६५ ॥
अन्यथायं ध्वजो मे हि रात्रावपि स्थिरो भवेत् ।
इत्युक्त्वान्तर्हितश्शंभू राज्ञे तुष्टः कृपानिधिः ॥ ६६ ॥
[भगवान्] सदाशिवने प्रसन्न होकर उस भद्र नामक राजाको एक ध्वज प्रदान किया । उसके अनन्तर देवाधिदेव सदाशिवने कृपापूर्वक उस राजासे कहा-हे राजन् ! जिस दिन तुम्हारा प्राजापत्य [यज्ञ] पूर्ण होगा, उस दिन प्रात:काल यह बँधी हुई ध्वजा बढ़ेगी और रात्रिमें गिर जायगी । यदि तुम्हारी पजामें कोई त्रुटि होगी, तो यह ध्वजा रात्रिकालमें भी स्थिर रहेगी । इतना कहकर राजासे सन्तुष्ट हुए कृपानिधि शंकर अन्तर्धान हो गये । ६४-६६ ॥

तथेति नियमश्चासीत्तस्य राज्ञो महामुने ।
प्राजापत्यं कृतं नित्यं शिवपूजाविधानत ॥ ६७ ॥
स्वयं प्रातर्विवर्दे्धेत ध्वजः सायं पतेदिति ॥
यदि कार्यं च सम्पूर्णं जातं चैव भवेदिह ॥ ६८ ॥
हे महामुने ! उस राजाका वैसा ही नियम चलता रहा, वह शिव-पूजाके विधानके अनुसार नित्यप्रति प्राजापत्यका अनुष्ठान करने लगा । जब कार्य पूर्ण हो जाता, तो प्रात:काल ध्वजा स्वयं बढ़ जाती एवं सायंकाल गिर जाती ॥ ६७-६८ ॥

एकस्मिन्समये चात्र बटोः कार्यं पुरा ह्यभूत् ।
ध्वजः स पतितो वै हि ब्रह्मभोजं विनापि हि ॥ ६९ ॥
किसी समय ब्राह्मणभोजनके बिना ही बटुकोंकी पूजा पहले हो गयी और वह ध्वजा गिर पड़ी ॥ ६९ ॥

दृष्ट्‍वा तच्च तदा तत्र पृष्टा राज्ञा च पण्डिताः ।
भुञ्जते ब्राह्मणा ह्यत्र नोत्थितो वै ध्वजस्त्विति ॥ ७० ॥
कथं च पतितः सोऽत्र ब्राह्मणा ब्रूत सत्यतः ।
ते पृष्टाश्च तदा प्रोचुर्ब्राह्मणाः पण्डितोत्तमाः ॥ ७१ ॥
ब्रह्मभोजे महाराज वटुको भोजितः पुरा ।
चण्डीपुत्रश्शिवस्तुष्टस्तस्माच्च पतितो ध्वजः ॥ ७२ ॥
यह देखकर राजाने पण्डितोंसे पूछा-ब्राह्मणलोग यहाँ भोजन कर रहे हैं, किंतु यह ध्वज नहीं उठा । हे ब्राह्मणो ! वह ध्वज क्यों गिर पड़ा, आपलोग सत्य-सत्य कहिये ? तब इस प्रकार पूछे जानेपर पण्डितप्रवर ब्राह्मणोंने कहा-हे महाराज ! ब्रह्मभोजमें चण्डीपुत्र बटुकको पहले ही भोजन करा दिया गया; इससे शिवजी सन्तुष्ट हो गये, इसीलिये ध्वजा गिर गयी ॥ ७०-७२ ॥

तच्छ्रुत्वा नृपतिस्सोऽथ जनाश्चान्ये ऽपि सर्वशः ।
अभवन्विस्मितास्तत्र प्रशंसां चक्रिरे ततः ॥ ७३ ॥
तब यह सुनकर वह राजा तथा अन्य लोग भी चकित हो उठे और प्रशंसा करने लगे ॥ ७३ ॥

एवं च महिमा तेषां वर्द्धितः शङ्करेण हि ।
तस्माच्च वटुकाः श्रेष्ठाः पुरा विद्भिः प्रकीर्तिताः ॥ ७४ ॥
इस प्रकार शिवजीने स्वयं ही उन (बटुकों)-की महिमा बढ़ायी, इसलिये प्राचीन विद्वानोंने बटुकोंको श्रेष्ठ कहा है ॥ ७४ ॥

शिवपूजा तु तैः पूर्वमुत्तार्य्या नान्यथा पुनः ।
अन्येषां नाधिकारोऽस्ति शिवस्य वचनादिह ॥ ७५ ॥
उत्तारणं च कार्य्यं वै पूजा पूर्णा भवत्विति ।
एतावदेव तेषां तु शृणु नान्यत्तथैव च ॥ ७६ ॥
अतः बटुकोंक द्वारा ही शिवजीकी उत्तारणा करवानी चाहिये, अन्यथा पूजा सफल नहीं होती । शिवजीके वचनानुसार इसमें दूसरोंका अधिकार नहीं है, उन्हें ही उत्तारणा करनी चाहिये, तभी पूजा पूर्ण होती है । केवल इतना ही उनका कार्य है, कोई दूसरा [कार्य] नहीं है । ७५-७६ ॥

एतत्सर्वं समाख्यातं यत्पृष्टं च मुनीश्वराः ।
यच्छ्रुत्वा शिवपूजायाः फलं प्राप्नोति वै नरः ॥ ७७ ॥
हे मुनीश्वरो ! आपलोगोंने जो पूछा था, वह सब मैंने कह दिया; इसे सुनकर मनुष्य शिवपूजाका फल प्राप्त करता है ॥ ७७ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां
वटुकोत्पत्तिवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिकव्रसंहितामें बटुकोत्यत्तिवर्णन नामक तेरहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १३ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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