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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां
सप्तदशोऽध्यायः महाकालज्योतिर्लिंगमाहात्म्यवर्णनम् -
महाकाल ज्योतिर्लिंगके माहात्म्य-वर्णनके क्रममें राजा चन्द्रसेन तथा श्रीकर गोपका वृत्तान्त - ऋषय ऊचुः - महाकालसमाह्वस्थज्योतिर्लिंगस्य रक्षिणः । भक्तानां महिमानं च पुनर्ब्रूहि महामते ॥ १ ॥ ऋषि बोले-हे महामते ! भक्तजनोंकी रक्षा करनेवाले । महाकाल नामसे विराजमान ज्योतिर्लिंगके माहात्म्यका पुनः वर्णन कीजिये ॥ १ ॥ सूत उवाच - शृणुतादरतो विप्रो भक्तरक्षाविधायिनः । महाकालस्य लिंगस्य माहात्म्यं भक्तिवर्द्धनम् ॥ २ ॥ उज्जयिन्यामभूद्राजा चन्द्रसेनाह्वयो महान् । सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञश्शिवभक्तो जितेन्द्रियः ॥ ३ ॥ सूतजी बोले-हे ब्राह्मणो ! भक्तोंकी रक्षा करनेवाले महाकाल नामक ज्योतिर्लिंगका भक्तिवर्धक माहात्म्य आदरपूर्वक सुनिये । उज्जयिनी नगरीमें चन्द्रसेन नामक एक महान् राजा था, जो सभी शास्त्रोंके तात्पर्यको तत्त्वतः जाननेवाला, शिवभक्त तथा जितेन्द्रिय था ॥ २-३ ॥ तस्याभवत्सखा राज्ञो मणिभद्रो गणो द्विजाः । गिरीशगणमुख्यश्च सर्वलोकनमस्कृतः ॥ ४ ॥ उस राजाका मित्र महादेवके गणोंमें प्रमुख मणिभद्र नामक गण था; वह समस्त लोगोंद्वारा नमस्कृत था ॥ ४ ॥ एकदा स गणेन्द्रो हि प्रसन्नास्यो महामणिम् । मणिभद्रो ददौ तस्मै चिंतामणिमुदारधीः ॥ ५ ॥ स वै मणिः कौस्तुभवद्द्योतमानोर्कसन्निभः । ध्यातो दृष्टः श्रुतो वापि मंगलं यच्छति ध्रुवम् ॥ ६ ॥ किसी समय उदारबुद्धिवाले उस गणाध्यक्ष मणिभद्रने प्रसन्न होकर उसे चिन्तामणि नामक उत्तम मणि प्रदान की । सूर्यसदृश प्रकाश करनेवाली वह मणि कौस्तुभमणिके समान ध्यान करने, दर्शन करने तथा सुननेमात्रसे निश्चय ही कल्याण प्रदान करती थी ॥ ५-६ ॥ तस्य कांतितलस्पृष्टं कांस्यं ताम्रमयं त्रपु । पाषाणादिकमन्यद्वा द्रुतं भवति हाटकम् ॥ ७ ॥ स तु चिन्तामणिं कंठे बिभ्रद्राजा शिवाश्रयः । चन्द्रसेनो रराजाति देवमध्येव भानुमान् ॥ ८ ॥ उसके प्रकाशतलका स्पर्श पाते ही काँसा, ताँबा, लौह, शीशा, पाषाण तथा अन्य [धातु-खनिज आदि] भी शीघ्र ही सुवर्ण हो जाते थे । उस चिन्तामणिको गलेमें धारण करके वह परम शिवभक्त राजा चन्द्रसेन इस प्रकार शोभित होता था, जैसे देवगणोंके बीच सूर्य शोभित होते हैं ॥ ७-८ ॥ श्रुत्वा चिन्तामणिग्रीवं चन्द्रसेनं नृपोत्तमम् । निखिलाः क्षितिराजानस्तृष्णाक्षुब्धहृदोऽभवन् ॥ ९ ॥ चिन्तामणिसे युक्त ग्रीवावाले नपश्रेष्ठ चन्द्रसेनके विषयमें सुनकर पृथ्वीके समस्त राजा उस मणिको लेनेके लिये आतुर मनवाले हो गये ॥ ९ ॥ नृपा मत्सरिणस्सर्वे तं मणिं चन्द्रसेनतः । नानोपायैरयाचंत देवलब्धमबुद्धयः ॥ १० ॥ उन मूर्ख एवं मत्सरग्रस्त राजाओंने देवलब्ध उस मणिको अनेक उपायोंके द्वारा चन्द्रसेनसे माँगा ॥ १० ॥ सर्वेषां भूभृतां याञ्चा चन्द्रसेनेन तेन वै । व्यर्थीकृता महाकालदृढभक्तेन भूसुराः ॥ ११ ॥ ते कदर्थीकृतास्सर्वे चन्द्रसेनेन भूभृता । राजानस्सर्वदेशानां संरम्भं चक्रिरे तदा ॥ १२ ॥ अथ ते सर्वराजानश्चतुरंगबलान्विताः । चन्द्रसेनं रणे जेतुं संबभूवुः किलोद्यताः ॥ १३ ॥ किंतु हे ब्राह्मणो ! महाकालमें दृढ़ भक्ति रखनेवाले उस चन्द्रसेनने सभी राजाओंकी याचना निष्फल कर दी । तब राजा चन्द्रसेनसे इस प्रकार तिरस्कृत हुए सभी देशोंके समस्त राजाओंने खलबली मचा दी । इसके बाद वे सभी राजा चतुरंगिणी सेनासे युक्त होकर उस चन्द्रसेनको युद्धमें जीतनेके लिये भलीभाँति उद्यत हो गये ॥ ११-१३ ॥ ते तु सर्वे समेता वै कृतसंकेतसंविदः । उज्जयिन्याश्चतुर्द्वारं रुरुधुर्बहुसैनिकाः ॥ १४ ॥ आपसमें मिले हुए उन सभी राजाओंने एकदूसरेको संकेतसे अपना मनोभाव समझाकर बहुत सारे सैनिकोंके साथ मिलकर उज्जयिनीके चारों द्वारोंको घेर लिया ॥ १४ ॥ संरुध्यमानां स्वपुरीं दृष्ट्वा निखिल राजभिः । तमेव शरणं राजा महाकालेश्वरं ययौ ॥ १५ ॥ निर्विकल्पो निराहारस्स नृपो दृढनिश्चयः । समानर्च महाकालं दिवा नक्तमनन्यधीः ॥ १६ ॥ तब अपनी नगरीको समस्त राजाओंके द्वारा घिरी देखकर वह राजा उन्हीं महाकालेश्वरकी शरणमें गया । वह राजा निर्विकल्प होकर तथा निराहार रहकर दृढ़ निश्चयपूर्वक एकाग्रचित हो दिन-रात महाकालका अर्चन करने लगा ॥ १५-१६ ॥ ततस्स भगवाञ्छंभुर्महाकालः प्रसन्नधीः । तं रक्षितुमुपायं वै चक्रे तं शृणुतादरात् ॥ १७ ॥ इसके बाद महाकाल भगवान् शिवजीने प्रसन्नचित्त होकर उस राजाकी रक्षा करनेके लिये जो उपाय किया, उसे आपलोग आदरपूर्वक सुनिये ॥ १७ ॥ तदैव समये गोपि काचित्तत्र पुरोत्तमे । चरंती सशिशुर्विप्रा महाकालांतिकं ययौ ॥ १८ ॥ हे विप्रो ! उसी समय कोई ग्वालिन बालकसहित उस उत्तम नगरमें घूमती हुई महाकालके निकट पहुँची ॥ १८ ॥ पञ्चाब्दवयसं बालं वहन्ती गतभर्तृका । राज्ञा कृतां महाकालपूजां सापश्यदादरात् ॥ १९ ॥ सा दृष्ट्वा सुमहाश्चर्यां शिवपूजां च तत्कृताम् । प्रणिपत्य स्वशिविरं पुनरेवाभ्यपद्यत ॥ २० ॥ पाँच वर्षकी अवस्थावाले बालकको लिये हुए वह विधवा ग्वालिन राजाके द्वारा की जाती हुई महाकालकी पूजाको आदरपूर्वक देखने लगी । राजाके द्वारा की गयी उस आश्चर्यजनक शिवपूजाको देख करके शिवजीको प्रणामकर वह पुनः अपने शिविरमें लौट गयी ॥ १९-२० ॥ तत्सर्वमशेषेण स दृष्ट्वा बल्लवीसुतः । कुतूहलेन तां कर्त्तुं शिवपूजां मनोदधे ॥ २१ ॥ यह सब अच्छी तरह देखकर उस गोपीपुत्रने कौतूहलवश उस शिवपूजनको करनेका विचार किया ॥ २१ ॥ आनीय हृद्यं पाषाणं शून्ये तु शिविरांतरे । अविदूरे स्वशिबिराच्छिवलिगं स भक्तितः ॥ २२ ॥ गन्धालंकारवासोभिर्धूपदीपाक्षतादिभिः । विधाय कृत्रिमैर्द्रव्यैर्नैवेद्यं चाप्यकल्पयत् ॥ २३ ॥ भूयोभूयस्समभ्यर्च्य पत्रैः पुष्पैर्मनोरमैः । नृत्यं च विविधं कृत्वा प्रणनाम पुनःपुनः ॥ २४ ॥ उसने अपने शिविरके सन्निकट किसी दूसरे सूने शिविरमें अत्यन्त मनोहर पाषाण लाकर भक्तिपूर्वक उसे स्थापित किया और गन्ध, आभूषण, वस्त्र, धूप, दीप, अक्षत आदि कृत्रिम द्रव्योंसे शिवजीका पूजनकर नैवेद्य भी चढ़ाया । पुनः मनोहर बिल्वपत्रों एवं पुष्पोंसे बारबार शिवपूजनकर अनेक प्रकारका नृत्य करके शिवको बार-बार प्रणाम किया । २२-२४ ॥ एतस्मिन्समये पुत्रं शिवासक्तसुचेतसम् । प्रणयाद्गोपिका सा तं भोजनाय समाह्वयत् ॥ २५ ॥ उसी समय उस ग्वालिनने शिवमें आसक्त हुए श्रेष्ठ मनवाले अपने पुत्रको स्नेहसे भोजनके लिये बुलाया ॥ २५ ॥ यदाहूतोऽपि बहुशश्शिवपूजाक्तमानसः । बालश्च भोजनं नैच्छत्तदा तत्र ययौ प्रसूः ॥ २६ ॥ जब शिवभक्तिमें सने हुए चित्तवाले उस बालकने बार-बार बुलाये जानेपर भी भोजनकी इच्छा नहीं की, तब उसकी माता [स्वयं] वहाँ गयी ॥ २६ ॥ तं विलोक्य शिवस्याग्रे निषण्णं मीलितेक्षणम् । चकर्ष पाणिं संगृह्य कोपेन समताडयत् ॥ २७ ॥ आकृष्टस्ताडितश्चापि नागच्छत्स्वसुतो यदा । तां पूजां नाशयामास क्षिप्त्वा लिंगं च दूरतः ॥ २८ ॥ आँखें बन्द किये हुए उसे शिवजीके आगे बैठा हुआ देखकर उसका हाथ पकड़कर खींचा और क्रोधपूर्वक मारा । किंतु खींचने और मारनेपर भी जब उसका पुत्र नहीं आया, तब उसने शिवलिंगको दूर फेंककर उसकी पूजाको नष्ट कर दिया ॥ २७-२८ ॥ हाहेति दूयमानं तं निर्भर्त्स्य स्वसुतं च सा । पुनर्विवेश स्वगृहं गोपी क्रोधसमन्विता ॥ २९ ॥ मात्रा विनाशितां पूजां दृष्ट्वा देवस्य शूलिनः । देवदेवेति चुक्रोश निपपात स बालकः ॥ ३० ॥ इसके बाद 'हाय ! हाय !' कहकर दुखी होते हुए अपने पुत्रको झिड़ककर क्रोधयुक्त वह ग्वालिन पुनः अपने घरमें प्रविष्ट हो गयी । तब वह बालक [अपनी] माताके द्वारा भगवान् शिवके पूजनको नष्ट किया गया देखकर देव ! देव ! इस प्रकार कहकर चीखने लगा और [पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ २९-३० ॥ प्रनष्टसंज्ञः सहसा स बभूव शुचाकुलः । लब्धसंज्ञो मुहूर्तेन चक्षुषी उदमीलयत् ॥ ३१ ॥ तदैव जातं शिबिरं महाकालस्य सुन्दरम् । ददर्श स शिशुस्तत्र शिवानुग्रहतोऽचिरात् ॥ ३२ ॥ इसके बाद शोकाकुल होनेके कारण वह सहसा मुर्छित हो गया; फिर दो घड़ी बाद चेतनामें आनेपर उसने अपने दोनों नेत्र खोले । शिवजीकी कृपासे उसी क्षण वहाँपर महाकालका सुन्दर शिविर (देवालय) बन गया, जिसे उस बालकने देखा ॥ ३१-३२ ॥ हिरण्मयबृहद्द्वारं कपाटवरतोरणम् । महार्हनीलविमलवज्रवेदीविराजितम् ॥ ३३ ॥ संतप्तहेमकलशैर्विचित्रैर्बहुभिर्युतम् । प्रोद्भासितमणिस्तंभैर्बद्धस्फटिकभूतलैः ॥ ३४ ॥ उस शिवालयके स्वर्णमय बड़े-बड़े दरवाजे थे, उसमें सुन्दर किवाड़ तथा वन्दनवार लगे हुए थे और वह बहुमूल्य इन्द्रनील मणि तथा उज्ज्वल हीरेकी वेदीसे सुशोभित हो रहा था । वह विचित्रतायुक्त बहुत-से तप्तसुवर्णनिर्मित कलशोंसे युक्त था और मणिके खम्भोंसे जगमगाते हुए तथा स्फटिक मणिके बने हुए भूतल (फर्श)-से शोभायमान हो रहा था ॥ ३३-३४ ॥ तन्मध्ये रत्नलिंगं हि शंकरस्य कृपानिधे । स्वकृतार्चनसंयुक्तमपश्यद्गोपिकासुतः ॥ ३५ ॥ उस गोपीपुत्रने उस (देवालय)-के बीचमें कृपानिधि शिवजीका रत्नमय ज्योतिर्लिंग देखा, जो उसकी पूजनसामग्रीसे सर्वथा अलंकृत था ॥ ३५ ॥ स दृष्ट्वा सहसोत्थाय शिशुर्विस्मितमानसः । संनिमग्न इवासीद्वै परमानंदसागरे ॥ ३६ ॥ यह सब देख वह बालक सहसा उठकर खड़ा हो गया । उसे मनमें बड़ा आश्चर्य हुआ और वह उठकर आनन्दसागरमें मानो निमग्न हो गया ॥ ३६ ॥ ततः स्तुत्वा स गिरिशं भूयोभूयः प्रणम्य च । सूर्ये चास्तं गते बालो निर्जगाम शिवालयात् ॥ ३७ ॥ अथापश्यत्स्वशिबिरं पुरंदरपुरोपमम् । सद्यो हिरण्मयीभूतं विचित्रं परमोज्ज्वलम् ॥ ३८ ॥ तदनन्तर बारंबार शिवकी स्तुति तथा प्रणाम करके सूर्यास्त होनेपर वह बालक शिवालयसे [अपने शिविरमें] चला गया । [वहाँ जाकर] उसने शीघ्र ही इन्द्रनगरके समान सुवर्णसे बने हुए, विचित्रतासे युक्त तथा अत्यन्त उज्ज्वल अपने शिविरको देखा ॥ ३७-३८ ॥ सोन्तर्विवेश भवनं सर्वशोभासमन्वितम् । मणिहेमगणाकीर्ण मोदमानो निशामुखे ॥ ३९ ॥ तत्रापश्यत्स्वजननीं स्वपंतीं दिव्यलक्षणाम् । रत्नालंकारदीप्तांगीं साक्षात्सुरवधूमिव ॥ ४० ॥ उसने सायंकालके समय प्रसन्न हो मणियों एवं सुवर्णसे रचित सर्वशोभासम्पन्न अपने भवनमें प्रवेश किया । वहाँ उसने दिव्य लक्षणोंवाली, रत्नालंकारोंसे जगमगाते हुए अंगोंवाली तथा साक्षात् सुरांगनाके समान [प्रतीत होती हुई] अपनी माताको सोते हुए देखा ॥ ३९-४० ॥ अथो स तनयो विप्राश्शिवानुग्रहभाजनम् । जवेनोत्थापयामास मातरं सुखविह्वलः ॥ ४१ ॥ सोत्थिताद्भुतमालक्ष्यापूर्वं सर्वमिवाभवत् । महानंदसुमग्ना हि सस्वजे स्वसुतं च तम् ॥ ४२ ॥ हे विप्रो ! इसके बाद आनन्दसे परिपूर्ण हो शिवके कृपापात्र उस बालकने वेगपूर्वक अपनी माताको उठाया । जब वह उठी, तो सब अपूर्व अद्भुत दृश्य देखकर आश्चर्यचकित हो आनन्दमें निमग्न हो गयी और उसने अपने पुत्रका आलिंगन किया ॥ ४१-४२ ॥ श्रुत्वा पुत्रमुखात्सर्वं प्रसादं गिरिजापतेः । प्रभुं विज्ञापयामास यो भजत्यनिशं शिवम् ॥ ४३ ॥ स राजा सहसागत्य समाप्तनियमो निशि । ददर्श गोपिकासूनोः प्रभावं शिवतोषणम् ॥ ४४ ॥ तब अपने पुत्रके मुखसे गिरिजापतिकी सम्पूर्ण कृपाको सुनकर उस ग्वालिनने उस राजाको, जो निरन्तर भगवान् शिवका पूजन कर रहा था, [सारा वृत्तान्त] बताया । नियम समाप्त होनेके बाद राजाने रात्रिमें वहाँ सहसा आकर शिवको प्रसन्न करनेवाले गोपिका-पुत्रके उत्तम [भक्ति] प्रभावको देखा ॥ ४३-४४ ॥ दृष्ट्वा महीपतिस्सर्वं तत्सामात्यपुरोहितः । आसीन्निमग्नो विधृतिः परमानंदसागरे ॥ ४५ ॥ अमात्य एवं पुरोहितसहित वह धैर्यशाली राजा यह सब देखकर परमानन्दसागरमें डूब गया ॥ ४५ ॥ प्रेम्णा वाष्पजलं मुञ्चञ्चन्द्रसेनो नृपो हि सः । शिवनामोच्चरन्प्रीत्या परिरेभे तमर्भकम् ॥ ४६ ॥ महामहोत्सवस्तत्र प्रबभूवाद्भुतो द्विजाः । महेशकीर्तनं चक्रुस्सर्वे च सुखविह्वलाः ॥ ४७ ॥ वह राजा चन्द्रसेन प्रेमसे आँसू बहाता हुआ और 'शिव' नामका उच्चारण करता हुआ प्रेमपूर्वक उस बालकका आलिंगन करने लगा । हे ब्राह्मणो ! उस समय वहाँ बहुत बड़ा उत्सव हुआ । सभी लोग आनन्दसे विभोर हो शिवजीका कीर्तन करने लगे ॥ ४६-४७ ॥ एवमत्यद्भुताचाराच्छिवमाहात्म्यदर्शनात् । पौराणां सम्भ्रमाच्चैव सा रात्रिः क्षणतामगात् ॥ ४८ ॥ इस प्रकार अतीव अद्भुत लीलाओंवाले शिवजीके माहात्म्यको देखनेसे आनन्दमग्न पुरवासियोंकी वह रात्रि क्षणमात्रकी भाँति बीत गयी ॥ ४८ ॥ अथ प्रभाते युद्धाय पुरं संरुध्य संस्थिताः । राजानश्चारवक्त्रेभ्यश्शुश्रुवुश्चरितं च तत् ॥ ४९ ॥ ते समेताश्च राजानः सर्वे येये समागताः । परस्परमिति प्रोचुस्तच्छ्रुत्वा चकित अति ॥ ५० ॥ इसके बाद युद्धके लिये नगरको घेरकर स्थित हुए राजाओंने प्रात:काल होते ही अपने गुप्तचरोंसे यह समाचार सुना । तब जो-जो राजा वहाँ आये हुए थे, वे सब यह सुनकर अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गये और एकत्रित हो आपसमें कहने लगे ॥ ४९-५० ॥ राजान ऊचुः - अयं राजा चन्द्रसेनश्शिवभक्तोति दुर्जयः । उज्जयिन्या महाकालपुर्याः पतिरनाकुलः ॥ ५१ ॥ ईदृशाश्शिशवो यस्य पुर्य्यां संति शिवव्रताः । स राजा चन्द्रसेनस्तु महाशंकरसेवकः ॥ ५२ ॥ नूनमस्य विरोधेन शिवः क्रोधं करिष्यति । तत्क्रोधाद्धि वयं सर्वे भविष्यामो विनष्टकाः ॥ ५३ ॥ तस्मादनेन राज्ञा वै मिलापः कार्य एव हि । एवं सति महेशानः करिष्यति कृपां पराम् ॥ ५४ ॥ राजागण बोले-यह महाकालपुरी उज्जयिनीका अधीश्वर राजा चन्द्रसेन शिवभक्त होनेसे निश्चिन्त तथा दुर्जेय है । जिसकी पुरीमें शिशु भी इस प्रकारके शिवभक्त हैं, वह राजा चन्द्रसेन तो महान् शिवभक्त होगा । निश्चय ही इसके साथ विरोध करनेसे तो शिवजी क्रुद्ध हो जायेंगे और उनके क्रोधसे हम सब लोग विनष्ट हो जायेंगे । इसलिये हमें इस राजासे मेल कर लेना चाहिये । ऐसा करनेपर शिवजी [हमलोगोंपर] महती कृपा करेंगे ॥ ५१-५४ ॥ सूत उवाच - इति निश्चित्य ते भूपास्त्यक्तवैरास्सदाशयाः । सर्वे बभूवुस्सुप्रीता न्यस्तशस्त्रास्त्रपाणयः ॥ ५५ ॥ सूतजी बोले-इस प्रकार निश्चयकर उन राजाओंने वैरभावको त्याग दिया, उनका अन्तःकरण पवित्र हो गया और उन लोगोंने परम प्रसन्न होकर अपने-अपने हाथोंसे अस्त्र-शस्त्रोंका त्याग कर दिया ॥ ५५ ॥ विविशुस्ते पुरीं रम्यां महाकालस्य भूभृतः । महाकालं समानर्चुश्चंद्रसेनानुमोदिताः ॥ ५६ ॥ ततस्ते गोपवनिता गेहं जग्मुर्महीभृतः । प्रसंशंतश्च तद्भाग्यं सर्वे दिव्यमहोदयम् ॥ ५७ ॥ उन राजाओंने महाकालकी रम्य पुरीमें प्रवेश किया और चन्द्रसेनकी आज्ञा लेकर महाकालका भलीभांति पूजन किया । इसके बाद वे सभी राजा ग्वालिनके घर गये और दिव्य तथा महान् समृद्धिवाले उसके भाग्यकी प्रशंसा करने लगे ॥ ५६-५७ ॥ ते तत्र चन्द्रसेनेन प्रत्युद्गम्याभिपूजिताः । महार्हविष्टरगताः प्रत्यनंदन्सुविस्मिताः ॥ ५८ ॥ गोपसूनोः प्रसादात्तत्प्रादुर्भूतं शिवालयम् । संवीक्ष्य शिवलिंगं च शिवे चकुः परां मतिम् ॥ ५९ ॥ चन्द्रसेनके द्वारा उन राजाओंकी अगवानी तथा भलीभाँति पूजा किये जानेके उपरान्त [उसके द्वारा प्रदत्त] बहुमूल्य आसनों में बैठे हुए वे राजागण [शिवजीकी महिमाको देखकर] अत्यन्त विस्मित तथा प्रसन्न हो गये । गोपपुत्रपर हुई कृपासे उत्पन्न हुए शिवालय तथा [उसमें प्रतिष्ठित] शिवलिंगको देखकर शिवजीके प्रति उनकी अगाध श्रद्धा हो गयी ॥ ५८-५९ ॥ ततस्ते गोपशिशवे प्रीता निखिलभूभुजः । ददुर्बहूनि वस्तूनि तस्मै शिवकृपार्थिनः ॥ ६० ॥ येये सर्वेषु देशेषु गोपास्तिष्ठंति भूरिशः । तेषां तमेव राजानं चक्रिरे सर्वपार्थिवाः ॥ ६१ ॥ तब शिवकी कृपा प्राप्त करनेकी अभिलाषावाले उन सभी राजाओंने प्रसन्न होकर उस गोपकुमारको बहुत-सी वस्तुएँ दीं । उन राजाओंने समस्त देशोंमें जोजो बहुत-से गोप रहते थे, उन सबका उसे राजा बना दिया ॥ ६०-६१ ॥ अथास्मिन्नन्तरे सर्वैस्त्रिदशैरभिपूजितः । प्रादुर्बभूव तेजस्वी हनूमान्वानरेश्वरः ॥ ६२ ॥ इसी बीच सभी देवगणोंसे पूजित वानराधिपति तेजस्वी हनुमानजी वहाँ प्रकट हुए ॥ ६२ ॥ ते तस्याभिगमादेव राजानो जातसंभ्रमाः । प्रत्युत्थाय नमश्चकुर्भक्तिनम्रात्ममूर्तयः ॥ ६३ ॥ हनुमान्जीके प्रकट हो जानेसे सभी राजा आश्चर्यचकित हो गये और वे उठकर भक्तिभावसे समन्वित हो उन्हें प्रणाम करने लगे ॥ ६३ ॥ तेषां मध्ये समासीनः पूजितः प्लवगेश्वरः । गोपात्मजं तमालिंग्य राज्ञो वीक्ष्येदमब्रवीत् ॥ ६४ ॥ हनूमानुवाच - सर्वे शृण्वन्तु भद्रं वो राजानो ये च देहिनः । ऋते शिवं नान्यतमो गतिरस्ति शरीरिणाम् ॥ ६५ ॥ उन सभीके बीचमें विराजमान हनुमान्जी उनसे पूजित हो उस गोपपुत्रका आलिंगनकर राजाओंकी ओर देख करके यह कहने लगे- ॥ ६४ ॥ एवं गोपसुतो दिष्ट्या शिवपूजां विलोक्य च । अमंत्रेणापि संपूज्य शिवं शिवमवाप्तवान् ॥ ६६ ॥ हनुमानजी बोले-हे राजाओ ! आप सभी लोग तथा दूसरे देहधारी भी सुनें; जो भी शरीरधारी प्राणी हैं, उनका शरणदाता शिवके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है । इसी प्रकार इस गोपपुत्रने भाग्यसे शिवपूजाको देखकर बिना मन्त्रके ही कल्याणकारी शिवका पूजनकर उन्हें प्राप्त कर लिया ॥ ६५-६६ ॥ एष भक्तवरश्शंभोर्गोपानां कीर्तिवर्द्धनः । इह भुक्त्वाखिलान्भोगानंते मोक्षमवाप्स्यति ॥ ६७ ॥ शिवजीका यह श्रेष्ठ भक्त गोपोंकी कीर्तिको बढ़ानेवाला होगा और इस लोकमें सम्पूर्ण भोगोंको भोगकर अन्तमें मोक्ष प्राप्त करेगा ॥ ६७ ॥ अस्य वंशेऽष्टमो भावी नन्दो नाम महायशाः । प्राप्स्यते तस्य पुत्रत्वं कृष्णो नारायणस्स्वयम् ॥ ६८ ॥ इसके वंशकी आठवीं पीढ़ीमें महायशस्वी नन्द नामक गोप उत्पन्न होंगे; जिनके पुत्ररूपमें श्रीकृष्ण नामसे साक्षात् नारायण ही अवतीर्ण होंगे ॥ ६८ ॥ अद्यप्रभृति लोकेस्मिन्नेष गोप कुमारकः । नाम्ना श्रीकर इत्युच्चैर्लोकख्यातिं गमिष्यति ॥ ६९ ॥ आजसे लेकर यह गोपकुमार इस लोकमें 'श्रीकर' नामसे महती लोकप्रसिद्धि प्राप्त करेगा ॥ ६९ ॥ सूत उवाच - एवमुक्त्वाञ्जनीसूनुः शिवरूपो हरीश्वरः । सर्वान्राज्ञश्चन्द्रसेनं कृपादृष्ट्या ददर्श ह ॥ ७० ॥ अथ तस्मै श्रीकराय गोपपुत्राय धीमते । उपादिदेश सुप्रीत्या शिवाचारं शिवप्रियम् ॥ ७१ ॥ सूतजी बोले-ऐसा कहकर अंजनीपुत्र शिवावतार कपीश्वर हनुमान्जीने सभी राजाओं तथा चन्द्रसेनको कृपादृष्टिसे देखा । इसके बाद उन्होंने बुद्धिमान् गोपपुत्र श्रीकरको प्रेमपूर्वक शिवजीको प्रिय लगनेवाले शिवाचारका उपदेश दिया । ७०-७१ ॥ हनूमानथ सुप्रीतः सर्वेषां पश्यतां द्विजः । चन्द्रसेनं श्रीकरं च तत्रैवान्तरधी यत ॥ ७२ ॥ तं सर्वे च महीपालास्संहृष्टाः प्रतिपूजिताः । चन्द्रसेनं समामंत्र्य प्रतिजग्मुर्यथागतम् ॥ ७३ ॥ हे द्विजो ! उसके अनन्तर अति हर्षित हुए हनुमान्जी सभी राजाओं, चन्द्रसेन तथा श्रीकर आदिके देखतेदेखते वहीं अन्तर्धान हो गये । इसके बाद चन्द्रसेनके द्वारा सत्कृत हो प्रसन्न हुए सभी राजा उनसे आज्ञा लेकर अपने-अपने स्थानको चले गये ॥ ७२-७३ ॥ श्रीकरोपि महातेजा उपदिष्टो हनूमता । ब्राह्मणैस्सहधर्मज्ञैश्चक्रे शम्भोस्समर्हणम् ॥ ७४ ॥ चन्द्रसेनो महाराजः श्रीकरो गोपबालकः । उभावपि परप्रीत्या महाकालं च भेजतुः ॥ ७५ ॥ परम तेजस्वी श्रीकर भी हनुमानजीसे उपदेश पाकर धर्मज्ञ ब्राह्मणोंके साथ शिवपूजन करने लगा । [इस प्रकार महाराज चन्द्रसेन तथा गोपपुत्र श्रीकर दोनों ही बड़ी प्रीतिसे महाकालकी उपासना करने लगे । ७४-७५ ॥ कालेन श्रीकरस्सोपि चन्द्रसेनश्च भूपतिः । समाराध्य महाकालं भेजतुः परमं पदम् ॥ ७६ ॥ कुछ समयके बाद वह श्रीकर तथा राजा चन्द्रसेन भी महाकालकी आराधनाकर परम पदको प्राप्त हुए ॥ ७६ ॥ एवंविधो महाकालश्शिवलिंगस्सतां गतिः । सर्वथा दुष्टहंता च शंकरो भक्तवत्सलः ॥ ७७ ॥ इस प्रकार महाकाल नामक ज्योतिर्लिंग सज्जनोंको शुभ गति देनेवाला, सभी दुष्टोंका वध करनेवाला, कल्याणकारी तथा भक्तोंके ऊपर दया करनेवाला है ॥ ७७ ॥ इदं पवित्रं परमं रहस्यं सर्वसौख्यदम् । आख्यानं कथितं स्वर्ग्यं शिवभक्तिविवर्द्धनम् ॥ ७८ ॥ [हे द्विजो !] मैंने अत्यन्त पवित्र, गोपनीय, सभी प्रकारके सुखोंको देनेवाले, स्वर्गको प्रदान करनेवाले तथा शिवमें भक्तिको बढ़ानेवाले इस आख्यानका वर्णन किया ॥ ७८ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां महाकालज्योतिर्लिंगमाहात्म्यवर्णनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें महाकाल ज्योतिलिंगमाहात्म्यवर्णन नामक सत्रहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |