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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां
चतुर्दशोऽध्यायः सोमनाथज्योतिर्लिंगोत्पत्तिवर्णनम् -
सोमनाथ ज्योतिर्लिंगकी उत्पत्तिका वृत्तान्त - ऋषय ऊचुः - ज्योतिषां चैव लिंगानां माहात्म्यं कथयाधुना । उत्पत्तिं च तथा तेषां ब्रूहि सर्वं यथाश्रुतम् ॥ १ ॥ ऋषि बोले-[हे सूतजी !] अब आप ज्योतिर्लिंगोंकि माहात्म्य तथा उनकी उत्पत्तिका वर्णन कीजिये; जैसा आपने सुना है, वह सब बताइये ॥ १ ॥ सूत उवाच - शृण्वन्तु विप्रा वक्ष्यामि तन्माहात्म्यं जनिं तथा । संक्षेपतो यथाबुद्धि सद्गुरोश्च मया श्रुतम् ॥ २ ॥ सूतजी बोले-हे ब्राह्मणो ! मैं उनके माहात्म्य एवं उनकी उत्पत्तिके विषयमें, जैसा कि मैंने अपने सद्गुरुसे सुना है, संक्षेपमें अपनी बुद्धिके अनुसार कहता हूँ; आपलोग श्रवण करें ॥ २ ॥ एतेषां चैव माहात्म्यं वक्तुं वर्षशतैरपि । शक्यते न मुनिश्रेष्ठास्तथापि कथयामि वः ॥ ३ ॥ हे मुनिश्रेष्ठो ! सैकड़ों वर्षों में भी इनके माहात्म्यका वर्णन नहीं किया सकता है, फिर भी मैं आपलोगोंको बता रहा हूँ ॥ ३ ॥ सोमनाथश्च तेषां वै प्रथमः परिकीर्तितः । तन्माहात्म्यं शृणु मुने प्रथमं सावधानतः ॥ ४ ॥ उनमें सोमनाथ प्रथम कहे गये हैं । हे मुने ! सबसे पहले उन्हींका माहात्म्य सावधानीसे सुनिये ॥ ४ ॥ सप्तविंशन्मिताः कन्या दक्षेण च महात्मना । तेन चन्द्रमसे दत्ता अश्विन्याद्या मुनीश्वराः ॥ ५ ॥ हे मुनीश्वरो ! महात्मा दक्षने अपनी अश्विनी आदि सत्ताईस कन्याओंका विवाह चन्द्रमासे कर दिया ॥ ५ ॥ चन्द्रं च स्वामिनं प्राप्य शोभमाना विशेषतः । चन्द्रोऽपि चैव ताः प्राप्य शोभते स्म निरन्तरम् ॥ ६ ॥ वे चन्द्रमाको [अपने पतिके रूपमें] प्राप्तकर अत्यधिक शोभित हुई और चन्द्रमा भी उन्हें प्राप्तकर निरन्तर शोभित होते थे, जैसा कि सुवर्णसे मणि सुशोभित होती है और मणिसे सुवर्ण सुशोभित होता है ॥ ६ ॥ हेम्ना चैव मणिर्भाति मणिना हेम चैव हि । एवं च समये तस्य यज्जातं श्रूयतामिति ॥ ७ ॥ सर्वास्वपि च पत्नीषु रोहिणीनाम या स्मृता । यथैका सा प्रिया चासीत्तथान्या न कदाचन ॥ ८ ॥ उसके अनन्तर कालक्रममें उनके साथ जो हुआ, उसको सुनिये । [चन्द्रमाकी] सभी पत्नियोंमें जो रोहिणी नामवाली कही गयी है, वह उन्हें जितना अधिक प्रिय थी, उतना अन्य कोई भी नहीं थी ॥ ७-८ ॥ अन्याश्च दुःखमापन्नाः पितरं शरणं ययुः । गत्वा तस्मै च यद्दुःखं तथा ताभिर्निवेदितम् ॥ ९ ॥ दक्षस्स च तथा श्रुत्वा दुःखं च प्राप्तावांस्तदा । समागत्य द्विजाश्चन्द्रं शान्त्यावोचद्वचस्तदा ॥ १० ॥ तब अन्य कन्याएँ दुखी होकर अपने पिताकी शरणमें गयीं । वहाँ जाकर उन सबने जो दुःख था, उसे निवेदन किया । हे ब्राह्मणो ! यह सुनकर वे दक्ष बहुत दुखी हुए । उसके बाद चन्द्रमाके पास आकर उन्होंने शान्तिपूर्वक वह वचन कहा- ॥ ९-१० ॥ दक्ष उवाच - विमले च कुले त्वं हि समुत्पन्नः कलानिधे । आश्रितेषु च सर्वेषु न्यूनाधिक्यं कथं तव ॥ ११ ॥ कृतं चेत्तकृतं तच्च न कर्तव्यं त्वया पुनः । वर्तनं विषमत्वेन नरकप्रदमीरितम् ॥ १२ ॥ दक्ष बोले-हे चन्द्रमा ! आप उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए हैं । सभी आश्रितोंके प्रति [तो समान व्यवहार करना उचित है, पर] आपका विषम व्यवहार क्यों है ? अबतक आपने जो कुछ भी किया, सो किया, किंतु पुनः ऐसा व्यवहार न करें; विषम व्यवहार नरक देनेवाला कहा गया है ॥ ११-१२ ॥ सूत उवाच - दक्षश्चैव च संप्रार्थ्य चन्द्रं जामातरं स्वयम् । जगाम मन्दिरं स्वं वै निश्चयं परमं गतः ॥ १३ ॥ चंद्रोऽपि वचनं तस्य न चकार विमोहितः । शिवमायाप्रभावेण यया संमोहितं जगत् ॥ १४ ॥ सूतजी बोले-दक्ष अपने दामाद चन्द्रमासे इस प्रकार प्रार्थनाकर निश्चिन्त हो अपने घर चले गये । चन्द्रमाने दक्षकी बात नहीं मानी, क्योंकि वे शिवमायाके प्रभावसे विमोहित थे, जिससे यह जगत् मोहित हो रहा है ॥ १३-१४ ॥ शुभं भावि यदा यस्य शुभं भवति तस्य वै । अशुभं च यदा भावि कथं तस्य शुभं भवेत् ॥ १५ ॥ जब जिसका शुभ होना है, तब उसका शुभ अवश्य होता है और जब अशुभ होना है, तब उसका शुभ किस प्रकार हो सकता है ! ॥ १५ ॥ चन्द्रोऽपि बलवद्भाविवशान्मेने न तद्वचः । रोहिण्यां च समासक्तो नान्यां मेने कदाचन ॥ १६ ॥ तच्छ्रुत्वा पुनरागत्य स्वयं दुःखसमन्वितः । प्रार्थयामास चन्द्रं स दक्षो दक्षस्सुनीतितः ॥ १७ ॥ चन्द्रमाने भी बलवान् होनहारके कारण उनकी बात नहीं मानी । वे रोहिणीमें आसक्त रहते थे तथा अन्य किसी [पत्नी]-का मान नहीं करते थे । तब दक्ष बहुत दुखी हुए और सुनीतिमें निपुण वे पुनः स्वयं आकर चन्द्रमासे नीतिपूर्वक कहने लगे- ॥ १६-१७ ॥ दक्ष उवाच - श्रूयतां चन्द्र यत्पूर्वं प्रार्थितो बहुधा मया । न मानितं त्वया यस्मात्तस्मात्त्वं च क्षयी भव ॥ १८ ॥ दक्ष बोले-हे चन्द्र ! आप सुनें, मैंने आपसे अनेक प्रकारसे प्रार्थना की, किंतु आपने नहीं माना, अत: आप क्षयरोगसे ग्रस्त हो जायें ॥ १८ ॥ सूत उवाच - इत्युक्ते तेन चन्द्रो वै क्षयी जातः क्षणादिह । हाहाकारो महानासीत्तदेन्दौ क्षीणतां गते ॥ १९ ॥ देवर्षयस्तदा सर्वे किं कार्य्यं हा कथं भवेत् । इति दुःखं समापन्ना विह्वला ह्यभवन्मुने ॥ २० ॥ सूतजी बोले-उनके इस प्रकार कहनेपर चन्द्रमा उसी क्षण क्षयरोगी हो गये । तब उनके क्षीण होते ही महान् हाहाकार मच गया । हे मुने ! उस समय सब देवता एवं ऋषि 'हाय ! अब क्या करना चाहिये, [चन्द्रमाका कल्याण] किस प्रकार होगा'-ऐसा कहते हुए दुःखित तथा व्याकुल हो गये ॥ १९-२० ॥ विज्ञापिताश्च चन्द्रेण सर्वे शक्रादयस्सुराः । ऋषयश्च वसिष्ठाद्या ब्रह्माणं शरणं ययु ॥ २१ ॥ चन्द्रमाने इन्द्र आदि सभी देवताओं तथा वसिष्ठ आदि ऋषियोंसे यह सब बताया; तब सभी लोग ब्रह्माजीकी शरणमें गये ॥ २१ ॥ गत्वापि तु तदा प्रोचुस्तद्वृत्तं निखिलं मुने । ब्रह्मणे ऋषयो देवा नत्वा नुत्वातिविह्वलाः ॥ २२ ॥ ब्रह्मापि तद्वचः श्रुत्वा विस्मयं परमं ययौ । शिवमायां सुप्रशस्य श्रावयंस्तानुवाच ह ॥ २३ ॥ मुने ! उस समय वहाँ जाकर अति व्याकुल हुए देवगण एवं ऋषियोंने ब्रह्मदेवको प्रणाम करके उनकी स्तुतिकर वह सारा समाचार निवेदन किया । ब्रह्मा भी उनकी बात सुनकर अत्यन्त आश्चर्यचकित हो शिवमायाकी प्रशंसाकर उन्हें सुनाते हुए कहने लगे- ॥ २२-२३ ॥ ब्रह्मोवाच - अहो कष्टं महज्जातं सर्वलोकस्य दुःखदम् । चन्द्रस्तु सर्वदा दुष्टो दक्षश्च शप्तवानमुम् ॥ २४ ॥ ब्रह्माजी बोले-अहो ! सारे संसारको दुःख देनेवाला यह महान् कष्ट उपस्थित हुआ है । चन्द्रमा तो सदासे ही दुष्ट है और दक्षने भी इसे शाप दे दिया ॥ २४ ॥ सर्वं दुष्टेन चन्द्रेण कृतं कर्माप्यनेकशः । श्रूयतामृषयो देवाश्चन्द्रकृत्यं पुरातनम् ॥ २५ ॥ दुष्ट चन्द्रमाने और भी अनेक दुष्कर्म किये हैं । हे देवताओ तथा ऋषियो ! आप लोग चन्द्रमाका पुरातन कृत्य सुनिये ॥ २५ ॥ बृहस्पतेर्गृहं गत्वा तारा दुष्टेन वै हृता । तस्य भार्या पुनश्चैव स दैत्यान्समुपस्थितः ॥ २६ ॥ समाश्रितस्तदा दैत्यान्युद्धं देवैश्चकार ह । मयाऽत्रिणा निषिद्धश्च तस्मै तारां ददौ शशी ॥ २७ ॥ इस दुष्टने बृहस्पतिके घर जाकर उनकी पत्नी ताराका अपहरण किया था । उसके बाद वह दैत्योंसे जाकर मिल गया और उनके पक्षमें होकर देवताओंसे बुद्ध भी किया । जब मैंने और अत्रिने चन्द्रमाको मना किया, तब उसने ताराको उन्हें लौटा दिया ॥ २६-२७ ॥ तां च गर्भवतीं दृष्ट्वा न गृह्णामीति सोऽब्रवीत् । अस्माभिर्वारितो जीवः कृच्छ्राज्जग्राह तां तदा ॥ २८ ॥ उसे गर्भवती देखकर बृहस्पतिने कहा-मैं इसे ग्रहण नहीं करूँगा, इसके बाद हमलोगोंने बृहस्पतिको ऐसा करनेसे रोका, तब बड़ी कठिनाईसे उन्होंने ताराको स्वीकार किया ॥ २८ ॥ यदि गर्भं जहातीह गृह्णामीत्यब्रवीत्पुनः । गर्भे मया पुनस्तत्र त्याजिते मुनिसत्तमाः ॥ २९ ॥ कस्यायं च पुनर्गर्भस्सोमस्येति च साऽब्रवीत् । पश्चात्तेन गृहीता सा मया च वारितेन वै ॥ ३० ॥ बृहस्पतिने पुनः कहा कि मैं इसे तभी ग्रहण करूँगा, जब यह गर्भका परित्याग करेगी । हे महर्षियो ! तब मैंने ताराका गर्भत्याग कराया । मैंने उससे पुनः पूछा कि यह किसका गर्भ है ? तब उसने कहा कि यह गर्भ चन्द्रमाका है । इसके बाद बृहस्पतिने मेरे कहनेसे उस ताराको ग्रहण किया ॥ २९-३० ॥ एवंविधानि चन्द्रस्य दुश्चारित्राण्यनेकशः । वर्ण्यंते किं पुनस्तानि सोऽद्यापि कुरुते कथम् ॥ ३१ ॥ यज्जातं तत्सुसंजातं नान्यथा भवति ध्रुवम् । अतः परमुपायं वो वक्ष्यामि शृणुतादरात् ॥ ३२ ॥ इस प्रकारके अनेक दुष्ट कर्म चन्द्रमाके हैं । उनका वर्णन मैं पुनः किस प्रकार करूँ ? वह आज भी वैसा ही क्यों कर रहा है ? अब जो होनहार था, वह तो भलीभाँति हो गया, वह तो कभी अन्यथा होनेवाला नहीं है । अब मैं आपलोगोंको उत्तम उपाय बताता हूँ, आदरपूर्वक सुनिये ॥ ३१-३२ ॥ प्रभासके शुभे क्षेत्रे व्रजेश्चन्द्रस्सदैवतैः । शिवमाराधयेत्तत्र मृत्युञ्जयविधानतः ॥ ३३ ॥ निधायेशं पुरस्तत्र चन्द्रस्तपतु नित्यशः । प्रसन्नश्च शिवः पश्चादक्षयं तं करिष्यति ॥ ३४ ॥ चन्द्रमा कल्याणकारी प्रभासक्षेत्रमें देवताओंके साथ जाय और वहाँ मृत्युंजय-विधानसे शिवाराधन करे । शिवलिंगको सामने स्थापितकर चन्द्रमा प्रतिदिन तपस्या करे; तब प्रसन्न हुए शिव उसे क्षयरोगसे रहित कर देंगे ॥ ३३-३४ ॥ सूत उवाच - इति श्रुत्वा वचस्तस्य ब्रह्मणस्ते सुरर्षयः । संनिवृत्याययुस्सर्वे यत्र दक्षविधू ततः ॥ ३५ ॥ सूतजी बोले-[हे महर्षियो !] उन ब्रह्माजीकी यह बात सुनकर वे देवता तथा ऋषि लौटकर वहाँ आये, जहाँ दक्ष तथा चन्द्रमा स्थित थे ॥ ३५ ॥ गृहीत्वा ते ततश्चन्द्रं दक्षं चाश्वास्य निर्जराः । प्रभासे ऋषयश्चक्रुस्तत्र गत्वाखिलाश्च वै ॥ ३६ ॥ आवाह्य तीर्थवर्याणि सरस्वत्यादिकानि च । पार्थिवेन तदा पूजां मृत्युञ्जयविधानतः ॥ ३७ ॥ इसके बाद उन सभी देवताओं तथा ऋषियोंने दक्षको आश्वासन देकर तथा चन्द्रमाको अपने साथ ले करके प्रभासतीर्थमें जाकर सरस्वती आदि श्रेष्ठ तीर्थोंका आवाहन करके, मृत्युंजयमन्त्रद्वारा पार्थिवार्चनविधिसे शिवजीकी आराधना की ॥ ३६-३७ ॥ ते देवाश्च तदा सर्वे ऋषयो निर्मलाशयाः । स्थाप्य चन्द्रं प्रभासे च स्वंस्वं धाम ययुर्मुदा ॥ ३८ ॥ उसके बाद विशुद्ध अन्त:करणवाले वे सभी देवता तथा ऋषि चन्द्रमाको प्रभासक्षेत्रमें छोड़कर प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने धामको चले गये ॥ ३८ ॥ चन्द्रेण च तपस्तप्तं पण्मासं च निरंतरम् । मृत्युंजयेन मंत्रेण पूजितो वृषभध्वजः ॥ ३९ ॥ चन्द्रमाने निरन्तर छ: मासतक तप किया और मृत्युंजयमन्त्रसे वृषभध्वजका पूजन किया ॥ ३९ ॥ दशकोटिमितं मन्त्रं समावृत्य शशी च तम् । ध्यात्वा मृत्युञ्जयं मन्त्रं तस्थौ निश्चलमानसः ॥ ४० ॥ स्थिरचित्त होकर चन्द्रमा दस करोड़की संख्यामें उस मृत्युंजयमन्त्रका जप करके तथा मन्त्रस्वरूप भगवान् मृत्युंजयका ध्यान करते हुए वहाँ स्थित रहे ॥ ४० ॥ तं दृष्ट्वा शंकरो देवः प्रसन्नोऽभूत्ततः प्रभुः । आविर्भूय विधुं प्राह स्वभक्तं भक्तवत्सलः ॥ ४१ ॥ तब उन्हें देखकर भक्तवत्सल भगवान् शिव प्रसन्न हो गये और प्रकट होकर अपने भक्त चन्द्रमासे कहने लगे- ॥ ४१ ॥ शंकर उवाच - वरं वृणीष्व भद्रं ते मनसा यत्समीप्सितम् । प्रसन्नोऽहं शशिन्सर्वं दास्ये वरमनुत्तमम् ॥ ४२ ॥ शंकर बोले-हे चन्द्र ! तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारे मनमें जो अभिलषित हो, वह वर माँगो, मैं [तुमपर] प्रसन्न हूँ, मैं तुम्हें सम्पूर्ण उत्तम वर प्रदान करूँगा ॥ ४२ ॥ चंद्र उवाच - यदि प्रसन्नो देवेश किमसाध्यं भवेन्मम । तथापि मे शरीरस्य क्षयं वारय शंकर ॥ ४३ ॥ क्षंतव्यो मेऽपराधश्च कल्याणं कुरु सर्वदा । इत्युक्ते च तदा तेन शिवो वचनमब्रवीत् ॥ ४४ ॥ चन्द्र बोले-हे देवेश ! यदि आप [मुझपर] प्रसन्न हैं, तो मेरा कौन-सा कार्य असाध्य रह सकता है । फिर भी हे शंकर ! मेरे शरीरके क्षयरोगको दूर कीजिये । आप मेरा अपराध क्षमा करें और निरन्तर कल्याण करें । उनके ऐसा कहनेपर शिवजीने यह वचन कहा- ॥ ४३-४४ ॥ शिव उवाच - पक्षे च क्षीयतां चन्द्र कला ते च दिनेदिने । पुनश्च वर्द्धतां पक्षे सा कला च निरंतरम् ॥ ४५ ॥ शिवजी बोले-हे चन्द्र ! एक पक्षमें तुम्हारी | [एक-एक कला प्रतिदिन क्षीण होगी और पुनः दूसरे पक्षमें क्रमश: वह कला निरन्तर बढ़ेगी ॥ ४५ ॥ सूत उवाच - एवं सति तदा देवा हर्षनिर्भरमानसाः । ऋषयश्च तथा सर्वे समाजग्मुर्द्रुतं द्विजाः ॥ ४६ ॥ सूतजी बोले-हे द्विजो ! चन्द्रमाके ऐसा वरदान प्राप्त कर लेनेपर हर्षसे परिपूर्ण चित्तवाले सभी देवता और ऋषि वहाँ शीघ्र ही आये ॥ ४६ ॥ आगत्य च तदा सर्वे चन्द्रायाशिषमब्रुवन् । शिवं नत्वा करौ बद्ध्वा प्रार्थयामासुरादरात् ॥ ४७ ॥ वहाँ आकर उन सभीने चन्द्रमाको आशीर्वाद दिया और शिवजीको प्रणाम करके हाथ जोड़कर आदरपूर्वक उनसे प्रार्थना की- ॥ ४७ ॥ देवाः ऊचुः - देवदेव महादेव परमेश नमोऽस्तु ते । उमया सहितश्शंभो स्वामिन्नत्र स्थिरो भव ॥ ४८ ॥ देवता बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे परमेश ! आपको नमस्कार है । हे शम्भो ! हे स्वामिन् ! पार्वतीसहित आप यहाँ स्थिर हो जाइये ॥ ४८ ॥ सूत उवाच - ततश्चन्द्रेण सद्भक्त्या संस्तुतश्शंकरः पुरा । निराकारश्च साकारः पुनश्चैवाभवत्प्रभुः ॥ ४९ ॥ सूतजी बोले-तब पूर्वमें निराकार भगवान् शिव चन्द्रमाके द्वारा उत्तम भक्तिसे स्तुति किये जानेपर पुनः साकार हो गये ॥ ४९ ॥ प्रसन्नश्च स देवानां क्षेत्रमाहात्म्यहेतवे । चन्द्रस्य यशसे तत्र नाम्ना चन्द्रस्य शंकरः ॥ ५० ॥ सोमेश्वरश्च नामासीद्विख्यातो भुवन त्रये । क्षयकुष्ठादिरोगाणां नाशकः पूजनाद्द्विजाः ॥ ५१ ॥ देवताओंपर प्रसन्न होकर वे शंकर उस क्षेत्रके माहात्म्य [वर्धन]-के लिये तथा चन्द्रमाके यशके [विस्तारके] लिये वहाँ उन्होंके नामपर तीनों लोकोंमें सोमेश्वर नामसे विख्यात हुए । हे द्विजो ! वे पूजन करनेसे अय, कुष्ठ आदि रोगोंका विनाश करते हैं ॥ ५०-५१ ॥ धन्योऽयं कृतकृत्योयं यन्नाम्ना शंकरस्स्वयम् । स्थितश्च जगतां नाथः पावयञ्जगतीतलम् ॥ ५२ ॥ तत्कुंडं तैश्च तत्रैव सर्वैर्देवैः प्रतिष्ठितम् । शिवेन ब्रह्मणा तत्र ह्यविभक्तं तु तत्पुनः ॥ ५३ ॥ ये चन्द्रमा धन्य हैं, ये कृतकृत्य हैं, जिनके नामसे स्वयं जगन्नाथ शंकरजी धरातलको पवित्र करते हुए यहाँ स्थित हुए । वहींपर देवताओंने चन्द्रमाके नामसे चन्द्रकुण्डकी स्थापना की, जहाँ शिव तथा ब्रह्माका सम्मिश्रित निवास माना जाता है ॥ ५२-५३ ॥ चन्द्रकुण्डं प्रसिद्धं च पृथिव्यां पापनाशनम् । तत्र स्नाति नरो यस्स सर्वैः पापैः प्रमुच्यते ॥ ५४ ॥ रोगास्सर्वे क्षयाद्याश्च ह्यसाध्या ये भवंति वै । ते सर्वे च क्षयं यान्ति षण्मासं स्नानमात्रतः ॥ ५५ ॥ पृथ्वीपर प्रसिद्ध वह चन्द्रकुण्ड समस्त पापोंका नाश करनेवाला है । जो मनुष्य वहाँ स्नान करता है, वह सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है । उस कुण्डमें छ: मासतक निरन्तर स्नान करनेसे क्षय आदि जो भी असाध्य रोग हैं, वे सभी नष्ट हो जाते हैं ॥ ५४-५५ ॥ प्रभासं च परिक्रम्य पृथिवीक्रमसंभवम् । फलं प्राप्नोति शुद्धात्मा मृतः स्वर्गे महीयते ॥ ५६ ॥ प्रभासतीर्थकी परिक्रमा करके शुद्धात्मा मनुष्य पृथ्वीकी परिक्रमा करनेसे होनेवाला फल प्राप्त करता है और मरनेपर स्वर्गमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है ॥ ५६ ॥ सोमलिंगं नरो दृष्ट्वा सर्वपापात्प्रमुच्यते । लब्ध्वा फलं मनोभीष्टं मृतस्स्वर्गं समीहते ॥ ५७ ॥ सोमेश्वर लिंगका दर्शनकर मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है और [इस लोकमें] मनोवांछित अभीष्ट फल प्राप्तकर मरनेके पश्चात् स्वर्गको जाता है ॥ ५७ ॥ यद्यत्फलं समुद्दिश्य कुरुते तीर्थमुत्तमम् । तत्तत्फलमवाप्नोति सर्वथा नात्र संशयः ॥ ५८ ॥ मनुष्य जिस-जिस फलको उद्देश्य करके इस उत्तम तीर्थका सेवन करता है, वह उस-उस फलको अवश्य प्राप्त करता है । इसमें संशय नहीं है ॥ ५८ ॥ इति ते ऋषयो देवाः फलं दृष्ट्वा तथाविधम् । मुदा शिवं नमस्कृत्य गृहीत्वा चन्द्रमक्षयम् ॥ ५९ ॥ परिक्रम्य च तत्तीर्थं प्रशंसन्तश्च ते ययुः । चंद्रश्चापि स्वकीयं च कार्य्यं चक्रे पुरातनम् ॥ ६० ॥ सोमेश्वरके उस प्रकारके फलको देखकर वे देवता एवं ऋषिगण प्रीतिपूर्वक शिवजीको नमस्कारकर क्षयरोगरहित चन्द्रमाको लेकर उस तीर्थकी परिक्रमा करके उसकी प्रशंसा करते हुए [अपने-अपने धामको] चले गये और चन्द्रमा भी अपना पुरातन कार्य करने लगे ॥ ५९-६० ॥ इति सर्वः समाख्यातः सोमेशस्य समुद्भवः । एवं सोमेश्वरं लिंगं समुत्पन्नं मुनीश्वराः ॥ ६१ ॥ यः शृणोति तदुत्पत्तिं श्रावयेद्वा परान्नरः । सर्वान्कामानवाप्नोति सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ६२ ॥ हे मुनीश्वरो ! इस प्रकार मैंने सोमेश्वरकी उत्पत्तिका वर्णन कर दिया । सोमेश्वर लिंग इसी प्रकार प्रकट हुआ था । जो मनुष्य सोमेश्वर लिंगकी उत्पत्तिको सुनता है अथवा दूसरोंको सुनाता है, उसकी सारी कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं और वह सभी प्रकारके पापोंसे मुक्त हो जाता | है ॥ ६१-६२ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां सोमनाथज्योतिर्लिंगोत्पत्तिवर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरूजसंहितामें सोमनाथज्योतिलिंगोत्पत्तिवर्णन नामक चौदहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १४ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |