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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां
षोडशोऽध्यायः महाकालज्योतिर्लिंगमाहात्म्यवर्णनम् -
महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंगके प्राकट्यका वर्णन - ऋषय ऊचुः - सूत सर्वं विजानासि वस्तु व्यास प्रसादतः । ज्योतिषां च कथां श्रुत्वा तृप्तिर्नैव प्रजायते ॥ १ ॥ तस्मात्त्वं हि विशेषेण कृपां कृत्वातुलां प्रभो । ज्योतिर्लिंगं तृतीयं च कथय त्वं हि नोऽधुना ॥ २ ॥ ऋषि बोले-हे सूतजी ! आप व्यासजीकी कृपासे सब कुछ जानते हैं; इन ज्योतिर्लिगोंकी कथा सुनकर हमें तृप्ति नहीं हो रही है । अतः हे प्रभो ! हमलोगोंपर विशेषरूपसे अतुलनीय कृपा करके अब आप तीसरे ज्योतिर्लिंगका वर्णन कीजिये ॥ १-२ ॥ सूत उवाच - धन्योऽहं कृतकृत्योऽहं श्रीमतां भवतां यदि । गतश्च संगमं विप्रा धन्या वै साधुसंगतिः ॥ ३ ॥ अतो मत्वा स्वभाग्यं हि कथयिष्यामि पावनीम् । पापप्रणाशिनीं दिव्यां कथां च शृणुतादरात् ॥ ४ ॥ सूतजी बोले-हे ब्राह्मणो ! आप श्रीमानोंकी संगति प्राप्तकर मैं धन्य एवं कृतकृत्य हो गया; क्योंकि सज्जनोंकी संगति धन्य होती है । अतः मैं इसे अपना सौभाग्य मानकर पवित्र, पापका नाश करनेवाली तथा दिव्य कथाको कहूँगा; आपलोग आदरपूर्वक सुनिये ॥ ३-४ ॥ अवंती नगरी रम्या मुक्तिदा सर्वदेहिनाम् । शिवप्रिया महापुण्या वर्तते लोकपावनी ॥ ५ ॥ शिवजीको प्रिय, परमपुण्यमयी, संसारको पवित्र करनेवाली तथा समस्त प्राणियोंको मुक्ति देनेवाली मनोहर अवन्ती नामक [एक प्रसिद्ध] नगरी है ॥ ५ ॥ तत्रासीद्बाह्मणश्रेष्ठश्शुभकर्मपरायणः । वेदाध्ययनकर्त्ता च वेदकर्मरतस्सदा ॥ ६ ॥ अग्न्याधानसमायुक्तश्शिवपूजारतस्सदा । पार्थिवीं प्रत्यहं मूर्तिं पूजयामास वै द्विजः ॥ ७ ॥ वहाँपर शुभ आचरणमें तत्पर, वेदाध्ययन करनेवाले तथा नित्य वैदिक अनुष्ठानमें निरत एक श्रेष्ठ ब्राह्मण रहते थे । वे ब्राह्मण नित्य अग्निहोत्र करते और शिवपूजामें संलग्न रहते थे; वे प्रतिदिन पार्थिव लिंगका पूजन करते थे ॥ ६-७ ॥ सर्वकर्मफलं प्राप्य द्विजो वेदप्रियस्सदा । सतां गतिं समालेभे सम्यग्ज्ञानपरायणः ॥ ८ ॥ तत्पुत्रास्तादृशाश्चासंश्चत्वारो मुनिसत्तमाः । शिवपूजारता नित्यं पित्रोरनवमास्सदा ॥ ९ ॥ देवप्रियश्च तज्ज्येष्ठः प्रियमेधास्ततः परम् । तृतीयस्तु कृतो नाम धर्मवाही च सुव्रतः ॥ १० ॥ उन वेदप्रिय ब्राह्मणने सारे कर्मोका फल प्राप्तकर भलीभाँति ज्ञानपरायण होकर अन्तमें सज्जनोंकी गति प्राप्त की । हे मुनीश्वरो ! उनके चारों पुत्र भी उसी प्रकार शिवपूजामें तत्पर तथा सदा माता-पिताकी आज्ञा माननेवाले थे । उनमें सबसे बड़ा देवप्रिय, उसके बाद प्रियमेधा, तीसरा सुकृत नामवाला और चौथा धर्मनिष्ठ सुव्रत था ॥ ८-१० ॥ तेषां पुण्यप्रतापाच्च पृथिव्यां सुखमैधत । शुक्लपक्षे यथा चन्द्रो वर्द्धते च निरंतरम् ॥ ११ ॥ तथा तेषां गुणास्तत्र वर्द्धन्ते स्म सुखावहाः । ब्रह्मतेजोमयी सा वै नगरी चाभवत्तदा ॥ १२ ॥ उनके पुण्यप्रतापसे पृथ्वीपर सुख बढ़ रहा था । जैसे शुक्लपक्षमें चन्द्रमा बढ़ता है, उसी प्रकार उनके सुखदायक गुण भी वहाँ निरन्तर बढ़ रहे थे । उस समय वह नगरी ब्रह्मतेजसे सम्पन्न हो गयी ॥ ११-१२ ॥ एतस्मिन्नन्तरे तत्र यज्जातं वृत्तमुत्तमम् । श्रूयतां तद्द्विजश्रेष्ठाः कथयामि यथाश्रुतम् ॥ १३ ॥ हे श्रेष्ठ द्विजो ! इसी बीच वहाँ जो उत्तम घटना घटी, उसे सुनिये; जैसा कि मैंने सुना है, वैसा कह रहा हूँ ॥ १३ ॥ पर्वते रत्नमाले च दूषणाख्यो महासुरः । बलवान्दैत्यराजश्च धर्मद्वेषी निरन्तरम् ॥ १४ ॥ ब्रह्मणो वरदानाच्च जगतुच्छीचकार ह । देवा पराजितास्तेन स्थानान्निस्सारितास्तथा ॥ १५ ॥ रलमालपर्वतपर दूषण नामक एक महान् असुर रहता था । धर्मसे द्वेष करनेवाला वह महाबलवान् दैत्यराज ब्रह्माजीके वरदानसे जगत्को तुच्छ समझता था । उसने देवगणोंको पराजितकर उन्हें उनके स्थानसे निकाल दिया ॥ १४-१५ ॥ पृथिव्यां वेदधर्माश्च स्मृतिधर्माश्च सर्वशः । स्फोटितास्तेन दुष्टेन सिंहेनेव शशा खलु ॥ १६ ॥ यावंतो वेदधर्माश्च तावंतो दूरतः कृताः । तीर्थेतीर्थे तथा क्षेत्रे धर्मो नीतश्च दूरतः ॥ १७ ॥ उस दुष्टने पृथ्वीपर सभी प्रकारके वेदधर्मों तथा स्मृतिधर्मोको उसी प्रकार नष्ट कर दिया, जैसे सिंह खरगोशोंको नष्ट कर देता है । जितने भी वेदधर्म थे, उन सबको उसने नष्ट कर दिया और प्रत्येक तीर्थ तथा क्षेत्रसे धर्मको दूर हटा दिया ॥ १६-१७ ॥ अवंती नगरी रम्या तत्रैका दृश्यते पुनः । इत्थं विचार्य तेनैव यत्कृतं श्रूयतां हि तत् ॥ १८ ॥ 'एकमात्र रम्य अवन्ती नगरी ही दिखायी दे रही है', [जहाँ वैदिक धर्म अभी प्रतिष्ठित है]-ऐसा विचारकर उसने जो किया, उसे आप लोग सुनें ॥ १८ ॥ बहुसैन्यसमायुक्तो दूषणस्स महासुरः । तत्रस्थान्ब्रह्मणान्सर्वानुद्दिश्य समुपाययौ ॥ १९ ॥ तत्रागत्य स दैत्येन्द्रश्चतुरो दैत्यसत्तमान् । प्रोवाचाहूय वचनं विप्र द्रोही महाखलः ॥ २० ॥ उस महान् असुर दूषणने बहुत बड़ी सेना लेकर वहाँ रहनेवाले सभी ब्राह्मणोंको उद्देश्य करके चढ़ाई कर दी । वहाँ आकर विप्रद्रोही एवं महाखल उस दैत्येन्द्रने अपने चार दैत्यश्रेष्ठ सेनापतियोंको बुलाकर यह वचन कहा- ॥ १९-२० ॥ दैत्य उवाच - किमेते ब्राह्मणा दुष्टा न कुर्वंति वचो मम । वेदधर्मरता एते सर्वे दंड्या मते मम ॥ २१ ॥ दैत्य बोला-ये दुष्ट ब्राह्मण मेरी आज्ञाका पालन क्यों नहीं करते हैं ? अतः मेरे विचारसे वेदधर्ममें तत्पर ये सब दण्डके योग्य हैं ॥ २१ ॥ सर्वे देवा मया लोके राजानश्च पराजिताः । वशे किं ब्राह्मणाश्शक्या न कर्तुं दैत्यसत्तमाः ॥ २२ ॥ हे दैत्यसत्तमो ! मैंने संसारमें सभी देवताओं तथा राजाओंको पराजित कर दिया है; क्या इन ब्राह्मणोंको वशमें नहीं किया जा सकता है ? ॥ २२ ॥ यदि जीवितुमिच्छा स्यात्तदा धर्मं शिवस्य च । वेदानां परमं धर्मं त्यक्त्वा सुखसुभागिनः ॥ २३ ॥ अन्यथा जीवने तेषां संशयश्च भविष्यति । इति सत्यं मया प्रोक्तं तत्कुरुध्वं विशंकिताः ॥ २४ ॥ यदि ये लोग जीना चाहते हैं, तो शिवधर्म तथा वेदोंके परम धर्मका त्यागकर सुख प्राप्त करें; अन्यथा इनके जीवित रहनेमें संशय हो जायगा, मैं यह सत्य कहता हूँ, तुमलोग निःशंक होकर इस कार्यको करो ॥ २३-२४ ॥ सूत उवाच - इति निश्चित्य ते दैत्याश्चत्वारः पावका इव । चतुर्दिक्षु तदा जाताः प्रलये च यथा पुरा । २५ ॥ ते ब्राह्मणास्तथा श्रुत्वा दैत्यानामुद्यमं तदा । न दुःखं लेभिरे तत्र शिवध्यान परायणाः ॥ २६ ॥ सूतजी बोले-इस प्रकार विचारकर वे चारों दैत्य चारों दिशाओंमें प्रलयकालीन अग्निके समान प्रज्वलित हो उठे । तब दैत्योंके इस प्रयासको सुनकर भी उस समय शिवध्यानपरायण उन ब्राह्मणोंको कुछ भी दुःख नहीं हुआ ॥ २५-२६ ॥ धैर्यं समाश्रितास्ते च रेखामात्रं तदा द्विजाः । न चेलुः परमध्यानाद्वराकाः के शिवाग्रतः ॥ २७ ॥ एतस्मिन्नन्तरे तैस्तु व्याप्तासीन्नगरी शुभा । लोकाश्च पीडितास्तैस्तु ब्राह्मणान्समुपाययुः ॥ २८ ॥ उस समय वे ब्राह्मण शिवध्यानसे रेखामात्र भी विचलित नहीं हुए और धैर्य धारण किये रहे; शिवजीके आगे वे बेचारे दैत्य क्या हैं ! इसी बीच वह उत्तम नगरी दैत्योंसे व्याप्त हो गयी । तब उन दैत्योंसे पीड़ित सभी लोग ब्राह्मणों के पास आये ॥ २७-२८ ॥ लोका ऊचुः - स्वामिनः किं च कर्त्तव्यं दुष्टाश्च समुपागताः । हिंसिता बहवो लोका आगताश्च समीपतः ॥ २९ ॥ लोग बोले-हे स्वामियो ! अब क्या करना चाहिये; वे दुष्ट आ गये हैं, उन्होंने बहुतसे लोगोंको मार डाला, इसलिये हमलोग आपके पास आये हैं ॥ २९ ॥ सूत उवाच - तेषामिति वचश्श्रुत्वा वेदप्रियसुताश्च ते । समूचुर्ब्राह्मणास्तान्वै विश्वस्ताश्शंकरे सदा ॥ ३० ॥ सूतजी बोले-उन लोगोंकी यह बात सुनकर शिवमें सदा विश्वास करनेवाले वे ब्राह्मण वेदप्रियके पुत्र उन लोगोंसे कहने लगे- ॥ ३० ॥ ब्राह्मणा ऊचुः - श्रूयतां विद्यते नैव बलं दुष्टभयावहम् । न शस्त्राणि तथा संति यच्च ते विमुखाः पुनः ॥ ३१ ॥ ब्राह्मण बोले-आपलोग सुनिये, हमारे पास दुष्टोंको भय देनेवाला सैन्यबल नहीं है और न शस्त्र ही हैं, जिससे हम उन्हें पराजित कर सकें ॥ ३१ ॥ सामान्यस्यापमानो नो ह्याश्रयस्य भवेदिह । पुनश्च किं समर्थस्य शिवस्येह भविष्यति ॥ ३२ ॥ सामान्य व्यक्तिका आश्रय लेनेपर भी मनुष्यका अपमान नहीं होता; फिर हमलोग तो सर्वसमर्थ शिवजीके आश्रित हैं, हमारा अपमान ये असुर किस प्रकार कर सकते हैं ! ॥ ३२ ॥ शिवो रक्षां करोत्वद्यासुराणां भयतः प्रभुः । नान्यथा शरणं लोके भक्तवत्सलतश्शिवात् ॥ ३३ ॥ अतः भगवान् शिव ही असुरोंके भयसे हमारी रक्षा करेंगे । भक्तवत्सल सदाशिवको छोड़कर संसारमें अब हमें कोई शरण देनेवाला नहीं है ॥ ३३ ॥ सूत उवाच - इति धैर्यं समास्थाय समर्चां पार्थिवस्य च । कृत्वा ते च द्विजाः सम्यक्स्थिता ध्यानपरायणाः । दृष्टा दैत्येन तावच्च ते विप्रास्सबलेन हि । ३४ ॥ दूषणेन वचः प्रोक्तं हन्यतां वध्यतामिति । तच्छ्रुतं तैस्तदा नैव दैत्यप्रोक्तं वचो द्विजैः । वेदप्रियसुतैश्शंभोर्ध्यानमार्गपरायणैः ॥ ३५ ॥ सूतजी बोले-इस प्रकार वे ब्राह्मण धैर्य धारणकर भलीभाँति पार्थिव-पूजनकर शिवजीके ध्यानमें तत्पर रहे । उसी समय उस बलवान् दूषण दैत्यने उन ब्राह्मणोंको देखा और यह वचन कहा-इनको मारो, इनका वध कर दो । किंतु शिवके ध्यानमें परायण उन वेदप्रियके पुत्रोंने उस दैत्यके द्वारा कहा गया वचन नहीं सुना ॥ ३४-३५ ॥ अथ यावत्स दुष्टात्मा हन्तुमैच्छद्द्विजांश्च तान् । तावच्च प्रार्थिवस्थाने गर्त्तं आसीत्सशब्दकः ॥ ३६ ॥ उसके बाद ज्यों ही उस दुष्टात्माने उन ब्राह्मणोंको मारना चाहा, तभी उस पार्थिवके स्थानपर शब्द करता हुआ एक गड्डा हो गया ॥ ३६ ॥ गर्तात्ततस्समुत्पन्नः शिवो विकटरूपधृक् । महाकाल इति ख्यातो दुष्टहंता सतां गतिः ॥ ३७ ॥ उस गड्डेसे विकटरूपधारी, महाकाल नामसे विख्यात, दुष्टोंका संहार करनेवाले एवं सज्जनोंको गति देनेवाले शिवजी प्रकट हो गये ॥ ३७ ॥ महाकालस्समुत्पन्नो दुष्टानां त्वादृशामहम् । खल त्वं ब्राह्मणानां हि समीपाद्दूरतो व्रज ॥ ३८ ॥ इत्युक्त्वा हुंकृतेनैव भस्मसात्कृतवांस्तदा । दूषणं च महाकालः शंकरस्सबलं द्रुतम् ॥ ३९ ॥ 'अरे दुष्ट ! [मैं महाकाल हूँ और] तुम्हारे जैसे दुष्टोंके लिये महाकालरूपमें प्रकट हुआ हूँ: तुम इन ब्राह्मणोंके समीपसे दूर भाग जाओ'-ऐसा कहकर महाकाल शंकरने हुंकारमात्रसे ही सैन्यसहित उस दूषणको शीघ्र भस्म कर दिया ॥ ३८-३९ ॥ कियत्सैन्यं हतं तेन किंचित्सैन्यं पलायितम् । दूषणश्च हतस्तेन शिवेनेह परात्मना ॥ ४० ॥ सूर्यं दृष्ट्वा यथा याति संक्षयं सर्वशस्तमः । तथैव च शिवं दृष्ट्वा तत्सैन्यं विननाश ह ॥ ४१ ॥ उन्होंने कुछ सैनिकोंको मार डाला और कुछ सेना भाग गयी । उन परमात्मा शिवने वहींपर दूषणका वध कर दिया । जिस प्रकार सूर्यको देखकर अन्धकार पूर्ण रूपसे नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार शिवको देखकर उसकी सेना विनष्ट हो गयी ॥ ४०-४१ ॥ देवदुन्दुभयो नेदुः पुष्पवृष्टिः पपात ह । देवास्समाययुस्सर्वे हरिब्रह्मादयस्तथा ॥ ४२ ॥ भक्त्या प्रणम्य तं देवं शंकरं लोकशंकरम् । तुष्टुवुर्विविधैः स्तोत्रैः कृतांजलिपुटा द्विजाः ॥ ४३ ॥ उस समय देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजने लगी और फलोंकी वर्षा होने लगी । ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवता वहाँपर उपस्थित हो गये । ब्राह्मणोंने हाथ जोड़कर लोककल्याण करनेवाले उन भगवान् शंकरको भक्तिपूर्वक प्रणाम करके अनेक प्रकारके स्तोत्रोंसे उनकी स्तुति की ॥ ४२-४३ ॥ ब्राह्मणांश्च समाश्वास्य सुप्रसन्नश्शिवस्स्वयम् । वरं ब्रूतेति चोवाच महाकालो महेश्वरः ॥ ४४ ॥ तच्छ्रुत्वा ते द्विजास्सर्वे कृताञ्जलिपुटास्तदा । सुप्रणम्य शिवं भक्त्या प्रोचुस्संनतमस्तकाः ॥ ४५ ॥ तब महाकालरूपधारी स्वयं महेश्वरने प्रसन्न होकर उन ब्राह्मणोंको आश्वस्त करके उनसे कहा-'वर माँगिये' । तब यह सुनकर वे सभी ब्राहाण हाथ जोड़कर तथा सिर झुकाकर भक्तिपूर्वक शिवजीको प्रणाम करके कहने लगे । ४४-४५ ॥ द्विजा ऊचुः - महाकाल महादेव दुष्टदण्डकर प्रभो । मुक्तिं प्रयच्छ नश्शंभो संसारांबुधितश्शिव ॥ ४६ ॥ अत्रैव लोकरक्षार्थं स्थातव्यं हि त्वया शिव । स्वदर्शकान्नराञ्छम्भो तारय त्वं सदा प्रभो ॥ ४७ ॥ द्विज बोले-हे महाकाल ! हे महादेव ! दुष्टोंको दण्ड देनेवाले हे प्रभो ! हे शम्भो ! हे शिव ! आप हमें संसारसागरसे मुक्ति दीजिये । हे शिव ! हे शम्भो ! हे प्रभो ! आप संसारकी रक्षाके लिये यहींपर निवास करें और अपने दर्शन करनेवाले मनुष्योंका आप सदा उद्धार कीजिये । ४६-४७ ॥ सूत उवाच - इत्युक्तस्तैश्शिवस्तत्र तस्थौ गर्ते सुशोभने । भक्तानां चैव रक्षार्थं दत्त्वा तेभ्यश्च सद्गतिम् ॥ ४८ ॥ सूतजी बोले-उनके ऐसा कहनेपर शिवजी उन्हें सद्गति प्रदानकर भक्तोंके रक्षार्थ उस परम सुन्दर गर्तमें स्थित हो गये ॥ ४८ ॥ द्विजास्ते मुक्तिमापन्नाश्चतुर्द्दिक्षु शिवास्पदम् । क्रोशमात्रं तदा जातं लिंगरूपिण एव च ॥ ४९ ॥ इस प्रकार वे ब्राह्मण मुक्त हो गये और वहाँ चारों दिशाओंमें एक कोस परिमाणवाला स्थान लिंगरूपी शिवजीका कल्याणमय क्षेत्र हो गया ॥ ४९ ॥ महाकालेश्वरो नाम शिवः ख्यातश्च भूतले । तं दृष्ट्वा न भवेत्स्वप्ने किंचिद्दुःखमपि द्विजाः ॥ ५० ॥ यंयं काममपेक्ष्यैव तल्लिंगं भजते तु यः । तंतं काममवाप्नोति लभेन्मोक्षं परत्र च ॥ ५१ ॥ एतत्सर्वं समाख्यातं महाकालस्य सुव्रताः । समुद्भवश्च माहात्म्यं किमन्यच्छ्रोतुमिच्छथ ॥ ५२ ॥ तभीसे महाकालेश्वर नामक शिव पृथ्वीपर प्रसिद्ध हुए । हे द्विजो ! उनका दर्शन करनेसे स्वप्नमें भी कोई दुःख नहीं होता है । जो मनुष्य जिस-जिस कामनाकी अपेक्षा करके उस लिंगकी उपासना करता है, वह उस मनोरथको प्राप्त कर लेता है और परलोकमें मोक्ष भी प्राप्त करता है । हे सुव्रतो ! महाकालकी उत्पत्ति तथा उनका माहात्म्य-मैंने कह दिया; अब आपलोग और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ५०-५२ ॥ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां महाकालज्योतिर्लिंगमाहात्म्यवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरूद्रसंहितामें महाकाल ज्योतिर्लिंग माहात्म्यवर्णन नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १६ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |