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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां

अष्टादशोऽध्यायः

ॐकारेश्वरज्योतिर्लिंगमाहात्म्यवर्णनम् -
ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंगके प्रादुर्भाव एवं माहात्म्यका वर्णन -


ऋषय ऊचुः -
त्वया सूत महाभाग श्राविता ह्यद्भुता कथा ।
महाकालाख्यलिंगस्य निजभक्तसुरक्षिकः ॥ १ ॥
ऋषि बोले-हे महाभाग सूतजी ! आपने अपने भक्तजनोंकी रक्षा करनेवाले महाकाल नामक ज्योतिर्लिंगकी अद्‌भुत कथा सुनायी ॥ १ ॥

ज्योतिर्लिंगं चतुर्थं च कृपया वद वित्तम ।
ॐकारं परमेशस्य सर्वपातकहारिणः ॥ २ ॥
हे ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ ! अब कृपा करके ओंकारमें विद्यमान, समस्त पापोंको दूर करनेवाले परमेश नामक चतुर्थ ज्योतिर्लिंगका वर्णन कीजिये ॥ २ ॥

सूत उवाच -
ॐकारे परमेशाख्यं लिंगमासीद्यथा द्विजाः ।
तथा वक्ष्यामि वः प्रीत्या श्रूयतां परमर्षयः ॥
सूतजी बोले-हे द्विजो ! हे महर्षियो । ॐकारमें जिस तरहसे परमेश (अमरेश्वर) नामक ज्योतिर्लिंगकी उत्पत्ति हुई, उसे मैं प्रसन्नतापूर्वक आप लोगोंसे कह रहा हूँ, आपलोग सुनिये ॥ ३ ॥

कस्मिंश्चित्समये चाञ नारदो भगवान्मुनिः ।
गोकर्णाख्यं शिवं गत्वा सिषेवे परभक्तिमान् ॥ ४ ॥
ततस्स आगतो विन्ध्यं नगेशं मुनिसत्तमः ।
तत्रैव पूजितस्तेन बहुमानपुरस्सरम् ॥ ५ ॥
किसी समय महाभक्तिसम्पन्न भगवान् नारदमुनिने गोकर्णेश्वर नामक शिवके समीप जाकर बड़े भक्तिभावसे उनकी सेवा की । इसके बाद वे मुनिश्रेष्ठ वहाँसे विन्ध्यपर्वतपर आये । वहाँ उस श्रेष्ठ पर्वतने बड़े आदरके साथ उनकी पूजा की ॥ ४-५ ॥

मयि सर्वं विद्यते च न न्यूनं हि कदाचन ।
इति भावं समास्थाय संस्थितो नारदाग्रतः ॥ ६ ॥
'मैं सब प्रकारसे पूर्ण हूँ और मुझमें किंचिन्मात्र भी न्यूनता नहीं है' इस अहंभावसे ग्रस्त होकर वह नारदजीके समक्ष खड़ा हो गया ॥ ६ ॥

तन्मानं तत्तदा श्रुत्वा नारदो मानहा ततः ।
निश्श्वस्य संस्थितस्तत्र श्रुत्वाविन्ध्योऽब्रवीदिदम् ॥ ७ ॥
उसके इस प्रकारके अभिमानको देखकर अभिमानको चूर्ण करनेवाले नारदजी नि:श्वास लेकर स्थिर रहे; तब विन्ध्यने यह कहा- ॥ ७ ॥

विन्ध्य उवाच -
किं न्यूनं च त्वया दृष्टं मयि निश्श्वासकारणम् ।
तच्छ्रुत्वा नारदो वाक्यमब्रवीत्स महामुनिः ॥ ८ ॥
विन्ध्य बोला-हे देवर्षे ! आपको मुझमें कौनसी कमी दिखायी दी, जिससे आप निःश्वास लेकर दुखी हो रहे हैं । यह सुनकर उन महामुनि नारदने यह वचन कहा- ॥ ८ ॥

नारद उवाच -
विद्यते त्वयि सर्वं हि मेरुरुच्चतरः पुनः ।
देवेष्वपि विभागोऽस्य न तवास्ति कदाचन ॥ ९ ॥
नारदजी बोले-[हे विन्ध्य !] यद्यपि तुममें सभी प्रकारके गुण हैं, किंतु सुमेरु तुमसे भी ऊँचा है । वहाँ देवगणोंका निवास है, किंतु तुमपर देवगण निवास नहीं करते ॥ ९ ॥

सूत उवाच -
इत्युक्त्वा नारदस्तस्माज्जगाम च यथागतम् ।
विन्ध्यश्च परितप्तो वै धिग्वै मे जीवितादिकम् ॥ १० ॥
विश्वेश्वरं तथा शंभुमाराध्य च तपाम्यहम् ।
इति निश्चित्य मनसा शंकर शरणं गतः ॥ ११ ॥
सूतजी बोले-ऐसा कहकर नारदजी जैसे आये थे, वैसे ही वहाँसे चले गये । तब विन्ध्याचल दुखी हो विचार करने लगा-ओह ! मेरे जीवन आदिको धिक्कार है । अब मैं विश्वेश्वर शिवकी आराधना करते हुए तप करूँगा-इस प्रकार अपने मनमें सोचकर वह शिवजीकी शरणमें गया ॥ १०-११ ॥

जगाम तत्र सुप्रीत्या ह्योंकारो यत्र वै स्वयम् ।
चकार च पुनस्तत्र शिवमूर्तिश्च पार्थिवीम् ॥ १२ ॥
आराध्य च तदा शंभुं षण्मासं स निरन्तरम् ।
न चचाल तपस्थानाच्छिवध्यानपरायणः ॥ १३ ॥
वह प्रसन्नतापूर्वक वहाँ पहुँचा, जहाँ ॐकारेश्वर शिव स्थित थे । उसने वहाँपर शिवकी एक पार्थिव मूर्ति बनायी । छ: महीनेतक लगातार शिवाराधन करते हुए वह शिवध्यानमें लीन रहा और तपःस्थानसे [किंचिन्मात्र] विचलित नहीं हुआ ॥ १२-१३ ॥

एवं विंध्यतपो दृष्ट्‍वा प्रसन्नः पार्वतीपतिः ।
स्वरूपं दर्शयामास दुर्ल्लभं योगिनामपि ॥ १४ ॥
प्रसन्नस्स तदोवाच ब्रूहि त्वं मनसेप्सितम् ।
तपसा ते प्रसन्नोस्मि भक्तानामीप्सितप्रदः ॥ १५ ॥
विन्ध्यके इस तपको देखकर शिवजी प्रसन्न हो गये और उन्होंने योगियोंके लिये भी दुर्लभ अपने स्वरूपका उसे दर्शन कराया । उसके अनन्तर प्रसन्न हुए शिवजीने कहा-मनोभिलषित वर माँगो, मैं तुम्हारे तपसे प्रसन्न हूँ मैं भक्तोंका मनोरथ पूर्ण करनेवाला हूँ ॥ १४-१५ ॥

विन्ध्य उवाच -
यदि प्रसन्नो देवेश बुद्धिं देहि यथेप्सिताम् ।
स्वकार्यसाधिनीं शंभो त्वं सदा भक्तवत्सलः ॥ १६ ॥
विन्थ्य बोला-हे देवेश ! हे शम्भो ! यदि आप [मुझपर] प्रसन्न हैं, तो मेरा कार्य सिद्ध करनेवाली अभिलषित बुद्धि प्रदान कीजिये; आप सदैव भक्तवत्सल हैं ॥ १६ ॥

सूत उवाच -
तच्छ्रुत्वा भगवाञ्छंभुश्चिचेत हृदये चिरम् ।
परोपतापदं विन्ध्यो वरमिच्छति मूढधीः ॥ १७ ॥
किं करोमि यदेतस्मै वरदानं भवेच्छुभम् ।
मद्दत्तं परदुःखाय वरदानं यथा नहि ॥ १८ ॥
सूतजी बोले-यह सुनकर भगवान् शिवजी देरतक अपने मनमें विचार करते रहे कि मूर्ख बुद्धिवाला यह विन्ध्य दूसरोंको दुःख देनेवाला वर चाहता है । अब मैं क्या करूँ, जिससे मेरे वरदानसे इसका कल्याण हो और मेरे द्वारा दिये गये वरसे दूसरोंको पीड़ा न पहुँचे ॥ १७-१८ ॥

सूत उवाच -
तथापि दत्तवाञ् शंभुस्तस्मै तद्वरमुत्तमम् ।
विध्यपर्वतराज त्वं यथेच्छसि तथा कुरु ॥ १९ ॥
एवं च समये देवा ऋपयश्चामलाशयाः ।
संपूज्य शंकरं तत्र स्थातव्यमिति चाब्रुवन् ॥ २० ॥
सूतजी बोले-तथापि शिवने उसे यह उत्तम वरदान दिया, 'हे पर्वतराज विन्ध्य ! तुम जैसा चाहते हो, वैसा करो' । इसी समय देवताओं और विशुद्ध अन्त:करणवाले ऋषियोंने शिवजीकी पूजाकर कहा[हे प्रभो !] आप यहीं स्थित रहें ॥ १९-२० ॥

तच्छुत्वा देववचनं प्रसन्नः परमेश्वरः ।
तथैव कृतवान्प्रीत्या लोकानां सुखहेतवे ॥ २१ ॥
देवगणोंका वह वचन सुनकर हर्षित हुए परमेश्वरने लोककल्याणके लिये प्रेमपूर्वक वैसा ही किया ॥ २१ ॥

ॐ कारं चैव यल्लिंगमेकं तच्च द्विधा गतम् ।
प्रणवे चैव ॐकारनामासीत्स सदाशिवः ॥ २२ ॥
पार्थिवे चैव यज्जातं तदासीत्परमेश्वरः ।
भक्ताभीष्टप्रदौ चोभौ भुक्तिमुक्तिप्रदौ द्विजाः ॥ २३ ॥
ओंकार नामक जो एक लिंग था, वह दो रूपोंमें विभक्त हो गया । प्रणवमें स्थित सदाशिव ॐकारेश्वर नामसे प्रसिद्ध हुए और जो पार्थिवमें प्रकट हुए, वे परमेश्वरके नामसे प्रसिद्ध हुए । हे द्विजो ! वे दोनों ही [लिंग] भक्तोंके मनोरथको पूर्ण करनेवाले तथा भुक्ति और मुक्ति देनेवाले हैं ॥ २२-२३ ॥

तत्पूजां च तदा चक्रुर्देवाश्च ऋषयस्तथा ।
प्रापुर्वराननेकांश्च संतोष्य वृषभध्वजम् ॥ २४ ॥
स्वस्वस्थानं ययुर्देवा विन्ध्योपि मुदितोऽधिकम् ।
कार्य्यं साधितवान्स्वीयं परितापं जहौ द्विजाः ॥ २५ ॥
तब देवताओं एवं ऋषियोंने उनकी पूजा की तथा उन वृषभध्वजको प्रसन्न करके अनेक वरदान प्राप्त किये । इसके बाद देवता अपने-अपने स्थानको चले गये । हे द्विजो ! विन्ध्य भी बहुत प्रसन्न हुआ; उसने अपना कार्य सिद्ध किया और दु:खका परित्याग कर दिया ॥ २४-२५ ॥

य एवं पूजयेच्छंभुं मातृगर्भं वसेन्न हि ।
यदभीष्टफलं तच्च प्राप्नुयान्नात्र संशय ॥ २६ ॥
हे द्विजो ! जो इस प्रकार शिवकी पूजा करता है, वह माताके गर्भमें पुनः निवास नहीं करता और उसका जो भी अभीष्ट फल है, उसे प्राप्त कर लेता है । इसमें संशय नहीं है ॥ २६ ॥

सूत उवाच -
एतत्ते सर्वमाख्यातमोंकारप्रभवे फलम् ।
अतः परं प्रवक्ष्यामि केदारं लिंगमुत्तमम् ॥ २७ ॥
सूतजी बोले-इस प्रकार मैंने ॐकारेश्वरका सम्पूर्ण माहात्म्य आपलोगोंसे कहा; अब इसके अनन्तर केदारेश्वर नामक श्रेष्ठ ज्योतिर्लिंगका वर्णन करूँगा ॥ २७ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायामों
ॐकारेश्वरज्योतिर्लिंगमाहात्म्यवर्णनं नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें ओंकारेश्वर ज्योतिलिंगमाहात्म्यवर्णन नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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